Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 112
________________ के पूर्व उपनिषद् कहते थे कि ब्रह्म की व्याख्या नहीं हो स्याद्वाद महावीर के जीवन में व्याप्त था। उनके सकती। बड़ा अद्भुत है उसका स्वरूप। महावीर ने कहा, बचपन में ही स्याद्वादी चिंतन प्रारंभ हो गया था। कहा जाता 'ब्रह्म तो बहुत दूर की चीज है, तुम एक घड़े की ही व्याख्या है कि एक दिन वर्द्धमान के कुछ बालक साथी उन्हें खोजते नहीं कर सकते। उसका अस्तित्व भी अनिर्वचनीय है।' इसे हुए मां त्रिशला के पास पहुंचे। त्रिशला ने कह दियामहावीर ने विस्तार से समझाया। 'वर्द्धमान भवन में ऊपर है।' बच्चे भवन के सबसे ऊपरी महावीर के पूर्व सत्य के संबंध में तीन दृष्टिकोण खंड पर पहुंच गए। वहां पिता सिद्धार्थ थे, वर्द्धमान नहीं। थे—(1) है, (2) नहीं है और (3) दोनों—नहीं भी एवं है जब बच्चा न पिता सिद्धाथ स पूछा ता उन्हान कह दियाभी। घट के संबंध में यह कहा जाता था कि वह घट है, कोई 'वर्द्धमान नीचे है।' बच्चों को बीच की एक मंजिल में कपड़ा आदि नहीं। घट नहीं है, क्योंकि वह तो मिट्टी है तथा । वर्द्धमान मिल गए। बच्चों ने महावीर से शिकायत की कि घड़े के अर्थ में वह घड़ा है तथा मिट्टी के अर्थ में घड़ा नहीं है। आज आपकी मां एवं पिता दोनों ने झूठ बोला। म इस प्रकार वस्तु को इस त्रिभंगी से देखा जाता था। महावीर वर्द्धमान ने अपने साथियों से कहा-'तुम्हें भ्रम हुआ ने कहा कि सिर्फ तीन से काम नहीं चलेगा। सत्य और भी है। मां एवं पिताजी दोनों ने सत्य कहा था। तुम्हारे समझने जटिल है। अतः उन्होंने इसमें चार संभावनाएं और जोड़ का फर्क है। मां नीचे की मंजिल पर खड़ी थीं। अतः उनकी दीं। उन्होंने कहा कि घट स्यात् अनिर्वचनीय है, क्योंकि न अपेक्षा मैं ऊपर था और पिताजी सबसे ऊपरी खंड पर थे तो वह मिट्टी कहा जा सकता है और न घड़ा ही। इसी इसलिए उनकी अपेक्षा मैं नीचे था।' वस्तुओं की सभी अनिर्वचनीय को महावीर ने प्रथम तीन के साथ और जोड स्थितियों के संबंध में इसी प्रकार सोचने से हम सत्य तक दिया। इस प्रकार सप्तभंगी द्वारा वे पदार्थ के स्वरूप की पहुंच सकते हैं। भ्रम में नहीं पड़ते। वर्द्धमान की यह व्याख्या व्याख्या करना चाहते थे। सुनकर बालक हैरान रह गए। महावीर स्याद्वाद की बात कह इस सप्तभंगी नय को महावीर ने अनेक दृष्टांतों द्वारा गए। समझाया है। उनमें छह अंधों और हाथी का दृष्टांत प्रसिद्ध स्याद्वाद और अनेकांतवाद में घनिष्ठ संबंध है। है। हम इसे अन्य उदाहरण से समझें। एक ही व्यक्ति पिता, भगवान महावीर ने इन दोनों के स्वरूप एवं महत्त्व को स्पष्ट पुत्र, पति, मामा, भानजा, काका, भतीजा इत्यादि सभी हो किया है। अनेकांतवाद के मूल में है—सत्य की खोज। सकता है। एक साथ होता है। किंतु उसे ऐसा सब-कुछ एक महावीर ने अपने अनुभव से जाना था कि जगत में परमात्मा साथ नहीं कहा जा सकता। उसकी एक विशेषता को मुख्य अथवा विश्व की बात तो अलग, व्यक्ति अपने सीमित ज्ञान और शेष को गौण रखकर ही कहना होगा। यहां गौण रखने द्वारा घट को भी पूर्ण रूप से नहीं जान पाता। रूप, रस, का अभिप्राय उसकी विशेषताओं का अस्वीकार नहीं है और गंध, स्पर्श आदि गुणों से युक्त वह घट छोटा-बड़ा, कालान संशय या अनिश्चय ही। बल्कि व्यावहारिकता का निर्वाह सफेद, हल्का-भारी, उत्पत्ति-नाश आदि अनंत धर्मों से है। अतः किसी वस्तु का युगपद कथन न जरूरी है और न युक्त है। पर जब कोई व्यक्ति उसका स्वरूप कहने लगता संभव। फिर भी उसकी पूर्णता अवश्य बनी रहती है। है तो एक बार में उसके किसी एक गुण को ही कह पाता है। वस्तुओं के इस अनेकत्व को मानना ही अनेकांतवाद है। यही स्थिति संसार की प्रत्येक वस्तु की है। पदार्थों की अनेकता स्वयं द्रव्य के स्वरूप में छिपी है, हम प्रतिदिन सोने का आभूषण देखते हैं। लकड़ी की प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य से युक्त होता है। टेबिल देखते हैं और कुछ दिनों बाद इनके बनते-बिगड़ते प्रत्येक क्षण उसमें नई पर्याय की उत्पत्ति, पुरानी पर्याय का रूप भी देखते हैं, किंतु सोना और लकड़ी वही बनी रहती नाश एवं द्रव्यपने की स्थिरता बनी रहती है। इसी बात को है। आज के मशीनी युग में किसी धातु के कारखाने में हम कहने के लिए महावीर ने अनेकांत की बात कही। वस्तु का खड़े हो जाएं तो देखेंगे कि प्रारंभ में पत्थर का एक टुकड़ा अनेकधर्मा होना अनेकांतवाद है तथा उसे अभिव्यक्त करने मशीन में प्रवेश करता है और अंत में जस्ता, तांबा आदि के की शैली का नाम स्यावाद है। स्याद्वाद कोई संशयवाद नहीं रूप में बाहर आता है। वस्तु के इसी स्वरूप के कारण है। अपितु स्यात् शब्द का प्रयोग वस्तु के एक और गुण की महावीर ने कहा था-'प्रत्येक पदार्थ उत्पत्ति, विनाश और संभावना का द्योतक है। स्थिरता से युक्त है।' द्रव्य के इस स्वरूप को ध्यान में स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष .111 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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