Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 39
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/३७ अरे! ये तो भरतक्षेत्र के त्रिखंडाधिपति श्रीकृष्ण वासुदेव हैं। ये हमको नहीं छोडेंगे! भय के मारे वह द्रौपदी के चरणों में लेट गया और प्रार्थना की- हे देवी! मुझे बचाओ। द्रौपदी ने कहा- कृष्णजी से बचने का एक ही उपाय है। आप वस्त्र एवं चूड़ी परिधान धारण करो और मेरे पीछे-पीछे कृष्णजी के पास दासत्वभाव से चले आओ। मेरे भाई कृष्णजी अबला पर हाथ कभी नहीं उठाते। पद्मनाभ ने ऐसा ही किया। फिर कभी ऐसा दुष्कर्म मत करना कहकर कृष्ण ने पद्मनाभ को छोड़ दिया और द्रौपदी को लेकर पांडवों के साथ वापस आ गये। प्रथमानुयोग के वीरतापूर्ण इस दृष्टान्त से यह सिद्धान्त प्रतिफलित होता है कि- अन्तर से जागृत हुआ यह भगवान आत्मा अपनी अतीन्द्रिय वीरता-अन्तर्मुख पुरुषार्थ से पुकारता है कि मैं राग को तोड़कर वीतरागता लूंगा। स्वभाव के आश्रय से प्रगट हुई यह साधना वीरता से-शूरवीरता से प्रतापवन्त है। जिसे वीरता की अन्तर्ध्वनि उठी वह मोहशत्र को जीतकर ही आयेगा। यह अन्तर्मुख साधना तो वीरों का मार्ग है। वीर के मार्ग में शुद्धात्माभिमुखी वीरता ही प्रत्याख्यान का कारण है। कर्मशत्रु को कृश करे सो कृष्ण। वीरता का शंखनाद किया, विकल्पों की सेना छिन्न-भिन्न हो गई, अकेला ज्ञायक आत्मा अपनी वीरतापूर्ण शोभा से प्रदीप्त हो उठा। सचमुच ऐसी वीरता से सुशोभित आत्मा ही प्रत्याख्यान के लायक है। वीर किसे कहते हैं? जो अपने त्रिकाली ध्रुव ज्ञायक द्रव्यस्वभाव के प्रति वीर्य को प्रेरित करे, उसे वीर कहते हैं। स्वभाव उपादेय है, विभाव हेय है; संयोग ज्ञेय है। उपादेय, हेय और ज्ञेय -इन तीनों को जानकर उपादेय रूप स्वभाव का आश्रय करने पर निर्मलता प्रगट हो जाती है और हेय रूप विभाव दशा छूट जाती है तथा ज्ञान-सामर्थ्य में सम्पूर्ण ज्ञेय झलकने लगते हैं।

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