Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 18
________________ प्रशासनिक क्षमता विकसित है। प्रकृति से और भी बहुत हैं और घट के रूप में असत् । मिट्टी का घट बन जाता है तब असत् से सत् के निर्माण का सिद्धांत प्रतिपादित किया जा सकता है। जैन चिंतन में असत् कार्यवाद और सत् कुछ प्राप्त है। असमानता और कार्यवाद-ये दोनों विकल्प मान्य नहीं हैं। तीसरे विकल्प-सत्-असत्-कार्यवाद समानता—इन दोनों सचाइयों को मान्य किया गया। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है--द्रव्यार्थिक नय को को समझकर ही लोकतंत्र की असत् कार्यवाद और सत् कार्यवाद दोनों मान्य नहीं हैं। कारण कार्य का नियम पर्याय प्रणाली को स्वस्थ आधार पर ही लागू होता है। पर्यायार्थिक नय कारण की दृष्टि से सत् और कार्य की दृष्टि दिया जा सकता है। से असत्-दोनों को मान्य कर सत्-असत्-कार्यवाद की स्थापना करता है। जयाचार्य ने अनेकांत के नित्य-अनित्य आधार पर तेरापंथ धर्मसंघ में नित्य और अनित्य के विचार का आधार सत् और असत् है। सत् का एक अंश सामान्य और विशेष की है धौव्य। उसका कभी उत्पाद और व्यय नहीं होता, इसलिए वह नित्य है। सत् का सामंजस्यपूर्ण प्रणाली का दूसरा अंश है पर्याय, उसमें उत्पाद और व्यय दोनों होते हैं, इसलिए वह अनित्य है। प्रयोग किया। उससे धर्मसंघ ध्रौव्य पर्याय से वियुत नहीं होता और पर्याय धौव्य से वियुत नहीं होते। इसलिए सत् विकास की दिशा में आगे अथवा द्रव्य नित्यानित्य होता है। केवल नित्य और केवल अनित्य के आधार पर सत् बढ़ता रहा, आपसी विवादों में व्याख्येय नहीं है। आकाश सत् है, इसलिए वह केवल नित्य नहीं है। पर्याययुत होने नहीं उलझा। उनका विधायक के कारण वह अनित्य भी है। घट एक पर्याय है, इसलिए वह अनित्य है, किंतु वह दृष्टिकोण आज भी आदर्श है। - जिन परमाणुओं से बना है, वह परमाणुपुंज सत् है, इसलिए घट नित्य भी है। जयप्रकाश बाबू ने एक बार आचार्य तुलसी से - सदृश-विसदृश कहा—'आपके संघ में सवा - द्रव्य में सामान्य और विशेष दोनों प्रकार के गुण होते हैं। विशेष गुण के कारण । सोलह आना समाजवाद है। द्रव्य विसदृश होता है। जीव में चैतन्य नामक विशेष गुण है, इसलिए वह परमाणु अब अपेक्षा है वह नीचे पुद्गल से विसदृश है। अनेकांत दर्शन में सदृश और विसदृश सापेक्ष हैं। विशेष गुण की अपेक्षा विसदृश और सामान्य गुण की अपेक्षा सदृश इसलिए एक द्रव्य दूसरे उतरे—समाज तक पहुंचे, । द्रव्य से सर्वथा सदृश और सर्वथा विसदृश नहीं होता। सामान्य गुण की अपेक्षा जीव जन-जन तक पहुंचे। और परमाणु पुद्गल में वैसदृश्य नहीं खोजा जा सकता। इस सिद्धांत को व्यावहारिक अनेकांत और अर्थनीति उदाहरण के द्वारा भी समझा जा सकता है। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के सदृश नहीं हिंसा बढ़ रही है। यह है। 'जीन' की भिन्नता के कारण प्रत्येक मनुष्य दूसरे मनुष्य से भिन्न है, किंतु पांच बात यत्र-तत्र-सर्वत्र सुनने को - इंद्रियां, मन आदि सामान्य गुणों के कारण एक मनुष्य दूसरे मनुष्यों के तुल्य है। मिलती है। वह क्यों बढ़ रही वाच्य-अवाच्य है? उसके कारणों की खोज भी - शब्द और अर्थ के पारस्परिक संबंध का बोध किए बिना व्यवहार का सम्यक् समय-समय पर होती रही है। । संचालन नहीं होता। अर्थ वाच्य है और शब्द वाचक। हम वाचक के द्वारा वाच्य का अनेक कारण सामने आए हैं। ज्ञान करते हैं। वाचक का सम्यक प्रयोग होता है तो वाच्य का सम्यक् ज्ञान हो जाता उनमें सबसे बड़ा कारण है है। वाचक का मिथ्या प्रयोग होने पर अर्थ का अवबोध नहीं हो सकता। नय की आर्थिक प्रलोभन। आर्थिक विचारणा में वाचक के सम्यक् प्रयोग पर सूक्ष्मता से ध्यान दिया गया। प्रलोभन को बढ़ाने का सबसे ग अर्थ के अनेक पर्याय हैं। सब पर्यायों को एक साथ नहीं कहा जा सकता। अनंत बड़ा कारण है मिथ्या - पर्यायों को पूरे जीवन में भी नहीं कहा जा सकता। अनंत पर्यायों का प्रतिपादन करने अवधारणा। अपने पास एक के लिए अनंत वाचक चाहिए। हमारा शब्दकोश इस अपेक्षा की पूर्ति के लिए रुपया है तो चौदह रुपये का बहुत छोटा है। इस दृष्टिकोण के आधार पर कहा जा सकता है द्रव्य वाच्य कर्ज लो। उस कर्ज को चुकाने नहीं है। के लिए अधिक श्रम होगा, हम द्रव्य के एक पर्याय का कथन करते हैं। एक पर्याय के वचन अधिक व्यवसाय होगा, अधिक के आधार पर उसे वाच्य नहीं कहा जा सकता। प्रवचन का व्यवहार विशेष या भेद के आधार पर होता है। अर्थ नय के द्वारा अभेद या सामान्य का अवबोध होता, मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.17 NARE Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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