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जालोर में विभिन्न गच्छ और शासन
प्रभावनाएं
खरतर गच्छ
ग्यारहवीं शताब्दी में चैत्यवासियों का शिथिलाचार चरम सीमा पर पहुंच गया था। राज्याश्रय प्राप्त गुजरात तो उनका अमेद्य दुर्ग था, जहां सुविहित साधुओं का प्रवेश भी अशक्य था। जैन धर्म की अस्तित्व रक्षा के लिए सुविहित साध्वाचार और विधि-मार्ग की प्रतिष्ठा को नितान्त आवश्यक समझ कर दिल्ली की ओर से श्री वर्धमानसूरिजी अपने जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि आदि १८ शिष्यों के साथ गुजरात की ओर बढे। उन्होंने मार्गवर्ती स्वर्णगिरि-जालोर की पावन तीर्थ भूमि को सुविहित मार्ग प्रचार की उर्वरा भूमि ज्ञात कर उस पर ध्यान केन्द्रित किया और पाटन में दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासियों को पराजित कर उनकी रीढ तोड़ दो, अब सर्वत्र उन्मुक्त साधुविहार होने लगा । वे लोग गुजरात से विहार कर पुनः जालोर आये और यहां चातुर्मास कर के विधि-मार्ग को परिपुष्ट किया। श्री जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागरसूरि, संवेगरंगशाला कर्ता श्री जिनचन्द्रसूरि आदि यहाँ अनेकशः विचरे, चातुर्मास किए, महान ग्रन्थों का निर्माण किया। उनके शिष्य गण भी यहाँ विचरते रहे। सोमचंद्र गणि (श्री जिनदत्तसूरि ) यहां अनेकशः विचरे थे। उन्हें श्री जिनवल्लभसूरिजी के पट्ट पर आचार्य प्रतिष्ठापित करने का निर्णय भी यहीं सात आचार्यों ने मिल कर लिया था। क्योंकि वे भावी युगप्रधान और सर्वथा योग्य होने के साथ-साथ श्री जिनेश्वरसूरिजी के शिष्य धर्मदेवोपाध्याय के शिष्य थे। वृद्धाचार्य प्रबन्धावली जो युगप्रधानाचार्य गुर्वावली के पृ-९२ में प्रकाशित है में श्री जिनदत्तसूरिजी की पद-स्थापना निर्णयका इस प्रकार उल्लेख हैं
"जिणवल्लहसूरि पदे अन्ने सत्तायरिया जालउर नगरंमि मिलिऊण मंतं इह कयं । समग्ग संघ गच्छ परिवारिया बीयं भट्टारगं करिस्सामि, जिणवल्लहसरि पट्टे। तओ दक्खिण देसे देवगिरि नगरे जिणदत्तगणी चउमासी ठियो अत्थि, तं सपभावगं गीयत्थं पट्ट जुग्गं जाणिऊण संघेहि आहूओ। पट्ट ठवणा दो मुहुत्ता गणिया तओ संघ पत्थवणा वसाओ जिणदत्त गणी चलिओ।
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