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धन्य है वह पुत्र...और धन्य है वह माता!
कुँवर कन्हैया जैसे आठ वर्ष के कोमल राजकुमार को आत्मा के भान सहित वैराग्य होने पर जब आनन्द में लीन होने की भावना जागृत होती है, तब वह माता के पास जाकर दीक्षा के लिये आज्ञा माँगता है कि हे माता! अब मैं आत्मा के परम आनन्द की प्राप्ति की साधना के लिये जाता हूँ....हे माता! अब मैं सुखी होने के लिये जाता हूँ.... माता की आखों से आसुओं की धारा बह रही है और पुत्र के रोम-रोम में वैराग्य की छाया छा रही है।
वह कहता है कि अरे माता! जननी होने के नाते तुम मुझे सुखी करना चाहती हो, तो अब मैं मेरे अपने सुख - की साधना के लिये जाता हूँ, तुम मेरे सुख में बाधक न होओ, तुम तो मुझे अनुमति दो। माँ! मैं अपने आत्मानन्द की साधना के लिये जाता हूँ, उसमें तुम दुःखी होकर विघ्न न डालो। हे जननी! मुझे आज्ञा दीजिये, मैं आत्मा के आनन्द में लीन होने जा रहा हूँ।
माता भी धर्मात्मा है, अत: वह पुत्र से कहती है कि बेटा! मैं तेरे सुख के पथ में विघ्न नहीं बनूँगी, तेरे सुख का जो पंथ है वही
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