Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 15
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/१३ पाप का उदय होने से और देव को दुष्टबुद्धि उत्पन्न होने से उसने कहा कि सागर के मध्य में दूसरा तो कोई उपाय नहीं है। हाँ, यदि आप अनादि-निधन नमस्कार मंत्र, अपराजित मंत्र, जो णमो अरहंताणं है, उसे जल में लिखकर पैर से मिटा दें तो सब बच सकते हैं। . वह हित-अहित का विवेक छोड़कर तो घर से बाहर निकला - 490 ही था, अपने पास सर्व सम्पत्ति और अनुपम पुण्य का स्थान ऐसे चक्रवर्ती पद का भी जिसने विवेक खो दिया था और अजान व्यक्ति का विश्वास करके उसके साथ एक तुच्छ फल खाने के लोभ में चला गया था –ऐसा वह सुभौम चक्रवर्ती इस अनित्य जीवन को नित्य बने रहने के लोभ से व मौत के भय से ज्यों ही णमोकार महामन्त्र लिखकर पैर से मिटाने लगा, त्यों ही पाप का रस अति तीव्र होने लगा और नौका डूबने लगी। तब पूर्व का बैरी देव कहने लगा कि “मैं वही रसोइया हूँ, जिसके ऊपर आपने गरम-गरम खीर डाली थी और जिसने तड़प-तड़प कर प्राण त्याग दिये थे। आर्तध्यान से मैं व्यन्तर जाति का देव हुआ हूँ। अवधिज्ञान के द्वारा पूर्वभव का बैर याद आने पर मैंने उसका बदला लेने के लिये ही यह उपाय किया है।" । अब पश्चाताप करने से क्या होता? चक्रवर्ती भी ऐसे

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