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द्वितीय अध्याय ॥
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शूर वीर पुरुष, पण्डित पुरुष और रूपवती स्त्री, ये तीनों जहां जाते हैं, वहीं सम्मान ( आदर ) पाते हैं ॥ ३४ ॥
नृप अरु पण्डित जो पुरुष, कबहुँ न होत समान ॥
राजा निज थल मानिये, पण्डित पूज्य जहान ॥ ३५ ॥
राजा और पण्डित, ये दोनों कभी तुल्य नहीं हो सकते है ( अर्थात् पण्डित की बरावरी राजा नहीं कर सकता है ) क्योंकि राजा तो अपने ही देश में माना जाता है और पण्डित सब जगत् में मान पाता है ॥ ३५ ॥
रूपवन्त जो मूर्ख नर, जाय सभा के बीच ॥
मौन गहे शोभा रहे, जैसे नारी नीच ॥ ३६ ॥
विद्यारहित रूपवान् पुरुष को चाहिये कि - किसी सभा ( दर्बार ) में जाकर मुंह से अक्षर न निकाले ( कुछ भी न वोले ) क्योंकि मौन रहने से उस की शोभा बनी रहेगी, जैसे दुष्टा स्त्री को यदि उस का पति बाहर न निकलने देवे तो घर की शोभा ( आबरू ) बनी रहती है ॥ ३६ ॥
कहा भयो जु विशाल कुल, जो विद्या करि हीन ॥ सुर नर पूजहिं ताहि जो, मेघावी अकुलीन ॥ ३७ ॥
जो मनुष्य विद्याहीन है, उस को उत्तम जाति में जन्म लेने से भी क्या सिद्धि मिल सकती है, क्योंकि देखो ! नीच जातिवाला भी यदि विद्या पढ़ा है तो उस की मनुष्य और देवता भी पूंजा करते है ॥ ३७ ॥
विद्यावन्त सपूत बरु, पुत्र एक ही होत ॥
कुल भासत नर श्रेष्ठ सें, ज्यों शशि निशा उदोत ॥ ३८ ॥ चाहें एक भी लड़का विद्यावान् और सपूत हो तो वह कुल में उजाला कर देता है, जैसे चन्द्रमा से रात्रि में उजाला होता है, अर्थात् शोक और सन्ताप के करनेवाले बहुत से लड़कों के भी उत्पन्न होने से क्या है, किन्तु कुटुम्ब का पालनेवाला एक ही पुत्र उत्पन्न हो तो उसे अच्छा समझना चाहिये, देखो ! सिंहनी एक ही पुत्र के होने पर निडर होकर सोती है और गधी दृश पुत्रों के होने पर भी बोझे ही को लादे हुए फिरती है ॥ ३८ ॥ शुभ तरुवर ज्यों एक ही, फूल्यो फल्यो सुवास ॥
सब वन आमोदित करे, त्यों सपूत गुणरास ॥ ३९ ॥
जिस प्रकार फूला फला तथा सुगन्धित एक ही वृक्ष सब वन को सुगन्धित कर देता है, इसी प्रकार गुणों से युक्त-एक भी सपूत लड़का पैदा होकर कुल की शोभा को बढ़ा देता है ॥ ३९ ॥
१ - इस बात को वर्तमान में प्रत्यक्ष ही देख रहे है ॥