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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/७८ यह सुनते ही सिंह को पूर्वभव का ज्ञान होता है, पश्चाताप से मिथ्यात्व पिघलकर आँसुओं के रूप में बाहर निकल जाता है, और वह सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। बहुमान और भक्ति से मुनिओं की प्रदक्षिणा करता है....और बाद में अनुक्रम से आत्मसाधना में आगे बढ़कर तीर्थंकर महावीर होता है।
अहा! सिंह की सम्यक्त्व प्राप्ति का यह प्रसंग हमें यह शिक्षा देता है कि जब एक क्रूर पशु भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है तब फिर हम मनुष्य होकर भी सम्यग्दर्शन रहित जीवन जियें- यह हमारे लिए शोभा की बात नहीं है।
(इसका विस्तृत वर्णन जैनधर्म की कहानियाँ भाग-९ में देखें)
५. नेमि-राजुल वैराग्य जैसे ही नेमिकुँवर की बरात जूनागढ़ के नजदीक आ पहुँची, वैसे ही पशुओं का करुण चीत्कार सुनकर नेमिकुँवर ने रथ रोक दिया.. इस वैरागी महात्मा का हृदय पशुओं के करुण चीत्कार को कैसे सहन कर सकता था?
जगत में वीतरागी अहिंसा का शंख फूंकने के लिये अवतरित हुआ यह सन्त अपने ही निमित्त से होते इस करुण क्रन्दन को किस तरह सहन कर सकता। उन्होंने रथ पीछे लौटा दिया....और विवाह न करने का निश्चय कर वे तो गिरनार धाम को चले गएं एवं मुनि होकर आत्मसाधना में तत्पर हो गए।
इस ओर नेमिस्वामी द्वारा रथ के लौटाये जाने का एवं उनके वैराग्य का समाचार सुनकर राजमती ने कितना आक्रन्दन किया होगा? ....ना...ना! वे तो राजमती थीं, न तो उन्होंने आक्रन्दन किया और न ही माता-पिता के अनेक बार समझाने पर भी अन्यत्र विवाह करने का विचार किया, उन्होंने तो वैराग्यमार्ग अंगीकार किया।