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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १०/४१
ऐसे सेठजी के घर में उस जीव ने पुत्ररूप में जन्म लिया। जो इसी भव से सिद्धदशा प्राप्त करने वाला है। पुत्र जन्म का सेठजी ने एक महोत्सव किया, जिनमन्दिर में अनेक प्रकार के विधान-पूजन हुए और अनेक प्रकार के दान की घोषणा की, सारे नगर में गरीब लोगों को मिष्ठान और वस्त्रादि बाँटे गये। सेठजी ने पुत्र का नाम 'सिद्धकुमार' रखा।
'सिद्धकुमार' का बचपन बड़े ही लाड़-प्यार में बीतने लगा । सेठजी जब जिनमन्दिर में पूजा, स्वाध्याय, ध्यान करते तब बालक सिद्धकुमार अपने पिता के निकट जाकर बैठ जाता और जिनप्रतिमा के सन्मुख एकटक देखता रहता । सिद्धकुमार की सौम्य सुन्दर मुखाकृति और शांत प्रकृति देखकर लोग आश्चर्यचकित हुये बिना न रहते। जब सिद्धकुमार पाँच बरस का हुआ तो सेठजी ने उसके लौकिक और धार्मिक शिक्षण की व्यवस्था की और सिद्धकुमार दिनप्रतिदिन उसमें आगे बढ़ने लगा।
एक बार शहर में एक वीतरागी मुनि आहार लेने पधारे। सेठजी ने मुनिराज की पड़गाहना की। महाभाग्य से सेठजी को आहारदान का शुभ अवसर प्राप्त हुआ । आहार की विधि समाप्त होने के पश्चात् मुनिराज के चरणों का स्पर्श करके सब अपने को कृतार्थ मानने लगे। सिद्धकुमार ने भी मुनिराज के चरण कमलों में उल्लासपूर्वक साष्टांग प्रणाम किया। मुनिराज ने उसके मस्तक पर हाथ रखकर सेठजी से कहा “यह जीव इसी भव में भगवती जिनदीक्षा धारण करके परमानन्दमय शाश्वत सिद्धदशा को प्राप्त करेगा” – ऐसा कहकर मुनिराज वहाँ से विहार कर गये ।
सिद्धकुमार के विषय में यह बात सुनकर सेठजी और समस्त कुटुम्बीजनों के हृदय में हर्ष का सागर लहराने लगा, आनन्दमग्न सेठजी ने महान उत्सव किया, उस दिन से सब सिद्धकुमार के प्रति अत्यन्त भक्ति प्रेम रखने लगे।
इधर सिद्धकुमार का अभ्यास क्रम भी शीघ्रता से आगे बढ़ने लगा। उसकी बुद्धि का चमत्कार देखकर उसके शिक्षक भी