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पार्श्वनाथ मूलनायक युक्त 'श्री कुवर विहार' नामक जिनालय में सद्विधि प्रवत्तित रहे इसलिए वृहद् गच्छीय वादीन्द्र श्री देवाचार्य के पक्ष-समुदाय को सदा के लिए सौंपा । फिर सं० १२४२ में देशाधिपति चौहान श्री समरसिंहदेव की आज्ञा से भां० ( मांडागारिक-भडारी या भडशाली ) पांसू के पुत्र भां० यशोवीर ने इसका समुद्धार किया। फिर सं० १२५६ ज्येष्ठ सूदि ११ के दिन राजाज्ञा से श्री देवाचार्य के शिष्य पूर्णदेवाचार्य ने पार्श्वनाथदेव के तोरणादि की प्रतिष्ठा की और मूल शिखर पर स्वर्णमय दण्ड-कलश और ध्वजारोपण की प्रतिष्ठा की। फिर सं० १२६८ में दीपावली के दिन नवीन निर्मित प्रेक्षामण्डप की प्रतिष्ठा भी पूर्णदेवसूरि के शिष्य श्री रामचन्द्रसूरि ने स्वर्णमय कलशों की स्थापनाप्रतिष्ठा की।
वादि देवसूरि के प्रशिष्य और जयप्रभसूरि के शिष्य कविरामभद्र ने 'प्रबुद्धरौहिणेय' नामक सुन्दर नाटक की रचना इसी यशोवीर के निर्मापित आदिनाथ जिनालय में यात्रोत्सवादि में खेलने के लिए की थी। इसके प्रारम्भ में ही सूत्रधार के मुंह से यशोवीर की निम्न वाक्यों द्वारा प्रशंसा की है। सूत्रधार श्री चाहमाना समान लक्ष्मीपति पृथुल वक्षस्थल कौस्तुमायमान निरुपमान गुण गण प्रकषौ श्री जैन शासन समभ्युन्नति विहिता सपत्न प्रयत्नोत्कषौं प्रोद्दाम दान वैभवोद्भ विष्णु कीति केतकी प्रबल परिमलोल्लास वासिता शेष दिगन्तरालौ कि वेत्सि श्री मद्यशोवीर-श्री अजयपालौ ?
यौ मालती विच किलोज्ज्वल पुष्पदन्तौ श्री पार्श्वचन्द्र कुल पुष्कर पुष्प दन्तौ राजप्रियौ सतत सर्वजनीन चित्तौ
कस्तो न वेत्ति भुवनाद्भुत वृत्त चित्तौ ॥ इस अवतरण से विदित होता है कि यशोवीर के जैसा ही गुणवान उसके अजयपाल नामक लघु भ्राता था। ये दोनों समरसिंह देव के अत्यन्त प्रीतिपात्र और सर्वजन हितैषी व जैन धर्म की उन्नति के अभिलाषी व दानी थे।
उस समय जालोर में यशोवीर नाम के तीन धर्मधुरन्धर, राजनीतिज्ञ व नामांकित व्यक्ति थे उपर्युक्त प्रथम लेख के यशोवीर श्रीमाल थे और यशोदेव के पुत्र थे। दूसरे ये भां० पासू (पार्श्वचंद्र ) के पुत्र थे। तीसरे यशोवीर धर्कट उदयसिंह के पुत्र थे और दुःसाध उपाधि वाले महामंत्री थे। इसी समरसिंह चौहान के उत्तराधिकारी उदयसिंह के मंत्री थे जिनके अभिलेखादिसह विशेष परिचय इसी लेख में अन्यत्र दिया गया है। ये महामात्य के परम मित्र थे।
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