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- जैनधर्म की कहानियों भाग-१०/६४ (इसी समय मंदिर से अमरकुमार वापस घर आता है
अमरकुमार- (वैराग्यभाव से माता को आश्वास.. हुए) हे माता! तुम शोक का त्याग करो! पंचपरमेष्ठी मेरे हृदय .. • विराजमान हैं फिर कैसा शोक? हे माता! राजा रक्षक होते हुए भी जब स्वयं भक्षक होने को तैयार है, जन्मदाता पिता भी जब स्वयं सुवर्ण के टुकड़ों के लिये मुझे बेचना चाहता है, तब तुम शोक क्यों करती हो? यह संसार ही ऐसा है, इसमें जीव को पंच परमेष्ठी के अतिरिक्त कोई भी शरण नहीं है। मेरे देह के बलिदान से सभी सुखी
हो जाते हैं, तो. इससे उत्तम कार्य क्या हो सकता है? अतः मैं पिताजी के साथ खुशी से राजा के पास जाता हूँ। पंच परमेष्ठी का मंत्र मेरे पास है तथा तुम भी इस मंत्र को अपने हृदय में
धारण करना। (ऐसा कहकर अमरकुमार नि:शंकता से राजा के पास चला जाता है।)
चौपट्ट राजा- (अमरकुमार की तरफ इशारा करते हुए आदेश की मुद्रा में) इस बालक को वधस्तम्भ पर ले जाओ।
_(अमरकुमार को वधस्तम्भ पर ले जाते समय, अत्यन्त शान्त और निर्भय बालक को देखकर उन चाण्डालों का हृदय गदगद हो जाता है....आँखें अश्रुभीनी हो जाती हैं, हाथ कम्पायमान होने लगते हैं।)