Book Title: Swarnagiri Jalor
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Prakrit Bharati Acadmy

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Page 89
________________ जालोर में रचित साहित्य __ जैन धर्म में ज्ञान-दर्शन-चारित्र त्रिरत्न को मोक्ष का मार्ग बतलाया है। स्वर्णगिरि-जालोर तीर्थ इनकी सम्यक् आराधना में गत दो सहस्राब्दी से अग्रणी रहा है। विश्व साहित्य में आदरणीय स्थान पाने वाले महान ग्रन्थों का यहाँ निर्माण हुआ, दर्शन के आधारभूत महान जिनालयों के निर्माण कार्य विक्रम की दूसरी शती से अब तक अनवरत होता रहा। भारत पर यवन राज्य ग्रहण से ग्रसित हो अनेक पावन जिनालय भूमिसात् कर दिए गए पर समय-समय पर जीर्णोद्धार-नव निर्माण द्वारा आज भी भव-समुद्र से तिराने वाले तीर्थ के रूप में आज भी यह पवित्र तीर्थ गौरवान्वित है। यहाँ महान जैनाचार्यों ने विचरण कर अपने चरण रज से पवित्र किया, अनेक नव्य जैनों को प्रतिबोध दिया और अपने सारभूत उपदेशों को अक्षर देह-ग्रन्थ रूप में निर्माण कर भावी पीढी के लिए प्रकाशस्तभ स्थापित किये। राजस्थान में चित्तौड़ और भिन्नमाल की भाँति जालोर-स्वर्णगिरि भी श्रुत-ज्ञान की सेवा में अग्रणी रहा है। यहाँ उन महान् ग्रन्थों का संक्षेप में परिचय दिया जा रहा है। (१) कुवलयमाला विश्व साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में अपना स्थान प्राप्त करने वाले कुवलयमाला ग्रन्थ की रचना भी जावालिपुर-जालोर में हुई। वि० सं० ८३४ ( शक सं० ६९९ ) के अन्तिम दिन में उद्योतनसूरि नामक जैनाचार्य ने अपना नाम दाक्षिण्यांकसूरि रख कर इसकी रचना की है। यह ग्रन्थ प्राकृत साहित्य का एक अमूल्यरत्न है इसकी रचना बाण की कादम्बरी और त्रिविक्रम की दमयन्ती कथा की भाँति चम्पू शैली में है। इस मनोरम कृति में प्राकृत भाषा के अतिरिक्त अपभ्रश और पैशाची भाषा में भी किए हुए वर्णन भाषाशास्त्र की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी हैं। अपभ्रंश भाषा के उदाहरण सर्वप्राचीन हैं और अठारह देशों में प्रयुक्त होने वाली भाषा का आभास मिलता है। कवि ने अपने से पूर्ववर्ती पादलिप्त, सातवाहन, षटपर्णक, गुणाढ्य व्यास, वाल्मीकि, बाण, विमलाङ्क, दि. रविषेण, देवगुप्त, प्रभंजन और भव-विरह ( हरिभद्र ) आदि कवियों को भी स्मरण किया है।

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