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के धक्के से जगत् चल ही रहा है। मात्र रोंग बिलीफ़ खड़ी होती है कि मैंने किया। उससे अगले जन्म का कर्मबीज डलता है ! इसलिए अखा भगत ने कहा है,
‘जो तू जीव तो कर्त्ता हरि, जो तू शिव तो वस्तु खरी, कर्त्ता मिटे तो छूटे कर्म, ए छे महाभजन का मर्म।'
अज्ञानता में अनौपचारिक व्यवहार से आत्मा द्रव्यकर्म का कर्त्ता है। जो सचर है वह मिकेनिकल आत्मा है, प्रकृति है, और मूल आत्मा अचल है । पूरा जगत् प्रकृति को स्थिर करने जाता है । जो स्वभाव से ही चंचल है, वह स्थिर किस प्रकार से हो सकता है? अचल, ऐसा मेरा आत्मस्वरूप है और बाकी की दूसरी सारी ही चंचल प्रकृति है, वह मुझसे बिल्कुल अलग ही है, मात्र इतना जान लेना है । फिर प्रकृति, प्रकृति में बरतेगी और आत्मा, आत्मा में बरतेगा, भिन्न रहकर !
शास्त्र पढ़कर मानते हैं, ‘मैं जानता हूँ।' उससे बल्कि अहंकार बढ़ा, फिर वह जाए कहाँ से? वह तो ज्ञानी मिलें, तब काम होता है।
यह बंधा हुआ है, वह कौन ? अहंकार, उसका मोक्ष करना है। आत्मा तो मुक्त ही है। अज्ञानता से मानता है कि 'मैं बंध गया', वह ज्ञान होते ही मुक्त हो जाता है ! फिर अहंकार चला जाता है । अहंकार जाए तो ‘मैं कर रहा हूँ, वह कर रहा है और वे कर रहे हैं', वह मिथ्यादृष्टि ही खत्म हो जाती है!
प्रकृति करती है टेढ़ा, तो तू कर अंदर सीधा । प्रकृति क्रोध करे तब तू अंदर प्रतिक्रमण कर । भीतर हम सुधारें, फिर प्रकृति चाहे जितना टेढ़ा करे तब भी तू उसके लिए जिम्मेदार नहीं है । प्रकृति बिल्कुल अलग ही है, उसे अलग ही रखना है । पराई पीड़ा में नहीं पड़ते । प्रकृति अभिप्राय रखे और हम अभिप्राय रहित बनें ।
वीतरागों का तरीका कैसा होता है ? 'ये गलत हैं, भूलवाले हैं', कहा, कि पकड़े गए! वहाँ कोई अभिप्राय ही नहीं देना चाहिए। हमारी दृष्टि ही नहीं बिगड़नी चाहिए !
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