________________
[ १५ ]
पाये जाते हैं उनकी सर्वार्थसिद्धि में भी कमी नहीं है। एक बात अवश्य है कि मूल सूत्रों की क्रमबार रचना के साथ-साथ इन दोनों टीकाओं की रचना हुई होगी यह इनके देखने से सिद्ध नहीं होता, प्रत्युत इनके देखने से यही ज्ञात होता है कि पूरे तत्त्वार्थसूत्र को सामने रखकर ये टीकायें लिखी गई हैं । यदि सर्वार्थसिद्धि में एक दो पाठभेद पाये जाते हैं तो ऐसे पाठ भेदों की तत्त्वार्थाधिगम भाष्य में कमी नहीं है । अन्तर केवल इतना है कि सर्वार्थसिद्धि में ऐसे पाठभेद का उल्लेख स्पष्टतः किया है और तत्त्वार्थाधिगम भाष्य में टीका लिखते समय उसे नजरंदाज कर दिया है । उदाहरणार्थ दूसरे अध्याय के अन्तिम सूत्र के भाष्य में प्रथम तो उत्तम पद को व्याख्या कर दी किन्तु बाद में उसे छोड़ दिया । इसी प्रकार चौथे अध्याय के २६ वें सूत्र में लौकान्तिकों के नाम तो नौ गिनाए पर भाष्य में एक नाम छोड़ दिया। फिर भी आश्चर्य यह है कि उत्तरकाल में वाचक उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता माने जाने लगे। हमने इस विषय की गहराई से छानबीन की है। उससे हम तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि तत्त्वार्थाधिगम भाष्यकार और तत्त्वार्थसूत्रकार एक व्यक्ति नहीं हैं।
यह तो मानी हुई बात है कि तन्वार्थसूत्र के कर्ता आगम के गहरे अभ्यासी रहे हैं, इसके बिना इतने प्रांजल और व्यवस्थित ग्रन्थ का निर्माण होना कभी भी सम्भव नहीं है पर तत्त्वार्थाधिगम भाष्य के आलोढन से यह पता नहीं लगता कि ये जैनधर्म के सभी विषयों के गहरे अभ्यासी रहे हगे । उदाहरणार्थ इन्होंने 'उच्चनीचैश्व' इस सूत्र की व्याख्या करते हुए उच्चगोत्र और नीचगोत्र के जो लक्षण दिये हैं वे जैन परम्परा के सर्वथा प्रतिकूल हैं । जैन परम्परा में गोत्र कर्म जीवों के अमुक प्रकार के परिणामों का निर्वर्तक माना गया है। न कि सामाजिक उच्चता और नीचता का निर्वर्तक | जैन कर्मशास्त्र