Book Title: Swarnagiri Jalor
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Prakrit Bharati Acadmy

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Page 99
________________ ॥ हा॥ कणयाचल जणि जाणीइ, ठाम तणउ जावालि । तहीं लगइ जगि जालहुर, जण जंपइ इणि कालि ॥५॥ विषम दुर्ग सुणीइ घणा, इसिउ नही आसेर । जिसउ जालहुर जाणीइ, तिसउ नहीं ग्वालेर ॥६॥ चित्रकूट तिसउ नहीं, तिसु जिसउ जालहुर जाणीइ, तिसउ नहीं चांपानेर । नहीं भांभेर ॥७॥ मांडवगढ तिसउ जिसउ जालहुर नहीं, जाणीइ, तिसउ तिसउ नहीं नहीं सालेर । मूलेर ॥८॥ ॥चउपई॥ वसइ नगर गिरि ऊपरि घणउँ, किसूवर्णवउं तलहटी तणउं । वेद पुराण शास्त्र अभ्यसइ, इस्या विप्र तिणि नयरी वसइ ॥९॥ विद्यावाद विनोद अपार, विनय विवेक लहइ सुविचार । राजवंश वसइ छत्रीस, छिन्नू गुण लक्षण बत्रीस ॥१०॥ चाहूआण राउ तिणिठाइ, अबला विप्र मानीइ गाइ । छत्रीसइ दंडायुध धरइ, हीण कर्म को नवि आचरइ ॥११॥ च्यारि वर्ण उत्तम जाणीया, विवहारीया वसइ वाणीया । वुहरइ वीकइ चालइ न्याय, देसाउरि करइ विवसाय ॥१२॥ जलवट थलवट चिहुं दिसि तणी, वस्त विदेसी आवइ घणी। वीसा दसा विगति विस्तरी, एक श्रावक एक माहेसरी ॥१३॥ फडीया दोसी नइ जवहरी, नामि नेस्ती कामइ करी। विविध वस्तु हाटे पामीइ, छत्रीसे किरीयाणां लीइ ॥१४॥ नगरि मांडवी वारु पीठ, आछी षेरा चोल मंजीठ । पाडसूत्र पटुआ सालवी, वुहरइ वस्त अणावइ नवी ॥१५॥ ७४ ]

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