Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 24
________________ या कथन विषयक बात है। किंतु 'तत्त्व अद्वय चैतन्य रूप है तत्त्वमीमांसीय हैं यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया। यह या क्षण-संतान रूप है' इसका विषय हमारा ज्ञान या कथन अस्पष्टता इसलिए है क्योंकि वे स्याद्वाद को 'प्रतिपादन नहीं है, इसका विषय तत्त्व का स्वरूप है। अब आचार्यश्री शैली' भी कहते हैं और मेलेनोविस के अनुसार इसे सांख्यिकी महाप्रज्ञ की व्याख्या देखें। वे कहते हैं-'अनेकांत का मूल से भी जोड़ते हैं। अब, सांख्यिकी वह ज्ञान-विधि है जो प्रतिपाद्य है नित्यानित्यतावाद। विश्व की व्याख्या तथा द्रव्य घटनाओं में कारण-कार्य संबंध सिद्ध नहीं कर पाने पर की व्याख्या केवल नित्य और केवल अनित्य के आधार पर संख्यात्मक अनुपात के आधार पर संभावनात्मक नहीं की जा सकती। जैन दर्शन के अनुसार कोई द्रव्य नित्य भविष्यवाणी करती है। यद्यपि स्याद्वाद को सांख्यिकी से और कोई अनित्य, यह विभाग नहीं है। प्रत्येक द्रव्य का एक जोड़ना और 'प्रतिपादन शैली' कहना दोनों भ्रांतिमूलक हैं, अंश है ध्रौव्य, इसलिए वह नित्य है, उसका दूसरा अंश है क्योंकि ये सापेक्षतया निश्चयात्मक कथन ही होते हैं देश पर्याय, इसलिए वह अनित्य है।'' यहां आचार्यश्री महाप्रज्ञ की अपेक्षा से, काल की अपेक्षा से आदि, जबकि सांख्यिकीय 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग 'वस्तु' के अर्थ में कर रहे हैं क्योंकि कथन संभावनात्मक होते हैं, किंतु यदि कोई इन्हें सांख्यिकीय द्रव्य ध्रुव, अर्थात् नित्य ही होता है, जबकि वस्तु नित्यानित्य रूप से देखता है तो वह इन्हें किसी भी प्रकार से होती है। जो भी हो, आचार्यश्री के उपर्युक्त प्रतिपादन के तत्त्वमीमांसीय नहीं कह सकता। अनुसार अनेकांत का संबंध वस्तु-स्वरूप से है-वस्तु किंतु अनेकांतवाद निश्चित रूप से तत्त्वमीमांसीय स्वरूपतः अनेकात्मक है। यह अनेकांतवाद का अभिप्राय है। सिद्धांत ही है क्योंकि यह वस्तु के विभिन्न पक्षों को उनकी आपेक्षिकता वस्तुगत नहीं होती, वह ज्ञानगत या कथनगत ही विभिन्नता में वस्तुगत ही मानता है, और स्याद्वाद इन पक्षों हो सकती है। किंतु तब की विभिन्नता का उसी रूप में अनेकांतवाद अनेक प्रकार के कथन करने की विधि है। किंतु तब हैं न्याय-वैशेषिक प्रकार का, जहां तक स्याद्वाद का संबंध है, यह प्रश्न होता है कि जब हम कहते हैं सांख्यीय प्रकार का, बौद्ध प्रकार हमारे साधारण भाषा-प्रयोग में कि 'वस्तु इस अपेक्षा से ध्रुव और का और दूसरे अनेक प्रकार के भी। पूर्वगृहीत बातों को केवल विस्तार से इस अपेक्षा से परिवर्तमान है, इस महाप्रज्ञजी अनेकांतवाद को कहना है। उदाहरणतः जब हम कहते अपेक्षा से अस्ति और इस अपेक्षा तत्त्वमीमांसीय कहते भी हैं, जिसका हैं 'यह घट है' तब इसमें 'वह' की. से अनस्ति है' और कि 'वह अर्थ है कि ज्ञानमीमांसीय अर्थ में और 'था' और 'होगा' की व्यावृत्तियां अवक्तव्य भी है', अर्थात् 'अस्तियह अनैकांतिक दृष्टि नहीं है, उस पूर्वगृहीत रहती हैं। 'यह घट है' इस अनस्ति उभयतः भी है' तब हम वाक्य को निरपेक्ष रूप से कोई भी अर्थ में यह ऐकांतिक दृष्टि ही है। नहीं लेता। यदि कोई लेता है तो वस्तु के निरपेक्ष ग्रहण को ज्ञानमीमांसीय अर्थ में अनेकांत इसका अर्थ है कि वह साधारण पूर्वगृहीत किए बिना यह कैसे कह दृष्टि यह होगी कि 'वस्तुएं हमें भाषा-ज्ञान से वंचित है। किंतु यह सकते हैं? हाथी के उदाहरण में भी द्रव्य और पर्याय उभयात्मक प्रतीत वस्तु विषयक लोकधारणा है। यदि वही बात है, कि कोई सूंड को ही होती हैं, यद्यपि यह कहना कठिन है कोई इस लोकधारणा को ही, जिसे हाथी मान रहा है और दूसरा पैर किये जैसी प्रतीत होती हैं वैसी ही महात्मा बुद्ध 'पृथग्जन की धारणा' को ही, किंतु यह भ्रांति है-इसे हों, ये मात्र द्रव्यात्मक भी हो सकती कहते हैं, परमार्थ का स्तर दे देता है वही जान सकता है जो हाथी को हैं, मात्र पर्यायात्मक भी हो सकती और इस पर ही अपनी सारी उसकी समग्रता में जानता हो। हैं, ऐसी भी हो सकती हैं जिन पर विवेचन-शक्ति का अपव्यय करता है अब, इस दृष्टि को ज्ञानात्मक ऐसी कोई कोटि लागू नहीं होती हो, तो वह हमारी सहानुभूति का पात्र तो अनेकांत दृष्टि और निराग्रही दृष्टि और ऐसी भी कि जैसे जादूगर द्वारा हो सकता है, आदर का पात्र नहीं। नहीं कह सकते, ज्ञानात्मक रूप से रचित इंद्रजाल।' किंतु जैन लोग तो यह ऐकांतिक दृष्टि ही है, और ऐसी अनिश्चयात्मकता नहीं रखते। यह बात अतिरिक्त कि यह अपने यह अस्पष्टता तब और बढ़ जाती है जब वे अनेकांत को ही को पूर्ण सत्य की ज्ञापक मानती है और दूसरी दृष्टियों को नहीं स्याद्वाद और नय को भी तत्त्वमीमांसीय कहते हैं। ये कैसे खंड सत्य को अखंड सत्य मानने वाली मानती है। 1 1 1111111111111111 | स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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