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अति हो गई । उसी दिन से भगवान् महावीर का स्मरण-चन्दनपूजन आदि अधिक रूप से करने लगा ।
विद्याभ्यास समाप्त होने के बाद भगवान् महावीर के सम्बन्ध मे कुछ लिखने की भावना मुखरित हुई और मैने गुजराती भाषा मे बालभोग्य शैली मे 'प्रभु महावीर' नामक एक लघु चरित्र लिखा । विद्यार्थिओं को वह प्रिय लगा तथा वम्बई के 'श्री जैन श्वेताम्वर एज्यूकेशन बोर्ड' ने उसे धार्मिक अभ्यासक्रम मे जोड लिया । इसी -के फलस्वरूप उसको आज तक नो आवृत्तियाँ हो चुकी हैं ।
इसके पश्चात् सर्वोपयोगी ढंग से गुजराती भाषा मे 'विश्ववन्धु प्रभु महावीर' नामक एक छोटी पुस्तिका लिखी तथा उसकी एक ही वर्ष मे १००००० एक लाख (प्रतियाँ) समाज के करकमलों मे प्रस्तुत की । उसकी द्वितीय आवृत्ति गत वर्ष मे प्रकाशित हुई और केवल एक ही दिन मे उसकी ११००० ग्यारह हजार प्रतियां हाथो हाथ बिक गई ।
विगत दश वारह वर्षों मे भगवान् महावीर के सम्बन्ध मे पढ़नेविचारने तथा लिखने के प्रसग अत्यधिक आये और उनकी उपासना तो कई वर्षो से अनवरत चल ही रही थी । इस हालत मे मेरे अन्तर मे भगवान् महावीर के वचनों के प्रति श्रद्धा, प्रेम और विश्वास की भावना अति दृढ वन गई ।
भगवान् महावीर के वचन वस्तुतः अमृततुल्य हैं, क्योंकि ये विषय और कषायरूपी विष का शीघ्र शमन करते हैं और इनकी पान करने वाले को अलौकिक आनन्द प्रदान करते हैं। साथ ही इन मे जीवन-शोधन की पर्याप्त सामग्री भरी हुई है, अतः सभी