________________
उपोद्घात पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने धर्म में हैं। मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार भी अपने-अपने धर्म में हैं। तो धर्म कौन चूक गया? आत्मा से। कान सुनते हैं और खुद मानता है 'मैं सुनता हूँ।' आँखें देखती हैं और खुद मानता है कि 'मैं देखता हूँ।' इस प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय के धर्म को खुद का धर्म मानता है। आत्मा का धर्म तो देखना, जानना और परमानंद में रहना, वह है। उसके बदले स्वधर्म चूककर परधर्म में प्रवेश करता है। दूसरों के धर्म को खुद का मानता है और खुद का धर्म भूल गया है! आत्मानुभवी आत्मज्ञानी पुरुष स्वरूप का भान करवा देते हैं, उससे उसे खुद के धर्म का भान हो जाता है, इसलिए ओटोमेटिक दूसरे के धर्म को खुद का मानने से रुक जाता है। स्वधर्म में आ गया तो यहीं पर मोक्ष बरतता है!
खुद जो नहीं है, उसे मैं मानना, वह मिथ्यादृष्टि - उल्टी दृष्टि। खुद जो है, उसे मैं मानना, वह सम्यक् दृष्टि - सही दृष्टि
सांसारिक जानने का प्रयत्न है, वह मिथ्याज्ञान-अज्ञान है। उल्टी श्रद्धा बैठी इसलिए उल्टा ज्ञान हुआ और उससे उल्टा चारित्र उत्पन्न हुआ। आत्मा को जान लिया, वह सम्यक् ज्ञान है।
भाव, वह चार्ज है और घटना होती है वह डिस्चार्ज है। चोरी करने का भाव करता रहता है, वह चोरी का चार्ज करता है और उसका फल अगले जन्म में आता है। डिस्चार्ज में, कि जिसके आधार पर तब वह चोरी करता है! और यदि उसका पछतावा करे, प्रतिक्रमण करे, तो वह उसमें से छूट जाता है। अक्रम मार्ग में भाव-अभाव दोनों में से मुक्त बन जाता है और मात्र देखने और जानने का ही रहता है!
जीव मात्र प्रवाह के रूप में है। प्रवाह में आगे प्रवाहित होता है। उसमें कोई कर्त्ता नहीं है। कर्त्ता दिखते हैं, वे नैमित्तिक कर्ता हैं, स्वतंत्र कर्ता नहीं हैं। यदि स्वतंत्र कर्ता होता तो खुद हमेशा के लिए बंधन में ही रहता। नैमित्तिक कर्ता बंधन में नहीं आता है। कुदरती रूप से संयोगों
१२