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[ १६ ] से आर्थिक पुण्य पाप और सामाजिक उच्चता तथा नीचता का समर्थन नहीं होता यह बात किसी भी कर्मशास्त्र के अभ्यासी से छिपी हुई नहीं है। उसने इनका महत्त्व मात्र आध्यात्मिक दृष्टि से माना है, तभी तो वह उच्चगोत्र और नीचगोत्र इनका समावेश जीवविपाकी कर्मों में करता है। मेरा तो स्पष्ट ख्याल है कि भाष्य की रचना जितनी पुरानी सोची जाती है उतनी पुरानी नहीं है। वह ऐसे समय में ही रचा गया है जबकि भारतवर्ष में जातीयता
आकाश को छूने लगी थी और जैनाचार्य भी अपने आध्यात्मिक दर्शन के महत्त्व को भूलकर ब्राह्मण विद्वानों के पिछलग्गू बनने लगे थे। ___ एक बात और है। दूसरे अध्याय में २१ औदयिक भाव का निर्देश करते हुए 'लिङ्ग' शब्द आया है। वहाँ इसका 'तीन वेद' अर्थ लिया गया है। इसके बाद यह 'लिङ्ग' शब्द दो जगह पुनः
आया है-एक तो नौवे अध्याय के 'संयम प्रतिसेवना' इत्यादि सूत्र में और दूसरे दसवें अध्याय के अन्तिम सूत्र में। मेरा ख्याल है कि सूत्र में एक स्थल पर पारिभाषिक जिस शब्द का जो अर्थ परिगृहीत है वही अर्थ अन्यत्र भी लिया जाना चाहिये। किन्तु हम देखते हैं कि तत्त्वार्थाधिगम भाष्यकार इस तथ्य को निभाने में असमर्थ रहे । ऐसी एक दो त्रुटियाँ तद्यपि सर्वार्थसिद्धि में भी देखने को मिलती हैं और इन टीकाओं के आधार से आज तक इन त्रुटियों की पुनरावृत्ति होती आई है। हम भी उनसे बाहर नहीं हैं। पर तत्त्वार्थाधिगम भाष्य के कर्ता को सूत्रकार मान लेने पर उनकी यह जबाबदारी विशेषरूप से बढ़ जाती है। किन्तु वे इस जबाबदारी को निभाने में असमर्थ रहे क्योंकि उन्होंने दूसरे अध्याय में 'लिङ्ग' शब्द की जो परिभाषा दी है, जो कि मूल सूत्र से भी फलित होती है उसका वे सर्वत्र निर्वाह नहीं कर सके. और नौंवें अध्याय के