Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 57
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/५५ मनसुख–यह भी दोषपूर्ण है। गुरुजी- क्यों? नियमानुसार समझाइये? मनसुख- प्रत्येक द्रव्य में एक अगुरुलघु नामक सामान्य गुण है, जिसके कारण द्रव्य की द्रव्यता सदा कायम रहती है अर्थात् एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप कभी परिणमन नहीं करता। हसमुख- तब भूपत ने गाली देने का भाव किया, उसका तो कुछ होना चाहिए? ज्योतिन्द्र- (बीच में बोल उठा) क्यों नहीं? उसका, इसको तो ऐसा करना चाहिये कि फिर गाली देना ही भूल जाय। गुरुजी- तुम तो भाई, भारी उतावले हो। यह बात मैं कहीं भूल नहीं गया हूँ। शान्त होकर सुनो तो सही। बोलो, भूपत के गाली देने के भाव को कौन सा भाव कहें? । किशोर– यह तो खराब भाव कहा जाता है। इससे तो पाप बंधता है। हसमुख– पाप बंधा, वह तो पुद्गल में आया? उसमें भूपत के आत्मा को क्या सजा हुई? किशोर– सजा क्यों न हुई? जब पाप के भाव करने से घाति कर्मरूपी पाप बंधता है, आत्मा की पर्याय हीन बनती है तो फिर यह तो पाप का भाव हुआ। इससे तो अधिक नुकसान हुआ। पाप भाव से तो मूढ़ता बढ़ी और संसार बढ़ा। गुरुजी- शाबाश किशोर! तुमने ठीक स्पष्ट किया। तो फिर क्या तुम्हारा गाली के बदले गाली देने का विचार है? बोलो हसमुख! क्या विचार है? हसमुख- नहीं श्रीमान्, ऐसा करने पर तो इस खराब भाव का फल पीछे मुझे ही भोगना पड़ेगा। - गुरुजी- तब पुद्गल से बने हुये शब्दों को ठपका देना तो ठीक है न? सब हँस पड़ते हैं और एक साथ सब बोल उठे कि श्रीमान्, यह तो जड़ है इसे कहाँ खबर है कि हम कौन हैं?

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