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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/२५ सप्तर्षिमुनि भगवन्तों का पुनीत पदार्पण होते ही उनके तप के प्रभाव से चमरेन्द्र द्वारा फैलाया गया मरी का घोर उपसर्ग एकदम शांत हो गया तथा समस्त मथुरा नगरी सुखरूप हो गई। जिसप्रकार सूर्य का आगमन होने से अंधकार भाग जाता है, उसीप्रकार सप्तर्षि मुनिवरों का आगमन होते ही उनके प्रताप से मरी रोग का घोर उपद्रव दूर हो गया तथा सारे नगर में शांति छा गई। फल फूल खिल गये, वृक्ष और बेलें लहलहा उठीं, बिना बोये धान्य उगने लगे, समस्त रोग रहित मथुरापुरी अति शोभायमान हो गई और नगरजनों ने महा आनन्द पूर्वक सातों मुनिवरों के दर्शन-पूजन किये।
(सप्तर्षि मुनिवरों के आगमन का यह आनन्दमय प्रसंग आज भी मथुरा नगरी के जिनमन्दिर में अंकित है। जिनके दर्शन करते भक्तों के हृदय में आनन्द की ऊर्मि जागृत हुए बिना नहीं रहती मथुरा में “सप्तर्षि टीला'' नाम का एक स्थान भी है।)
उन सप्तर्षि मुनि-भगवन्तों को हमारा नमस्कार हो।
कर्ता जगत का मानता हो, 'कर्म या भगवान को। वह भूलता है लोक में, अस्तित्व गुण के ज्ञान को।। उत्पाद-व्यय-युत वस्तु है, फिर भी सदा ध्रुवता धरे। अस्तित्व गुण के योग से, कोई नहीं जग में मरे।। वस्तुत्व गुण के योग से, हो द्रव्य में स्व-स्वक्रिया। स्वाधीन गुण-पर्याय का ही, पान द्रव्यों ने किया।। सामान्य और विशेष से, कर रहे निज निज काम को। यों मानकर वस्तुत्व को, पाओ विमल शिवधाम को। द्रव्यत्वगुण इस वस्तु को, जग में पलटता है सदा। लेकिन कभी भी द्रव्य तो, तजता न लक्षण संपदा।। स्व-द्रव्य में मोक्षार्थी हो, स्वाधीन सुख लो सर्वदा। हो नाश जिससे आज तक की, दुःखदायी भवकथा।।