Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 35
________________ * चेलना- नहीं, धर्मात्मा का सम्यक होता। अरे, तीन जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/३३ जीवों के पूर्व पुण्य के उदय से भले ही बाह्य में अनुकूलता दिखाई देती हो, परन्तु वास्तव में तो वे दुखी ही हैं और ज्ञानी जीवों के कदाचित् पूर्व पाप के उदय से बाह्य में प्रतिकूलता भी दिखाई देती हो, तो भी वास्तव में वे सखी ही हैं। अभयकुमार- माता! प्रतिकूलताओं के कारण क्या ज्ञानी की श्रद्धा विचलित नहीं होती? चेलना- नहीं, बिल्कुल नहीं! बाह्य में चाहे जितनी प्रतिकूलता हो. तो भी सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा का सम्यकश्रद्धान वा सम्यग्ज्ञान किंचित् भी विचलित नहीं होता, दूषित नहीं होता। अरे, तीन लोक में खलबली मच जाय तो भी समकिती अपने स्वरूप की श्रद्धा से किंचित् भी नहीं डिगता। अभयकुमार- अहो माता! धन्य हैं –ऐसे समकिती जीव -ऐसे सुखिया समकिती जीवों का अतीन्द्रिय आनन्द कैसा होता होगा? चेलना- अहो, पुत्र अभय! उसकी क्या बात करें? जैसा आनन्द सिद्ध भगवान को होता है, जैसा आनन्द मुनिवरों को होता . है, वैसा ही आनन्द समकिती जीवों को होता है। समकिती जीवों ने भी उस आनन्द का स्वाद चख लिया है। केवली और समकिती जीव के सुख में मात्र मात्रा भेद होता है, जाति भेद नहीं। ... अभयकुमार- माता! आप मुझे भी ऐसे अपूर्व सम्यग्दर्शन को प्रकट करने की विधि समझाइये? चेलना- पुत्र! तुमने यह बहुत ही अच्छा प्रश्न पूछा है। सुनो, सबसे पहले तो अन्तर में अपने आत्मा को प्राप्त करने की तीव्र जिज्ञासा प्रगट होनी चाहिए। और सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के समागम से तत्त्वों का यथार्थ निर्णय करना चाहिये... तत्पश्चात निरन्तर अन्तर में आत्मस्वभाव के चिंतन और मंथन पूर्वक भेदज्ञान का अभ्यास करना चाहिये। बारम्बार ऐसे भेद-विज्ञान का अभ्यास करते-करते जब आत्म स्वभाव की उत्कृष्टतम महिमा भासित होती

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