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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/५८ पड़ेगी....संयोग नहीं बदल सकता, अपना लक्ष्य बदल दे, संयोग से पृथक् आत्मा पर लक्ष्य कर! संयोग में तेरा दुःख नहीं है, अपने आनन्द को भूलकर तूने स्वयं ही मोह से दुःख उत्पन्न किया है। इसलिये एकबार आत्मा और संयोग को भिन्न जान कर संयोग की भावना छोड़ और चैतन्यमूर्ति आत्मा की भावना कर। मैं तो ज्ञानमूर्ति हूँ, आनन्द मूर्ति हूँ, यह संयोग और यह दुःख - दोनों से मेरा आत्मस्वभाव पृथक् ज्ञान-आनन्द की मूर्ति है। - इसप्रकार आत्मा का निर्णय करके उसकी भावना करना ही दु:ख के नाश का उपाय है। चैतन्य की भावना में दुःख कभी प्रविष्ट नहीं हो सकता।
. जहाँ कभी दुःख का प्रवेश नहीं हो सकता, वहीं हमें निवास करना चाहिये। चैतन्य स्वरूप आत्मा की भावना में आनन्द का वेदन है. उसमें द:ख का प्रवेश नहीं है.... ऐसे चैतन्य में एकाग्र होकर निवास करना ही दुःख से छूटने का उपाय है। कषायों से संतप्त
7 आत्मा को अपने शद्ध स्वरूप
का चिंतन ही उससे छूटने का उपाय है। इसलिये हे बंधु! स्वस्थ होकर अपने आत्मा की भावना कर.... उसके चिंतन से तेरे दुःख क्षणमात्र में शांत हो जायेंगे।
धर्मी जानता है किअहो! मेरे चैतन्य की छाया इतनी शांत-शीतल है कि उसमें
मोह सूर्य की संतप्त किरणें । प्रवेश नहीं कर सकतीं। कोई
संयोग भी उसमें प्रविष्ट नहीं हो सकता। इसलिये मोहजनित विभावों के आताप से बचने के लिये मैं अपने चैतन्य तत्त्व की शांत...... उपशांत.... आनन्दमयी छाया में जाता हूँ.....अपने चैतन्य स्वभाव की ही भावना भाता हूँ।.