Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 84
________________ कार्यविशेष की दिशा में होता है जो एक जैसा भी हो सकता हमारा शरीर प्रकृति का एक अंश है और आत्मा है और भिन्न भी हो सकता है। एक तंत्र की व्यवस्था में पुरुष का। कर्म करना हमारा सहज स्वभाव है। कर्मों के अनेक, परंतु अलग-अलग आकार-प्रकार तथा प्रकृति के कारण सभी आत्माएं जन्म, मृत्यु एवं पुनर्जन्म के चक्र में अंग शामिल होते हैं। उदाहरण के लिए हम श्वसन तंत्र को उलझी रहती हैं। जीवन के वैज्ञानिक स्वरूप को समझने लें। इसमें नासाद्वार, नासागुहा, ग्रसनी, श्वासनली, तथा उससे लाभान्वित होने में कर्म-सिद्धांत अत्यंत सहायक श्वसनिका और फेफड़े शामिल होते हैं। नासाद्वार, नासागुहा होते हैं। कार्मिक विकास प्रक्रिया को ठीक ढंग से न समझ और ग्रसनी, जो अपेक्षाकृत कठोर स्वरूप की होती पाने के कारण ही लोग उसे धारण नहीं कर पाते। पूर्ववत् हैं—मिलकर वायु को श्वासनली तक पहुंचाते हैं। कर्म को रूढ़ता के साथ किया जाता है तथा वर्तमान जीवन श्वासनली—जो कुछ मुलायम तथा कुछ कठोर ऊतकों का के प्रति एक नियतिवादी धारणा बना ली जाती है। मिलाजुला रूप है-उस वायु को निश्चित दाब के साथ प्रकति और पुरुष, सूक्ष्म तत्त्व और पंचमहाभूत, फेफड़ों तक ले जाती है। फेफड़ों की रचना अत्यंत मृदु, ज्ञानेंद्रियां तथा कर्मेंद्रियां आदि अपने-आप में एक-दूसरे से झिल्लीनुमा तिहरे आवरणों से होती है जिनके बीच-बीच में सर्वथा भिन्न होते हुए भी परस्पर सहयोग कर शारीरिक छोटे-छोटे प्रकोष्ठ होते हैं, जिनके चारों तरफ रक्त की अस्तित्व के कारण बनते हैं यह अनेकांत दर्शन का वाहिकाओं में रक्त का सघन प्रवाह होता है। वहां पहुंचने के ज्वलंत उदाहरण है। बाद वायु से आक्सीजन रक्त में चली जाती है और रक्त के अंदर से कार्बन-डाईआक्साइड निकलकर प्रकोष्ठों की वायु विविध शरीर-क्रियाओं में अनेकांत में मिल जाती है। इस प्रकार एक ही तंत्र के सहयोगी मूलतः शरीर एक इकाई के रूप में कार्य करता है। अवयवों में कुछ इस प्रकार तालमेल होता है कि एक वाय एक व्यक्ति के पीछे एक ही शरीर होता है। उसके व्यवहार को अंदर लाता है, दूसरा उसे बाहर निकालता है; एक को एक व्यक्ति के व्यवहार के रूप में देखा जाता है, परतु आक्सीजन अपने अंदर आत्मसात करता है; दूसरा उसके शरीर-क्रिया विज्ञान के दृष्टिकोण से देखा जाए तो कई विपरीत कार्बन-डाईआक्साइड को बाहर निकालता है। आश्चर्यजनक तथ्य सामने आते हैं। जीवन चलाने के लिए मुख्य रूप से निम्नांकित क्रियाएं की जाती हैं। दर्शन ___ सांख्य दर्शन के अनुसार शरीर का अस्तित्व भिन्न __1. चयापचय, 2. वृद्धि, 3. गति, 4. उत्तेजनात्मकता प्रकृति वाले घटकों के मेल का परिणाम है। उसके अनुसार अथवा प्रतिक्रिया, 5. विभेदित विकास, 6. प्रजनन। समूचा ब्रह्मांड विश्वात्मा और प्रकृति नामक दो घटकों से चयापचय-एक सामान्य-सी बात दिखाई देती है मिलकर बना है। प्रकति में तीन गण होते हैं-सत्त्व (सत्य, कि मनुष्य जो-कुछ खाता-पीता है या ग्रहण करता है वह शुचिता, सौंदर्य और संतुलन), रजस (शक्ति तथा वेग) तथा शरीर के अंदर जाकर किसी अन्य रूप में परिवर्तित हो तमस (गति को रोकने तथा बाधित करने का गुण)। प्रकति जाता है। आहार के रूप में ग्रहण किए गए पदार्थों-चावल, के अंदर कर्म करने की प्रवृत्ति नहीं होती, क्योंकि वह जड़ है। दाल, चपाती, सब्जी, दूध, घी, मिठाई आदि को यदि शरीर पुरुष प्रकृति का चेतन तत्त्व है। यह गुणों से ऊपर होता है। के अंदर खोजा जाए तो उनका कोई अस्तित्व नहीं मिलेगा। पुरुष पदार्थ में जीवन का संचार करता है। पुरुष और प्रकृति यह शरीर की क्षमता ही है जो बाजरे की कठोर रोटी तथा के संयोग से ही संपूर्ण सृष्टि को अस्तित्व प्राप्त होता है। मक्खन जैसे कोमल पदार्थों दोनों को समूल परिवर्तित कर शरीर का अस्तित्व भी इनमें से एक है। इनके संयोग से तीन देती है। ये खाद्य पदार्थ परिवर्तित होकर अस्थि, मज्जा, अन्य घटकों की उत्पत्ति होती है। ये हैं-महत या बद्धि. रक्त, हार्मोन, आंसू, पाचक रस आदि-आदि अनेक अहंकार तथा मन। इन तीनों से पांच सूक्ष्म तत्त्वों की उत्पति रासायनिक पदार्थों में बदल जाते हैं। चयापचय की संपूर्ण होती है–ध्वनि, स्पर्श, आकृति, रस एवं गंध। सूक्ष्म तत्त्वों प्रक्रिया 'चय' और 'अपचय' नामक दो क्रियाओं के क्रमिक द्वारा ही पंच महाभूतों-आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा रूप से घटित होने से पूरी होती है। जो-कुछ हम खाते-पीते पृथ्वी का ज्ञान होता है। इन पांचों से संबंधित पांच ज्ञानेंद्रियां हैं उसे तोड़-फोड़ कर उनके मूल यौगिकों/अणुओं में हैं-कर्ण, त्वचा, चक्ष, जिह्वा, नासिका तथा पांच कर्मेंद्रियां परिवर्तित करने को अपचय तथा इन अणुओं को हैं—मुख, हस्त, पाद, गुदा तथा जननेंद्रिय। पुनर्नियोजित कर नए और शरीर के उपयोग लायक पदार्थों स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.83 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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