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सं० १७०० में आचार्य श्री कल्याणसागरसरि जालोर पधारे। चंडीसर गोत्रीय सेलोत जोगा मंत्री ने महामहोत्सव पूर्वक नगर प्रवेश कराया। आचार्य श्री ने मंत्र प्रभाव से महामारी रोग दूर किया। अन्य दर्शनी लोगों ने भी सम्यक्त्व स्वीकार किया। स० १७०० का चातुर्मास जालोर हुआ।
तपागच्छ
उदयपुर के शीतलनाथ जिनालय स्थित धर्मनाथ प्रतिमा के अभिलेख से विदित होता है कि जालोर में श्री लक्ष्मीसागरसरिजी ने इसकी सं० १५४२ में प्रतिष्ठा कराई थी। यह बिंब प्राग्वाट कुटुम्ब द्वारा निर्मापित है इसका निम्न लेख नाहरजी के लेखाङ्क ११०० में व श्री विजयधर्मसूरिजी के लेखाङ्क ४८१ में छपा है।
सं० १५४२ वर्षे फा० ब० २ दिने जालउर महादुर्गे प्राग्वाट ज्ञातीय सा० पोष भा० पोमादे पुत्र सा० जेसाकेन भा० जसमादे भ्राता लाखादि कुटुब युतेन स्व श्रेयोऽर्थ श्री धर्मनाथ बिंबकारितं प्र० तपा० श्री सोमसुन्दरसूरि संताने विजय मान श्री लक्ष्मीसागर सूरिभिः ।। श्रियोस्तु ॥
जहांगीर बादशाह का फरमान लेकर जब मुकरबखान गुजरात जा रहा था तो जब वह रास्ते में जालोर पहुंचा तो उपाध्याय श्री भानुचंदजी उससे जाकर मिले और श्री सिद्धिचंदजी को उसके साथ अहमदाबाद भेजा ( जैन सत्य प्रकाश वर्ष ५ पृ० २१७)।
विजयसिंहसरि विजय प्रकाश रास में जालोर को मारवाड़ के ९ कोटों में तीसरा कोट बतलाया है -
"बीजो अर्बुद गढ ते जाण्यो, बीजउ गढ जालोर वखाण्यो ॥२७॥
जब आचार्य महाराज वरकाणा तीर्थ पधारे तब जालोर का संघ उन्हें वन्दनार्थ गया था यतः
जंगम पावर तीर्थ दोइ मिलिया वरकाणइ ।
जालोरउ संघ बंदवा आष्यो जग जाणइ ॥८॥
जालोर नगर के तपावास स्थित श्री नेमिनाथ जिनालय में सं० १६६५ में प्रतिष्ठित जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरिजी महाराज की सुन्दर प्रतिमा है ।
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