________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/३०
शत्रुघ्न ने कहा, “प्रभो! आपकी आज्ञानुसार समस्त प्रजा धर्माराधन में प्रवृत होगी।'
__ तत्पश्चात् मुनिवर तो आकाश मार्ग से विहार कर गये और अनेक निर्वाण भूमियों की वन्दना करके अयोध्या नगरी में पधारे, वहां सीताजी के घर आहार किया। सीताजी ने महा हर्ष पूर्वक श्रद्धादि गुणों सहित मुनिवरों को प्रासुक आहार दिया।
___ इधर शत्रुघ्न ने मथुरा नगरी के बाहर तथा भीतर अनेक जिनमंदिरों का निर्माण कराया, घर-घर में जिनबिम्बों की स्थापना कराई
और धर्म का महान उत्सव किया। समस्त नगरी उपद्रव रहित हो गई। वन-उपवन फल-फूलों से शोभायमान हो उठे, सरोवरों में कमल खिल गये और भव्यजीवों के हृदय कमल प्रफुल्लित होकर धर्माराधना में तत्पर हुए। इसप्रकार सप्तर्षि मुनिभगवन्तों के प्रताप से मथुरा नगरी का उपद्रव दूर हो गया और महान धर्मप्रभावना हुई।
___ कथा के अन्त में शास्त्रकार कहते हैं कि जो जीव इस अध्याय को पढ़ेंगे, सुनेंगे तथा साधुओं की भक्ति में अनुरागी होकर मुनिवरों का समागम चाहेंगे, उन जीवों को मनवांछित फल की प्राप्ति होगी अर्थात् वे साधुओं की संगति पाकर धर्माराधन द्वारा परमपद को प्राप्त करेंगे।
पर्वत से भी अधिक अचल श्री शैल मुनिराज शैलेश (पर्वत) से भी अधिक अचल रूप से चरित्र का पालन करने लगे। उनका अद्भुत वीतरागी चारित्र देखकर इन्द्र भी उनको नमस्कार करके उनकी प्रशंसा करते थे। राम-लक्ष्मण ने भी उनको वंदन किया। हनुमान वीर तो थे ही, शुक्लध्यान के चक्र द्वारा महा-वीर बनकर उनने सर्वज्ञ पद साधा और केवलज्ञान के अहिंसक शस्त्र द्वारा समस्त लोकालोक को वश कर लिया अर्थात् जान लिया। फिर अरिहंत पद में आकाश मार्ग में विहार करते-करते मांगी-तुंगी पधारे और वहाँ के तुंगीभद्र गिरि-शिखर से मोक्षदशा प्रगट करके सिद्धपद को पाया। अभी भी वह मुक्तात्मा अपने परम ज्ञान-आनन्द सहित बराबर तुंगीभद्र के ऊपर समश्रेणि में, लोकान में, सिद्धालय में, अनन्त सिद्ध भगवंतों के साथ विराज रहे हैं, उनको हमारा नमस्कार हो।