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नाहड़ राजा के समय में बने हुए 'यक्षवसति' नामक प्रासाद में श्री महावीर स्वामी की स्तवना करो ।
श्री
सूरि की विचार श्रेणि के अनुसार यह नाहड़ राजा विक्रमादित्य की चौथी पीढी में हुआ था जिसका राज्य काल वि० सं० १२६ से १३५ था । इस से यक्षवसति का निर्माणकाल सं० १२६ से १३५ के बीच का निश्चित होता है । 'कालीणं' के पाठान्तर में 'कारियं' शब्द भी मिलता है जो नाहड़ द्वारा निर्माण कराने का सूचक है ।
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उपर्युक्त गाथा से फलित होता है कि सुवर्णगिरि पर करोड़पति लोग निवास करते थे जो अधिकांश जैन थे । जो करोड़पति नहीं थे वे पहाड़ के नीचे बसे हुए नगर में निवास करते होंगे । पहाड़ की उपत्यका में बसे हुए नगर का नाम जाबालिपुर - जाल्योधर और जालोर नाम से प्रसिद्ध रहा है ।
आज का जालोर प्राचीन काल में जाबालिपुर कहलाता था जिसका प्राचीन उल्लेख 'कुवलयमाला' ग्रन्थ की प्रशस्ति में मिलता है । श्री दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरि ने विक्रम संवत् ८३५ में जाबालिपुर में श्री वीरभद्र द्वारा कारापित श्री ऋषभदेव प्रासाद में वह ग्रन्थ रच कर पूर्ण किया । अर्थात् सं० ८३५ से पूर्व यहाँ श्री ऋषभदेव जी का मन्दिर विद्यमान था और उस समय उत्तुंग जिनालयों से सुशोभित और श्रावकों की बस्ती से भरपूर समृद्धिशाली नगर था । कुवलयमाला ग्रन्थ की प्रशस्ति में इस प्रकार लिखा है
तुंगमलंघं जिण भवण मणहरं सावयाउलं विसयं । जाबालिपुरं अट्ठावयं व अह अत्थी पुहबीए ॥१८॥
तुरंगं धवलं मणहारि रयण पसरंत धयवडा डोवं । उसह जिणिदायतणं करावियं वीरभद्देण ॥ १९ ॥
तत्यट्ठिएण जह चोहमीए चेत्तस्स कन्ह वक्खमि । णिम्मविआ बोहिकरो भव्वाणं होउ सव्वाणं ||२०||
श्री उद्योतनसूरि ने यह भी लिखा है कि उस समय वहाँ वत्सराज' नामक प्रतिहारवंशी राजा राज्य करता था । इसका राज्यकाल डा० स्मिथ ने सं० ८२६ से ८५६ का निश्चित किया है, जोकि 'कुवलयमाला' के रचना समय से समर्थित है । नौंवी शती में जाबालिपुर - जालोर उन्नत अवस्था में था ।
इन गाथाओं में हमें वीरभद्र कारित जिनालय का परिचय मिलता है जो अष्टापद जैसा था । आबू की लूणिग-वसही के सं० १२९६ के शिलालेख से [ ७