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श्री धर्मप्रभसूरि-भिन्नमाल से व्यापार हेतु जावालिपुर में आकर वसने वाले सेठ लींबा-वीजलदे माता के ये पुत्र थे। इनका जन्म सं० १३३१ और दीक्षा १३४१ में हुई। ये देवेन्द्रसिंहसूरि के शिष्य थे। श्री देवेन्द्रसिंहसूरि एक वार विचरते हुए जालोर पधारे। राज्य मंत्री लालन सेवाजी ने प्रवेशोत्सव किया। सं० १३४१ का चातुर्मास संघाग्रह से जालोर में हुआ। धर्मचंद्र ने प्रतिबोध पाकर माता-पिता की आज्ञा से जालोर में दीक्षा ली। इनको सं० १३५९ में आचार्य पद मिला। कविवर कान्ह के अनुसार इनका सूरि पद भी जालोर में ही हुआ था।
सिरि धम्मपहसूरि गुरु, भीनवालि अइ रम्मु, लींबाकुलि वीजल उयरे, तेर इगतीसइ जम्मु ॥७९॥ तेर इगतालइ मुनि पवरो, महिम महोदधि सार,
अगुणसठइ जालउरि हुउ, आचारिज सुविचार ॥८॥ सं० १४४५ में आचार्य पद पाने वाले आचार्य मेरुतुगसूरिजी के विहार वर्णन में उनके जालोर में विचरने का भी उल्लेख आया है। चक्रेश्वरी देवी की सूचना से दिल्ली पर भारी संकट ज्ञात कर मेरुतुगसूरि की आज्ञा से दिल्ली छोड़ कर आने वाले श्रावकों में देवाणंद शिखा गोत्र के श्रावक जालोर आकर वसे थे ।
अंचलगच्छ दिग्दर्शन में गोत्र प्रतिबोध के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है___सं० ७१३ में जालोर के सोनगिरा सोढा वंश का कान्हड़ दे नामक सोलंकी राजपूत राज्य करता था। स्वाति आचार्य के उपदेश से उसने जैन धर्म स्वीकार किया और जालोर में चन्द्रप्रभ स्वामी का जिनालय निर्माण कराया, उसके वंशजों ने जैन धर्म की बड़ी सेवाएं की और लालन गोत्र हुआ [पृ० ७८ ]
सं० १२५५ में जेसलमेर में जयसिंहसूरि द्वारा प्रतिबोधित देवड़ नामक चावड़ा राजपूत से बने ओसवाल के पुत्र झामर ने जालोर में एक लाख सत्तर हजार टंक खरच के श्री आदिनाथ प्रभु का शिखरबद्ध प्रासाद कराया, वस्त्रादि की लाहण की, बन्दीजनों को छुड़ाया। देवड़ा, देढिया गोत्रीय ओसवाल इसी वंश के हैं।
सं० १२५२ में धर्मघोषसूरि के समय पूर्व दिशा के कान्तिनगर में दहिया राजपूत जाति के हेमराज और खेमराज दो भाई थे। हेमराज वहां का राजा
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