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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/१२
राजा फल खाकर बहुत प्रसन्न होता है और उससे पूछता है कि भाई! आप ऐसा सुन्दर स्वादिष्ट फल कहाँ से लाये?
व्यापारी ने कहा- 'राजन्! हमारे देश में चलिये, मैं वहाँ आपको ऐसे अनेकों फल खिलाऊँगा।"
देखो! रसना इन्द्रिय की लोलुपता के कारण चक्रवर्ती का विवेक भी नष्ट हो गया। उसने विचार तक नहीं किया कि भला चक्रवर्ती के समान भोगोपभोग की सामग्री किसे मिल सकती है? वह तो तीव्र आसक्ति के कारण उन फलों का भक्षण करने में ही सम्पूर्ण सुख मानने लगा; इसलिये विचारने लगा कि सब सामग्री होने पर भी इस फल की मेरे यहाँ कमी नहीं रहनी चाहिये।
यदि वह चाहता तो अपने आज्ञाकारी सेवक देवों द्वारा अनुपम फल मँगवा सकता था, किन्तु उसे तो उस फल का स्वाद चखने की लोलुपता का ऐसा नशा चढ़ गया कि अब उसे अपने यहाँ की सब सामग्री नीरस लगने लगी। सुभौम चक्रवर्ती ने विचार किया कि यदि मैं वहाँ अकेला जाऊँगा तो कितने फल खा सकूँगा? इसलिये मुझे वहाँ कुटुम्ब सहित जाना चाहिये। ऐसा विचार कर चक्रवर्ती ने विशाल चर्मरत्न नामक नौका में स्त्री-पुत्रादि सहित समुद्र में प्रयाण किया।
अब तो देव मन में अत्यन्त प्रसन्न हो रहा था कि अकेले राजा को ही नहीं, किन्तु उसके समस्त परिवार को मैं डुबो दूंगा। साथ ही उसे यह भी विचार आ रहा था कि जिसके हजारों देव सेवक हैं, नवनिधि और चौदह रत्न हैं, उसे मार डालना कोई आसान काम नहीं है।
सुभौम चक्रवर्ती समुद्र की तरंगों पर तैरती हुई नौका में हास्य-विलास करता हुआ सुख सागर में मस्त हो रहा था कि तभी अचानक उस देव द्वारा चलाये गये भयंकर तूफान में नौका डोलने लगी, जिससे चक्रवर्ती का हृदय काँपने लगा। उसने भयभीत होकर देव से पूछा कि अब बचने का कोई उपाय है? पापी राजा के