Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 34
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/३२ विराधना की है, उन्हें ही ऐसी प्रतिकूलताओं का प्रसंग बनता है। अभयकुमार- हे माता! प्रतिकूल संयोगों में भी जीव धर्म कर सकता है क्या? चेलना- हां बेटा! चाहे जैसे प्रतिकूल संयोग होने पर भी जीव धर्म कर सकता है, कोई भी बाह्य संयोग जीव को धर्म करने से नहीं रोकता। अभयकुमार- परन्तु अनुकूल संयोग धर्म करने में सहायक तो होता है न? चेलना- नहीं! धर्म तो आत्मा के आधार से होता है, पर के आधार से, संयोग के आधार से नहीं। संयोग का तो आत्मा में अभाव है। हाँ यह बात सत्य है कि जिनके हृदय में धर्म होता है, उन्हें जगत की प्रत्येक स्थिति में साम्यभाव होता है। अभयकुमार- तब फिर बाह्य में अनुकूल और प्रतिकूल संयोग क्यों मिलते हैं? चेलना- बाह्य में अनुकूल और प्रतिकूल संयोग तो जीव द्वारा पूर्वभव में किये हुए पुण्य-पाप के भावों के कारण होते हैं। पुण्य के फल में अनुकूल संयोग मिलते हैं और पाप के फल में प्रतिकूल संयोग मिलते हैं; परन्तु धर्म तो – इन दोनों से भिन्न अलौकिक वस्तु है। अभयकुमार- माताजी ! इस विचित्र संसार में कभी-कभी व कहीं-कहीं अधर्मी जीव भी सुखी दिखाई देते हैं और धर्मी जीव दुखी दिखाई देते हैं –इसका क्या कारण है? चेलना- बेटा! अज्ञानी जीवों को सच्चा सुख तो कभी होता ही नहीं है। आत्मा का अतीन्द्रिय सुख ही सच्चा सुख है और यह अतीन्द्रिय सुख तो ज्ञानियों के ही होता है, अज्ञानी के तो इस अतीन्द्रिय सुख की गन्ध भी नहीं होती। अधर्मी जीवों के जो सुख दिखाई देता है वह वास्तव में सुख नहीं है; परन्तु सुख की कल्पना मात्र है। अज्ञानी

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