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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/१७ तब रामचन्द्रजी ने उनसे कहा कि- भाई, तुम मुझे एक वचन देते जाओ।
__ शत्रुघ्न ने कहा- बन्धु! आप तो मेरे सर्वस्व हैं, प्राण हैं, राजा मधु के साथ युद्ध करने के अतिरिक्त आप जो भी कहें, मैं वह सब करने को तैयार हूँ।
राम ने कहा- हे वत्स! तुम मधु के साथ युद्ध करो तो उस समय करना, जब उसके हाथ में त्रिशूल न हो।
शत्रुघ्न ने कहा- मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।
तत्पश्चात् जिनदेव की पूजा करके तथा सिद्धों को नमस्कार करके माता के पास आकर शत्रुघ्न ने विदा माँगी, तब माता ने कहा कि हे वत्स! तुम्हारी विजय हो। तुम्हारी विजय के पश्चात् मैं जिनेन्द्रदेव की महापूजा कराऊँगी, स्वयं मंगलरूप और तीन लोक के मंगलकर्ता श्री जिनदेव तुम्हारा मंगल करें, सर्वज्ञ भगवान के प्रसाद से तुम्हारी विजय हो, सिद्ध भगवान तुम्हें सिद्धि कर्ता हों, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु परमेष्ठी तुम्हारे विघ्न हरें और कल्याण करें।
-ऐसा कहकर माता ने मंगलकारी आशीर्वाद दिया, उसे शिरोधार्य करके शत्रुघ्न ने माता को नमस्कार किया और वहाँ से मथुरा की ओर प्रस्थान किया। लक्ष्मणजी ने उन्हें समुद्रावर्त नामक धनुष देकर कृतान्तवक्र सेनापति को उनके साथ भेजा।
शत्रुघ्न सेना सहित मथुरा के निकट आ पहुंचे और जमुना नदी के किनारे पड़ाव डाला। वहाँ मंत्री चिन्ता करने लगे कि राजा मधु तो महान योद्धा है और यह शत्रुघ्न बालक है, यह शत्रु को किसप्रकार जीत सकेंगे? तब कृतान्तवक्र सेनापति ने कहा कि- अरे मंत्री! आप साहस छोड़कर ऐसे कायरता के वचन क्यों निकाल रहे हैं? जिसप्रकार हाथी महा बलवान है और सूंढ़ द्वारा बड़े-बड़े वृक्षों को उखाड़ फेंकता है, तथापि सिंह उसे पराजित कर देता है; उसीप्रकार मधु राजा महा बलवान होने पर भी शत्रुघ्न उसे अवश्य.जीत लेंगे। सेनापति की बात सुनकर सबको बहुत प्रसन्नता हुई।
इतने में नगर में गये हुए गुप्तचरों ने आकर समाचार दिये