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ओ गणबी मुहूत जालउर दुग्गे एगारह सयइ गुणहत्तरे वरिसे जिणदत्तवास्तव में यह पद स्थापना चित्तौड़ में हुई थी
पिट्टे विओ व संह | किन्तु निर्णय जालोर में हुआ था ।
पाठक रघुपति कृत जिनदत्तसूरि छन्द ( गा०-३५ सं० १८३९ में रचित ) में आपके द्वारा बोथरा वंश प्रतिबोध का उल्लेख :
जालोर नयरे मरो जमाणी, सगर नृप चहुआण ए
तसु पुत्र बोहिथ तेण गुरू पय प्रणमिया गुण जाण ए जीवायै करि जाप जिणदत्त जैन धर्म सभंत ए जिनदत्तसूरीस सद्गुरु सेवतां सुख संत ए ॥१८॥
यह वर्णन बहुत बाद का है, पर श्री जिनदत्तसूरिजी ने अवश्य ही जालोर में विचरण किया था । श्री पूज्य जी के दफ्तर में बच्छावत वंशावली में देवड़ा सोनिगरा गोत्रीय सामंतसी के चतुर्थ पुत्र सगर को पुत्र बोहित्थ से बोहिथरा गोत्र होना लिखा है ।
श्रीमाल जाति का सोनगिरा गोत्र जालोर से सम्बन्धित और खरतरगच्छ प्रतिबोधित है जिसके वंशज माण्डवगढ़ के सुप्रसिद्ध मण्डन और धनराज आदि विद्वान और धनाढ्य, राजमान्य व्यक्ति थे ।
सौभाग्य से युग प्रधानाचार्य गुर्वावली में जालोर के तिमिराच्छन्न इतिहास पर सम्यक् प्रकाश डालने वाले स्वर्णिम पृष्ठ उपलब्ध हैं जो अत्यन्त विश्वस्त और प्रमाणिक हैं यहाँ उन प्राचीन प्रमाणों का उल्लेख किया जा रहा है ।
श्री जिनपतिसूरि
सं० १२६९ में जावालिपुर के विधि चैत्यालय में मंत्रीश्वर कुलधर द्वारा निर्मापित श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा को बड़े भारी समारोह पूर्वक श्री जिनपतिसूरि जी ने स्थापित किया । श्री जिनपाल गणि को उपाध्याय पद से अलंकृत किया एवं प्रवत्तनी धर्मदेवी को महत्तरा पद दिया गया और उसका नाम प्रभावती प्रसिद्ध किया । यहीं पर महेन्द्र, गुणकीत्ति, मानदेव नामक साधु और चन्द्रश्री, केवलश्री साध्वियों को दीक्षा देकर आचार्य प्रवर श्री जिनपतिसूरिजी महाराज विक्रमपुर पधारे ।
१. प्रशस्ति संग्रह पृ० ४६ में सूरत स्थित मोहनलालजी महाराज के ज्ञान भण्डार की सं० १५४६ लिखित स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र की गा० ४८ की प्रशस्ति प्रकाशित है जिसमें राठौड़ जयचंद्र ने छाजहड़ वंश के उद्धरण कुलधर
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