Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 142
________________ अनेकांठदाद : ऊँठर परंपरा में प्रकाश सोनी (वर्मा) Sorg अनेकांत को प्रधानतया जेन दर्शन का पर्याय माना जाता है। अनेकांतवाद का विकास और तार्किक आधायें। पर उसकी पुष्टि जैन दार्शनिकों ने ही की है। जेनेतर दर्शनों में अनेकांठ को अपेक्षित मान्यता प्रदान नहीं की मई है, परंतु अनेक स्थलों पर वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों की स्वीकृति एवं उनका समन्वय उनमें भी दृष्टिगोचर होता है, जो अनेकांतवाद की स्वीकृति माना जा सकता है। भगवान महावीर और बुद्ध के समय में ही नहीं, उससे पूर्व भी वस्तु स्वरूप का अनेक दृष्टियों से प्रतिपादन करने की परंपरा थी। MMS जो वस्तु तत्स्वरूप है, वह वस्तु असत् स्वरूप जिनका उत्तर हो सकता है, कहा है जैसे आर्यसत्य है ही। है। जो सत है, वह असत भी है। जो एक बुद्ध ने प्रश्नव्याकरण चार प्रकार का बताया है। (दीघनिः है, वह अनेक भी है। जो नित्य है, वह अनित्य भी है। 33 संगीति परियाय) एकांश व्याकरण, प्रतिपृच्छा अनेकांत परस्पर अनेक विरोधी धर्मों का समन्वय करता है। व्याकरणीय प्रश्न, विभज्य व्याकरणीय प्रश्न में एक ही वस्तु अनेकांत-दृष्टि वस्तु के किसी एक ही धर्म को लेकर विचार का विभाग करके उसका अनेक दृष्टियों से वर्णन किया नहीं करती, वह वस्तु के अनंत धर्मों का सत्कार करती है। जाता है। वस्तु के किसी एक ही अंश को ग्रहण करके चलने वाली भारतीय षड्दर्शनों में भी अनेकांतवाद का दर्शन दृष्टि एकांगी होती है। फलतः वह वस्तु के यथार्थ स्वरूप समुचित रूप में देखने को मिलता है। को नहीं जान पाती। सांख्य दर्शन में अनेकांतवाद अनेकांत को प्रधानतया जैन दर्शन का पर्याय माना सांख्य भी जैन दर्शन के जीव एवं अजीव की तरह जाता है। अनेकांतवाद का विकास और तार्किक आधारों पर पुरुष एवं प्रकृति—ऐसे दो मूल तत्त्व मानता है। उसमें पुरुष उसकी पुष्टि जैन दार्शनिकों ने ही की है। जैनेतर दर्शनों में को कूटस्थ नित्य और प्रकृति को परिणामी नित्य माना गया अनेकांत को अपेक्षित मान्यता प्रदान नहीं की गई है, परंतु है। इस तरह उसके द्वैतवाद में एक तत्त्व परिवर्तनशील और अनेक स्थलों पर वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों की स्वीकृति दसरा अपरिवर्तनशील है। इस प्रकार सत्ता के दो पक्ष एवं उनका समन्वय उनमें भी दृष्टिगोचर होता है, जो परस्पर विरोधी गुणधर्मों से युक्त हैं। फिर भी उनमें एक अनेकांतवाद की स्वीकृति माना जा सकता है। भगवान सह-संबंध है। पूनः यह कूटस्थ नित्यता भी उस मुक्त पुरुष महावीर और बुद्ध के समय में ही नहीं, उससे पूर्व भी वस्तु के संबंध में है, जो प्रकृति से अपनी पथकता अनुभत कर स्वरूप को अनेक दृष्टियों से प्रतिपादित करने की परंपरा चका है। सामान्य संसारी परुष/जीव में तो प्रकति के थी। ऋग्वेद का 'एकंसद्विप्राबहुधावदन्ति' (ऋग्वेद 1/ संयोग से अपेक्षा भेद से नित्यत्व और परिणामीत्व दोनों ही 164/46) वाक्य इसी अभिप्राय को सूचित करता है। मान्य किए जा सकते हैं। पुनः प्रकृति तो जैन दर्शन के सत् यथा 'देवानां पूर्वे युगे असतः सद्जायत' (ऋग्वेद 10/72/ के समान परिणामी-नित्य मानी गई है, यानी उसमें 7) से यही फलित होता है कि वैदिक ऋषि अनाग्रही परिवर्तनशील एवं अपरिवर्तनशील दोनों विरोधी गुणधर्म अनेकांत-दृष्टि के ही संपोषक रहे हैं। बुद्ध विभज्यवादी थे। अपेक्षा भेद से रहे हुए हैं। पुनः त्रिगुण-सत्त्व, रजस् और वे प्रश्नों का उत्तर एकांश में 'हां' या 'ना' में न देकर तमस् आपस में विरोधी हैं, फिर भी प्रकृति में वे तीनों एक अनैकांशिक भी देते हैं (दीघनिः पोट्टपादसुत्त) जो साथ रहे हुए हैं। सांख्य दर्शन का सत्त्वगुण स्थिति का, व्याकरणीय है, उन्हें ऐकांशिक यानी सुनिश्चित रूप से रजोगुण उत्पाद का, तमोगुण विनाश का प्रतीक है। द्रव्य की स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 | जैन भारती अनेकांत विशेष. 141 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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