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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/७४ देवों ने सीताजी की अग्निपरीक्षा का दृश्य देखा.... और अपनी दैवीशक्ति द्वारा अग्नि के स्थान पर जल सरोवर बना दिया, बीच में कमल की रचना में सीताजी सुशोभित होती थी.....देवों ने सीताजी के शील की प्रशंसा की और उनकी शील महिमा को जगत में प्रसिद्ध किया।
अब राजा रामचन्द्र सीता को कहते हैं, हे देवी! अयोध्या चलो.....। परन्तु धर्मात्मा सीता वैराग्य पूर्वक कहती हैं कि “अब मुझे संसार नहीं चाहिये' अब तो मैं दीक्षा लेकर, इस असार संसार को छोड़कर आत्म-कल्याण करूँगी। ऐसा कह कर राम को और लव-कुश जैसे पुत्रों को भी छोड़कर केशों का लोंचकर पृथ्वीमति आर्यिकाजी के संघ में चली जाती हैं। सीताजी के वैराग्य के अवसर पर रामचन्द्रजी मूर्छित हो जाते हैं। -यह कथा हमें शील और वैराग्य का सन्देश देती है।
२. लव-कुश वैराग्य एक दिन इन्द्रसभा में राम और लक्ष्मण के प्रेम की प्रशंसा हुई, देव उनकी परीक्षा करने आए...उन्होंने बनावटी वातावरण बनाकर लक्ष्मण से कहा कि राजा रामचन्द्र का स्वर्गवास हो गया....यह सुनते ही "हा....राम!" ऐसा कह कर लक्ष्मणजी ने सिंहासन पर ही प्राण त्याग दिये। रामचन्द्रजी तीव्र प्रेम के कारण लक्ष्मण के मृत शरीर को कन्धे पर उठाकर चारों ओर फिरते रहे।
इधर लव और कुश चाचा की मृत्यु और पिता की ऐसी अवस्था देखकर संसार से विरक्त हो जाते हैं।.....और रामचन्द्रजी के पास जाकर हाथ जोड़कर कहते हैं कि
हे पिताजी! “इस संसार की असार स्थिति देखकर हमारा मन संसार से विरक्त हो गया है...अब हम दीक्षा लेकर मुनिधर्म पालन कर आत्मा की साधना पूर्वक केवलज्ञान प्राप्त करेंगे......अत: आप हमें मुनि बनने की आज्ञा दीजिए।