Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 51
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/४९ भाई! यह सब तो पूर्व प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त होता है, किन्तु यह आत्मा कहीं प्रारब्ध से प्राप्त नहीं होता। स्वयं सत्समागम से चैतन्यस्वरूप को समझने का प्रयत्न करे तो आत्मा का भान होता है। ऐसे आत्मा का भान करना ही जीव को शरणभूत है, उसके अतिरिक्त लक्ष्मी का ढेर अथवा अन्य कोई शरणभूत नहीं है। चैतन्यस्वरूप को भूले हुए जीव पुण्य-पाप से चार गति में परिभ्रमण करते हैं। जो पुण्य करते हैं, वे देव और मनुष्य होते हैं और जो तीव्र माया-कपट करते हैं, वे तिर्यंच-पशु होते हैं और तीव्र हिंसादि पाप करने वाले जीव मरकर नरक में जाते हैं। चैतन्य का भान करने वाला जीव चार गति के परिभ्रमण से छूटकर सिद्धगति प्राप्त करता है। इस शरीर की नाड़ी की गति कैसी चलती है और कितनी धड़कने होती हैं, उसकी परीक्षा करते हैं, लेकिन अन्तर में आत्मा विद्यमान है, उसकी गति का जीव विचार भी नहीं करता। किस जमीन में कैसा अनाज उत्पन्न होगा उसका विचार करते हैं, किन्तु मैं जिन भावों का सेवन कर रहा हूँ, उन भावों का फल आत्मा में कैसा आयेगा, उसका विचार नहीं करते। - यह भव पूरा होने पर जीव के दूसरे भव का प्रारम्भ होता है। उस दूसरे भव में मेरा क्या होगा? उसका विचार भी यह नहीं करता। देखो, बीस वर्ष का आदमी ऐसा विचार करता है कि मैं सौ वर्ष जीऊंगा तो शेष अस्सी वर्ष के लिये मुझे इतने खर्च की आवश्यकता होगी और उसके लिये मैं ऐसा करूंगा। - इसप्रकार इस भव में अस्सी वर्ष की सुविधाओं का विचार करता है, किंतु यह भव पूरा होने पर दूसरे ही क्षण दूसरा भव प्रारम्भ होगा उसमें मेरा क्या होगा, उसका विचार नहीं करता। . वह दूसरा भव किसका है? इस जीव का ही वह दूसरा भव है, तो फिर उस भव में मेरा क्या होगा? हे भाई! जरा उसका

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