Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 37
________________ कर्म को कृश करे सो कृष्ण अपनी सम्यक् श्रद्धा-ज्ञानमूलक अन्तर्मुख शूरवीरता के द्वारा सर्व प्रतिकूलता या अनुकूलता में भी जिसका निज भगवान आत्मा केवल ज्ञाता-दृष्टा रूप परिणमन करे, वह जीव प्रत्याख्यान के योग्य है, कायर प्रत्याख्यान के योग्य नहीं है। वीरता के लिये शास्त्र में श्री कृष्ण का दृष्टान्त आता है। एक बार धातकीखंड द्वीप का पद्मनाभ राजा द्रौपदी का अपहरण कर ले गया था। तब पांडवों ने काफी तलाश की, फिर भी द्रौपदी का कुछ पता न चला। कृष्णजी ने नारद से पूछा- द्रौपदी को तुमने कहीं देखा है? नारद ने उत्तर दिया- हाँ, मैं धातकी खंड में गया था, वहा राजा पद्मनाभ के महल में द्रौपदी जैसी किसी महिला को देखा था। कृष्णजी तुरन्त समझ गये कि यह सारा तूफान नारद का ही है। नाटक में भी नारद अपने मुख से कहता है न! - ब्रह्मासुत मैं नारद कहाऊं, जहाँ हो संप वहाँ कुसंप कराऊं।'' . श्री कृष्ण ने पांचो पांडवों को कहा-चलो, हम छहों द्रौपदी को लेने चलें। देव को लवणसमुद्र में रास्ता करने को कहा। देव ने कहा- प्रभो! आज्ञा हो तो मैं अकेला ही द्रौपदी को ला दूं। श्रीकृष्ण ने कहा- नहीं, नहीं; यदि देव ला दे तो फिर हम वासुदेव कैसे? श्रीकृष्ण ने देव के अनुरोध को स्वीकार नहीं किया और स्वयं पांडवों को साथ लेकर धातकीखंड द्वीप में पहुँच गये। पद्मनाभ राजा को आदेश कहलाया-या तो आकर हमारी विनय करो, या फिर लड़ाई के लिए तैयार रहो।

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