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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/२०
ढाई द्वीप के भीतर कर्मभूमि में (पाँच भरत, पाँच ऐरावत, पाँच विदेह में) जो अरहन्तदेव हैं वे मेरे हृदय में वास करें......मैं बारम्बार उन्हें नमस्कार करता हूँ.....अब मैं सर्व पापों को जीवन पर्यंत छोड़ता हूँ.....अनादिकाल से संसार में उपार्जित मेरे दुष्कृत्य मिथ्या होओ.....अब मैं तत्त्वज्ञान में स्थिर होकर त्यागने योग्य जो रागादिक उनका त्याग करता हूँ तथा ग्रहण करने योग्य जो निजभाव-जिनभाव, उसे ग्रहण करता हूँ, ज्ञान दर्शन मेरा स्वभाव ही है, वह मुझसे अभेद है, और शारीरिक समस्त पदार्थ मुझसे पृथक् हैं....सन्यास मरण के समय भूमि अथवा तृणादि का त्याग वह सच्चा त्याग नहीं है; किन्तु दोष रहित -ऐसे शुद्ध आत्मा को अपनाना ही त्याग है। —ऐसा विचार करके मधु राजा ने दोनों प्रकार के परिग्रहों का भावपूर्वक त्याग किया।
जिसका शरीर अनेक घावों से घायल है ऐसा मधु राजा हाथी की पीठ पर बैठा-बैठा केशलोंच करने लगा...वीर रस छोड़कर उसने शांतरस अंगीकार किया....और महा धैर्यपूर्वक अध्यात्म योग में आरूढ़ होकर देह का ममत्व छोड़ दिया....।
मधु राजा की ऐसी परम शांतदशा देखकर शत्रुघ्न कहने लगे कि- “हे महान आत्मा। मेरा अपराध क्षमा करो।....धन्य है आपके वैराग्य को....।" युद्ध के समय पहले मधु राजा का वीररस
और फिर शांतरस देखकर देव भी आश्चर्य सहित पुष्पवृष्टि करने लगे......महाधीर मधु राजा एक क्षण में समाधिमरण करके तीसरे स्वर्ग में देव हुए और शत्रुघ्न ने उनकी स्तुति करके मथुरा नगरी में प्रवेश किया।
त्रैरूपता को प्राप्त है पर ना तजे एकत्व को। यह शुद्ध निर्मल आत्मज्योति प्राप्त है जो स्वयं को।। अनुभव करें हम सतत ही चैतन्यमय उस ज्योति का। क्योंकि उसके बिना जग में साध्य की हो सिद्धि ना।।२०।।