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' जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/१९ मान रहे हैं। इस जगत में धर्म ही प्रशंसनीय है। यह दुर्लभ मनुष्य देह पाकर भी जो जीव धर्म में बुद्धि नहीं लगाता वह मोह द्वारा ठगा हुआ अनन्त भवभ्रमण करता है। । अरे! मुझ पापी ने असाररूप संसार को सार समझा,
क्षणभंगुर शरीर को ध्रुव माना और अभी तक आत्महित नहीं किया.............जब मैं स्वाधीन था, तब मुझे सुबुद्धि उत्पन्न नहीं
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हुई, अब तो मेरा अन्तकाल आ गया है.......सर्प डस ले उस समय दूर देश से मणिमंत्र या औषधि मँगवाने से क्या लाभ? इसलिये अब मैं सर्व चिन्ताओं को छोड़कर निराकुलरूप से अपने मन को समाधान करूँ।"
-ऐसा विचार करके युद्ध में हाथी के हौदे पर बैठा हुआ मधु राजा मुनि बनने की भावना भाने लगा......और बारम्बार अरहन्त-सिद्ध आचार्य-उपाध्याय एवं साधुओं को मन-वचन-काय से नमस्कार करने लगा और सोचने लगा कि अरहन्त-सिद्ध-साधु तथा केवली प्ररूपित धर्म ही मंगलरूप है, वही उत्तमरूप है तथा उसी की मुझे शरण है।