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सम्पादकीय
भगवान् महावीर के वचनो के प्रति श्रद्धा, प्रेम और विश्वास की दृढता मेरे जीवन में किस प्रकार उद्भत हुई, इस सम्बन्ध में यदि यहां थोडा-सा उल्लेख किया जाय, तो अनुचित नही होगा।
जैन कुटुम्ब में उत्पन्न होने के कारण भगवान् महावीर का नाम तो शैशवावस्था में ही श्रवण किया था तथा चौबीस तीर्थकरो के नाम कण्ठस्थ करते-करते वह हृदय-पटल पर अङ्कित हो गया था। तदनन्तर मेरी धर्म-परायण माता ने महावीर-जीवन के कतिपय प्रसङ्ग सुनाये उससे मै अत्यन्त प्रभावित हुआ था, किन्तु उस समय मेरी आयु बहुत छोटी थी, मेरा ज्ञान अति अल्प था।
चौदह-पन्द्रह वर्ष की अवस्था में मेरी जन्मभूमि (सौराष्ट्र के 'दाणावाडा' गांव) में मेरे दाहिने पैर मे एक सर्प ने दंश दिया, तब 'महावीर-महावीर' नाम रटने से ही पुनर्जीवन प्राप्त किया था।
फिर अहमदाबाद मे रहते हुए विद्याभ्यास के दिनो मे एक वार पयुषण-पर्व के समय गुरुमुख से भगवान् महावीर का चरित्र मैने आद्योपान्त सुना और मेरे मन मे उनकी एक मङ्गलमयी मूर्ति