Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 44
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/४२ आश्चर्यमग्न हो जाते। लगभग तेरह वर्ष की आयु होने तक तो सिद्धकुमार ने लौकिक अभ्यास में गणित, साहित्य विज्ञान, कविता आदि का अधिकांश अभ्यास कर लिया। और धार्मिक अभ्यास में भी चारों अनुयोगों का अच्छी तरह अभ्यास किया। नवतत्त्व, छह द्रव्य, त्रिलोक की रचना, कर्म का स्वभाव, श्रावक और मुनि के आचरण तथा ऋषभादि वेसठ शलाका पुरुषों का चरित्र अभ्यास होने पर सिद्धकुमार को समस्त जगत की व्यवस्था और संसार-मोक्ष का स्वरूप ज्ञात होने लगा। स्वाध्याय तथा वीतरागी मुनियों के समागम से उन्होंने आत्मा के स्वरूप का भी अभ्यास किया। उनके अन्तर में निश्चय हुआ कि अहो! इस अनन्त संसार-सागर में जीव को अनन्त दुःखों का एक मूल कारण भ्रमरूप मिथ्या मान्यता ही है। इन अनन्त दुःखों से मुक्त करके मोक्षमार्ग में स्थापित करने वाला कल्याणमूर्ति एक मात्र सम्यग्दर्शन ही है, वही धर्म का मूल है। इस सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बिना जीव जो कुछ करता है वह संसार में परिभ्रमण का ही कारण होता है। ऐसे कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शन के लिये सिद्धकुमार की जिज्ञासा और आकांक्षा बढ़ने लगी। संसार के सुख-वैभव से उसकी वृत्तियाँ उदासीन होने लगी। अब वह अधिक समय मुनियों के समागम में रहने लगा। वीतरागी मुनियों का भी उसके प्रति परम । अनुग्रह रहता था। इसप्रकार सम्यग्दर्शन के लिये तरसते हुए सिद्धकुमार की आयु १६ वर्ष के लगभग हो गई। सामान्यत: युवा पुत्र को देखकर माता-पिता का विचार विवाह करने का होता है, परन्तु संसार के प्रति उसकी तीव्र उदासीनता देखकर सिद्धकुमार के पिता उनके समक्ष ब्याह की बात न कह सके। - एक बार रात्रि के अन्तिम प्रहर में सिद्धकुमार आत्मा के स्वरूप का चितवन कर रहे थे। अपने अखंड ज्ञायक स्वाभाव में

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