Book Title: Swarnagiri Jalor
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Prakrit Bharati Acadmy

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Page 72
________________ तस्या घस्तानगर मपरः स्वर्ग एवास्तियस्य, प्रौढेभ्यानां भवन निकरै वस्तमाना विमानाः । क्वाप्येकान्ते कृत वसतयः सज्जलज्जाभिभूता, भूमी पीठा वतरण विधौ पङ्गता माश्रयन्ति ॥३७॥ पट्टावली समुच्चय में लिखा है कि जोधपुर नरेश के मुख्य मान्य जयमल्ल ने सं० १६८१ चातुर्मास के बाद श्री विजयदेवसूरिजी को सिरोही से जालोर बुलाकर उपरा ऊपरी तीन चौमासे कराके अपने बनवाये हुए सुवर्णगिरि के चैत्यों की प्रतिष्ठा करवायी। सं० १६८४ पो. सु. ६ को गणानुज्ञा का नंदि महोत्सवादि किया। श्री विजयसिंहसरिजी ने सं० १७०४ में जैतारण चातुर्मास कर अहमदाबाद जाते हुए मार्ग में स्वर्णगिरि तीर्थ की यात्रा की। सं० १६८६ प्रथम आषाढ़ बदि ५ को मंत्री जयमल्लजी ने जालोर में प्रतिष्ठा कराई थी। श्री पद्मप्रभस्वामी की प्रतिमा नाडोल के रायविहार में स्थापित की जिसका लेख जिनविजयजी के प्राचीन जैन लेख संग्रह के लेखांक ३६७ में प्रकाशित है। जालोरी गच्छ जालोर के प्राचीन नामों में जाल्योद्धर-जाल्लोधर भी पाया जाता है । जैन साहित्य संशोधक वर्ष ३ अंक १ में चौरासी गच्छों के नामों की दो सूचियां छपी है जिनमें एक जालोरी गच्छ भी है। नगरों के नाम से अनेक गच्छ और जाति-गोत्र पाये जाते हैं उसी प्रकार इस प्राचीन और महत्वपूर्ण स्थान के नाम से प्रसिद्ध गच्छ के कतिपय प्रतिमा लेख पाये जाते हैं। यहाँ उन लेखों को उद्धत किया जाता है१. १ सं० १३३१ मोढ ज्ञातीय परी० महणाकेन निज माता''जाल्हण देवि श्रेयोऽथ श्री पार्श्व बिम्बं कारितं ॥ प्रतिष्ठितं श्री जाल्योधर गच्छे श्री हरि प्रभसूरिभिः [प्राचीन जैन लेख संग्रह नं० ४८३ ] २. ६०॥ संवत् १३४९ वर्षे चैत्र बदि ६ रवौ मोढ ज्ञातीय परी० पूना सुत परी० तिहुणाकेन भ्रातृ महणा श्रेयोऽर्थ श्री महावीर बिबं कारितं ॥ प्रतिष्ठितं श्री जोल्योधर गच्छे श्री देवसूरि संताने श्री हरिभद्रसूरि शिष्यः श्री हरिप्रभसूरिभिः शुभंमवतु [प्रा. जै० ले० सं० ४८४ ] [ ४७

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