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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/७२ में नहीं आता, आप ही फरमाइये कि मूलभूत प्रयोजनभूत चीज किसे समझना चाहिये?
पण्डित- राजन्! तेल ही मूलभूत और मुख्य है, फिर भी वह अपनी विशेषता का जरा भी विज्ञापन न करते हुए ढिंढोरा न पीटकर, गुप्त रहकर शान्ति से अपना कार्य पूर्णतया करता ही रहता है, भले ही लोग उसे कुछ भी गिनती में न लें। फिर भी स्वयं प्रकाशमय होकर अंधकार को दूर रखता है। बस, वही गुण और स्वभाव सच्चे सेवक का भी है। कारण कि वह अपने प्रशस्त कार्य का जरा भी विज्ञापन नहीं करता कि मैंने ऐसा किया, मैं मुख्य हूँ बस वह तो गुपचुप अपना कर्तव्य पूर्ण करने में ही सच्चा संतोषमय रहता है।
अत: हे राजन् एवं हे प्रजाजनो! न तो अपनी आवश्यकताओं के लिये किसी पर की आशा रखना चाहिये, और न ही हाय! हाय! करना चाहिये। तेल का दृष्टांत याद रखिये बस अपने कर्तव्य मात्र की असली बात सुनकर राजा और सब प्रजाजन खुश हुए और राजा ने यह निवेदन किया कि हम आज से ही ऐसी अनुभूति में रहेंगे कि हम हमारी कर्तव्य मात्र में मशगूल हैं तो किसी से अपना दिखावा करने की जरूरत नहीं है? मालिक बनना ही दुःख है, सेवक बनना सुख है! अपने को संतोष है तो दूसरों को कर्तृत्व बताना, मानना, मनाना
कराने का जो कष्ट है, वह न होगा, सुख ही होगा। तब राजा अपूर्व प्रेम से. । वृद्ध पण्डितजी के गले मिले, और उनकी प्रशंसा की। '
“धन्य! पण्डितजी.......एक बालक भी समझ सके ऐसी सरल भाषा में आपने ऐसी स्पष्ट बात समझा दी और सबके समक्ष आपने अपनी अनुभूतिपूर्ण बात प्रत्यक्ष रीति से सिद्ध करके दिखाई, आपके समाधान द्वारा मैं बहुत खुशी हुआ हूँ आप इस ज्ञानसभा के ही नहीं, किन्तु सारे समाज के रत्न हो! फिर भी मैं एक विशेष बात नम्रता से कहूगा कि
तेल और प्रकाश तो पुद्गल की अवस्था है जो उसके स्वतंत्र कारणकार्यवश होते ही हैं, किन्तु उसे जाननेवाला चेतन, भेदविज्ञानी जीव न हो तो उसे कौन जानता है? अतः सब को जाननहार विवेकवान जीव (आत्मा) ही मुख्य है। तब सारी सभा ने एक साथ राजा के प्रति परम हर्ष प्रगट किया।