Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 64
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/६२ [ अमरकुमार का पिता अत्यन्त दरिद्र है, उसके आठ पुत्र हैं, सबसे छोटा अमरकुमार है, कुटुम्ब का निर्वाह अत्यन्त कठिनाई से होता है, अमरकुमार का पिता उक्त घोषणा सुनता है, लोभ के वशीभूत निर्विचारी होकर विचार करता है कि यदि मैं अमरकुमार को राजा को लिए सोंप दूं तो मेरी सारी दरिद्रता दूर हो जाय। ब्राह्मण घर आकर यह बात अपनी स्त्री से कहता है ] छदामीलाल- जिनमती! क्यों ना हम अपने छोटे बेटे अमरकुमार को बलि चढ़ाने हेतु राजा को दे दें, इससे हमारी शीघ्र ही सम्पूर्ण दरिद्रता दूर हो जायेगी। जिनमती- नहीं, नहीं, नहीं; मैं उसे तो क्या किसी भी बेटे को बलि चढ़ाने हेतु नहीं देने दूंगी, मैंने उन्हें इसलिये थोड़े ही पैदा किये हैं। छदामीलाल- (कठोरता पूर्वक) यदि राजा को अभी एक पुत्र नहीं दिया तो हम एक भी पुत्र नहीं बचा पायेंगे, क्योंकि अपने घर में एक के खाने को भी तो भरपेट नहीं हैं। आठ-आठ को कहाँ से खिलायेंगे। जिनमती- अपने-अपने भाग्य का सब खाते हैं, कोई किसी को नहीं खिलाता। छदामीलाल- तुम समझती तो हो नहीं, आठों के आठों भूखें मर जायेंगे। जिनमती- अपनी मौत मरें तो भले मर जायें, परन्तु मैं तो जानबूझकर किसी को भी मौत के मुंह में नहीं भेजने दूंगी। छदामीलाल- अरी भागवान! वे अपनी मौत नहीं मरेंगे, इसप्रकार मरने पर दोष तो हमें ही लगेगा। जिनमती- ऐसे कोई नहीं मरता, सभी अपने आयुकर्म के क्षय से मरते हैं और आयुकर्म के उदय से जीते हैं। कोई किसी

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