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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/७५
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भात पिकाको नमस्कार कर दीक्षा अंगीकार करते हैं तथा केवलज्ञान प्राप्त करते ही
अन्तर में जो सिद्ध का मार्ग दिखाई दिया है, उसी मार्ग पर अब हम विचरेंगे' -ऐसा कह कर अमृतसागर मुनिराज के पास जाकर दोनों भाईयों ने दीक्षा ले ली। वे चैतन्य में लीन होकर, केवलज्ञान प्राप्त कर पावागढ़ सिद्धक्षेत्र से मुक्त हो गए।
-इसी पावागढ़ सिद्धक्षेत्र से और भी पांच करोड़ मुनिवरों ने मुक्ति प्राप्त की है।
३. जीवन ही बदल गया
आज जैनधर्म की परमभक्त रानी चेलना उदास थी,.....बहुत समझाने पर भी राजा श्रेणिक को जैनधर्म में श्रद्धा आती ही नहीं थी।
परम जैन सन्त यशोधर मुनिराज जंगल में ध्यानस्थ थे, राजा श्रेणिक ने उन्हें द्वेषबुद्धि से देखा और 'यह तो दंभी है'- इसप्रकार मुनि के प्रति द्वेष से उनके गले में मृत सांप डाल दिया। राजभवन में आकर रानी चेलना को जब यह बात बतलाई। तब यह सुनते ही रानी चेलना का भक्तहृदय आकुल-व्याकुल हो गया। उदास होकर तत्काल मुनिराज का उपसर्ग दूर करने के लिये वह तत्पर हुई। तब राजा श्रेणिक कहने लगे। अरे तेरा गुरु तो कभी का सांप दूर करके अन्यत्र चला गया होगा।