Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 49
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/४७ बराबर मूल्यांकन कर दिया, इसलिये राजा ने प्रसन्न होकर उसे इनाम देने के लिये मंत्री को आज्ञा दी। मंत्री ने कहा कि दूसरे दिन इनाम की घोषणा करेंगे। रात्रि के समय मंत्री ने उस जौहरी को बुलाकर पूछा- कि जौहरीजी, आप इन रत्नों की परीक्षा करना तो सीखे, किन्तु इस देह से भिन्न चैतन्यरत्न को कभी पहिचाना है? .. जौहरी बोला- नहीं, मुझे चैतन्यरत्न की परीक्षा करना नहीं आता। मंत्री बोला- “अरे जौहरी! तुम अस्सी वर्ष के हो गये हो, तुम्हारी मृत्यु का समय निकट आ गया है और इस मनुष्य भव में अभी तक तुमने अपने चैतन्य रत्न को पहिचानने के लिए कुछ नहीं किया। मोतियों और रत्नों की परख की, किन्तु चैतन्यरत्न की परख नहीं की तो यह अमूल्य मनुष्य भव पूरा होने पर आत्मा का डेरा कहाँ होगा?''- ऐसी सीख देकर उस समय जौहरी को विदा कर दिया और दूसरे दिन दरबार में आने को कहा। ' दूसरे दिन दरबार लगा है, राजा और मंत्री बैठे हैं, जौहरी भी आये हैं। राजा ने मंत्री को आज्ञा दी कि अब इन जौहरीजी के इनाम की घोषणा करो। मंत्रीजी ने खड़े होकर कहा कि महाराज! इन जौहरीजी को मैं सात जूते मारने के इनाम की घोषणा करता हूँ। मंत्री की बात सुनकर राजा सहित सारी सभा आश्चर्य-चकित हो गई....उसी समय जौहरी स्वयं खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर राजा से कहने लगा कि महाराज! जो कुछ मंत्रीजी कहते हैं, वही सच है। अरे! मुझे सात नहीं चौदह जूते मारना चाहिये....जौहरी की बात सुनकर सबको विशेष आश्चर्य हुआ। अन्त में जौहरी ने स्पष्टीकरण किया कि हे राजन्! मंत्रीजी के कथनानुसार मैं जूतों के ही योग्य हूँ, क्योंकि मैंने अपना जीवन आत्मभान के बिना यों ही

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