Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 42
________________ सिद्ध भगवान की आत्मकथा सिद्ध भगवान के आत्मा का विचार करने से जो उनकी आत्मकथा का मुझे ज्ञान हुआ, उसका विवरण यहाँ द्रष्टव्य है। यह जीव अनादिकाल से निगोद दशा में ही अनन्तानन्त दुःख सहता हुआ उसी में जन्म-मरण करता था। अहा! उसके अपार दुःखों को तो केवलज्ञानी ही जानते है, वहाँ निगोददशा में एक शरीर में अनन्त जीव रहते हैं और उनको एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है, उसके ज्ञान का क्षयोपशम भी अत्यन्त अल्प होता है। वे प्रचुर मोहावेश से घिरे रहते हैं। एक श्वासोच्छवास में अठारह बार जन्म-मरण करते हैं। ऐसे अपार दुःखों को सहन करते हुए उस जीव ने एकबार कुछ मंद-कषायरूप परिणामों से मरण करके एक सुप्रसिद्ध सेठ के घर पुत्ररूप में जन्म लिया। वे सेठजी सम्पत्तिशाली तो थे ही, साथ में उनके हृदय में धर्मभावना भी प्रबल थी, वे वीतराग धर्म के अनन्य भक्त थे। बड़े भारी व्यापार के काम काज में पड़े होने पर भी सेठजी के हृदय में सदा ही आत्महित की कामना रहती थी। वे प्रतिदिन नियमित देवदर्शन, शास्त्र-स्वाध्याय तथा मुनिराज के चरणकमलों के निकट भक्तिपूर्वक देशना श्रवण करना नहीं चूकते थे। सेठजी ने नगर में अनेक जिनमन्दिर बनवाये थे और उनके घर में भी एक भव्य जिनमन्दिर था। सेठजी वास्तव में एक श्रेष्ठ आत्मार्थी जीव थे, सेठजी की भाँति उनकी पत्नी और सारा परिवार भी संस्कार और धर्मभावनामय था।.

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