Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भारती मार्च - मई, वर्ष 50 • अंक 3-4-5 . al Use Only 2002 www.jainelibrary. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभू पटवा मानद संपादक ASY जैन भारती बच्छराज दूगड़ मानद सह-संपादक मार्च-मई, 2002 . वर्ष 50 • अंक 3-4-5 . इस अंक का मूल्य रु. 100.00 अनेकांत विशेष स्वर्ण जयंती वर्ष Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा -इस अंक में 11 mean आचार्यश्री महाप्रज्ञ अनेकांत और नए समाज की रचना ANAL नय, अनेकांत और विचार के नियम 22 यशदेव शल्य अनेकांत और स्याद्वाद : कैसे हो अस्पष्टता का निवारण E 21 PATRIMereavenama adioRARASIMHear mammmssam a manand ammes Beldainadi merohemisamaN MURARAMINORinute BasiaHARKatewomandalevoniRONHease BAMARVADODARAMAmanabemasomaAALon musantumasaNARAINHamar womawaaNaomulyar HomeanI donesometer - - amarMonomen ememoria Lessons mdomNO caromans namaste pat Motore man ORDER तुषार सरकार अनेकांतवाद और स्याद्वाद : एक विमर्श 38 प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद अनेकांत दर्शन : ऊर्ध्वारोहण की साधना 44 प्रो. दयाकृष्ण अनेकांत : कुछ समस्याएं 48 डॉ. बच्छराज दूगड़ अनेकांत की व्यवहार्यता omsandar widelinamdiadeallallowdindiadindiaideokinar TRISHANIRAMAchaarminusandsomamming A mama mmons c omsanny mane A PHONERa mosamianRRIOUSE Holvoane munteeMORRHamasome Varanimoothieuonmentariester Ramananews a monamasomampaana Randomainountantramsenawar HINIDH ISMAm TomanenetapmunimamaARI rautumaraman American A molomeraction Womsunatelimananthalganoosite Hindustagronoungama MINounsearc wwwsaironmentaemium RamanarmaNDITORIAnd esamanamaramaveeraannr H hi mulimmam I PharmaNDRAPaper S womansuremendousines Ritaminenerang amrapanna mkaundl MARATurmus Mondlod 54 suganngingmurgNTS piotherape Sammeloneeta । m HomewatPassamas araameesmusules makalinsahindemandutod uational डॉ. राजकुमारी जैन अनेकांतात्मक स्वरूप : ज्ञानमीमांसीय संदर्भ 64 प्रो. सागरमल जैन अनेकांत : सत्य के खोज की व्यावहारिक पद्धति 74 डॉ. फूलचन्द जैन प्रेमी आधुनिक युग को जैन दर्शन का प्रदेय : नयवाद और अनेकांतवाद R mamalman Hardomestion maanaswati anamancom 81 प्रसंग डॉ. जे. पी. एन. मिश्रा शारीरिक संरचना में झलकता अनेकांत 87 डॉ. आनंदप्रकाश त्रिपाठी 'रत्नेश' अनेकांत और अरस्तू शुभू पटवा आध्यात्मिक पुनरुज्जीवन mamaramaste memarawenasure s alman BHABHIS HIREEEEEEEEEER : संपादकीय पता : संपादक, जैन भारती, भीनासर 334403, बीकानेर • फोन : 0151-270305, 20 2505 प्रकाशकीय कार्यालय : जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा तेरापंथ भवन, महावीर चौक, गंगाशहर, बीकानेर 334401 प्रधान कार्यालय : जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, 3, पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट, कोलकाता 700001 सदस्यता शुल्क : वार्षिक 125/- रुपये • त्रैवार्षिक 350/- रुपये • दसवर्षीय 1000/- रुपये Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93 अनुभूति - - युवाचार्य महाश्रमण व्यवहार में अनेकांत का प्रयोग 95 साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा अनेकांत का सेतु : विचारों के तट 98 डॉ. रामजीसिंह अनेकांत : महावीर का सत्यान्वेषण 101 नीरज जैन अनेकांत : चिंतन का चरमचक्षु 105 डॉ. अनिल धर अनेकांत के अनुप्रयोग 110 प्रो. (डॉ.) प्रेम सुमन जैन अनेकांतवाद : समन्वय का आधार 114 डॉ. हरिशंकर पाण्डेय वैदिक साहित्य में भाषिक अनेकांत 119 कहानी रियूनोसुके अकूतागावा कुंज के भीतर some 124 - कविता अज्ञेय की कविताएं NWU शीलन AS 127 डॉ. अशोककुमार जैन अनेकांत : उद्भव एवं विकास 134 निहालचंद जैन अनेकांत की वैज्ञानिकता 138 हेमलता बोलिया समस्याओं का समाधान : अनेकांत 141 प्रकाश सोनी (वर्मा) अनेकांतवाद : जैनेतर परंपरा में 144 हेमन्तकुमार डूंगरवाल अनेकांत : न एकांत 147 बोध कथन मुनि दुलहराज अपराध और दंड तथा पांच प्रेरक प्रसंग आवरण अडिग Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ईश्वर के संबंध में मेरा जैसा विश्वास है, ठीक वैसा ही मैं बोलता हूं...वह सृष्टिकर्ता भी है और अ-सृष्टिकर्ता भी। यह भी यथार्थ की अनेकता के सिद्धांत की मेरे द्वारा स्वीकृति का ही परिणाम है। मैं जैनियों के मंच से ईश्वर के अ-सृष्टिकर्ता होने की धारणा को सिद्ध करता हूं और रामानुज के मंच से उसके सृष्टिकर्ता होने की धारणा को। वस्तुतः हम सब अचिंत्य का चिंतन करने, अवर्णनीय का वर्णन करने और अज्ञेय को जानने का प्रयास करते हैं। इसीलिए हमारी वाणी लड़खड़ा जाती है, कभी-कभी हमें वाणी की अपर्याप्तता का भी एहसास होता है और प्रायः हम परस्पर विरोधी बातें भी कह जाते हैं। यही कारण है कि वेदों ने ब्रह्म का वर्णन करते हुए 'नेति-नेति' कहा है। मेरी समझ में राम, रहमान, अहुरमज्द, गॉड या कृष्ण-मनुष्य द्वारा इस अदृश्य शक्ति-जो शक्तियों में सबसे बड़ी है— को कोई नाम देने के प्रयास ही हैं। अपूर्ण होते हुए भी पूर्णता की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयत्न करना मानवप्रकृति है। ऐसा करते हुए वह कभी दिवास्वप्न देखने लगता है। और जिस प्रकार कोई बालक खड़े होने का प्रयत्न करता है, बार-बार गिरता है और अंततः चलना सीख जाता है, उसी तरह आदमी भी, अपनी सारी बुद्धिमत्ता के बावजूद, उस असीम और अनंत ईश्वर के सामने निरा शिशु है। यह अतिशयोक्ति लग सकती है, पर है नहीं। मनुष्य ईश्वर का वर्णन अपनी तुच्छ भाषा में ही तो कर सकता है।" महात्मा गांधी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग्यता की दृष्टि से मनुष्य पांच इंद्रिय वाला होता है। एक काल में वह एक ही इंद्रिय से जानता है। जब एक आदमी सूखा लड्डू खाता है, तब उसे शब्द भी सुनाई देता है, उसे देखता भी है, उसकी गंध भी आती है, रस भी चखता है। लगता है पांचों की जानकारी या अनुभूति एक साथ हो रही है। परंतु ऐसा होता नहीं। इन सबका काल भिन्न होता है। दो ज्ञान एक साथ नहीं हो सकते। दो क्रियाएं एक साथ हो सकती हैं, किंतु अविरोधी हों तो। दो विरोधी क्रियाएं एक साथ नहीं हो सकी। दो प्रकार के विचार एक साथ नहीं हो सकते। - सम्यक् और असम्यक् दोनों क्रियाएं एक साथ नहीं हो सकी। अहिंसा और हिंसा, धर्म और अधर्म का आचरण एक साथ नहीं किया जा सकता। सांसारिक उपकार सांसारिक व्यवस्था का मार्ग है। आत्मिक उपकार मोक्ष की साधना का मार्ग है। मिथ्यादृष्टि इन दोनों को एक मानता है, सम्यकदृष्टि इनको अलग-अलग मानता है। 'भिक्षु विचार दर्शन' से ALTAN धर्म अरूप तत्त्व है। उसे लोक-जीवन में प्रतिष्ठित करने के लिए रूप देना जरूरी होता है। विचारों के वाहन पर बिठा देने से वह रूपवान बन सकता है। उसका रूप अनाविल और हृदयहारी रहे इसके लिए विचारों को समन्वय के 'फ्रेम' में व्यवस्थित करने की अपेक्षा रहती है। असमन्वित विचारधारा से प्रवाहित तरंगें समग्र वातावरण का सन्तुलन तोड़ सकती हैं। इस दृष्टि से भगवान महावीर ने समता और समन्वय पर विशेष बल दिया। समता और समन्वय के खंभों पर संगठन का प्रासाद खड़ा हो सकता है। भगवान महावीर ने समता और समन्वय के साथ संगठन को भी विशेष प्रतिष्ठा दी। कुछ विचारकों के अभिमत से संगठन हिंसा का प्रतीक है। पर महावीर के दर्शन में यह स्वर कहीं भी मुखर नहीं है। उन्होंने सत्य को उपलब्ध करते ही संगठन को अपनी स्वीकृति दे दी। आज तक जितने भी तीर्थकर हुए हैं, उन सबने ऐसा ही किया है। क्योंकि तीर्थकर बनने की पहली शर्त ही है—तीर्थ अर्थात् संघ की स्थापना | जहां संघ है वहां संगठन की अनिवार्यता है। कोई भी व्यक्ति अकेला रहकर साधना करे, वहां संगठन का मूल्य नहीं है। किंतु सामूहिक साधना संगठन के अभाव में अपनी तेजस्विता को मंद कर देती है। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि साधना संगठन के लिए ही है। पर साधना के लिए संगठन का जो उपयोग है, उसी को ध्यान में रखकर भगवान महावीर ने एक संगठित धर्म-संघ का प्रवर्तन किया था । –आचार्यश्री तुलसी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांप्रदायिक कटरता अतीत में भी रही है, आज भी है। अतीत में भी एक संप्रदाय ने दूसरे संप्रदाय में विद्यमान असत्यांश को देखने का दृष्टिकोण विस्तृत किया, उसके प्रति जनता में घृणा का भाव उभारा। आज भी ऐसा हो रहा है। फलतः सांप्रदायिक संघर्ष की चिनगारी समय-समय पर उछलती रहती है। इस समस्या का सर्वोत्तम समाधान है—दूसरों में विद्यमान सत्यांश को ग्रहण करने वाली दृष्टि का विकास | इसी चिंतन के क्षणों में काका कालेलकर ने कहा था-'आज के विश्व को अनेकांत की जरूरत है।' लोकतंत्र की प्रणाली में अनेकांत एक जीवन-शक्ति का काम करता है। अनेकांत का एक सिद्धांत है अर्पणा और अनर्पणा । किसी एक की अर्पणा करो, उसे आगे लाओ, मुख्य बनाओ। दूसरे की अनर्पणा करो, उसे पीछे ले जाओ, गौण कर दो। इस मुख्य और गौण बनाने की प्रक्रिया से ही बदलते हुए सत्यों की व्याख्या हो सकती है। हमारी गति का क्रम है—एक पैर आगे आता है, दूसरा पैर पीछे चला जाता है। दोनों पैरों की इस सापेक्षता से ही गति संभव बनती है। बिलौने में दोनों हाथों का भी यही क्रम है। पहले क्षण दायां हाथ आगे आता है, बायां हाथ पीछे। दूसरे क्षण दायां हाथ पीछे चला जाता है और बायां हाथ आगे आ जाता है। दोनों हाथ आगे रहें या पीछे रहें, नवनीत नहीं निकलता | कभी एक सत्यांश प्रमुख होता है तो दूसरा सत्यांश गौण बन जाता है। इस गतिशीलता ने ही दो भिन्न अथवा विरोधी सत्यांशों में समन्वय स्थापित किया है। ____दर्शन के क्षेत्र में अनेकांत समन्वय का प्रवर्तक है। उसकी अनुक्रिया व्यवहार के क्षेत्र में भी होती है। यह समन्वय का सूत्र ही सह-अस्तित्व का आधार बनता है। -आचार्यश्री महाप्रज्ञ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भारता - मार्च-मई, 2002 प्रसंग आध्यात्मिक पुनरुज्जीवन अब यह माना जाने लगा है कि निरंतर बढ़ रही विश्व की विकट समस्याओं का समाधान अध्यात्म में ही निहित है और इसे छोड़कर किसी अन्य प्रणाली से विषमता का विषदंत बेअसर नहीं किया जा सकता। भौतिक विकास की लंबी छलांग ने मनुष्य और मनुष्य के बीच गहरी खाइयां खड़ी की हैं। एक ओर एक ऐसा वर्ग इस धरती पर है जिसके पास संसाधनों का बेशुमार अंबार है, तो दूसरी तरफ एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो भूखा है, नंगा है और बीमार हालत में अपनी जिंदगी के दिन तोड़ रहा है। हालत यह भी है कि जो सबसे अधिक शक्तिसंपन्न है वह ही सबसे अधिक भयभीत है। जिसने हिंसा के सर्वाधिक संसाधन जुटा रखे हैं, उसका जीवन सर्वाधिक आशंकाओं, दुविधाओं और दुश्चिंताओं से घिरा हुआ है। कहा जा सकता है कि जो सबसे अधिक संपन्न है, वही सबसे ज्यादा विपन्न अवस्था में है। __ मनुष्य समाज की ऐसी दुरवस्था के ही चलते अब यह माना जाने लगा है कि रास्ता एक ही है और वह है अध्यात्म। अध्यात्म है क्या? मनीषी-दार्शनिक आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के शब्दों में--"अध्यात्म और नैतिकता दोनों एक ही श्रृंखला की दो कड़ियां हैं। अध्यात्म-चेतना जागने पर कोई भी व्यक्ति अनैतिक नहीं हो सकता। नैतिक व्यक्ति ही अध्यात्म की दिशा में अग्रसर हो सकता है। कार्य-कारण की दृष्टि से अध्यात्म कारण तथा नैतिकता उसका फलित है। व्यवहार की दृष्टि से नैतिकता समाज की अपेक्षा है और अध्यात्म व्यक्ति की अपेक्षा है। व्यक्ति और समाज को सर्वथा विभक्त नहीं किया जा सकता। दोनों स्वस्थ रहें, यह संयुक्त अपेक्षा है। व्यक्ति-व्यक्ति में अध्यात्म चेतना जागे, वह सामाजिक चेतना में प्रतिबिंबित हो यह सबसे बड़ी मांग है।" आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की ही तरह भारत के प्रमुख विचारक-दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन् भी मानते हैं कि अप्रिय घृणाओं को समाप्त कर डालने के लिए आध्यात्मिक पुनरुज्जीवन की आवश्यकता है। वे मानते हैं—“विचारों की कोई भी गंभीर साधना, विश्वासों की कोई भी खोज, सद्गुणों के अभ्यास का कोई भी प्रयत्न ये सभी उन ही स्रोतों से उत्पन्न होते हैं, जिनका नाम धर्म है।" डॉ. राधाकृष्णन् तो यहां तक कहते हैं—"न्यायपूर्वक आचरण करना, सौंदर्य से प्रेम करना और सत्य की भावना के साथ विनम्रतापूर्वक चलना यही सबसे ऊंचा धर्म है।" मनुष्य और मनुष्य के बीच पनपती जा रही गहरी खाई को कम करने में धर्म की ऐसी ही परिभाषा सहायक हो सकती है। धर्म के नाम पर तथाकथित आग्रह-दुराग्रह और उसी के चलते होने वाले टकरावों ने जितना धर्म का अहित किया है, उससे कहीं अधिक धार्मिक संकीर्णता से मनुष्यता आहत हुई है। धर्म की निर्मल छवि पर छा रहे कल्मष को साफ करने का एकमात्र उपाय है-अनेकांत । अनेकांत से तात्पर्य ही आग्रहों-दुराग्रहों से मुक्त होकर, मत-मतांतरों के बीच उभरने वाले टकरावों का शमन कर समन्वय और सामंजस्य के साथ भिन्न विचारों को सम्मान देना है। असहमतियों के प्रति सम्मानजनक स्थितियां बनाए रखने में अनेकांत का सिद्धांत जितना कारगर हो सकता है, किसी अन्य मत में इतनी सामर्थ्य प्रतीत नहीं होती। m A SHREE मार्च-मई, 2002 स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती R RRRRRRRRRIE अनेकांत विशेष.7 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि हम एक बेहतर विश्व के निर्माण की दिशा में सोच रहे हों, एक ऐसी विश्व-व्यवस्था में हमारा विश्वास हो—जिसमें न दरिद्रता हो, न बेकारी हो और न विषमता, जिसमें युद्ध का उन्माद और रक्तपात की संभावनाएं सिरे से ही खारिज रहें तो कोई ऐसा मार्ग तलाशना होगा जो आध्यात्मिक पुनरुज्जीवन का शंखनाद कर सके। अनेकांत इसके लिए सहज मार्ग हो सकता है। यद्यपि यह दुर्भाग्य ही है कि समन्वय और परस्पर सम्मान-दृष्टि रखने वाले इस सिद्धांत पर समग्र रूप से चिंतन कभी नहीं हो पाया। अनेकांत को धर्म की सीमाबंदी में इस तरह जकड़ा रखा गया कि इसका दार्शनिक-तात्त्विक स्वरूप तो उजागर हुआ, पर जीवन के विभिन्न पहलुओं और जटिलताओं के समाधान में भी इसकी कोई भूमिका हो सकती है, ऐसी क्षमता भी अनेकांत में विद्यमान है-विचार नहीं हो पाया। लेकिन अब, जब यह बात कही जाने लगी है कि समस्याओं से मुक्त होने के लिए अध्यात्म ही सर्व-सुलभ मार्ग है-अनेकांत की क्षमताओं पर विचार होना चाहिए। क्या अनेकांत हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन पर असरदार हो सकता है? आज जो स्थितियां विश्वपटल पर नजर आ रही हैं- क्या उन पर अनेकांत दृष्टि से विचार किया जा सकता है ? समूचे राजनीतिक-आर्थिक जीवन पर आज या तो बाजार की शक्तियों का प्रभाव है या आतंकवाद का। आतंकवाद ने केवल निहत्थों-निरपराधों की जानें ही नहीं ली है, सत्ता और विचारधारा को थोपने के लिए शक्तिसंपन्न राष्ट्रों, जनों की धौंसपट्टी भी प्रकारांतर से आतंकवाद ही है। हिंसा केवल जीवहत्या में ही नहीं है, जितनी यह हिंसा घृणास्पद है—मानसिक और वाचिक रूप से होने वाली हिंसा भी उतनी ही घृणित है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के अनुसार भगवान महावीर कहते हैं- "दूसरों के प्रति ही नहीं, उनके विचारों के प्रति भी अन्याय मत करो। अपने को समझने के साथ-साथ दूसरों को समझने की भी चेष्टा करो।" महाप्रज्ञजी के अनुसार यही है अनेकांत दृष्टि, यही है अपेक्षावाद और इसी का नाम है बौद्धिक अहिंसा। भगवान महावीर ने इसे दार्शनिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रखा, इसे जीवन-व्यवहार में भी उतारा। इसके समर्थन में महावीर के जीवनकाल की कई घटनाओं-चंडकौशिक सांप, संगम आदि का आचार्यश्री महाप्रज्ञजी उल्लेख करते हैं। वर्तमान संदर्भ में इन्हें आतंकवाद का रूप ही कहा जाएगा। महावीर ने तत्समय के ऐसे कथित आतंकवाद के बरक्स विश्व-मैत्री की दृष्टि प्रतिपादित की। महावीर की यही दृष्टि आज की समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकती है अतः इन पर विचार होना चाहिए। इस दृष्टि से जैन भारती का यह अंक आपके सम्मुख है। यह अंक अनेकांत सिद्धांत पर जैन भारती का यह विशेष अंक अपने सुधी पाठकों व देश के विद्वत् समाज के हाथों में सौंपते हुए हमें अतीव आह्लाद हो रहा है। भगवान महावीर के छब्बीसवें जन्म शताब्दी वर्ष में 'जैन भारती' ने विचार किया कि महावीर के सिद्धांतों पर विविध दृष्टिकोणों से बेलाग चर्चा हो और सम-सामयिक परिस्थितियों में उनके विचारों की प्रासंगिकता को खंगाला जाए। इसी विचार की एक फलश्रुति है 'जैन भारती' का यह 'अनेकांत विशेष' अंक। अनेकांत दृष्टि के विविध आयामों पर अधिकारी विद्वानों ने जो लेखकीय सहयोग दिया है—हम हृदय से उनके कृतज्ञ हैं। अनेकांत पर विविधपक्षी विचार एक ही स्थान पर अब तक उपलब्ध नहीं हैं। इस दृष्टि से जैन भारती का यह प्रयास अनेकांत पर वैचारिक उत्तेजना और चर्चा को आगे बढ़ाने में सहायक होगा—ऐसा हमारा मानना है। इस अंक में वैचारिक लेखों के साथ-साथ महावीर के जीवनकाल के प्रेरक प्रसंग भी हैं। कथा व कविताएं भी हैं जिनमें पाठक अनेकांत दृष्टि की झलक पाएंगे। कहने का तात्पर्य यह कि रचनात्मक सृजन पर भी अनेकांत दृष्टि का प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभाव हम देख सकते हैं। इस अंक की सामग्री में हर स्तर या वर्ग के पाठक को कुछ-न-कुछ अपने लिए अवश्य मिलेगा यह हमारा विश्वास है। इस बृहत् विशेषांक के लिए अप्रतिम लेखकीय साझेदारी, सहृदय विज्ञापनदाताओं का उदार सहयोग श्लाघनीय है। सांखला प्रिंटर्स की पूरी टीम मनोयोग से इस 'अनेकांत विशेष' के लिए संलग्न रही—सभी का साधुवाद। लेकिन वे मही-जन जो निस्संग रूप में सदा साथ जुटे रहते हैं, जो अनुबोधक की तरह मेरे कार्यों को गति देते हैं कैसे और किस रूप में उनके प्रति मैं कृतज्ञता प्रकट करूं? मैं उनका कृतज्ञ हूं। आप सबका भी। - शुभू पटवा BHIHARIHA R स्व र्ण जयंती वर्ष - 201111111111111111111111111 8. अनेकांत विशेष जैन भारती । मार्च-मई, 2002 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमर्श Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वैज्ञानिक जैविक वृद्धि को भौतिक राशियों के रूप में लेते हैं और उससे बहुत कुछ सीखते भी हैं, पर उन्हें इस बात की उपेक्षा करनी पड़ती है कि भौतिक राशियां बढ़ती नहीं। किसी भी राशि के परमाणविक कण जैसे हैं, वैसे ही सदा बने रहते हैं, जबकि जीव पदार्थ की वृद्धि में प्रारंभ में जो कुछ था वह अंत तक मौजूद तो रहता है, पर अपने ही एक पूर्णतर रूप में; कुरूप बत्तख का बच्चा बड़ा होकर सुंदर राजहंस हो जाता है। तब यदि संख्यात्मक और गुणात्मक, अजीव और जीव, कुछ बातों में समान माने जा सकते हैं पर फिर भी भिन्न बने रहते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तविक जगत को समझने के भिन्न-भिन्न मार्ग हो सकते हैं, और एक व्याख्या का दूसरी से विरोध होना आवश्यक नहीं, जैसे त्रिकोण में कोण निहित ही होता है. और विकर्णयुक्त वर्ग में दोनों ही निहित होते हैं। यह संभावना हमें वैज्ञानिक और धार्मिक दार्शनिक के विभिन्न दृष्टिबिंदुओं और अंतर्दृष्टियों पर लौटा लाती है। वे न केवल एक ही पदार्थ को विभिन्न मापदंडों और विभिन्न उद्देश्यों से परखते हैं, बल्कि निश्चय और सत्य के विषय में उनके दृष्टिकोणों के भिन्नभिन्न होने की संभावना है।' मार्टिन सिरिल डासी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांठ और नए समाज की रचना आचार्यश्री महाप्रज्ञ सभाहलमाRESHINDE ASSISeptem दर्शन के क्षेत्र में अद्वैतवाद और द्वैतवाद-दो सिद्धांत प्रचलित हैं। अद्वैत के बिना एकता की और दैत के बिना अनेकता की व्याल्या नहीं की जा सकती। अद्वैत और देत दोनों का समन्वय ही विश्व की व्याख्या का समग्र दृष्टिकोण बनता है। चेतन और अचेतन में एकता के सत्र भी पर्याप्त है। उनके आधार पर हम सत्ता (अस्तित्व) तक पहुंच जाते हा चेतन और अचेतन में अनेकता के सूत्र भी विद्यमान है। इस आधार पर हम सत्ता के विभक्तीकरण तक पहुंच जाते है। समन्यय एकता की खोज का सूत्र है, किंतु उसकी पृष्ठभूमि में रही हुई अनेकता का अस्वीकार नहीं है। इसी आधार पर हम व्यक्ति और समाज की सभीचीन व्याख्या कर सकते हैं। - या मनुष्य, नया समाज, नया विश्व इस मानव, नए समाज और नए विश्व की. कल्पना नहीं हो कल्पना का स्वर सर्वत्र सुनाई दे रहा है। इस सकती। दिशा में प्रयत्न भी हो रहा है। मान्यता अपने स्वार्थ और अपने हित पर आधारित क्या यह स्वर सार्थक है? क्या प्रयत्न सफल होगा? हो जाती है, इसलिए व्यक्ति अपने स्वार्थ और अपने हित शाश्वत के आधार पर सार्थकता और सफलता को नहीं की बात सोचता है, दूसरे के हित और स्वार्थ की बात गौण खोजा जा सकता। जो शाश्वत है, उसमें परिवर्तन नहीं कर देता है। जाति और संप्रदाय के अभिनिवेश की मूल जड़ होता। परिवर्तन के बिना नए मानव, नए समाज और नए यही है। इसी जड का विस्तार संघर्ष, कलह और युद्ध के विश्व की कल्पना साकार नहीं हो सकती। रूप में होता है। अनेकांत दृष्टि में शाश्वत मान्य है, पर केवल शाश्वत सम्यक् दर्शन का विकास होने पर मान्यता सत्य की मान्य नहीं है। उसके अनुसार अशाश्वत भी सत्य है, खोज में बदल जाती है, विरोधी हितों का द्वंद्व भी समाप्त हो परिवर्तन भी सत्य है। शाश्वत के आधार पर अस्तित्व की जाता है। दो जातियों, दो संप्रदायों, दो वर्गों के हित भी व्याख्या की जा सकती है। वह अपरिवर्तनीय है। परस्पर विरोधी माने जाते हैं। वास्तव में वे विरोधी नहीं हैं, अपरिवर्तनीय का एक अविभाज्य अंग है परिवर्तन। किंतु मिथ्या दर्शन के कारण उनको विरोधी माना जा रहा है। अपरिवर्तन और परिवर्तन-दोनों पृथक् नहीं हैं। दोनों एक सम्यक् दर्शन का विकास होने पर विरोधी लगने वाले हित साथ रहने वाले हैं। अविरोधी बन जाते हैं—एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं। परिवर्तन संभव है, इसलिए नए मानव, नए समाज सम्यक् दर्शन का अर्थ है अनेकांतवाद। और नए विश्व की कल्पना असंभव कल्पना नहीं है, अशक्य कल्पना नहीं है। मिथ्या दर्शन का अर्थ है एकांतवाद। परिवर्तन का मूल हेतु है दृष्टिकोण। उसके आधार एक पर्याय-एक विचार को समग्र मान लेना, पर बनता है सिद्धांत। सिद्धांत की क्रियान्विति का अर्थ है निरपेक्ष मान लेना, एकांतवादी दृष्टिकोण है। एक विचार को परिवर्तन। हम परिवर्तन करना चाहते हैं, किंतु उसके लिए अपूर्ण और सापेक्ष मान लेना अनेकांतवादी दृष्टिकोण है। सम्यक् दर्शन की अपेक्षा है। उसका विकास करना नहीं सम्यक् दर्शन का विकास अनेकांत दृष्टि के आधार चाहते। परिवर्तन और सम्यक् दर्शन-इन दोनों के बीच पर हो सकता है। अनेकांत की मौलिक दृष्टियां दो सबसे बड़ी बाधा है मान्यता। हर व्यक्ति, हर संगठन की हैं-निरपेक्ष और सापेक्ष। अस्तित्व का निर्धारण करने के अपनी-अपनी मान्यताएं हैं। मान्यताओं के आधार पर नए लिए निरपेक्ष दृष्टि का प्रयोग करना चाहिए। संबंधों का ::::::: : स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.11 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा निर्धारण करने के लिए सापेक्ष दृष्टि का प्रयोग करना अकेला हूं-इस सिद्धांत के आधार पर सृष्टि-संतुलन की चाहिए। स्थापना नहीं की जा सकती। 'मैं अकेला नहीं हूं', दूसरे का सापेक्षता भी अस्तित्व है। हम दोनों में संबंध है। उस संबंध के आधार पर ही हमारी जीवन-यात्रा चलती है। इस संबंध की अनेकांत का पहला सिद्धांत है सापेक्षता। एक जाति __ अवधारणा के आधार पर सृष्टि-संतुलन की व्याख्या की जा को दूसरी जाति से निरपेक्ष मानकर ही परस्पर विरोधी हितों सकती है। की कल्पना की जा सकती है। एक संप्रदाय को दूसरे संप्रदाय से निरपेक्ष मानकर ही विरोध का ताना-बाना बुना सह-अस्तित्व जा सकता है। एक व्यक्ति, एक जाति और एक संप्रदाय, यह अनेकांत का तीसरा सूत्र है। जिसका अस्तित्व है, दूसरे व्यक्ति, दूसरी जाति और दूसरे संप्रदाय से सापेक्ष उसका प्रतिपक्ष अवश्यंभावी है यत् सत् तत् सप्रतिपक्षम्। होकर ही जी सकता है, सापेक्ष हितों को सिद्ध कर सकता प्रतिपक्ष के बिना नामकरण नहीं होता और लक्षण का है। वास्तव में मिल मालिक और मजदूर दोनों के हित निर्धारण भी नहीं होता। चेतन और अचेतन में अत्यंताभाव विरोधी नहीं हैं। मजदूर के हित की अपेक्षा रखी जाती है तो है। चेतन कभी अचेतन नहीं होता और अचेतन कभी उत्पादन अधिक बढ़ता है, मिल मालिक का हित सधता है। अचेतन नहीं होता। फिर भी उनमें सह-अस्तित्व है। शरीर मिल मालिक के हित की अपेक्षा रखी जाती है तो मजदूर का अचेतन है। आत्मा चेतन है। शरीर और आत्मा-दोनों एक हित भी अधिक सधता है। यदि एक-दूसरे से निरपेक्ष हो तो साथ रहते हैं। न मिल मालिक का हित सधता, न मजदूर का हित सधता। नित्य और अनित्य, सदृश और विसदृश, भेद और वर्गभेद और विरोधी हितों अभेद-ये परस्पर विरोधी हैं फिर के सिद्धांत की सापेक्षता के संदर्भ भी इनमें सह-अस्तित्व है। एक में समीक्षा करना जरूरी है। प्रणाली, रुचि, मान्यता-ये भिन्न वस्तु में ये एक साथ रहते हैं। सापेक्षता के आधार पर विरोधी भिन्न होती हैं, इनमें विरोध भी होता नित्य अनित्य से सर्वथा वियुक्त हितों में भी समन्वय स्थापित है। सह-अस्तित्व का नियम इन सब नहीं है और अनित्य नित्य से किया जा सकता है। विरोधी हितों पर लागू होता है। लोकतंत्र और सर्वथा वियुक्त नहीं है। की निरपेक्षता के आधार पर अधिनायकवाद, पूंजीवाद और यह सह-अस्तित्व का मीमांसा की जाए तो उसका फलित साम्यवाद--ये भिन्न विचार वाली सिद्धांत जितना दार्शनिक है, होता है संघर्ष, हिंसा और राजनीतिक प्रणालियां हैं। इनमें सह उतना व्यावहारिक है। प्रणाली, साधनशुद्धि के सिद्धांत का अस्तित्व हो सकता है। ‘या तू रहेगा रुचि, मान्यता ये भिन्न-भिन्न परिहार। या मैं', हम दोनों एक साथ नहीं रह होती हैं, इनमें विरोध भी होता है। सकते—यह एकांतवाद है। इस समन्वय सह-अस्तित्व का नियम इन सब धारणा ने समस्या को जटिल बना अनेकांत का दूसरा सूत्र है दिया। एक धार्मिक विचारधारा के पर लागू होता है। लोकतंत्र और समन्वय। वह भिन्न प्रतीत होने लोग यह सोचें-'मेरे धर्म की अधिनायकवाद, पूंजीवाद और वाले दो वस्तु-धर्मों में एकता की विचारधारा को मानने वाला ही इस साम्यवादये भिन्न विचार खोज का सिद्धांत है। जो वस्तु- दुनिया में रहे, शेष सबको समाप्त वाली राजनीतिक प्रणालियां हैं। धर्म भिन्न हैं, वे सर्वथा भिन्न नहीं कर दिया जाए'-इस विचारधारा ने इनमें सह-अस्तित्व हो सकता है। हैं। उनमें अभिन्नता भी है, एकता धार्मिक जगत की पवित्रता को नष्ट 'या तू रहेगा या मैं', हम दोनों एक भी है। उस अभिन्नता के सूत्र को किया है। साथ नहीं रह सकते यह जानकर ही समन्वय स्थापित एकांतवाद है। इस धारणा ने किया जा सकता है। सृष्टि समस्या को जटिल बना दिया। संतुलन (इकोलॉजी) का सिद्धांत समन्वय का सिद्धांत है, एक धार्मिक विचारधारा के लोग यह सोचें-'मेरे धर्म की एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ के संबंध का सिद्धांत है। 'मैं विचारधारा को मानने वाला ही इस दुनिया में रहे, शेष ::::: स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 12. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय, अनेकांठ और विचार के नियम आचार्यश्री महाप्रज्ञ सबको समाप्त कर दिया जाए'—इस विचारधारा ने धार्मिक जगत की पवित्रता को नष्ट किया है। अहिंसा, मैत्री, भाईचारा-ये धर्म के प्रमुख अवदान हैं। एकांतवादी दृष्टिकोण ने मैत्री को शत्रुता में, अहिंसा को हिंसा में, भाईचारे को विरोध में बदलने की भूमिका निभाई है। सह-अस्तित्व का सिद्धांत सहिष्णुता और वैचारिक स्वतंत्रता का मूल्य स्वीकार करता है। यदि हम सबको अपनी रुचि, अपने विचार, अपनी जीवन प्रणाली और अपने सिद्धांत में ही ढालने का प्रयत्न करें तो वैचारिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता अर्थहीन हो जाती है। प्रकृति में नानात्व है। नानात्व प्रकृति का सौंदर्य भी है। यदि सब पेड़-पौधे एक जैसे हो जाएं, यदि सब पुष्प एक जैसे हो जाएं तो सौदये की परिभाषा का भी कोई अर्थ नहीं रहता। अनेकता में एकता और एकता में अनेकता का सिद्धांत सत्यं शिवं सुन्दरं-तीनों के समन्वय का सिद्धांत है। यह समन्वय ही सह-अस्तित्व की आधार-भूमि बनता है। दर्शन के क्षेत्र में अद्वैतवाद और द्वैतवाद-दो सिद्धांत प्रचलित हैं। अद्वैत के बिना एकता की और द्वैत के बिना अनेकता की व्याख्या नहीं की जा सकती। अद्वैत और द्वैत-दोनों का समन्वय ही विश्व की व्याख्या का समग्र जैन दर्शन की विचार-सरणि पर चिंतन करते समय हम सम्यक् दर्शन की उपेक्षा नहीं कर सकते। विचार ज्ञान का एक आयाम है। सम्यक् दर्शन मोह विलय की चेतना का आयाम है। हमारे पास जानने के दो स्रोत हैं-इंद्रिय चेतना और अतींद्रिय चेतना। विचार का संबंध इंद्रिय चेतना से है। अतींद्रिय चेतना में दर्शन है, साक्षात्कार है-वहां विचार नहीं है। जैन दृष्टि के अनुसार इंद्रिय चेतना से होने वाला ज्ञान द्रव्य के अंश का ज्ञान है, समग्र द्रव्य का ज्ञान नहीं है। इंद्रिय चेतना वाला व्यक्ति द्रव्यांश को जानता है। वह अंशज्ञान विवाद का विषय भी बनता है। पांच व्यक्ति किसी एक द्रव्य के पांच अंशों का ज्ञान करते हैं और अपने-अपने ज्ञान को सम्यक् मान दूसरे के ज्ञान को मिथ्या मान लेते हैं। इस मिथ्यावाद को सम्यक्वाद बनाने का एक उपाय खोजा गया, वह है नयवाद। नय एक दृष्टि है, एक विचार है। सिद्धसेन दिवाकर ने लिखा-जितने वचन के : पथ हैं, उतने ही नय हैं जावइया बयणपहा, तावइया चेव हुंति नयवाया। - यह विस्तारवादी दृष्टिकोण चिंतन के क्षेत्र को दुर्गम बना देता है। श्रोता अथवा जिज्ञासु के लिए किसी निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन हो जाता है। इस समस्या को सुलझाने के लिए जैन आचार्यों ने संपूर्ण विचार के दो क्षेत्र निर्धारित किए - 1. द्रव्यार्थिक नय-ध्रौव्य अथवा नित्य के विषय में होने वाला चिंतन। 2. पर्यायार्थिक नय-उत्पाद-व्यय अथवा अनित्य के विषय में होने वाला चितन। विचार की सुविधा और सत्यपरक व्यवस्था के लिए इन दो क्षेत्रों का निर्धारण किया गया। वास्तव में धौव्य और उत्पाद-व्यय अथवा नित्य और अनित्य को सर्वथा विभक्त कर विचार को सत्यपरक नहीं बनाया जा सकता। धौव्य का प्रतिपादन करने के लिए द्रव्यार्थिक नय और परिवर्तन का प्रतिपादन करने के लिए पर्यायार्थिक नय की व्यवस्था की गई। ये दोनों नय परस्पर सापेक्ष हैं। ध्रौव्य से विमुक्त परिवर्तन और परिवर्तन से विमुक्त प्रौव्य कहीं भी नहीं है। फिर भी अस्तित्व के समग्र स्वरूप को समझने के लिए यह व्यवस्था अत्यंत समीचीन है। द्रव्यार्थिक नय ध्रौव्य अथवा । अभेद का विचार करता है, किंतु परिवर्तन का निरसन नहीं करता, प्रत्येक नय की - अपनी सीमा है। वह अपने प्रतिपाद्य विषय के आगे किसी खंडन-मंडन में नहीं जाता। सापेक्षता का तात्पर्य यह है- नय समग्रता का आग्रह नहीं करता। वह समग्र के एक अंश का प्रतिपादन करता है। वह एकांश का विचार करता है, इसीलिए दूसरा अंश उससे जुड़ा हुआ है। यह जोड़ ही सापेक्षता है। जितने विचार, उतने नय-इस वाक्य में सापेक्षता का सत्य अभिव्यक्त हुआ है। विचार का आधार कोई पर्याय है। पर्याय । संख्यातीत होते हैं इसलिए नय भी असंख्य हैं। असंख्य अंशों का । समन्वय करने पर द्रव्य की समग्रता का बोध होता है। एक पर्याय को समग्र मानने का आग्रह मिथ्या दृष्टिकोण है। अनेकांत विशेष.13 मार्च-मई, 2002 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिकोण बनाता है। चेतन और अचेतन में एकता के सूत्र भी पर्याप्त हैं। उनके आधार पर हम सत्ता (अस्तित्व) तक पहुंच जाते हैं। चेतन और अचेतन में अनेकता के सूत्र भी विद्यमान हैं। इस आधार पर हम सत्ता के विभक्तीकरण तक पहुंच जाते हैं। समन्वय एकता की खोज का सूत्र है, किंतु उसकी पृष्ठभूमि में रही हुई अनेकता का अस्वीकार नहीं है। इसी आधार पर हम व्यक्ति और समाज की समीचीन व्याख्या कर सकते हैं। वैयक्तिकता के आधार हर व्यक्ति में वैयक्तिक और सामुदायिक दोनों प्रकार की चेतना होती है। कुछ विचारक व्यक्ति को अधिक महत्त्व देते हैं और कुछ समाज को अधिक महत्त्व देते हैं। यह समन्वय के सिद्धांत का अतिक्रमण है। वैयक्तिक विशेषताओं को छोड़कर हम व्यक्ति का सही मूल्यांकन नहीं कर सकते। जन्मजात वैयक्तिकता के सात आधार हैं 1. शरीर रचना, 2. आनुवंशिकता, 3. मानसिक चिंतन की शक्ति, सीमा। 14 • अनेकांत विशेष सीमा । समाज रचना का दूसरा आधार है—संवेदनशीलता । समाज रचना का तीसरा आधार है— स्वामित्व की समाज - रचना का चौथा आधार है— स्वतंत्रता की समाज रचना का पांचवां आधार है-विकासभाषा का विकास, बौद्धिक विकास, चिंतन का विकास, शिल्प और कला का विकास। संग्रह नय अभेदप्रधान दृष्टि है। उसके आधार पर समाज निर्माण होता है। व्यवहार नय भेदप्रधान दृष्टि है उसके आधार पर व्यक्ति की वैयक्तिकता सुरक्षित रहती है। व्यक्ति और समाज — दोनों का समन्वय साध कर यदि व्यवस्था, नियम, कानून बनाए जाएं तो उनका अनुपालन सहज और व्यापक होगा। 4. भाव, 5. संवेदन, 6. संवेग, 7. ज्ञान अथवा ग्रहण की क्षमता । समाज-रचना के आधार वैयक्तिक विशेषताओं की उपेक्षा कर केवल समाज रचना की कल्पना करने वाले अपनी कल्पना को साकार नहीं कर पाते। यदि समाजवाद और साम्यवाद के साथ जन्मजात वैयक्तिक विशेषताओं का समीकरण होता तो समाज रचना को स्वस्थ आधार मिल जाता । समाजीकरण के लिए जिन आधार सूत्रों की आवश्यकता है, वे जन्मजात वैयक्तिक विशेषताओं से जुड़े किया गया है : हुए हैं। व्यक्ति और समाज-दोनों का समन्वय साध कर यदि व्यवस्था, नियम, कानून बनाए जाएं तो उनका अनुपालन सहज और व्यापक होगा। कहीं व्यक्ति को गौण, समाज को मुख्य तथा कहीं समाज को गौण, व्यक्ति को मुख्य करना आवश्यक होता है। यह गौण और मुख्य का सिद्धांत समीचीन व्यवस्था के लिए बहुत उपयोगी है भेद को गौण किए बिना समाज नहीं बनता और अभेद को गौण किए बिना व्यक्ति की स्वतंत्रता सुरक्षित नहीं रहती। अनेकांत का यह गौण मुख्य का सिद्धांत व्यवस्था की सफलता के लिए बहुत उपयोगी है। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 1. दलदल के समान 2. कीचड़युक्त जल के समाज रचना का एक आधार है— परस्परोपग्रह समान, 3. बालूयुक्त जल के समान, 4. चट्टान पर टिके हुए अथवा परस्परावलंबन | जल के समान । कहीं व्यक्ति को गौण, समाज को मुख्य तथा कहीं समाज को गौण, व्यक्ति को मुख्य करना आवश्यक होता है। यह गौण और मुख्य का सिद्धांत समीचीन व्यवस्था के लिए बहुत उपयोगी है भेद को गौण किए बिना समाज नहीं बनता और अभेद को गौण किए बिना व्यक्ति की स्वतंत्रता सुरक्षित नहीं रहती। अनेकांत का यह गौण मुख्य का सिद्धांत व्यवस्था की सफलता के लिए बहुत उपयोगी है। व्यक्तित्व का वर्गीकरण समाज, संगठन अथवा राष्ट्र की सबसे बड़ी समस्या है— भाव (इमोशन)। व्यक्तिव्यक्ति के भाव अलग होते हैं। उनका वर्गीकरण चार कोटियों में मार्च - मई, 2002 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम कोटि की भावधारा वाले (अति अशुद्ध पर्यायार्थिक नय वाले) व्यक्ति समाज को नारकीय बना देते हैं। वे न तो समाज को अच्छी व्यवस्था दे सकते हैं और न व्यवस्था का पालन कर सकते हैं। दूसरी कोटि की भावधारा वाले (अशुद्ध पर्यायार्थिक नय वाले) व्यक्ति समाज में पाशविक वृत्तियों को प्रोत्साहन देते हैं। वे स्वस्थ समाज अथवा अहिंसक समाज की रचना में सहायक नहीं बन सकते। तीसरी कोटि की भावधारा वाले (शुद्ध पर्यायार्थिक नय वाले) व्यक्ति स्वस्थ समाज की रचना में सहयोगी बन सकते हैं, समाज की व्यवस्था को स्वस्थ रूप प्रदान कर सकते हैं। चौथी कोटि की भावधारा वाले (विशुद्ध पर्यायार्थिक नय वाले) व्यक्ति समाज में दिव्य चेतना का विकास कर सकते हैं, साधनशुद्धि और पारमार्थिक दृष्टिकोण का उन्नयन कर सकते हैं। प्रथम दोनों कोटि के व्यक्ति दंडशक्ति में विश्वास करते हैं। अंतिम दो कोटि के व्यक्ति हृदय-परिवर्तन और साधनशुद्धि में विश्वास करते हैं। महात्मा गांधी जैसे आध्यात्मिक पुरुष अहिंसक समाज-रचना का स्वप्न देखते रहे, मार्क्स जैसे व्यक्ति Here नय एकांतवाद है, फिर भी वह दृष्टि का मिथ्या कोण नहीं है। उसमें अंश में समग्रता का आग्रह नहीं है, निरपेक्ष सत्य का प्रतिपादन नहीं है। इसीलिए नय की भूमिका में । स्वस्थ चिंतन का अवकाश है। ON चिंतन के दो बड़े क्षेत्र है-अभेद और भेद। अभेद के द्वारा व्यवहार का संचालन नहीं होता। भेद विवाद और संघर्ष का हेतु बनता है। तत्त्व चिंतन के क्षेत्र में यह भेद ही संघर्ष को जन्म दे रहा है। जैन दार्शनिकों ने अभेद और मेव का समन्वय कर वैचारिक संघर्ष को कम करने का प्रयत्न किया है। जीव और पबगल अथवा चेतन और अचेतन में भी सर्वथा भेद नहीं है। चैतन्य जीव का विशेष गुण है और पुद्गल चैतन्य-शून्य है। उसका विशेष गुण है वर्ण, गंध, रस और स्पर्श का चतुष्टया विशेष गुण की दृष्टि से जीव और पुद्गल-दोनों भिन्न है। किंतु प्रवेश की दृष्टि से दोनों भिन्न नहीं है। जीव के भी प्रदेश और पुग़ल स्कंध के भी प्रदेश है। जेयत्य, प्रमेयत्व और परिणामित्व की दृष्टि से भी दोनों भिन्न नहीं हैं। अनेकांत चितन के अनुसार सर्वथा अभेद और सर्वथा मेव एकांतवावी दृष्टिकोण हैं। उनके द्वारा सत्य की समीचीन व्याख्या नहीं की जा सकती। अनेकांत चिंतन के आठ मुख्य क्षेत्र है1. सत, 2. असत्, 3. नित्य, 4. अनित्य, 5. सदृश, 6. विसदृश, 7. वाच्य, अवाच्या न-असत् सत् की व्याख्या द्रव्य के आधार पर की जा सकती है। द्रव्य का प्रौव्यांश सत् है। वह अकालिक है-अतीत में भी था, वर्तमान में है और भविष्य में भी होगा। जहां प्रौव्यांश का प्रश्न है वहां केवल सत् है, असत् कुछ भी नहीं। द्रव्य के पर्यायांश में सत् और असत् दोनों की व्यवस्था है। वर्तमान पर्याय सत है। भूत और भावी पर्याय असत है। इस सत्-असत् की सापेक्षता का विचार के । विकास में बहुत योगदान है। द्रव्य में दो प्रकार की क्रियाएं होती हैप्रतिक्षण होने वाली क्रिया इसके अनुसार निरंतर परिवर्तन होता है। क्षण में जो है, दूसरे क्षण में वह नहीं होता, उसका नया रूप बन जाता है। इस परिवर्तन का नाम है- अर्थ पाय। 2. दूसरी किया क्षण के अंतराल से होने वाली किया गसकी संमा व्यंजन कवि सकस और मषिोता है। व्यंजन पर्याय स्कूल और दीर्घकालिक ना।। जय पर्याय वज्य को रखरे क्षण के सांचे में डालने का काम करता है। परिवर्तन के बिना पहले सण का तव्य बसरे क्षण में अपने अस्तित्व को टिकाए नहीं सकता, इसलिए वार्शनिक दृष्टि से अर्थ पर्याय का कार्य बहुत महत्वपूर्ण है। उत्पाव, व्यय और प्रौव्यये तीनों समन्वित होकर सत् का बोध कराते । इनका विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि धौव्य की दृष्टि में असत भी नहीं है। असत से सत् उत्पन्न नहीं होता। असत् कभी सत ही बनता और सत् कभी असत नहीं बनता। उत्पाद-व्यय की दृष्टि में सत-असत की व्याख्या कारण-कार्य सापेक्ष है। जो कारण रूप में सत् और कार्य रूप में असत् है, वह सत्-असत कार्यवाद है। मिट्टी के परमाण-स्कंध मिट्टी के रूप में सता अनेकांत विशेष.15 मार्च-मई, 2002 Hd SAMAND Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दा साम्यवादी समाज-रचना की प्रकल्पना करते रहे, अब तक सामंजस्य की प्रणाली का दार्शनिक आधार है अनेकांत । दोनों के सपने साकार नहीं हुए। न अहिंसक समाज की उसके अनुसार कोई भी वस्तु सर्वथा सदृश नहीं है और कोई रचना हुई, न साम्यवादी समाज अपने यौवन में आ सका। भी वस्तु सर्वथा विसदृश नहीं है। एक सामान्य गुण सबको इसका हेतु यह भाव की तरतमता है अथवा एकांतवादी सदृश बनाता है और विशेष गुण उन्हें विसदृश बना रहा है। दृष्टिकोण है। यदि हम उक्त प्रकल्पनाओं को एकांतवादी न समानता का ऐकांतिक आग्रह उपयोगिता को समाप्त कर बनाएं तो नए समाज की रचना हो सकती है। देता है। उस स्थिति में व्यक्तिगत विशेषताओं का उपयोग मनुष्य में स्वभावतः वैयक्तिक स्वार्थ और सुविधा के नहीं हो पाता। असमानता का ऐकांतिक आग्रह वस्तु की प्रति आकर्षण है। उसे केवल सामुदायिकता के बंधन में मौलिकता को विनष्ट कर देता है, इसलिए अनेकांत की यह बांधने का प्रयत्न सफल नहीं हो सकता। अनेकांत दृष्टि के घोषणा रही - अनुसार वैयक्तिकता और सामुदायिकता दोनों में संतुलन वस्तु कथंचित सदश है—किसी अपेक्षा से सब स्थापित कर साम्यवाद की धारा को गतिशील बनाया जा वस्तएं समान हैं। सकता है। वस्तु कथंचित विसदृश है-किसी अपेक्षा से सब व्यक्ति-व्यक्ति में भावात्मक तरतमता है। कुछ वस्तुएं असमान हैं। व्यक्तियों का आवेश उपशांत होता है, कुछ व्यक्तियों का सदृशता के आधार पर एकता को पुष्ट कर सकते हैं। आवेश बहुत तीव्र होता है, इसलिए केवल हृदय-परिवर्तन के । विसदृशता के आधार पर व्यक्ति की विशेषताओं का आधार पर अहिंसक समाज की रचना नहीं की जा सकती। उपयोग कर सकते हैं। इसलिए समानता और केवल हृदय-परिवर्तन एकांतवादी दृष्टिकोण है। केवल असमानता-दोनों की सीमा का बोध करना जरूरी है। दंडशक्ति भी एकांतवादी दृष्टिकोण है। हृदय-परिवर्तन और यांत्रिक समानता का आग्रह राष्ट्र दंडशक्ति–दोनों के संतुलित को योग्य प्रतिभाओं से वंचित कर योग के आधार पर अहिंसक समाज की रचना की जा सकती आर्थिक दौड़ ने उपभोग की जो देता है। असमानता का एकांगी है। यह अनेकांतवादी दृष्टिकोण आकांक्षा पैदा की है, उससे गरीबी आग्रह राष्ट्र की अखंडता को घटने के बजाय बढ़ रही है। आर्थिक खंडित कर देता है। इसलिए संपदा कुछेक राष्ट्रों और कुछेक असमानता और समानता में अनेकांत और लोकतंत्र व्यक्तियों तक सिमट रही है। यह सामंजस्य स्थापित करने का दर्शन तारतम्य मनुष्य की प्रकृति सब विकास के प्रति होने वाले विकसित होना चाहिए। एकता का है। रुचि की भिन्नता है। सबके एकांगी दृष्टिकोण का परिणाम है। सूत्र एक भूखंड है। किसी एक विचार भी समान नहीं हैं। आचार यदि अर्थनीति के केंद्र में मनुष्य हो भूखंड में रहने वाले नागरिक क्षेत्र भी सबका एक जैसा नहीं है। और उसका उपयोग आर्थिक की दृष्टि से समान हैं, इसलिए अनेक भाषाएं, अनेक संप्रदाय, साम्राज्य के लिए न किया जाए तो रोटी, कपड़ा, मकान आदि-आदि इस बहुविध अनेकता को एकता के एक संतुलित अर्थनीति की कल्पना मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है। मनुष्य निरपेक्ष सूत्र में पिरोए रखने का लोकतंत्र के लिए उनमें भेद-रेखा नहीं अर्थनीति की मकड़ी अपने ही जाल में का एक सिद्धांत है-मौलिक फंसी हुई है। एकांगी या निरपेक्ष खींची जा सकती। सबको विकास अधिकारों की समानता। दृष्टिकोण द्वारा कभी उसे बाहर नहीं करने का समान अवसर है। इसी असमानता के आधार पर निकाला जा सकता। आधार पर लोकतंत्र में हर व्यक्ति पृथक्करण की नीति का नहीं, किंतु को सर्वोच्च सत्ता पर आसीन होने असमानता में समानता के सूत्र को काराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि खोजने का प्रयत्न है लोकतंत्र। बनने का अधिकार है। व्यक्तिगत विशेषता है, इस अनेकता और एकता में सामंजस्य किए बिना अधिकार का सीमांकन कर दिया। विकास की उच्च लोकतंत्र की प्रतिमा प्रतिष्ठित नहीं हो सकती। इस भूमिकाओं पर वे ही व्यक्ति जा सकते हैं, जिनमें बौद्धिक, HHHHHHHHHHHHHHHH H 16. अनेकांत विशेष EL स्वर्ण जयंती वर्ष । जैन भारती मार्च-मई, 2002 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशासनिक क्षमता विकसित है। प्रकृति से और भी बहुत हैं और घट के रूप में असत् । मिट्टी का घट बन जाता है तब असत् से सत् के निर्माण का सिद्धांत प्रतिपादित किया जा सकता है। जैन चिंतन में असत् कार्यवाद और सत् कुछ प्राप्त है। असमानता और कार्यवाद-ये दोनों विकल्प मान्य नहीं हैं। तीसरे विकल्प-सत्-असत्-कार्यवाद समानता—इन दोनों सचाइयों को मान्य किया गया। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है--द्रव्यार्थिक नय को को समझकर ही लोकतंत्र की असत् कार्यवाद और सत् कार्यवाद दोनों मान्य नहीं हैं। कारण कार्य का नियम पर्याय प्रणाली को स्वस्थ आधार पर ही लागू होता है। पर्यायार्थिक नय कारण की दृष्टि से सत् और कार्य की दृष्टि दिया जा सकता है। से असत्-दोनों को मान्य कर सत्-असत्-कार्यवाद की स्थापना करता है। जयाचार्य ने अनेकांत के नित्य-अनित्य आधार पर तेरापंथ धर्मसंघ में नित्य और अनित्य के विचार का आधार सत् और असत् है। सत् का एक अंश सामान्य और विशेष की है धौव्य। उसका कभी उत्पाद और व्यय नहीं होता, इसलिए वह नित्य है। सत् का सामंजस्यपूर्ण प्रणाली का दूसरा अंश है पर्याय, उसमें उत्पाद और व्यय दोनों होते हैं, इसलिए वह अनित्य है। प्रयोग किया। उससे धर्मसंघ ध्रौव्य पर्याय से वियुत नहीं होता और पर्याय धौव्य से वियुत नहीं होते। इसलिए सत् विकास की दिशा में आगे अथवा द्रव्य नित्यानित्य होता है। केवल नित्य और केवल अनित्य के आधार पर सत् बढ़ता रहा, आपसी विवादों में व्याख्येय नहीं है। आकाश सत् है, इसलिए वह केवल नित्य नहीं है। पर्याययुत होने नहीं उलझा। उनका विधायक के कारण वह अनित्य भी है। घट एक पर्याय है, इसलिए वह अनित्य है, किंतु वह दृष्टिकोण आज भी आदर्श है। - जिन परमाणुओं से बना है, वह परमाणुपुंज सत् है, इसलिए घट नित्य भी है। जयप्रकाश बाबू ने एक बार आचार्य तुलसी से - सदृश-विसदृश कहा—'आपके संघ में सवा - द्रव्य में सामान्य और विशेष दोनों प्रकार के गुण होते हैं। विशेष गुण के कारण । सोलह आना समाजवाद है। द्रव्य विसदृश होता है। जीव में चैतन्य नामक विशेष गुण है, इसलिए वह परमाणु अब अपेक्षा है वह नीचे पुद्गल से विसदृश है। अनेकांत दर्शन में सदृश और विसदृश सापेक्ष हैं। विशेष गुण की अपेक्षा विसदृश और सामान्य गुण की अपेक्षा सदृश इसलिए एक द्रव्य दूसरे उतरे—समाज तक पहुंचे, । द्रव्य से सर्वथा सदृश और सर्वथा विसदृश नहीं होता। सामान्य गुण की अपेक्षा जीव जन-जन तक पहुंचे। और परमाणु पुद्गल में वैसदृश्य नहीं खोजा जा सकता। इस सिद्धांत को व्यावहारिक अनेकांत और अर्थनीति उदाहरण के द्वारा भी समझा जा सकता है। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के सदृश नहीं हिंसा बढ़ रही है। यह है। 'जीन' की भिन्नता के कारण प्रत्येक मनुष्य दूसरे मनुष्य से भिन्न है, किंतु पांच बात यत्र-तत्र-सर्वत्र सुनने को - इंद्रियां, मन आदि सामान्य गुणों के कारण एक मनुष्य दूसरे मनुष्यों के तुल्य है। मिलती है। वह क्यों बढ़ रही वाच्य-अवाच्य है? उसके कारणों की खोज भी - शब्द और अर्थ के पारस्परिक संबंध का बोध किए बिना व्यवहार का सम्यक् समय-समय पर होती रही है। । संचालन नहीं होता। अर्थ वाच्य है और शब्द वाचक। हम वाचक के द्वारा वाच्य का अनेक कारण सामने आए हैं। ज्ञान करते हैं। वाचक का सम्यक प्रयोग होता है तो वाच्य का सम्यक् ज्ञान हो जाता उनमें सबसे बड़ा कारण है है। वाचक का मिथ्या प्रयोग होने पर अर्थ का अवबोध नहीं हो सकता। नय की आर्थिक प्रलोभन। आर्थिक विचारणा में वाचक के सम्यक् प्रयोग पर सूक्ष्मता से ध्यान दिया गया। प्रलोभन को बढ़ाने का सबसे ग अर्थ के अनेक पर्याय हैं। सब पर्यायों को एक साथ नहीं कहा जा सकता। अनंत बड़ा कारण है मिथ्या - पर्यायों को पूरे जीवन में भी नहीं कहा जा सकता। अनंत पर्यायों का प्रतिपादन करने अवधारणा। अपने पास एक के लिए अनंत वाचक चाहिए। हमारा शब्दकोश इस अपेक्षा की पूर्ति के लिए रुपया है तो चौदह रुपये का बहुत छोटा है। इस दृष्टिकोण के आधार पर कहा जा सकता है द्रव्य वाच्य कर्ज लो। उस कर्ज को चुकाने नहीं है। के लिए अधिक श्रम होगा, हम द्रव्य के एक पर्याय का कथन करते हैं। एक पर्याय के वचन अधिक व्यवसाय होगा, अधिक के आधार पर उसे वाच्य नहीं कहा जा सकता। प्रवचन का व्यवहार विशेष या भेद के आधार पर होता है। अर्थ नय के द्वारा अभेद या सामान्य का अवबोध होता, मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.17 NARE Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैदा होगी। कर्ज आज एक प्रेरणा का स्रोत बन गया है, स्वतंत्रता, सामाजिक स्वतंत्रता, संवैधानिक स्वतंत्रताआर्थिक विकास का आधार बन गया है। स्वतंत्रता के अनेक विकल्प बन जाते हैं। इन सबकी आर्थिक विकास का एकांगी दष्टिकोण शारीरिक सापेक्षता के आधार पर व्याख्या की जा सकती है। जो स्वास्थ्य, मानसिक शांति, भावात्मक संतुलन और पर्यावरण स्वतत्र स्वतंत्रता परतंत्रता-सापेक्ष है, वह स्वतंत्रता है। परतंत्रता से विशुद्धि से निरपेक्ष बन गया। यह आर्थिक विकास का निरपेक्ष कोई भी स्वतंत्रता व्यक्ति और समाज के लिए एकांतवाद मानवीय मस्तिष्क को यांत्रिक बनाए हुए है। हर . कल्याणकारी नहीं हो सकती। मनुष्य के मन में आर्थिक साम्राज्य स्थापित करने की अर्थ संग्रह के लिए पूरी स्वतंत्रता, उपभोग के लिए लालसा प्रबल हो उठी है। भी पूरी स्वतंत्रता-स्वतंत्रता का यह एकांतवाद आर्थिक __ अनेकांत की चार प्रमुख दृष्टियां हैं—द्रव्य, क्षेत्र, व विषमता और पर्यावरण को दूषित करने का हेतु बन रहा है। काल और भाव। किसी भी वस्तु का मूल्यांकन द्रव्य सापेक्ष, गरीबी, पर्यावरण प्रदूषण, संघर्ष, शस्त्र-निर्माण और क्षेत्र सापेक्ष, काल सापेक्ष और भाव सापेक्ष होना चाहिए। युद्ध ये सब एकांगी आग्रह की निष्पत्तियां हैं। निरपेक्ष मूल्यांकन अनेक उलझनें पैदा करता है। आर्थिक आध्यात्मिक और भौतिक-दोनों दृष्टियों के विकास के लिए शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति, समन्वय के बिना गरीबी की समस्या को कभी नहीं भावनात्मक संतुलन और पर्यावरण विशुद्धि गौण हो जाएं सुलझाया जा सकता। यह अर्थनीति की विडंबना है। उपभोग-संयम और भौतिक प्रयत्न दोनों के समन्वय जनसंख्या की वृद्धि के कारण उपायों के द्वारा के बिना पर्यावरण की समस्या को भी नहीं सुलझाया जा वस्तुओं की वृद्धि आवश्यक मानी गई। गरीबी को मिटाने के सकता। लिए भी आर्थिक विकास आवश्यक माना गया। रासायनिक आवेग-संतुलन और व्यवस्था—इन दोनों के छिड़काव खाद्यान्नों, साग-सब्जी और फलों को विषैला समन्वय के बिना संघर्ष को नहीं टाला जा सकता। बनाते हैं। मनुष्य जानते हुए भी विवश होकर उस जहर को स्वत्व की सीमा के आध्यात्मिक दृष्टिकोण और निगल जाता है। आर्थिक दौड़ ने उपभोग की जो आकांक्षा अनाक्रमण की मनोवृत्ति का विकास किए बिना शस्त्र-निर्माण पैदा की है, उससे गरीबी घटने के बजाय बढ़ रही है। के संकल्प को निरस्त नहीं किया जा सकता। आर्थिक संपदा कुछेक राष्ट्रों और कुछेक व्यक्तियों तक मानवीय दष्टिकोण को व्यापक बनाए बिना तथा अहं सिमट रही है। यह सब विकास के प्रति होने वाले एकांगी और लोभ को नियंत्रित किए बिना युद्ध की वत्ति को समाप्त दृष्टिकोण का परिणाम है। यदि अर्थनीति के केंद्र में मनुष्य नहीं किया जा सकता। हो और उसका उपयोग आर्थिक साम्राज्य के लिए न किया उक्त विरोधी समस्याओं में समन्वय स्थापित करना जाए तो एक संतुलित अर्थनीति की कल्पना की जा सकती सरल नहीं है। इनकी वक्रता को मिटाने के लिए भावात्मक है। मनुष्य-निरपेक्ष अर्थनीति की मकड़ी अपने ही जाल में संतुलन और व्यवस्था इन दोनों का समन्वय फंसी हुई है। एकांगी या निरपेक्ष दृष्टिकोण द्वारा कभी उसे आवश्यक है। बाहर नहीं निकाला जा सकता। अनेकांत के द्वारा विरोधी प्रतीत होने वाली घटनाओं भगवान महावीर ने उपभोग की सीमा का जो सूत्र में भी समन्वय स्थापित किया जा सकता है। वस्तु जगत में दिया था, उसकी विस्मृति आज की बड़ी समस्या है। पर्ण सामंजस्य और सह हा पूर्ण सामंजस्य और सह-अस्तित्व है। विरोधी की कल्पना अनेकांत के आलोक में उसे फिर देखने का प्रयत्न करें। हमारी बद्धि ने की है। उत्पाद और विनाश, जन्म और मृत्यु, स्वतंत्रता और परतंत्रता शाश्वत और अशाश्वत—ये सब साथ-साथ चलते हैं। स्वतंत्रता और परतंत्रता का प्रश्न भी विवाद से परे सुविधा की आकांक्षा और विलासिता की मनोवृत्ति नहीं है। एकांतवादी दृष्टिकोण के आधार पर उसकी की संतुष्टि करना बहुत कठिन है, इसलिए भौतिक विकास व्याख्या नहीं की जा सकती। भावात्मक अभिनिवेश वाला और आध्यात्मिक विकास में सामंजस्य स्थापित करना कोई भी व्यक्ति पूर्ण स्वतंत्र नहीं हो सकता। वैयक्तिक अनिवार्य है। 1111111111 स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 18. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्या चाहे व्यक्ति की हो, समाज, राष्ट्र अथवा विश्व की हो, एकांगी दृष्टिकोण से किया जाने वाला उसका समाधान समीचीन समाधान नहीं होता। वह समाधान का आभास देता है, किंतु किनारे तक नहीं पहुंचाता। सापेक्ष एकांगी दृष्टि ही समाधान की दिशा में ले जाती है। निरपेक्ष एकांगी दृष्टि से समस्या का समाधान नहीं होता। विचार वैयक्तिक हैं। दो व्यक्ति विपरीत दिशा में सोचते हैं। यदि दोनों का संगम हो तो विचार पर आग्रह हावी हो जाएगा। एक का वक्तव्य होगा—जो मैं कहता हूं, वही सत्य है। तू जो कहता है, वह सत्य नहीं है। यह आग्रह एकदूसरे को मिथ्या प्रमाणित करता है। या तुम्हारा विचार सत्य है, या मेरा विचार सत्य है—दोनों विचार सत्य नहीं हो सकते। यह है आग्रह। यह एकांगी दृष्टिकोण का उत्पाद है। सापेक्षवाद के दृष्टिकोण का विकास होने पर यह आग्रह टूट जाता है। विरोधी प्रतीत होने वाले दोनों विचार सत्य हो सकते हैं, यदि देश, काल, परिस्थिति के संदर्भ में उनको देखा जाए। अनेकांत की फलश्रुति है—व्यक्ति में अनाग्रह की चेतना पैदा हो। वह घटना का विश्लेषण अनेक कोणों के आधार पर करता है, इसलिए सत्यांशों के समन्वय की दृष्टि है। अभेद में शब्द प्रधान नहीं होता, अर्थ प्रधान होता है। शब्द नय में अर्थ का बोध शब्द के माध्यम से होता है। उसमें शब्द प्रधान होता है, अर्थ प्रधान नहीं होता। प्रत्यक्ष ज्ञान में वाच्य-वाचक का संबंध खोजना आवश्यक नहीं है। परोक्ष ज्ञान में वाच्य-वाचक के संबंध की खोज अनिवार्य है। अर्थ का शब्दाश्रयी ज्ञान चिंतन और भाषा-दोनों को नया आयाम देता है। - शब्दाश्रयी अर्थ ज्ञान का एक दृष्टिकोण है-दीर्घकालिक पर्याय की एक रूप में - स्वीकृति, जैसे अमुक मनुष्य था, है और होगा। कोशकारों ने एक अर्थ का ज्ञान कराने के लिए पर्यायवाची या एकार्थक शब्दों का संकलन किया है। समभिरूढ नय की दृष्टि में यह प्रयत्न निरर्थक है। एक अर्थ या पर्याय का ज्ञान एक शब्द के द्वारा हो सकता है। दूसरा शब्द उसका वाचक नहीं हो सकता। तडित्वान् और धाराधर-दोनों मेघ के पर्यायवाची शब्द हैं, किंतु तड़ित्वान् शब्द का निर्माण विद्युत के कारण हुआ है और धाराधर शब्द का निर्माण धारा निपात के कारण हुआ है। इसलिए ये दो पर्याय हैं। एक शब्द इन दोनों पर्यायों । का वाचक नहीं हो सकता। हर पर्याय की अभिव्यक्ति के लिए एक नए शब्द की अपेक्षा होती है।। शब्द अर्थ का बोध कराने के लिए जिस समय अर्थक्रियाकारी हो, उसका जो पर्याय विद्यमान हो, उसका वाचक शब्द सम्यक् अर्थ-ज्ञान करा सकता है। मनुष्य शब्द के द्वारा मनुष्य संज्ञक अर्थ का बोध होता है। शब्द नय की दृष्टि में यह सम्यक प्रयोग है। एवंभूत नय अर्थक्रियाकारी पर्याय को ग्रहण करता है इसलिए मनन क्रिया के अभाव में मनुष्य नामक प्राणी को मनुष्य नहीं मानता। जो मनन करता है, वह 1 मनुष्य है इसलिए मनुष्य शब्द मनन क्रिया के क्षण में मनुष्य का वाचक बनता है। । घट का उदाहरण भी प्रस्तुत किया जा सकता है। शब्द नय की विचारणा में एक निश्चित आकार वाला मिट्टी का पात्र घट कहलाता है। जलाहरण और जलधारण की क्रिया में जो प्रवृत्त नहीं है, एवंभूत नय उसे घट शब्द का वाच्य नहीं मानता। शब्द नय-घट घट है, भले फिर वह जलाहरण की क्रिया में प्रवृत्त हो या नहीं। एवंभूत नय-घट इसलिए घट है कि वह जलाहरण की क्रिया कर रहा है। जिस । क्षण वह जलाहरण की क्रिया नहीं कर रहा है, उस समय वह घट नहीं है। एवंभूत नय का दृष्टिकोण अर्थज्ञान का विशुद्ध दृष्टिकोण है। उसके आधार पर । रूढ़ि से मुक्त होकर गतिशील चिंतन का विकास किया जा सकता है। विचार के नियम नय के आधार पर विचार के आठ नियम बनते हैं। द्रव्य वास्तविक है। उसी के आधार पर विचार का विकास हुआ है। . द्रव्य शून्य विचार अवास्तविक है। उसे कल्पना से अधिक महत्त्व नहीं दिया जा सकता। जिसका अर्थक्रियाकारित्व स्पष्ट है, उसे काल्पनिक नहीं माना जा । सकता। 13. समग्र द्रव्य को जाना नहीं जा सकता-द्रव्य के सब पर्यायों को एक साथ जानने की हमारे ज्ञान में सामर्थ्य नहीं है। 14. समग्र द्रव्य को अभेद वृत्ति और अभेदोपचार से ही जाना जा सकता है। 5. द्रव्य को साक्षात् जानने का सामर्थ्य नहीं है। उसे पर्याय के माध्यम से ही जाना जा सकता है। अनेकांत विशेष.19 TrumDE मार्च-मई, 2002 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्मित हो जाती है। इस भाषा के आधार पर हम कह सकते हैं— सत्याशों को सापेक्ष और समन्वय-दृष्टि से देखने का नाम है अनेकांत । सामाजिक समस्याएं भी अनेक होती हैं। उन्हें एकांगी दृष्टिकोण से नहीं सुलझाया जाता। सामाजिक जीवन संबंधों का जीवन है। संबंधों की व्याख्या सापेक्ष दृष्टि से ही की जा सकती है विवाह, तलाक आदि के विषय में देश और काल के आधार पर भिन्न-भिन्न प्रकार का चिंतन रहा है किसी एक दृष्टिकोण से औचित्य या अनौचित्य की स्थापना नहीं की जा सकती। समानता, विषमता, गरीबी, अमीरी ये सब प्रश्न हैं। इनका अनेकांत दृष्टि से समीक्षात्मक पर्यालोचन करना आवश्यक है। भाषा, प्रांत, स्वायत्तता, जातीयता, सांप्रदायिक कहरता आदि राष्ट्र की प्रमुख समस्याएं हैं। उनका समाधान इसलिए नहीं हो रहा है कि समस्या सुलझाने वालों का दृष्टिकोण सापेक्ष और समन्वय-मूलक नहीं है। स्वत्व का विस्तार, प्रभुत्व का विस्तार, बाजार पर एकाधिकार आदि अंतरराष्ट्रीय समस्याएं हैं। अपने-अपने विकास का अधिकार भी अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में बाधा बना हुआ है। युग की अपेक्षा है, विश्वशांति की अपेक्षा है कि परिवार, समाज, राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र के प्रमुख व्यक्तियों का दृष्टिकोण अनेकांतमय होना चाहिए। उन्हें सापेक्षता, समन्वय, सहअस्तित्व और स्वतंत्रता का प्रशिक्षण लेना चाहिए। यह प्रशिक्षण विश्वशांति की समस्याओं को सुलझाने का एक सर्वोत्तम उपाय होगा। व्यावहारिक चेतना का निर्माण करने से पहले दार्शनिक चेतना का निर्माण आवश्यक है। दर्शन के आधार पर ही व्यवहार का प्रवर्तन होता है। व्यवहार परिवर्तन के लिए दर्शन के इन सूत्रों पर मनन करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण होगा सत्य सत्य ही है। वह मेरे लिए एक प्रकार का और दूसरे के लिए दूसरे प्रकार का नहीं होता। फिर भी यह हो रहा है कि मैं जिसे सत्य मानता हूं, दूसरा उसे असत्य मानता है। दूसरा जिसे सत्य मानता है, मैं उसे असत्य मानता हूं। सत्य का यह विवादास्पद रूप असत्य की ओर ले जाता है। इस प्रश्न को सुलझाने के लिए अनेकांत की स्थापना करते हुए महावीर ने कहा- 'सत्य का प्रतिपादन 20 • अनेकांत विशेष नहीं किया जा सकता । प्रतिपादन सत्यांश का ही हो सकता है। कोई भी मनुष्य अपने जीवन में सत्य के हजारों पर्यायों से अधिक पर्यायों को अभिव्यक्ति नहीं दे पाता ।' जैन दर्शन ने प्रत्ययवाद और वस्तुवाद— इन दोनों सत्यांशों की सापेक्ष व्याख्या की है। • प्रत्ययवाद और वस्तुवाद एक-दूसरे से निरपेक्ष होकर असत्यांश हो जाते हैं और परस्पर सापेक्ष होकर सत्यांश बन जाते हैं। ● विश्व का प्रत्येक तत्त्व नित्य और अनित्य इन दोनों धर्मों की स्वाभाविक समन्विति है। • सत्य की खोज चिंतन-मनन और दर्शन से हुई है। उसका विकास सामाजिक संदर्भ में हुआ है। • चेतन और अचेतन— दोनों निरपेक्ष सत्य हैं तथा उनसे होने वाले परिवर्तन सापेक्ष सत्य हैं। निरपेक्ष और सापेक्ष दोनों सत्यों की समन्विति ही वास्तविक सत्य है । सत्य की खोज और संवादिता सत्य शाश्वत है। सत्य का अन्वेषण करने वाला उसका प्रवर्तन नहीं करता, व्याख्या करता है। भगवान महावीर सत्य के प्रवर्तक नहीं, किंतु व्याख्याता थे। उन्होंने दीर्घ तपस्या के द्वारा सत्य का साक्षात्कार किया और भाषा की सीमा में उसे अनावृत किया। उन्होंने देखा – सत्य का साक्षात्कार किया जा सकता है, उसकी समग्रता का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। प्रतिपादन सत्यांश का ही किया जा सकता है। ज्ञान अपने लिए होता है और प्रतिपादन दूसरों के लिए। ज्ञान अपने-आपमें प्रत्यक्ष होता है । ज्ञेय को जानते समय वह प्रत्यक्ष भी होता है और परोक्ष भी होता है। वह अपने आप में न प्रमाण होता है और न अप्रमाण ज्ञेय को जानते समय वह प्रमाण भी होता है और अप्रमाण भी होता है। संशयित और विपर्यस्त ज्ञान अप्रमाण होता है। निर्णयात्मक ज्ञान प्रमाण होता है। ज्ञान विकास की तरतमता, स्वार्थ और परार्थ, प्रत्यक्ष और परोक्ष, प्रामाण्य और अप्रामाण्य- -ज्ञान के इन विविध रूपों ने सत्य को विविध रूपों में विभक्त कर दिया। अनेकांत ने ऋजुता और अनाग्रह का पथ प्रशस्त किया। सत्य उसे उपलब्ध होता है, जो ऋजु होता है। वह जो जैसा है उसे उसी रूप में स्वीकार करता है, यथार्थ को अपने पूर्वाग्रह के सांचे में ढालने का प्रयत्न नहीं करता, वस्तु सत्य के दर्पण को अपनी रुचि और संस्कार के फ्रेम में स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च - मई, 2002 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंढ़ने का प्रयत्न नहीं करता। वस्तु-सत्य के विरोधी, विसंगत प्रतीत होने वाले पर्यायों में अपने तर्क-बल से सामंजस्य और संगति स्थापित करने का प्रयत्न नहीं करता। यह ऋजुता की साधना झुकाव-शून्यता की साधना है, विचार-शून्यता की साधना है। ऋजु व्यक्ति न महावीर के प्रति झुकाव रखता है और न किसी दूसरे के प्रति। उसका मन और मस्तिष्क खाली होता है, शून्य होता है। सत्य की खोज के मार्ग में जितने प्रश्न, जितनी समस्याएं और जितनी उलझनें हैं, वे सब एकांतवादी लोगों ने उत्पन्न की हैं। एक एकांतवादी व्यक्ति 'क' के सत्यांश को पूर्ण सत्य मानकर 'ख' के सत्यांश को असत्यांश बतलाता है तो दूसरा व्यक्ति 'ख' के सत्यांश को पूर्ण सत्य मानकर 'क' के सत्यांश को असत्यांश बतलाकर सत्य की खोज में प्रश्न पैदा करता है। वे यथार्थ को यथार्थ रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। वे वचन-प्रामाण्य या शास्त्रप्रामाण्य से ही सत्य को उपलब्ध करना चाहते हैं। उसके लिए ऋजुता या विचारशून्यता की साधना करना नहीं चाहते। ऐसे ही लोगों ने सत्यांशों में विरोधाभास दिखाकर सत्य की अनेकरूपता और सत्यदर्शी तपस्वियों की परस्पर विसंवादिता के प्रश्न को उजागर किया है। 6. एक समय में एक पर्याय को ही जाना जा सकता है। 7. एक पर्याय के ज्ञान के आधार पर भावी अनंत पर्यायों की व्याख्या नहीं की जा सकती, इसलिए सापेक्ष सत्य की व्याख्या करना उचित है। . अस्तित्व निरपेक्ष सत्य है। उसका पर्याय के आधार पर अनुमान किया जा सकता है, किंतु उसका साक्षात् ज्ञान नहीं किया जा सकता। अस्तित्व इंद्रिय ज्ञान से ज्ञेय नहीं है, इसलिए वह अज्ञेय है। वह परिणमन धर्मा है। उसका एक परिणमन अथवा एक पर्याय एक समय में इंन्द्रिय चेतना से ज्ञेय बनता है। उसके शेष सब पर्याय एक साथ ज्ञेय नहीं बनते। वे कालक्रम से ज्ञेय बनते हैं। जो ज्ञेय नहीं बनते, उन्हें अस्वीकार नहीं किया जा सकता। ज्ञेय पर्याय और अज्ञेय पर्याय की युगपत् स्वीकृति का सूचक शब्द है 'स्यात्'। आगम साहित्य में नय के साथ 'स्यात्' शब्द का प्रयोग हुआ है, अतः आगम युग में नय और स्याद्वाद दोनों भिन्न नहीं हैं। अनेकांत का आधार भी नय है इसलिए अनेकांत भी नय से भिन्न नहीं है। दार्शनिक युग में जैन दर्शन के आचार्यों ने दार्शनिक समस्याओं पर विचार करने की दृष्टि से प्रमाण और नय का विभाग किया। द्रव्य के समग्र स्वरूप का ज्ञान करने के लिए प्रमाण की व्यवस्था की। उसके ज्ञानात्मक और वचनात्मक-दोनों विधि प्रकल्पों के साथ 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया गया। ज्ञान काल में 'स्यात्' शब्द स्वार्थानुमान की तरह अंतर्भूत रहता है, वचन काल में पदार्थानुमान की तरह वह वाक्प्रयोग बनता है। द्रव्य के एक पर्याय का ज्ञान करने के लिए नय की व्यवस्था की। उसके साथ 'स्यात्' शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, केवल 'एवकार' (निरपेक्ष बोध अथवा वचन) का प्रतिषेध किया गया। आचार्य हेमचन्द्र ने इन तीनों का आकार इस प्रकार प्रस्तुत किया 1. सदैव दुर्नय, एकांत बोध अथवा एकांत वचन। 2. सत्-सापेक्ष बोध अथवा सापेक्ष वचन। 3. स्यात् सत्-प्रमाण बोध अथवा प्रमाण वाक्य। नय का एक वर्गीकरण और मिलता है-निश्चय नय और व्यवहार नय। द्रव्यार्थिक नय वस्तुतः निश्चय नय है और पर्यायार्थिक नय व्यवहार नया इंद्रिय ज्ञानी सत् को जानने के लिए पर्यायार्थिक अथवा व्यवहार नय का उपयोग करता है। अतींद्रिय ज्ञानी सत् के व्यक्त पर्याय को ही नहीं जानता, वह उसके अव्यक्त पर्याय को भी जानता है। उसके लिए निश्चय नय उपयोगी है। सत् का समग्र रूप व्यक्त और अव्यक्त दोनों पर्यायों से संवलित है। इंद्रियज्ञानी अतींद्रियज्ञानी के वचन के आधार पर उसका ज्ञान कर सकता है। अपने ज्ञान से उसे नहीं जान पाता। अनुमान और गणित से वह अतींद्रिय वस्तु को भी जान सकता है, इसलिए गणितीय युग में । सत् के अव्यक्त पर्यायों को भी जानने की क्षमता विकसित हुई है। इस आधार पर सिद्धसेन के उस सूक्त की सार्थकता प्रमाणित होती है। उसे कुछ परिवर्तन के साथ इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है। जितने ज्ञान पथ उतने नय। जितने नय उतने ज्ञान पथ। जितने वचन पथ उतने नय। जितने नय उतने वचन पथ। नय की मीमांसा किए बिना सत् के अव्यक्त और व्यक्त रूप तथा ज्ञान की सीमा का सम्यक् आकलन नहीं किया जा सकता। अनेकांत विशेष .21 मार्च-मई, 2002 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंतु अनेकांतवाद निश्चित रूप से तत्त्वमीमांसीय सिद्धांत ही है क्योंकि यह वस्तु के विभिन्न पक्षों को उनकी विभिन्नता में वस्तुगत ही मानता है, और स्याद्वाद इन पक्षों की विभिन्नता का उसी रूप में कथन करने की विधि है। किंतु तब प्रश्न होता है कि जब हम कहते हैं कि 'वस्तु इस अपेक्षा से ध्रुव और इस अपेक्षा से परिवर्तमान है, इस अपेक्षा से अस्ति और इस अपेक्षा से अनम्ति है' और कि 'वह अवक्तव्य भी है', अर्थात् 'अस्ति-अनस्ति उभयतः भी है' तब हम वस्तु के निरपेक्ष ग्रहण को पूर्वगृहीत किए बिना यह कैसे कह सकते हैं? हाथी के उदाहरण में भी वही बात है, कि कोई सूंड को ही हाथी मान रहा है और दूसरा पैर को ही, किंतु यह भ्रांति है—इसे वही जान सकता है जो हाथी को उसकी समग्रता में जानता हो। अनेकांत और स्याद्वाद कैसे हो अस्पष्टता का निवारण यशदेव शल्य अनेकांतवाद और स्याद्वाद सिद्धांत प्रम किया है, अर्थात् सापेक्ष अनेकतावाद । इसका भी सिद्धांतों को लेकर जैन विद्वानों में भी और यही अर्थ बनता है कि वस्तु मनुष्य के लिए केवल पक्षतः ही जैनेतर विद्वानों में भी, गहरी अस्पष्टता है। यह अस्पष्टता गम्य होती और हो सकती है, अपनी समग्रता में नहीं, क्योंकि दर्शाने के लिए हम तीन उद्धरण देंगे और उनकी आलोचना मनुष्य की ज्ञान शक्ति, बल्कि कहें ज्ञान के उपकरण, के द्वारा उस अस्पष्टता का निवारण करने का प्रयत्न करेंगे। परिमित हैं और वस्तु का आकार अपरिमित, या कम-से-कम सर्वप्रथम सर्वदर्शन संग्रह के श्रीमाधवाचार्य का प्रतिपादन इतने बड़े परिमाण का कि वह मनुष्य को अपनी पूर्णता में गम्य देखें— 'जैन लोगों के अनुसार हमें किसी वस्तु का ज्ञान पूरा नहीं हो सकता। इस दृष्टि की व्याख्या वे इस प्रकार करते नहीं होता। किसी वस्तु के कई पहलू होते हैं, उनमें सब हैं— 'इसे हम उपनिषदों के आत्यंतिक निरपेक्षतावाद या पहलुओं का एक साथ ज्ञान प्राप्त करना केवली के लिए ही अद्वयवाद (एब्सोल्यूटिज्म) और बौद्धों के पूर्ण अनेकांतवाद संभव होता है, शेष के लिए नहीं, क्योंकि अकेवली जन का के विपरीत सापेक्ष अनेकांतवाद कह सकते हैं। जैन सब ज्ञान एकांगी ही हो सकता है (जैनों के अनुसार) दार्शनिकों वस्तुओं को अनेकात्मक मानते हैं अथवा दूसरे शब्दों में, वे में विवाद का यही कारण है। परमार्थ के केवल एक पक्ष का मानते हैं कि कोई निरपेक्ष कथन संभव नहीं है, क्योंकि सब अवलोकन कर सकने के कारण वे केवल एक पक्ष को ही जान कथन कुछ परिस्थितियों और कुछ सीमाओं में ही किए जा सकते हैं। इसे जैन लोग 'नय' कहते हैं। नय का विषय एकदेश सकते हैं। उदाहरणतः एक स्वर्ण कलश द्रव्य के रूप में एक विशिष्ट होता है (न्यायावतारसूत्र, 29 ) ।" इसके निदर्श रूप परमाणु संघात है, किसी दूसरे प्रकार का, जैसे आकाश के में जैनों में हाथी के सूंड, पैर आदि को ही हाथी समझने का प्रकार का द्रव्य नहीं है। अर्थात् स्वर्ण कलश केवल एक अर्थ उदाहरण प्रचलित है। इसका अर्थ है कि अनेकांतवाद मनुष्य में द्रव्य है, सब अर्थों में नहीं.... आदि । " अब, इस उद्धरण को के ज्ञान को वस्तुस्वरूप को, उसकी समग्रता में ग्रहण में ध्यान से पढ़ें तो आप एक गहरा व्यामिश्र पाएंगे। यहां वस्तुअसमर्थ, केवल अंश ग्राही ही मानता है और इस प्रकार ज्ञान स्वरूप और उसके ज्ञान को व्यामिश्रित किया जा रहा है। में निराग्रही जिज्ञासुभाव का परामर्श देता है। 'कलश किस प्रकार का द्रव्य है, यह उसके स्वरूप के संबंध में कथन है, किंतु 'वह किस-किस प्रकार का द्रव्य नहीं है' यह उसके स्वरूप विषयक बात नहीं है, यह उसके ज्ञान विषयक 3 दूसरा उद्धरण प्रोफेसर सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त से देखें । दासगुप्त ने 'अनेकांतवाद' का अंग्रेजी में अनुवाद 'रेलेटिव 22 • अनेकांत विशेष स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च - मई, 2002 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या कथन विषयक बात है। किंतु 'तत्त्व अद्वय चैतन्य रूप है तत्त्वमीमांसीय हैं यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया। यह या क्षण-संतान रूप है' इसका विषय हमारा ज्ञान या कथन अस्पष्टता इसलिए है क्योंकि वे स्याद्वाद को 'प्रतिपादन नहीं है, इसका विषय तत्त्व का स्वरूप है। अब आचार्यश्री शैली' भी कहते हैं और मेलेनोविस के अनुसार इसे सांख्यिकी महाप्रज्ञ की व्याख्या देखें। वे कहते हैं-'अनेकांत का मूल से भी जोड़ते हैं। अब, सांख्यिकी वह ज्ञान-विधि है जो प्रतिपाद्य है नित्यानित्यतावाद। विश्व की व्याख्या तथा द्रव्य घटनाओं में कारण-कार्य संबंध सिद्ध नहीं कर पाने पर की व्याख्या केवल नित्य और केवल अनित्य के आधार पर संख्यात्मक अनुपात के आधार पर संभावनात्मक नहीं की जा सकती। जैन दर्शन के अनुसार कोई द्रव्य नित्य भविष्यवाणी करती है। यद्यपि स्याद्वाद को सांख्यिकी से और कोई अनित्य, यह विभाग नहीं है। प्रत्येक द्रव्य का एक जोड़ना और 'प्रतिपादन शैली' कहना दोनों भ्रांतिमूलक हैं, अंश है ध्रौव्य, इसलिए वह नित्य है, उसका दूसरा अंश है क्योंकि ये सापेक्षतया निश्चयात्मक कथन ही होते हैं देश पर्याय, इसलिए वह अनित्य है।'' यहां आचार्यश्री महाप्रज्ञ की अपेक्षा से, काल की अपेक्षा से आदि, जबकि सांख्यिकीय 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग 'वस्तु' के अर्थ में कर रहे हैं क्योंकि कथन संभावनात्मक होते हैं, किंतु यदि कोई इन्हें सांख्यिकीय द्रव्य ध्रुव, अर्थात् नित्य ही होता है, जबकि वस्तु नित्यानित्य रूप से देखता है तो वह इन्हें किसी भी प्रकार से होती है। जो भी हो, आचार्यश्री के उपर्युक्त प्रतिपादन के तत्त्वमीमांसीय नहीं कह सकता। अनुसार अनेकांत का संबंध वस्तु-स्वरूप से है-वस्तु किंतु अनेकांतवाद निश्चित रूप से तत्त्वमीमांसीय स्वरूपतः अनेकात्मक है। यह अनेकांतवाद का अभिप्राय है। सिद्धांत ही है क्योंकि यह वस्तु के विभिन्न पक्षों को उनकी आपेक्षिकता वस्तुगत नहीं होती, वह ज्ञानगत या कथनगत ही विभिन्नता में वस्तुगत ही मानता है, और स्याद्वाद इन पक्षों हो सकती है। किंतु तब की विभिन्नता का उसी रूप में अनेकांतवाद अनेक प्रकार के कथन करने की विधि है। किंतु तब हैं न्याय-वैशेषिक प्रकार का, जहां तक स्याद्वाद का संबंध है, यह प्रश्न होता है कि जब हम कहते हैं सांख्यीय प्रकार का, बौद्ध प्रकार हमारे साधारण भाषा-प्रयोग में कि 'वस्तु इस अपेक्षा से ध्रुव और का और दूसरे अनेक प्रकार के भी। पूर्वगृहीत बातों को केवल विस्तार से इस अपेक्षा से परिवर्तमान है, इस महाप्रज्ञजी अनेकांतवाद को कहना है। उदाहरणतः जब हम कहते अपेक्षा से अस्ति और इस अपेक्षा तत्त्वमीमांसीय कहते भी हैं, जिसका हैं 'यह घट है' तब इसमें 'वह' की. से अनस्ति है' और कि 'वह अर्थ है कि ज्ञानमीमांसीय अर्थ में और 'था' और 'होगा' की व्यावृत्तियां अवक्तव्य भी है', अर्थात् 'अस्तियह अनैकांतिक दृष्टि नहीं है, उस पूर्वगृहीत रहती हैं। 'यह घट है' इस अनस्ति उभयतः भी है' तब हम वाक्य को निरपेक्ष रूप से कोई भी अर्थ में यह ऐकांतिक दृष्टि ही है। नहीं लेता। यदि कोई लेता है तो वस्तु के निरपेक्ष ग्रहण को ज्ञानमीमांसीय अर्थ में अनेकांत इसका अर्थ है कि वह साधारण पूर्वगृहीत किए बिना यह कैसे कह दृष्टि यह होगी कि 'वस्तुएं हमें भाषा-ज्ञान से वंचित है। किंतु यह सकते हैं? हाथी के उदाहरण में भी द्रव्य और पर्याय उभयात्मक प्रतीत वस्तु विषयक लोकधारणा है। यदि वही बात है, कि कोई सूंड को ही होती हैं, यद्यपि यह कहना कठिन है कोई इस लोकधारणा को ही, जिसे हाथी मान रहा है और दूसरा पैर किये जैसी प्रतीत होती हैं वैसी ही महात्मा बुद्ध 'पृथग्जन की धारणा' को ही, किंतु यह भ्रांति है-इसे हों, ये मात्र द्रव्यात्मक भी हो सकती कहते हैं, परमार्थ का स्तर दे देता है वही जान सकता है जो हाथी को हैं, मात्र पर्यायात्मक भी हो सकती और इस पर ही अपनी सारी उसकी समग्रता में जानता हो। हैं, ऐसी भी हो सकती हैं जिन पर विवेचन-शक्ति का अपव्यय करता है अब, इस दृष्टि को ज्ञानात्मक ऐसी कोई कोटि लागू नहीं होती हो, तो वह हमारी सहानुभूति का पात्र तो अनेकांत दृष्टि और निराग्रही दृष्टि और ऐसी भी कि जैसे जादूगर द्वारा हो सकता है, आदर का पात्र नहीं। नहीं कह सकते, ज्ञानात्मक रूप से रचित इंद्रजाल।' किंतु जैन लोग तो यह ऐकांतिक दृष्टि ही है, और ऐसी अनिश्चयात्मकता नहीं रखते। यह बात अतिरिक्त कि यह अपने यह अस्पष्टता तब और बढ़ जाती है जब वे अनेकांत को ही को पूर्ण सत्य की ज्ञापक मानती है और दूसरी दृष्टियों को नहीं स्याद्वाद और नय को भी तत्त्वमीमांसीय कहते हैं। ये कैसे खंड सत्य को अखंड सत्य मानने वाली मानती है। 1 1 1111111111111111 | स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.23 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहां तक स्याद्वाद का संबंध है, यह हमारे साधारण परमार्थ का भेद किया है और व्यवहार को 'मिथ्या' कहा भाषा-प्रयोग में पूर्वगृहीत बातों को केवल विस्तार से कहना है। उनकी दृष्टि पूर्णतः युक्तिसंगत है, यहां यह हमारा है। उदाहरणतः जब हम कहते हैं 'यह घट है' तब इसमें प्रतिपाद्य नहीं है, किंतु उनकी दृष्टि के विरुद्ध बिना कोई 'वह' की और 'था' और 'होगा' की व्यावृत्तियां पूर्वगृहीत युक्ति दिए लोकसाधारण बोध को परमार्थ बोध मानकर रहती हैं। 'यह घट है' इस वाक्य को निरपेक्ष रूप से कोई अपने को हाथी का ज्ञाता बताना और उन्हें सूंड और पैर भी नहीं लेता। यदि कोई लेता है तो इसका अर्थ है कि वह को हाथी मानने वाले कहना केवल उपहासास्पद बालिशता साधारण भाषा-ज्ञान से वंचित है। किंतु यह वस्तु विषयक ही प्रदर्शित करना है। दूसरे, यदि अकेवली मनुष्य परमार्थ लोकधारणा है। यदि कोई इस लोकधारणा को ही, जिसे तत्त्व को उसकी समग्रता में जान पाने में असमर्थ हैं तो महात्मा बुद्ध 'पृथग्जन की धारणा' कहते हैं, परमार्थ का आप अकेवली यह कैसे जानते हैं कि आपकी ज्ञान-विषय स्तर दे देता है और इस पर ही अपनी सारी विवेचन- सूंड किसी हाथी अवयवी की अंग है, कि परमार्थ तत्त्व शक्ति का अपव्यय करता है तो वह हमारी सहानुभूति का अनेकांत है, कि आपके प्रकार की सापेक्षता को केवली पात्र तो हो सकता है, आदर का पात्र नहीं। पीछे इंग्लैंड के निरपेक्ष रूप में जान सकता है? आप वैज्ञानिक 'साधारण भाषा या कहें लोक-भाषा परमार्थवादी' सापेक्षतावाद से अपने सापेक्षतावाद की अनुरूपता कहते (ऑर्डिनरी लेंग्वेज अनेलेइस्ट्स) दार्शनिकों ने, जिनमें हैं, किंतु आइन्स्टाइनीय सापेक्षता-सिद्धांत ज्ञान की 'सी.डी. ब्रॉड", और पी.एफ. स्ट्रॉसन के नाम निरपेक्षता को संभव ही नहीं मानता और न पारमाणविक उल्लेखनीय हैं, जैनों से भी अधिक सूक्ष्म किंतु ऊबाऊ अनिर्धार्यता का सिद्धांत केवली के लिए भी निर्धारण को विश्लेषण प्रस्तुत किया था। किंतु संभव मानता है। विज्ञान की बात दार्शनिक विचार को भौतिक छोड़ें, उसे गौरव देना और उससे वस्तुओं विषयक लोकधारणा को घट यदि पर्याय है तो वह सर्वथा अनुरूपता बताकर अपने को समर्पित कर देना और आत्मा अनित्य ही हो सकता है, वह नित्य गौरवान्वित करना दार्शनिक आदि संबंधी विचार को भी इसी कैसे होगा? इसी प्रकार, आकाश अधकचरेपन को ही प्रकट करता निदर्श पर करना प्रशंसनीय नहीं यदि द्रव्य है तो वह सर्वथा नित्य ही है। यहां प्रासंगिक बात यह है कि कहा जा सकता। किंतु बौद्ध जब हो सकता है, वह अनित्य कैसे यदि आप परमार्थ ज्ञान केवल सब-कुछ को क्षण-संतान कहते होगा? यदि आप कहते हैं कि नहीं, केवली के लिए ही संभव मानते हैं हैं, जब अवयवी की सत्ता कुछ भी केवल द्रव्य या केवल पर्याय तो अपनी अभिवृत्ति महात्मा बुद्ध अस्वीकार कर उसे केवल नहीं हो सकता, तो आपको 'घट के जैसी होनी चाहिए कि 'तत्त्व नित्यानित्य है ऐसा नहीं कह कर अवयव-संघात कहते हैं, या केवल संबोधि का विषय है, ऐसा कहना चाहिए कि वह वस्तु जो उपनिषद जब सब-कुछ को ब्रह्म परमाणु पक्ष में द्रव्य और घट पक्ष में इसलिए उसके संबंध में बोध के कहते हैं, तब ऐसा नहीं है कि पर्याय है वह नित्यानित्य है।' किंतु लौकिक स्तर पर रहते हुए विचार उन्हें लोक-भाषा का ज्ञान नहीं यह कोई कहने की बात ही नहीं है, करना व्यर्थ है, उस स्तर पर तो होता या वस्तु विषयक क्योंकि आप अस्तित्व मात्र को द्रव्य- केवल इतना समझना ही अपेक्षित लोकधारणा का पता नहीं होता। पर्यायात्मक ही मानते हैं और है कि व्यवहार-लोक किंतु वे इस जानकारी के बावजूद परिणामतः आपके लिए ऐसा कुछ हो अविद्यामूलक संस्कार प्रवाह मात्र अपने सिद्धांतों का भिन्न प्रकार ही नहीं सकता जो केवल द्रव्य या है। यदि परमार्थ को जानना है तो से प्रतिपादन करते हैं। इसका केवल पर्याय हो। व्यवहार की अविद्यामूलकता कारण यह है कि वे लोक जानकर अपना दीपक स्वयं धारणाओं को परमार्थ-विचार में बनो-अप्प दीपो भव। उसके युक्तिसंगत नहीं पाते। इसी प्रकार के विचार के क्रम में संबंध में दर्शन-चर्चा मत करो।' किंतु जैन इसके विपरीत महात्मा बुद्ध, महायानी बौद्धों और शंकर ने व्यवहार और कहते हैं कि उनका मत ही ऐकांतिक रूप से युक्त मत है। Home स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 24. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खैर यदि वे ऐसा कहें तो यह उनकी मर्जी किंतु तब वे सर्वथा नित्य है। (किन्तु) जैन दर्शन के लिए नित्यानित्य का अपने सापेक्षतावाद को निराग्रहता, अन्य मतों के प्रति सिद्धांत सार्वभौम है। जैसे आकाश नित्यानित्य है वैसे ही उदारता और विनम्रता आदि का द्योतक नहीं कहें, इनसे घट भी नित्यानित्य है।'' किंतु वह कैसे? घट यदि पर्याय है इस सापेक्षतावाद का कोई संबंध नहीं है। तो वह सर्वथा अनित्य ही हो सकता है, वह नित्य कैसे अब जैनों के प्रतिपादन की असमीचीनता और होगा? इसी प्रकार, आकाश यदि द्रव्य है तो वह सर्वथा स्थूलता देखें। जैन घट-पट आदि को परमाणु-द्रव्य के पर्याय नित्य ही हो सकता है, वह अनित्य कैसे होगा? यदि आप कहते हैं। प्रथम तो, परमाणु-संघात एक-द्रव्य है और यह कहते हैं कि नहीं, कुछ भी केवल द्रव्य या केवल पर्याय नहीं हो सकता, तो आपको 'घट नित्यानित्य है' ऐसा नहीं कह परमाणु-संघात, या एक-एक परमाणु भी, अपरिवर्तनशील होते हैं, यही स्वीकार करने का कोई आधार नहीं है। किंतु कर ऐसा कहना चाहिए कि 'वह वस्तु जो परमाणु पक्ष में इसे यदि जाने भी दें तो भी, घट-पट आदि परमाणुओं के द्रव्य और घट पक्ष में पर्याय है वह नित्यानित्य है।' किंतु पर्याय हैं, यह कहना अविचार की पराकाष्ठा है, क्योंकि घट यह कोई कहने की बात ही नहीं है, क्योंकि आप अस्तित्व मात्र को द्रव्य-पर्यायात्मक ही मानते हैं और परिणामतः या पट वस्तुगत कुछ होते ही नहीं, ये तो मनुष्य द्वारा आपके लिए ऐसा कुछ हो ही नहीं सकता जो केवल द्रव्य कल्पित आकार या दृष्ट प्रत्यय होते हैं जो द्रव्य-पर्यायात्मक या केवल पर्याय हो। ऐसी अवस्था में आपको कहना चाहिए भौतिक वस्तु को उपादान कर इंद्रिय-ग्राह्य रूप में व्यक्त होते कि 'घट, जोकि पर्याय है, अनित्य है और आकाश, जोकि हैं। इसी से ये एक बार किसी उपादान में आविर्भूत होकर द्रव्य है, नित्य है, क्योंकि इसमें यह पूर्वगृहीत है कि घट का उस उपादान की संहति के छिन्न होने तक अपरिवर्तित रूप कोई द्रव्य पक्ष भी है जो नित्य है और आकाश का पर्याय में ही बने रहते हैं। उपादानों में आविर्भूत इन अलौकिक सत्त्वों पक्ष भी है जो अनित्य है।' किंतु यह कहना कि घट भी का केवल प्राग्भाव और ध्वंसाभाव ही होता है, बीच की नित्यानित्य है और आकाश भी, भ्रांतिजनक है। यह अवधि में ये ज्यों-के-त्यों ही बने रहते हैं। यह बात पुस्तक भ्रामकता तब द्विगुणित हो जाती है जब आप वैशेषिक दर्शन के उदाहरण से अधिक स्पष्ट हो जाएगी–कागज या मसि को अपने से विपरीत ऐकांतिक बताते हुए कहते हैं कि के परिवर्तन से पुस्तक में कोई परिवर्तन होता है, ऐसा नहीं 'वैशेषिक पृथ्वी को कारण रूप से नित्य और कार्य रूप से कहा जा सकता। यही बात घट-पट आदि में भी है। द्रव्य अनित्य मानते हैं और इस प्रकार नित्य और अनित्य को पर्याय की दृष्टि से तो वास्तव में ये अवस्तुएं हैं, जिन्हें वेदांती विभागशः देखते हैं।' वह तो आप भी द्रव्य और पर्याय का और बौद्ध ठीक ही विकल्प या नाम-रूप कहते हैं अथवा आप विभाग कर वस्तु को एक विभाग में नित्य और दूसरे इन्हें दूसरे प्रकार की वस्तुएं कह सकते हैं लोकोत्तर प्रकार विभाग में अनित्य देखते हैं। की, जो द्रव्य-पर्यायात्मक नहीं होतीं। निश्चय ही ये भी किसी इसी प्रकार स्याद्वाद के संबंध में भी हम संक्षेप में ज्ञान के लिए अपनी समग्रता में गम्य नहीं होती, किंतु इनका विचार करेंगे। सर्वप्रथम यहां यह देखना चाहिए कि स्याद्वाद पक्ष-ग्रहण स्याद्वाद की सप्तभंगी या अभंगी का विषय नहीं का संदर्भ क्या है, ज्ञान या कि कथन ? इस संबंध में भी जैनों होता, क्योंकि इनकी सत्ता देश या कालपरक नहीं होती। में मतभेद और अस्पष्टता है। उदाहरणतः आचार्यश्री महाप्रज्ञ इनकी समग्रता केवल एक आयाम में अगम्य होती है और इसे 'प्रतिपादन-शैली' कहते हैं जबकि आचार्य समन्त भद्र वह है गहनता का आयाम, जो अपने को अन्तःसाक्षात्कार 'क्रमभावि ज्ञान' कहते हैं। यों जैसा कि हमने पीछे देखा, की गहनता के अनुपात में उद्घाटित करता है। विचार और आचार्यश्री महाप्रज्ञ इसे तत्त्वमीमांसीय भी कहते हैं। इसके ये भाव आदि इसी प्रकार की सत्ताएं हैं। दोनों ही निरूपण युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होते। 'प्रतिपादनद्रष्टव्य है कि जैन इसके आगे भी व्यामिश्र करते हैं। शैली' का क्या अर्थ है? कोई भी लेखक जैसे लिखता है उसे अपने अनेकांत को सर्वव्यापी दिखाने के लिए वे ऐसी बातें उसकी प्रतिपादन-शैली कहते हैं और प्रायः किन्हीं भी दो भी करते हैं, जैसे 'नित्यानित्य का सिद्धांत कुछ दर्शनों को मौलिक लेखकों की प्रतिपादन-शैलियां भिन्न होती है। किंतु मान्य है, किंतु वह (उनके लिए) सार्वभौम नहीं है, वह इसी शैली-भेद का प्रतिपाद्य से कोई अनिवार्य संबंध नहीं विभाग रूप से मान्य है। जैसे (उनके अनुसार) घट अनित्य होता। उदाहरणतः शंकराचार्य, श्रीहर्ष और व्यासतीर्थ की है, आकाश सर्वथा नित्य है, दीपकनिका अनित्य है, आत्मा प्रतिपादन-शैलियों में मौलिक भेद है जबकि उनका सिद्धांत HHHHHHHHHHE स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 जैन भारती अनेकांत विशेष .25 जित हा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक ही है। जहां तक 'क्रमभावि ज्ञान' का संबंध है, इसका है। इसकी अवास्तवता इस बात में है कि यदि हम यह माने कोई अर्थ ही नहीं बनता, क्योंकि सप्तभंगी के सातों भंग ज्ञान कि 'यह घट है' कथन कुछ अपेक्षाओं के अधीन है तो शेष की अक्रमकता को पूर्वगृहीत करके ही संभव हो सकते हैं। अपेक्षाएं इसके कथन करने के साथ ही इसमें अपोहात्मक रूप स्यावाद में स्यात् शब्द 'किसी अपेक्षा से' का वाचक है। अब से निहित हो जाती हैं, प्रथम दो और स्यादात्मक वाक्य उनका कोई भी कथनात्मक सापेक्षता किसी ज्ञानात्मक समग्रता को केवल प्रकटीकरण करते हैं। तृतीय अवक्तव्य का भंग पृथकपूर्वगृहीत करके ही संभव हो सकती है। उदाहरणतः 'स्यात् पृथक कथित भंगों का युगपद कथन है। किंतु यह युगपद् कथन घट है' इस वाक्य में यह कथन है कि इस देश और इस काल वास्तव में अकथित रूप से प्रथम दोनों भंगों में ही रहता है में कुछ भी ऐसा नहीं है जो अघट है। इस प्रकार 'यह घट है' अथवा कहें प्रथम दो भंग इस तीसरे भंग के आंशिक कथन इस कथन में 'यह' अघट नहीं है और 'वह' अघट भी हो मात्र हैं, पूरा कथन वही है जिसे जैन अवक्तव्य कहते हैं। किंतु सकता है और घट भी, यह पूर्वगृहीत रूप से निहित है यद्यपि इसे छोड़ते हुए, क्योंकि यहां यह बात अवांतर है, यहां यह इस कथन में इसका कथन नहीं हो रहा है। किंतु 'स्यात् यह देखना महत्त्वपूर्ण है कि स्याद्वाद का संबंध हमारे ज्ञान की घट है' में इस अकथित पूर्वगृहीत पक्ष का वक्ता को ज्ञान है अनिवार्य सीमितता के स्वीकार से और इस प्रकार और वह इसकी अपेक्षा से ही इस वाक्य को स्यात्पूर्वक कह अनाग्रहभाव और विनम्रता से नहीं है बल्कि वस्तु-स्वरूप रहा है, यह संकेत किया गया है। इस प्रकार यह वैसा ही विषयक निश्चित और आग्रही दृष्टि और भाषा की वाचकता वाक्य है जैसा 'यह दाईं भुजा है' वाक्य है, जिसमें यह के स्वरूप-विषयक आग्रही दृष्टि से है। ये दोनों दृष्टियां जैन पूर्वगृहीत है कि कहने वाला यह वाक्य इस अपेक्षा को ध्यान दर्शन की अपनी व्यवस्था के अंतर्गत कहां तक समीचीनमें रखकर ही बोल रहा है कि एक भुजा ऐसी है जो बाईं है। असमीचीन हैं—यह एक अलग प्रश्न है जिस पर हमने अपने इसी प्रकार 'स्यात् घट है' कथन में यह भी पूर्वगृहीत है कि ऊपर उल्लिखित लेख में विस्तार से विचार किया है। किंतु 'यह जो है, वह घट नहीं होकर कुछ और भी हो सकता था, यहां अवांतरतः यह पुनः द्रष्टव्य है कि स्याद्वाद के कथनइस प्रकार, 'यह जो घट है वह यहां इस समय तो है, अन्य विषयक होने, महाप्रज्ञजी के शब्दों में शैली-विषयक होने से समय या अन्यत्र यह नहीं भी हो सकता है।' इस प्रकार इसका कोई भी संबंध सांख्यिकी से नहीं है। यदि इसे स्याद्वाद ज्ञान-विषयक सिद्धांत नहीं ठहरता, कथन-विषयक तत्त्वमीमांसा-मूलक मानें तो भी इसे सांख्यिकीय नहीं कह सिद्धांत ही ठहरता है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है सकते, क्योंकि सांख्यिकी में घटनाओं में कारण-कार्य संबंध कि स्याद्वाद की सप्तभंगी में एक भंग अवक्तव्य का भी है, निर्धारित करने में असमर्थ रहने पर संख्यात्मक अनुपात का जिसका यह अर्थ है कि 'स्यात् है' में 'स्यात् नहीं है' यद्यपि कथन होता है और इस प्रकार सांख्यिकी केवल पूर्वगृहीत है और इस प्रकार वस्तु विशेष के सापेक्षतः होने ज्ञानमीमांसीय विधि-विषयक सिद्धांत है। और नहीं होने का ज्ञान युगपद रूप से होता है, किंतु 'युगपद पाद-टिप्पणियां: रूप से होने-न-होने' का कथन नहीं किया जा सकता। यद्यपि 1. माधवाचार्य सर्वदर्शन संग्रह, अनुवाद-उमाशंकर शर्मा, हमें यह बात समझ में नहीं आई कि अस्ति-अनस्ति का चौखंभा विद्याभवन, वाराणसी, पृ. 170 युगपद कथन अवक्तव्य कैसे है, क्योंकि यह कहा जा ही 2.सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त-हिस्ट्री ऑफ इंडियन फिलॉसाफी, सकता है कि 'प्रत्येक भौतिक वस्तु में अस्तित्व-अनस्तित्व मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, पृ. 175 सापेक्षतः युगपद रूप से रहते हैं।' जैनों का कहना है कि यह 3. आचार्य महाप्रज्ञ—'नय, अनेकांत और स्याद्वाद', जैन अनक्रमशः ही कहा जा सकता है, जबकि इसके कथ्य में भारती, वर्ष 49. अंक 4. अप्रैल, 2001. प. 10 यौगपद्य है, इसलिए यह कथ्य अवक्तव्य है। किंतु तब तो सभी कुछ अवक्तव्य हो जाएगा क्योंकि शब्द में अक्षरों का 5. सी. डी. ब्रॉड माइंड एंड इट्स प्लेस इन नेचर, अध्याय और वाक्य में शब्दों का अनुक्रम होता है जबकि शब्द और सेंसपर्सेप्शन एंड मैटर, रटलज एंड केगन पॉल, लंदन, वाक्य का वाच्य अक्रमिक होता है। शब्द-स्फोट और वाक्य- 1923 स्फोट का सिद्धांत इसी कठिनाई के अतिक्रमण के लिए है, 6. पी. एफ. स्ट्रॉसन दि इंडिविडुअल्स, यूनीवर्सिटी प्रेस, 'अवक्तव्य' कहे जाने वाले भंग की अवक्तव्यता इससे लंदन, 1959 अलग प्रकार की नहीं है, केवल इसके समान यह वास्तव नहीं 7. आचार्य महाप्रज्ञ, वही RRRRRRRHHHHHHHHHHHHHHHH: स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 26 • अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा जा सकता है कि हमारी व्याख्या समीचीन होने पर भी बहुत दूरगामी नहीं है। हमने प्रारंभ में अवश्य यह कहा है। कि जैन मत सभी विधेयों को सापेक्ष मानते हैं। किंतु क्या सुदृद वस्तुवादी व्याख्या के आधार पर वे निरपेक्षतावादी जैसे दिखाई नहीं देते ? मेरा उत्तर यह है कि प्रथमतः सत् भी एक योजना के अंतर्गत सापेक्ष हो सकता है और इस प्रकार मेरी व्याख्या निरपेक्षवादी नहीं है, यद्यपि यह सुदृद वस्तुवादी है। आज के विज्ञान के दर्शन में एक आंतरिक वस्तुवाद (internal realism) की प्रवृत्ति चल रही है, जिसमें सापेक्षता और वस्तुवाद के बीच समन्वय किया गया है। यह बड़ा व्यापक विषय है। मैं इसकी चर्चा नहीं करूंगा क्योंकि मैंने इसकी चर्चा अन्यत्र की है। यहां यह उल्लेख करना उचित होगा कि जैनों का वस्तुवादी अनेकांतवाद आंतरिक वस्तुवादी व्याख्या से सहज ही मेल खाता है। अनेकांतवाद और स्याद्वाद : एक विमर्श तुषार सरकार यह सर्वविदित है कि जैन मत के तीन मूल सिद्धांत हैं— (क) अनेकांतवाद (ख) स्याद्वाद और (ग) नयवाद। इनमें नयवाद की अपेक्षा प्रथम दो अधिक चर्चित हैं। अनेकांतवाद का कथन है कि वस्तु के अनेक धर्म होते हैं, अर्थात् जो सत् है वह अनिवार्यतः अनंत धर्मात्मक होने के कारण अनेक प्रकार से विशेषित किया जा सकता है। । स्याद्वाद का कथन है कि घट के समान वस्तु का वर्णन सापेक्ष ही होना चाहिए। अतः 'घटोऽस्ति' अथवा 'घटो नास्ति' के स्थान पर हमें अपेक्षया 'स्यात् घटोऽस्त्येव' तथा 'स्याद् घटः नास्त्येव' कहना चाहिए राधाकृष्णन, हिरियन्ना, आप्टे और दामोदरन जैसे कुछ विद्वानों ने स्यात् का अनुवाद संभवतः, 'शायद' अथवा 'हो सकता है' किया है। ये अनुवाद उचित नहीं हैं। मैं बताऊंगा कि ये अनुवाद क्यों उचित नहीं है। नयवाद का कहना है कि वस्तु के अनंत धर्म हैं और इसलिए उसे उतनी ही दृष्टियों से जानना संभव है। इनमें से प्रत्येक दृष्टि नय कहलाती है। वस्तु के किसी एक विशेष धर्म को केंद्र में रखकर विवेचन करने वाली नय अनंत हैं और वे वस्तु के स्वरूप को केवल अंशतः ही ग्रहण कर पाती हैं। जैन दर्शन के चिंतन के ये तीन अभेद्य अंग हैं। इनके संबंध में दो मौलिक प्रश्न उपस्थित होते हैं : (अ) इन तीनों के बीच क्या भेद है? मार्च - मई, 2002 (आ) ये तीनों भिन्न होने पर भी तार्किक दृष्टि से परस्पर किस प्रकार जुड़े हुए हैं ? अनेकांतवाद के संबंध में मेरा विचार है कि, क्योंकि यह वस्तु के स्वरूप को धर्मतः व्याख्यायित करता है इसीलिए यह मूलतः सत्तामूलक अवधारणा है। स्याद्वाद के संबंध में मेरा मानना है कि, क्योंकि यह बताता है कि वस्तु के स्वरूप का तर्क संगत कथन कैसा है, अतः यह मूलतः तार्किक अवधारणा है। - नयवाद के संबंध में मेरा मत है कि, क्योंकि नयवाद दूसरी दृष्टियों की अपेक्षा किसी एक दृष्टि-विशेष से वस्तु को जानने की बात करता है, अतः यह मूलतः एक ज्ञानात्मक अवधारणा है। ऊपर हमने अपने विवेचन में 'मूलतः ' शब्द का प्रयोग इसलिए किया है कि ये तीनों अन्योन्य व्यावर्तक नहीं हैं। जैन दर्शन में सत्ता, तर्क और ज्ञान एक-दूसरे से गुंथे हुए हैं। इसलिए इनमें से किसी एक को, शेष दो के समझे बिना नहीं समझा जा सकता और न ही इनमें से कोई एक विशुद्ध रूप में सत्तापरक, तर्कपरक अथवा ज्ञानपरक हो सकता है। अब हम जैन दर्शन के इन तीन मौलिक सिद्धांतों के तार्किक रूप से पारस्परिक संबंध के प्रश्न पर आते हैं। प्रथमतः, जैसा कि हमने कहा है, वस्तु अनेक धर्मात्मक है, अतः वस्तु के स्वरूप को समग्र रूप में जानने के लिए यह आवश्यक है कि हम उन धर्मों में से प्रत्येक धर्म को जानें। दूसरे, अनंत धर्मों को अनंत ज्ञान से ही जाना जा सकता है। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती अनेकांत विशेष • 27 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः सामान्य मनुष्य अपने ज्ञान के सीमित होने के कारण आचार्य हेमचंद्र जैसे मौलिक जैन चिंतक 'सिद्ध हेम वस्तु को पूर्णतः नहीं जान सकता। अतः हम सामान्य मनुष्य शब्दानुशासन' में कहते हैंस्यादित्यव्ययं अनेकांतद्योतकं अधिक से अधिक एक विशेष दृष्टि अपनाकर एक समय में ततः स्याद्वादः अनेकांतवादः। पंडित एस.सी. न्यायाचार्य ने वस्तु के कतिपय धर्मों को ही जान सकते हैं। इसका यह अर्थ भी अपने जैन संबंधी ग्रंथ (पृ. 5) में इसी मत का समर्थन हुआ कि वस्तु का कोई भी ज्ञान जब भाषा में अभिव्यक्त किया है। वे बहुत बलपूर्वक कहते हैं कि स्याद्वाद और किया जाता है तो वह एक विशेष दृष्टिकोण से ही संबद्ध अनेकांतवाद एक ही वस्तु को अभिव्यक्त करने के दो प्रकार होता है। अनेकांतवाद और नयवाद के बीच यह तार्किक हैं, किंतु अन्य अनेक जैन पंडितों के आधिकारिक और मूल संबंध है। लेखों के समुचित उद्धरणों से यह सिद्ध किया जा सकता है स्पष्ट है कि यदि वस्तु के संबंध में हमारा कोई भी कि जो भेद हमने दिखाया है वह सही है। ज्ञान एक सीमित दृष्टि को लेकर होता है, वह वस्तु के हमने जो सत्तापरक तर्कपरक और ज्ञानपरक... केवल किसी धर्म-विशेष के संबंध में ही है तो यह कहना विविध विभाग किया है उसके समर्थन में कुछ प्रमाण मिथ्या होगा कि वस्तु केवल उसी धर्म-विशेष से जुड़ी है। विचारणीय हैं। कुछ उद्धरण नीचे दिए जाते हैंस्वयं जैन इसे स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण देते (क) एकत्र वस्तुनि एकैकधर्मपर्यानुयोगवशादविरोधेन हैं—चार अंधे व्यक्ति हाथी को देखने गए। उनमें से प्रत्येक व्यास्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया छू कर हाथी को जानता है, किंतु वह हाथी के शरीर के एक स्यात्काराङ्कितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तभंगीति। विशिष्ट, किंतु भिन्न-भाग को छूता है। जो टांगों को छूता है वह कहता है कि हाथी स्तंभ की तरह है। जो पूंछ को छूता (प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार) है वह कहता है कि हाथी रस्सी की तरह है। जो शरीर को (ख) एकस्मिन् वस्तुनि एकैकधर्मपर्यनुयोगवशात् छता है वह कहता है कि हाथी दीवार की तरह है और इस अविरोधेन व्यास्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः प्रकार वे परस्पर विवाद प्रारंभ कर देते हैं कि हाथी वस्ततः कल्पनया स्यात्काराङ्कित सप्तधा वाकप्रयोगः सप्तभंगी। कैसा है? इन व्यक्तियों में प्रत्येक का वक्तव्य अंशतः सत्य (जैनतर्कभाषा) है। किंतु उस वक्तव्य को ऐकांतिक रूप से यह रूप दे देना (ग) स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात किंवत्तचिदविधिः कि हाथी केवल स्तंभ के समान है और अन्य किसी प्रकार सप्तभंगनयापेक्षो हेयादेयोविशेषकः इति । का नहीं है, अर्थात् वक्तव्य को निरपेक्ष रूप में सत्य मान (आप्तमीमांसा) लेना मूलतः सत्य को मिथ्या बना देना है। वक्तव्य की (घ) स्याद्वादोऽर्थप्रकरणादिनां घटादिशब्दार्थविशेषसत्यता को सुरक्षित रखने के लिए प्रत्येक वक्तव्य को स्थापना हेतूनामानुकूलः कुतः? सर्वथा एकान्तत्यागात्, तेषां सापेक्ष रूप में ही प्रस्तुत करना होगा। अर्थात् उन वक्तव्यों को सशर्त ही कहा जाना चाहिए था। जैनों के अनुसार यह अर्थप्रकरणादिनां प्रतिकूलस्य एकान्तस्य त्यागात्। सापेक्षता प्रत्येक वाक्य के पहले 'स्याद्' अव्यय लगाकर (आप्तमीमांसा वृत्तिः) प्रकट की जा सकती है। अतः यह कहने के स्थान पर कि (च) कथंचिदित्यादि किंवृत्तचिदविधिः स्याद्वाद 'गजः स्तम्भवत् एव', हमें कहना चाहिए—'स्याद् गजः आपरपयायः सोऽयमनेकान्तं अभिप्रेत्य सप्तभंगनयापेक्ष स्तम्भवत् एव'। । स्वभावपरभावाभ्यां सदसदादि व्यावस्थां प्रतिपादयतीति । अब तक यह स्पष्ट हो गया होगा कि अनेकांतवाद से (प्रमाण संग्रह) प्रारंभ करके हम नयवाद के माध्यम से तर्क द्वारा स्याद्वाद (छ) स्यात् कथंचित् स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया तक पहुंच जाते हैं। यह भी स्पष्ट है कि स्याद्वाद इत्यर्थः। अभिव्यक्ति की प्रक्रिया से जुड़ा होने के कारण भाषात्मक (जैनतर्कभाषा) अभिव्यक्ति से संबद्ध है। (ज) प्रमाणपरिच्छिन्नस्य अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुना मैंने जिस प्रकार रखा है, उससे अनेकांतवाद, एकदेशग्राहिणः तदितरांश अप्रतिक्षेपिनो अध्यावसायविशेषः स्याद्वाद और नयवाद का परस्पर भेद बिल्कुल स्पष्ट है नयः। और उनका पारस्परिक तार्किक संबंध भी स्पष्ट है। (प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार) MERRIER m स्वर्ण जयंती वर्ष 28. अनेकांत विशेष जैन भारती मार्च-मई, 2002 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (झ) अनन्तधर्माध्यासितवस्तुस्वरूपम् अनेकान्तः। युगपत् होने पर भी संगतता की हानि नहीं होती है। विभिन्न (सन्मति-तर्क) जैन ग्रंथों में इसके समर्थन में उद्धरण मिल जाते हैंऊपर उद्धत संदर्भो से स्पष्ट हो जाता है कि ननु एकस्य युगपदुभयरूपता कथं घटते इति चेत् न, (1) वस्तु में सचमुच अनंत धर्म रहते हैं। यह यतो यथा एकस्यैव पुरुषस्य अपेक्षावशात् लघुत्वागुरुत्वअनेकांत का सत्तामूलक पक्ष है। (देखें क) वृद्धत्वयुवत्व - पुत्रत्व - पितृत्व - गुरुत्व - शिष्यत्वादिनि परस्परविरुद्धानि अपि युगपत् अविरुद्धानि तथा (2) स्याद्वाद कथंचित् का पर्यायवाची है। इसका सत्त्वासत्त्वादीनि अपि तस्मात् न सर्वथा भावानां विरोध अर्थ है-किसी दृष्टि से, किसी अपेक्षा से इसमें हम यह घटते, कथंचित् विरोधस्तु सर्वभावेषु तुल्यः, न बाधकः। प्रयत्न करते हैं कि हम अनंत धर्मात्मक वस्तु के किसी एक (षड्दर्शनसमुच्चय, पृ. 260) पक्ष को ग्रहण करें (देखें ख)। यह स्याद्वाद है और यह उससे संबद्ध तार्किक पक्ष है। दूसरा संभव विकल्प यह है कि जैन दार्शनिकों के अनुसार सिद्धांत यह है कि सत्-असत् समेत सभी धर्म पूरी (3) नय का अर्थ है कि ज्ञाता का अभिप्राय वस्तु के तरह सापेक्ष हैं, जैसे कि 'अपेक्षाकृत बड़ा' या 'अपेक्षाकृत एक पक्ष पर अपने को केंद्रित करना है और साथ ही उसे यह उसके बाएं' इत्यादि। बात भी नहीं भूलनी है कि उस वस्तु के दूसरे भी उतने ही महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं। इस प्रकार नय ज्ञानात्मक पक्ष से जुड़ा है। इस प्रकार की व्याख्या के साथ समस्या यह है कि (देखें ज) हम सत् और असत् को भी बड़े-छोटे की तरह सापेक्ष धर्म मान रहे हैं। सत् को प्रथम तो विधेय मानने में ही तार्किक अब हम उन समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित समस्या है और उससे भी बड़ी समस्या यह है कि हमें सत् करेंगे जो जैन अभिमत की तर्कसंगत व्याख्या करते समय को भी छोटे-बड़े की तरह सापेक्ष विधेय मानना पड़ेगा। हमारे सम्मुख आती हैं। जैन चिंतको का कहना है कि वस्तु इस कठिनाई से निकलने का एक उपाय यह है कि में युगपत् सत्ता और असत्ता तथा नित्यता और अनित्यता हम यह मान लें कि जैन चिंतकों के अनुसार सत् और असत् दोनों रहते हैं। इसमें कोई विरोध नहीं है। क्योंकि हम भी छोटे-बड़े के समान सापेक्ष धर्म ही हैं। जैन मत के वस्तुतः ऐसा अनुभव करते हैं। इस प्रकार वस्तु के अनुसार सभी धर्मों को सापेक्ष मानने के पक्ष में दो संभव हेतु भावाभावात्मक स्वरूप स्थापित हो जाने पर किसी प्रकार के दिए जा सकते हैंविवाद का अवसर नहीं रह जाता। इसके समर्थन में निम्न दो वाक्य उद्धृत किए जाते हैं कथंचित् प्रतीयमाने स्वरूपादि (1) कुछ जैन ग्रंथों में स्पष्ट रूप से कहा गया है अपेक्षया विवक्षितयोः सत्त्वासत्त्वयोः प्रतीयमानयोः न कि और सभी धर्म अस्तित्व की स्वीकृति पर निर्भर हैं और क्योंकि अस्तित्व स्वयं सापेक्ष है, इसलिए उसके विरोधः। आधार पर अन्य धर्मों की सापेक्षता स्थापित हो जाती है। (सप्तभंगीतरंगिणी, पृ. 83) षड्दर्शनसमुच्चय में कहा गया है कि एक स्कंध के घटक ...इति चेदुच्यते, घटस्य घटाभावात्मकत्व सिद्ध परमाणओं की संख्या भी प्रसंगानुसार परिवर्तनशील है। अस्माकं विवादो विश्रान्तः। अतः सापेक्ष है। (सप्तभंगीतरंगिणी, पृ. 85) (2) यह भी कहा जा सकता है कि 'अस्तित्व किंतु एक ही वस्तु में सत्त्व और असत्त्व जैसे अनंत सापेक्ष है क्योंकि जब वह किसी के द्वारा जाना जाता है धर्म कैसे रह सकते हैं, जो कि ऊपर से देखने में विरोधी हैं? तब ही उसको अस्तित्ववान कहा जा सकता है। संक्षेप में इसके तीन उत्तर संभव हैं। पहला उत्तर यह है कि जैन जैनों पर यह मत आरोपित किया जा सकता है कि वे चिंतकों का अभिप्राय ऐसे सापेक्ष धर्मों से है, जैसे—उसकी मानते हैं कि वस्तु सत् इसलिए है कि वह हमें दिखाई देती अपेक्षा बड़ा, उसकी अपेक्षा छोटा इत्यादि। स्पष्ट है कि है जैसा कि वार्कले ने कहा कि esse est percipi किंतु किसी पदार्थ में ऐसे धर्म दूसरे की अपेक्षा ही रहते हैं। अतः हमें यह विकल्प इसलिए स्वीकार्य नहीं है कि इसमें कोई मनुष्य अपने पुत्र की अपेक्षा बड़ा हो सकता है और भाववाद अंतर्गर्भित है और जैन कट्टर भाववाद विरोधी अपने पिता की अपेक्षा बड़ा नहीं भी हो सकता। ऐसा वास्तववादी हैं। HAL स्वर्ण जयंती वर्ष :::::::: मार्च-मई, 2002 | जैन भारती । अनेकांत विशेष .29 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए हमें तीसरा विकल्प लेना होगा। इस विकल्प के अनुसार भिन्न-भिन्न अवच्छेदकों के संदर्भ में एक ही पदार्थ में एक साथ सत् असत् नित्य- अनित्य जैसे आपाततः विरोधी धर्म युगपद रह सकते हैं। अवच्छेदक का कभी-कभी अर्थ किया जाता है-सीमा बनाने वाला यहां जैन दर्शन पर नव्यन्याय का प्रभाव स्पष्ट है। इस विकल्प के अनुसार जैन चिंतक कहेंगे कि 'घटत्वेन घटः अस्ति पटत्वेन नास्ति ।' स्पष्ट है कि यह एक तुच्छ शब्दजाल का सहारा लेकर सामान्य व्यक्तियों को समझाकर उनके चिंतन पर आघात पहुंचाने का एक तरीका है जिससे आम आदमी को लगने लगे कि एक पदार्थ वस्तुतः एकसाथ 'पी' और 'नोनपी' धर्मयुक्त होने के बावजूद भी न स्वविरोधी होता है न असत् । इस संदर्भ में कुछ जैन ग्रंथों के प्रसंग नीचे उद्धृत किए जाते हैं (क) अर्पमानयोः विरोधाभावात् । अस्तित्वानस्तित्वयोः (सप्तभंगीतरंगिणी) (ख) सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च । (प्रमाणमीमांसा, पू. 26) (ग) स्यात् कथंचित स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया इत्यर्थः । अस्ति हि घटादिकं द्रव्यतः पार्थिवादित्वेन, न जलादित्वेन । क्षेत्रतः पाटलिपुत्रकादित्वेन, न कान्यकुब्जादित्वेन । ( जैनतर्कभाषा, पृ. 22 ) (घ) आपेक्षिक-धर्माणामेकत्र स्थितो विरोधो न्यायदर्शनमते न स्वीक्रियते । (न्यायसिद्धान्तमुक्तावली प्रभाटीका, पृ. 39 - दोशी द्वारा उद्धृत) स्वाभाविक है कि नैयायिक भी, कि जिनका यह मत है कि जैन अनेकांत की इस व्याख्या से प्रसन्न होते हैं। जैसा कि पंडित एस.सी. न्यायाचार्य का कहना है, इस संबंध में गंगेश के वक्तव्य पर मथुरानाथ की टीका उल्लेखनीय है— सांख्य की आपत्ति के विरोध में जैन का कहना है, जो आपत्ति सांख्य की तरफ से स्याद्वाद के विरुद्ध उठाई जाती अवच्छेदक-भेदेन है (कि वो विरोधी विधेयों का एक ही पदार्थ में बतलाना असंगत है), वह आपत्ति स्वयं सांख्य पर भी लागू होती है, क्योंकि वह प्रकृति को तीन परस्पर विरोधी गुणों का समाहार बताता है अथेदं वाच्यं शेयत्वादित्यादी वाच्यत्वाभावो घटः एव प्रसिद्धः । 30 • अनेकांत विशेष इसलिए मथुरानाथ का कहना है कि क्योंकि पट का घटत्व व्यधिकरण धर्म है, अतः 'घटत्वेन पटो नास्ति' कहना शब्दजाल नहीं है, अपितु महत्त्वपूर्ण है। इस दावे के बावजूद इस प्रकार के वक्तव्य की निरर्थकता स्पष्ट है। इस निरर्थकता के अतिरिक्त इस तीसरे विकल्प में एक दूसरी भी समस्या है। स्वयं जैन चिंतक दूसरे दार्शनिकों द्वारा अनेकांत पर लगाए गए आरोपों का उत्तर देते समय जो कहते हैं, उसकी इस तृतीय विकल्प के साथ संगति नहीं बैठती। जैन चिंतकों के अपने उत्तर में यह बात निहित रहती है कि अनेकांत के विरोधी भी चाहे अनजाने में ही अनेकांत का अनुसरण करते हैं। उदाहरणतः न्याय, वैशेषिक और सांख्य को लिया जा सकता है। जैन अपने विरोधियों को जो उत्तर देते हैं उनमें से कुछ उत्तर नीचे दिए जाते हैं— (अ) 'इच्छन् प्रधानं सत्त्वाद्यैर्विरुद्धैर्गुम्फितं गुणैः सांख्य संख्यावतां मुख्यः नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्।' ( वीतरागस्तोत्र -जैन दर्शन दिग्दर्शन, पृ. 6 ) जैनों का कहना है कि वेदांतियों पर भी इसी प्रकार की आपत्ति आती है, क्योंकि वे आत्मा को स्वभावतः मुक्त मानते हुए भी व्यावहारिक स्थिति में उसे बद्ध मानते हैं(आ) 'आबद्धं परमार्थेन, बद्धं च व्यवहारतः ब्रूवाणो ब्रह्मवेदान्ती नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्।' (अध्यात्मोपनिषद्, पृ. 7) स्याद्वाद पर असंगति का आरोप लगाने वाले अन्य दर्शनों की आलोचना का भी इसी प्रकार का उत्तर दिया गया है। वस्तुतः सत्त्व, रज और तमस प्रकृति के घटक तत्त्व हैं न कि केवल सापेक्ष अथवा शब्दजाल द्वारा निर्धारित किए गए धर्म यदि जैन मत का यह दावा ठीक समवायितया हो कि वस्तु में सत् और असत् उसी प्रकार रहते हैं जिस प्रकार प्रकृति में सत्त्व, रज और तमस् रहते हैं तो (जैन दर्शन दिग्दर्शन, पृ. 8 ) महत्त्वहीन शब्दजाल की बात अप्रासंगिक हो जाती है। जैन स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च मई, 2002 . Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत द्वारा वेदांती को दिए गए उत्तर में भी यही बात लागू अलग से विचार होना चाहिए। अभी तो जैनों के भाषाहो जाएगी। पारमार्थिक सत्य अर्थात् ब्रह्म तथा व्यावहारिक दर्शन पर विस्तार से विचार किए बिना हम इतना ही कह सत्य अर्थात् जगत् के बीच केवल शाब्दिक संबंध नहीं है सकते हैं कि जैनों के अनुसार वस्तु के संबंध में सभी संभव और इसलिए माया माननी पड़ती है और अंततोगत्वा सापेक्ष वक्तव्य सात प्रकार के ही हो सकते हैं, न कम न माया और ब्रह्म के बीच उस संबंध को अनिर्वचनीय कहना ज्यादा। पड़ता है। जैन दार्शनिकों के सामने यह समस्या है कि यदि इसे सप्तभंगी नय कहते हैं। सप्तभंगी नय का महत्त्व अर्थहीन शब्दजाल वाली व्याख्या स्वीकार कर ली जाए , र कर ला जाए यह है कि यद्यपि नय अनंत हैं, तथापि उन सबका समावेश तो ऊपर दिए गए उनके प्रत्युत्तर व्यर्थ हो जाते हैं। दूसरी है; दूसरा इन सात में से किसी एक में हो सकता है। या ओर यदि उनके उपर्युक्त प्रत्युत्तर समीचीन हैं तो अर्थहीन (क) सर्वत्रायं ध्वनिर्विधिनिषेध प्रतिषेधाव्यं स्वार्थां शब्दजाल वाली व्याख्या छोड़नी पड़ेगी और साथ-साथ जैनियों को ऐसा कोई कार्यकारी उपाय खोजना होगा, आभिदधानः सप्तभंगीमनुगच्छति। जिससे पता चले कि यह कैसे किया जा सकता है? (प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार) हेमचंद्र के निम्न श्लोक से यह संकेत मिल सकता है प्रश्न होता है कि भाषा अपना अर्थ देने के बाद सात कि आपाततः अर्थहीन शब्दजाल वाले दृष्टिकोण के पीछे भागों में सात प्रकार से ही क्यों फैलनी चाहिए? जैन ग्रंथ कौन-सा गंभीर, दार्शनिक तथ्य छिपा है इस प्रश्न का उत्तर देने में पूरी तरह अस्पष्ट हैं। अधिकतर ग्रंथ एक ही प्रकार का उत्तर यांत्रिक रूप से दोहराते रहते हैं। सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च। अन्यथा जैन तर्क भाषा में हमें यह उत्तर मिलता हैसर्वसत्त्वं स्यात् स्वरूपस्यापि असंभवः। (ख) इयञ्च सप्तभंगी वस्तुनि प्रति-पर्यायं सप्तविध इसका संबंध बौद्धों के अपोहवाद से है, किंतु इसका शर्माण। संभवात सप्तविधोसंशयोत्थापित सप्तविध चर्चा हमें विषयांतर में ले जाएगी, अतः हम इसे छोड़ जिज्ञासामूल-सप्तविध-प्रश्नानुरोधात् उपपाद्यते। देते हैं। (जैन तर्क भाषा, पृ. 22) हम यह कहना चाहते हैं कि यदि जैन मत के वादिदेवसूरि के प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार में यही उपर्युक्त प्रत्युत्तर केवल शास्त्रार्थ में जीतने के लिए किए उत्तर थोड़ा विस्तार से दिया गया है, किंतु कोई नया तथ्य गए शाब्दिक खेल न माने जाएं और इसे गंभीरता से लिया । उसमें नहीं है। जाए तो फिर हमें यह व्याख्या माननी होगी कि जैन मत के अनुसार सत् सहित सभी धर्म सापेक्ष हैं। अर्थात् जैन मत फिलहाल यह प्रश्न छोड़ दिया जाए कि जैन मत किस के अनुसार 'बाई' और 'लघुत्तर' इत्यादि की तरह सभी प्रकार अन्योन्यव्यावर्तक इन सप्तभंगों तक पहुंचे। पहले धर्म सापेक्ष धर्म हैं और 'X' है 'P' जैसा वक्तव्य केवल हम जैन मत के अनुसार सप्तभंगों की सूची देखें। वे इस संदर्भ-विशेष में सत्य है। चाहे 'X' का कोई भी उद्देश्य । (Subject) हो और 'P' का कोई भी धर्म (Property) ___ 1. स्याद् घटः अस्ति एव । हो। यदि यह सत्य है तो जैन दर्शन के कुछ छिपे हुए पक्षों 2. स्याद् घटः नास्ति एव । पर फ्यूजि तर्कशास्त्र (Fuzzy-Logic) के प्रयोग द्वारा 3. स्याद् घटः अस्ति नास्ति। समुचित प्रकाश पड़ने का लाभ हमें मिल सकता है, किंतु 4. स्याद् घटः अवक्तव्यः एव। यह एक भिन्न विषय है और मैं इसे स्याद्वाद पर विशेष रूप से लिखे जाने वाले एक स्वतंत्र निबंध में चर्चित करने 5. स्याद् घटः अवक्तव्यः अस्ति च । का विचार रखता हूं। 6. स्याद् घटः अवक्तव्य नास्ति च। यह हम पहले ही कह चुके हैं कि अनेकांतवाद, 7. स्याद् घटः अवक्तव्य अस्ति नास्ति च। नयवाद और स्याद्वाद-ये सभी वक्तव्यों की सापेक्षता से जैसा कि प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार और जैन तर्क जुड़े होने के कारण जैन के शब्द और अर्थ के संबंध संबंधी भाषा के देखने से पता नहीं चलता है कि यह विकल्प सिद्धांत से जुड़े हैं। यह बहुत व्यापक विषय है जिस पर संख्या सात ही क्यों है? और इनसे कम या अधिक विकल्प प्रकार हैं बाह 'X' का कोई भी उद्देश्य स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.31 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यों नहीं हो सकते—यह भी बिल्कुल स्पष्ट नहीं है। यह भी पता नहीं चलता, ये सात विकल्प अन्योन्यव्यावर्तक किस प्रकार हैं और इनकी अपेक्षा कम विकल्प क्यों नहीं हो सकते ? (जैन तर्क भाषा 21 प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार - IV, 14-21) 6 5 इस स्थिति से बहुत परेशानी पैदा होती है कि शास्त्रों में इन सात भंगों के अन्योन्यव्यावर्तक होने का तथा सब विकल्पों का इन सात में ही समाविष्ट होने का कोई स्पष्ट और घुमाव-रहित युक्तिसंगत उत्तर नहीं दिया गया है । अतः वर्तमान समय के बी. के. मतिलाल जैसे विद्वानों ने सप्तभंगी का औचित्य सिद्ध करने के लिए हेतु दिया है। मतिलाल ने '+' का चिह्न यह बताने के लिए इस्तेमाल किया है कि 'S' में 'P' धर्म (जैसा कि अस्तित्व) रहता है। का चिह्न यह बताने के लिए इस्तेमाल किया है कि 'P' का प्रतिपक्षी धर्म 'Not P अर्थात् अनस्तित्व ‘S’ में रहता है। और 'O' का उपयोग यह बताने के लिए किया है कि 'S' मैं न 'P' (अस्तित्व) है, न 'P' का प्रतिपक्षी 'Non-P' (अर्थात् अनस्तित्व), दूसरे शब्दों में 'O' का यह अर्थ है कि 'S' में कोई भी धर्म नहीं है। गणित द्वारा इन तीन मूलभूत वाक्यों के ठीक संयोग (Combination) दिखाने संभव हैं। तीन अलग वस्तुओं से कुल सात संयोग ही बन सकते हैं क्योंकि231=1 "C=23_1=7 मतिलाल की यह योजना औपचारिक रूप से उत्तम है और सप्तभंगी की व्याख्या कर देती है, किंतु इसमें यह नहीं बताया गया कि 'O' जो कि अस्ति और नास्ति का संयोग है, उसे अस्ति और नास्ति के समकक्ष मूलभूत तत्त्व क्यों माना जाना चाहिए। मैं मतिलाल की व्याख्या से भिन्न सप्तभंगी के औचित्य सिद्ध करने के लिए एक दूसरी विधि देना चाहता हूं। जो व्याख्या सप्तभंगी की संगति बैठाने के लिए मैं देना चाहता हूं, उसके लिए भाषा और भाषा के द्वारा अभिव्यक्त की जाने वाली वस्तु के पारस्परिक संबंध के बारे में जैन दृष्टि को समझना आवश्यक है। जैन दृष्टि से (1) भाषा और उसके द्वारा वाच्य वस्तु एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। (2) कोई भी वस्तु भाषा के द्वारा तभी अभिव्यक्त हो सकती है जब उसमें कोई न कोई धर्म रहता हो। 'S' के धर्म • विशिष्ट होने का यह अर्थ नहीं है कि उसे भाषा में 32 • अनेकांत विशेष , अभिव्यक्त किया ही जा सके। दूसरे शब्दों में यह संभावना सदा बनी रहती है कि किसी पदार्थ की धर्मविशिष्टता भाषा द्वारा वाच्य हो अथवा न हो। इस प्रकार 'S' के 'P' धर्म को निम्न चतुर्भंगी में अभिव्यक्त किया जा सकता है- (अ) 'S' में 'P' है, (ब) 'S' में 'P' नहीं है, (स) 'S' में 'P' है भी और 'P' नहीं भी है, (द) 'S' में न 'P' है, न 'अ- P' (Not-P) है। यदि इन चारों वाक्यों के साथ हम यह कहें कि ये चारों स्थितियां भाषा में कही भी जा सकती हैं, नहीं भी कही जा सकतीं, तो शुद्ध तर्क की दृष्टि से आठ संभावनाएं बनती हैं। किंतु ऊपर दी गई चार संभावनाओं में अंति भाषा द्वारा बक्तव्य है ही नहीं, इसलिए हमारे पास सात ही संभावनाएं शेष रहती हैं। 'S' जैसी वस्तु दो प्रकार से वाचिक रूप से अवक्तव्य हो सकती है— (1) यदि 'S' में कोई धर्म है ही नहीं तो ऊपर दिए गए दूसरे नियम के अनुसार उसे भाषा में कहा ही नहीं जा सकेगा अथवा, (2) 'S' भाषा में इसलिए नहीं कहा जा सकता कि, यद्यपि इसमें कुछ धर्म है तो सही, किंतु उसमें वह इस प्रकार से है कि भाषा की पकड़ में नहीं आता। एक उदाहरण द्वारा यह स्थिति स्पष्ट की जा सकती है। ब्रह्म निर्गुण है इसलिए उसे भाषा में नहीं कहा जा सकता, यह प्रथम प्रकार की अवाच्यता हुई। दूसरी प्रकार की अवाच्यता ब्रह्म और माया के बीच परस्पर संबंध की है, किंतु इस अवाच्यता का दूसरा कारण है। ऐसा नहीं है कि दोनों के बीच कोई संबंध ही नहीं है, क्योंकि माया चार बाहुयुक्त त्रिभुज की तरह सर्वथा असत् नहीं है। किंतु यह उस संबंध का स्वभाव है जो कि भाषा की अभिव्यक्ति की क्षमता से परे है। इनमें प्रथम प्रकार की अवक्तव्यता शुद्ध अवक्तव्यता है जो कि स्याद्वाद के चतुर्थ भंग 'स्यात् अवक्तव्य' में बताई गई है। जबकि सत्ता की दृष्टि से धर्मयुक्त होने पर भी अवक्तव्यता के कारण अंतिम तीन भंग उत्पन्न होते हैं, अर्थात् 'स्यात् अवक्तव्यम् च अस्ति च' इत्यादि। अब होता यह है कि एक रोचक समरूपता उत्पन्न होती है। जबकि हम 'S' के धर्मों की सांभावनिक (Modal) जटिलता को आरोह क्रम में रखते हैं, तो पहले वाच्य धर्मों को रखते हैं और फिर अवाच्य धर्मों को। सबसे सरल वक्तव्य प्रथम भंग बन जाता है—'स्यात् घटोस्ति ।' दूसरा वक्तव्य बनेगा'स्यात् घटः नास्ति ।' इन दो वक्तव्यों का संयोग अधिक जटिल, तीसरा भंग बनेगा 'स्यात् घटः अस्ति च नास्ति च ।' चौथा भंग अवाच्य के अंतर्गत होगा जिसमें हम किसी स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च - मई, 2002 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु को निर्धर्मक होने के कारण अवाच्य कहेंगे। यह उदाहरणतः जैन तर्कभाषा, प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, 'स्यात् अवक्तव्यम्' नाम का चौथा भंग है। इससे भी स्याद्वादमंजरी और षट्दर्शन समुच्चय इत्यादि अवक्तव्यता अधिक जटिल वह स्थिति है जबकि हम वस्तु को प्रथम की यह व्याख्या करते हैं कि 'अस्ति और नास्ति' के युगपत् भंग के रूप में मानते हों, किंतु फिर भी उसे कह नहीं अर्थात् एक साथ लागू होने से अवक्तव्यता उत्पन्न सकते, क्योंकि वस्तु 'P'. धर्मक होने पर भी वक्तव्यता की होती है। सीमा में नहीं आती, यह पांचवां भंग है-'स्यात् घटः जैन सिद्धांत के अनुसार एक शब्द एक ही धर्म को अस्ति च अवक्तव्यम् च'। जटिलता की दृष्टि से इसके बता सकता है। अतः अस्ति और नास्ति की जटिलता को अनंतर छठा भंग आता है-'स्यात् घटः नास्ति च शब्द के द्वारा नहीं बताया जा सकता। इसलिए चतुर्थ भंग में अवक्तव्यम् च । और अंत में सबसे अधिक जटिल सातवां जब हम अस्ति और नास्ति को एक साथ बताते हैं तो भाषा भंग आता है जो तीसरे भंग के समान अपने से पूर्ववर्ती दो असफल हो जाती है और अवक्तव्यता फलित होती है। वक्तव्यों का जोड़ है। अर्थात्—'स्यात् घटः अस्ति च सामान्यतः यही स्वीकार किया जाता है और जैन दर्शन की नास्ति च अवक्तव्यम् च'। इस प्रकार हमें सात भंगों में आलोचना करने वाले वेदांती और अन्य दार्शनिक भी इसी पूर्ण समरूपता दिखाई देगी। प्रथम तीन भंगों के अंतिम व्याख्या को स्वीकार करते हैं। वेदांत सूत्र 2 12 13 3 (न तीन भंग मानो दर्पण में पड़ने वाले प्रतिबिंब हैं और चौथा एकस्मिन् नसंभवात) पर भावदीपिका टीका में इसी मत का भंग अवक्तव्यता की इन दोनों त्रैतों के बीच विभाजक रेखा समर्थन है। अवक्तव्यता की इस व्याख्या में तार्किक दोष है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि स्यात् अवक्तव्य है। जिन्हें केवल स्याद्वाद पर एक निबंध लिखकर बतलाने नाम के चौथे भंग को सप्तभंगी के ठीक मध्य में क्यों रखा का मेरा विचार है। बी.के. मतिलाल ने (Central Phiगया और इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सात ही losophy of Jainism, P. 49 में) कहा है कि शून्यवादी भंग अन्योन्य-व्यावर्तक होकर समस्त विकल्पों को अपने तृतीय विकल्पाभाव के नियम (Law of Excluded में कैसे समाहित कर लेते हैं। यह योजना निम्न तालिका Middle) (तृ. वि. नि.) को स्वीकार नहीं करते और द्वारा आसानी से समझी जा सकती है-- अवक्तव्यता की व्याख्या इसी प्रकार करते हैं, जबकि जैन वस्तु का स्वरूप अनेकांतवाद के अनुसार चौथे भंग को बनाते समय अविरोध के नियम (Law of non-contradiction) (अ.वि.नि.) वस्तु धर्मयुक्त है वस्तु वस्तु धर्मयुक्त है को स्वीकार नहीं करते। इसका यह अर्थ हुआ कि मतिलाल तथा वक्तव्य है निर्धर्मक है किंतु वक्तव्य नहीं है भी अवक्तव्यता की वही जैन व्याख्या स्वीकार करते हैं जो सामान्यतः प्रचलित है। इस प्रकार हमारे मत के विरोध में यद्यपि बहुमत है तथापि यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि घटोऽस्ति घटोनास्ति घटोऽस्ति (घटोऽवक्तव्यः सप्तभंगी तरंगिणी जैसे ग्रंथ 'स्याद् अवक्तव्यं' को 'अस्ति नास्ति च न अस्ति न नास्ति उभय विलक्षण' बतलाकर हमारे द्वारा की गई च नास्ति) व्याख्या का सामान्यतः समर्थन करते हैं। प्रचलित मत में जो तार्किक दोष हैं, उनके रहते और इस समर्थन के बल पर यह कहा जा सकता है कि हमारे द्वारा की गई व्याख्या एक घटोऽस्ति घटोनास्ति घटोऽस्ति नास्ति च । गंभीर विकल्प प्रस्तुत करती है। हमारे द्वारा की गई व्याख्या चाहे कितनी भी एक अन्य बिंदु भी ऐसा है जिसे समझने पर हमारी तर्कसंगत क्यों न हो, किंतु तब तक उसे प्रामाणिक नहीं व्याख्या और भी पुष्ट होती है। हमारी व्याख्या में यह भाव माना जा सकता जब तक वह शास्त्रों के उद्धरणों से समर्थित अंतर्निहित है कि जैनों के अनुसार एक ही समय में दो न हो। यह विचित्र बात है कि स्वयं जैन दार्शनिक परस्पर विरोधी धर्म वस्तु में रह सकते हैं। शंकराचार्य ने अवक्तव्यता की व्याख्या नहीं कर पाए और इसीलिए उनके इस मत को उपहासास्पद बताया है और जैन दार्शनिकों की द्वारा दी गई व्याख्या से हमारी व्याख्या मेल नहीं खाती। बुद्धिमत्ता पर प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है। हम अपना स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 । अनेकांत विशेष.33 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान इस ओर दें कि क्या सचमुच कोई वस्तु युगपत् साथ रह सकते हैं। ये तीनों स्थितियां वक्तव्य हो सकती हैं विरोधी धर्मों से युक्त हो सकती है, जो कि सुदृढ़ वस्तुवादी या अवक्तव्य हो सकती हैं और इस प्रकार सात भंग बन वाली व्याख्या से तालमेल खा सके? इस अर्थ में हमारी जाएंगे जो कि अवक्तव्य के पहले-पीछे तीन-तीन के जोड़ों स्याद्वाद की व्याख्या सुदृढ़ रूप से वस्तुवादी है। प्रश्न होता में रहेंगे। इस निबंध में जो दृष्टि हमने अपनाई है वह यह है है कि क्या कोई उसका शास्त्रीय आधार है। उत्तर यह है कि कि अवक्तव्य का अवसर तब होता है जब वस्तु में न 'P' शास्त्रीय आधार तो है, किंतु आश्चर्य की बात यह है कि वह धर्म रहे न 'अ-P' धर्म रहे। इसका यह अर्थ होगा कि जैन सीधे-सीधे कुछ नहीं कहता है। और जब जैन दार्शनिकों पर मत के लिए अविरोध का नियम भी उतना ही अमान्य है असंगतता का आरोप लगाया जाता है तो वे अनेक टेढ़े-मेढ़े जितना तृतीय विकल्पाभाव का नियम। इसकी पुष्टि तर्क देकर उनका उत्तर देते हैं। इस कारण अनेक व्यक्तियों सप्तभंगी तरंगिणी के आधार पर मैं पहले ही कर चुका हूं। का कहना है कि जैन अनेकांतवाद सुदृढ़ रूप में उस अर्थ में यद्यपि बी.के. मतिलाल इससे सहमत नहीं हैं। वस्तुवादी नहीं है जो अर्थ हम वस्तुवाद का समझते हैं। (तुलनीय—'जैन दर्शन में यह संभावना के रूप में भी यदि ऐसा है तो स्याद्वाद की हमारी व्याख्या सुदृढ़ वस्तुवादी स्वीकार नहीं किया गया है कि पदार्थ न 'A' है और न 'अआधार पर टिकी होने के कारण निराधार सिद्ध हो जाती है, A-Central Philosophy of Jainism, P. 49) किंतु मेरा विचार यह है कि जैन अनेकांतवाद मूल रूप से यदि हम इस तर्कशास्त्रीय बिंद की उपेक्षा भी करदें सदढ़ रूप से वस्तुवादी है और जैन दार्शनिक विरोध- तो भी हमें एक और गंभीर समस्या का समाधान खोजना सहिष्णु तर्कशास्त्र (inconsistency tolerant logic) होगा जैसा कि मतिलाल ने कहा है-संजय, नागार्जुन विकसित नहीं कर सकने के कारण यह नहीं समझ पाए कि आदि बौद्ध दार्शनिक ततीय विकल्प के सिद्धांत के विरुद्ध जैन दर्शन की दृढ़ वस्तुवादी प्रतिबद्धता के साथ 'घटः अस्ति जाते हैं और जैन अविरोध के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं. च नास्ति च' का तालमेल कैसे बिठा पाएं। अतः वे अनेक परंत यह पार्थक्य जैन मत और बौद्ध मत के बीच भेद को प्रकार के विकल्पों के बीच डोलायमान हैं। उदाहरणतः स्पष्ट करता है तो इसका यह अर्थ हुआ कि अविरोध के हरिभद्र के षड्दर्शन समुच्चय (पृ. 204,223) के 55वें नियम का उल्लंघन एवं तृतीय विकल्पाभाव के नियम का श्लोक पर टीका करते समय गुणरत्न ने अनंतधर्मात्मकत्व उल्लंघन इन दोनों के बीच तार्किक निरपेक्षता विद्यमान के समर्थन में कम से कम चार भिन्न-भिन्न व्याख्याएं दी हैं है। इसके लिए हमें कोई दसरे तर्क-प्रस्थान का आधार लेना जिनमें सुदढ़ वस्तुवादी व्याख्या भी शामिल है। षड्दर्शन पडेगा, क्योंकि द्विपक्षीय तर्क-प्रस्थान के अंतर्गत तार्किक समुच्चय (पृ. 216) में यह कहा गया है कि घट में जितने नियम के रूप में देखा जाए तो नतीय विकल्पाभाव का परमाणु हैं उनकी संख्या अथवा घट जितने काल रहता है नियम और अविरोध का नियम एक ही सिक्के के दो पहल उतने काल के समयों की संख्या घट के स्वधर्म है। इसके हैं। इसके अतिरिक्त यदि मतिलाल का अनकरण करते हुए अनंतर स्वधर्म का यह लक्षण दिया है कि ग्राह्यस्य हम नागार्जन के मत को प्रसज्य-प्रतिषेध अर्थात निराधार स्वभावभेदे च ये स्वभावाः ते स्वधर्माः। यह व्याख्या सुदृढ़ निषेध का समर्थक मान लें अर्थात वे किसी भी प्रकार के वस्तुवाद के अनुकूल है। मतिलाल का यह मत है कि जैन अस्तित्व की प्राक-कल्पना किए बिना निषेध करते अविरोध के नियम का पालन नहीं करते, इससे भी यही हैं—ऐसा मानले. तो हमें यह मानना पडेगा कि वे ततीय सूचित होता है कि 'स्यात् घटः अस्ति च नास्ति च' का भंग विकल्पाभाव के नियम और अविरोध के नियम दोनों का सचमच वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों को मानता है। के.पी. ही उल्लंघन करते हैं. न कि केवल ततीय विकल्पाभाव के सिन्हा (1990 पृ. 9) इस संबंध में बहुत स्पष्ट है कि नियम का जैसी कि मतिलाल की मान्यता है। यहां पर अनेकांतवाद की दृढ़ वस्तुवादी व्याख्या ही सम्यक् है। वे मतिलाल कठिनाई में फंस गए हैं जिसका कि वे मश्किल से कहते हैं--'अनेकांतवाद के अनुसार वस्तु में अनेक धर्म है सामना कर पाते हैं। क्योंकि जे. एफ. स्टाल (1975 पृ. जो परस्पर विरोधी भी हैं।' ___38) ने उनके विरुद्ध समालोचना करते हुए कहा है यह मान लेने पर कि दृढ़ वस्तुवादी व्याख्या संभव कि–'वे (मतिलाल) स्पष्ट रूप से एक ओर अविरोध के भी है और शास्त्रसम्मत भी है, यह कहना होगा कि जैन मत नियम और दूसरी ओर तृतीय विकल्पाभाव के नियम तथा मानता है कि किसी वस्तु में 'P' या 'अ-P' अथवा दोनों एक दुहरे (अर्थात् निषेध का निषेध) निषेध के नियम के बीच भेद स्वर्ण जयंती वर्षummamm जैन भारती mmmmmmm मार्च-मई, 2002 34. अनेकांत विशेष . Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं कर पा रहे।' मतिलाल का कहना है कि बौद्ध चतुष्कोटि प्रस्तुत चार विकल्पों में से किसी का भी निषेध नहीं करता। को असंगत होने से बचा सकते हैं यदि 'वे अप्रतिबद्धता इस प्रकार माध्यमिक और जैन के बीच का अंतर स्पष्ट हो रखते हुए किसी भी दार्शनिक पक्ष को स्वीकार न करें' जाता है और उसके लिए प्रसज्य-प्रतिषेध के संबंध में जैनों अर्थात् जब तक कि वे प्रसज्य-प्रतिषेधीय तर्कशास्त्र का की दृष्टि के संबंध में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। अनुसरण करते हैं। इसका यह अर्थ हुआ कि अगर वे एक दूसरी कठिनाई भी है; हमारी दृढ़ वस्तुवादी बोचवर के (B.) अथवा Lukasiewicz की (L.) नामक व्याख्या के विरुद्ध यह आपत्ति की जा सकती है कि चाहे त्रिकोटिक तर्कशास्त्र को अपनाए और क्रमशः इनको वस्तु में परस्पर विरोधी धर्म सचमुच रहते हैं. किंतु वह यथाक्रम BE, अथवा LE, नामक बाह्य त्रिकोटिक तर्कशास्त्र सदसदात्मक नहीं हो सकती, क्योंकि सत् और असत् वस्तु (external three valued logic) में परिवर्द्धित करके के धर्म नहीं हैं। आज दर्शन में सामान्यतः सत् को विधेय के धर्म नहीं हैं। याज दर्शन में यातायात उसमें एक बाह्य घोषक चिह्न A (external assertion नहीं माना जाता। sign) को भी शामिल करें तो वह बौद्ध चतुष्कोटि का उत्तर में यह कहा जा सकता है कि आज के तार्किक आधार बन सकता है। इसका कारण यह है कि BE न्यायशास्त्र में अस्तित्व को विधेय इसलिए नहीं माना जाता तथा LE में टारसकि की T-schema लागू नहीं होती। कि किसी पदार्थ के अस्तित्व को बताना सिद्ध साधन है और अतः इनमें घोषकता शर्त (assert-ability condition) उसी स्थिति में उसके अस्तित्व को नकारना विरुद्ध कथन और धर्मारोपक शर्त (characterisability condition) है। दूसरे शब्दों में समस्या यह है कि 'x है' और 'x लाल एक-दूसरे से पृथक हो जाती है। है' इन दोनों को यदि हम एक जैसा ही समझें और लाल इसके अतिरिक्त 'B,' में और 'L,' में न तृतीय । तथा अस्तित्व को तर्क की दृष्टि से एक ही कोटि का मानें तो विकल्पाभाव का नियम लागू है, न अविरोध का नियम और एक तार्किक कठिनाई पैदा हो जाती है; किंतु यह कठिनाई इसलिए BE, तथा LE, अनेकांत की सुदृढ़ वस्तुवादी आधुनिक तर्कशास्त्र की कुछ अंतर्निहित प्राक्-कल्पनाओं के व्याख्या के साथ सुसंगत है। तथापि इन दोनों पद्धतियों में कारण है न कि अस्तित्व की किसी अंतर्निहित विशेषता के तृतीय विकल्पाभाव का नियम अविरोध के नियम के समान कारण। मैंने कहीं यह भी बताया है कि अस्तित्व को भी ही है। अतः इन दोनों नियमों को एक-दूसरे से इस प्रकार बिना किसी तार्किक कठिनाई के विधेय माना जा सकता है। अलग नहीं किया जा सकता कि इनमें से एक को स्वीकार कर लिया जाए और दूसरे को स्वीकार न किया जाए। यद्यपि अतः यदि अस्तित्व को एक बार विधेय अथवा वस्तु का धर्म यदि मतिलाल के मत को मान लें तो नागार्जुन और जैन मानले तो उपर्युक्त बाधा दूर हो जाती है। दृष्टि के बीच भेद करने के लिए ऐसा करना आवश्यक है। एक आपत्ति फिर भी उठ सकती है कि भले ही सत् मतिलाल यह नहीं बता सके कि ऐसा कैसे किया जा सकता विधेय बन सकता हो, तथापि सत् और असत् दोनों युगपत् है? और यही जे.एफ. स्टाल द्वारा उनकी (मतिलाल की) एक वस्तु में नहीं रह सकते, क्योंकि वस्तु स्वयं में असंगत विरोधी आलोचना किए जाने का मुख्य आधार है। मैंने नहीं हो सकती। ब्रेडले ने यही कहा था और विटगेंस्टाइन ने अपने एक स्वतंत्र निबंध (1992) में यह बताया है कि भी Tractatus में यही कहा था कि तर्कविरुद्ध अर्थात् जब तृतीय विकल्पाभाव और अविरोध के नियम में से एक को कोई भी विषय असंगतिपूर्ण होता हो तो उसे नहीं सोचा जा स्वीकार करके दूसरे को अस्वीकार करते हुए किस प्रकार सकता। हमारा उत्तर सरल है। ब्रेडले ने तत्त्व मीमांसा के एक तर्क प्रणाली विकसित की जा सकती है (किंतु ऐसे और आधार पर अपना पक्ष रखा है और इसलिए उसकी इस प्रकार के दूसरे विषयों पर हम इस निबंध में चर्चा नहीं युक्तिसंगतता सिद्ध करनी होगी जबकि विटगेस्टाइन का करेंगे)। इस बीच यह कहा जा सकता है कि जैन मत तत्त्वज्ञानीय नहीं है और उसका यह अर्थ नहीं है कि अनेकांतवाद और नागार्जुन के संशयवाद के बीच अंतर जिस वस्तु के संबंध में हम सोच रहे हैं, वह स्वयं में विरोधी समझने का एक सरल उपाय है। मतिलाल से हम सहमत हैं नहीं हो सकती। विटगेस्टाइन का कहना केवल इतना है कि कि नागार्जुन प्रसज्य-प्रतिषेध को मानते हैं, इसलिए वे यदि वस्तु अपने में विरोधी है तो हम तर्क के चश्मे से केवल चतुष्कोटि का निषेध कर सकते हैं। इसके विपरीत जैन उसका एक पक्ष ही एक समय में देख सकते हैं। बस इतना संशयवादी नहीं है और इसलिए वह माध्यमिक के उत्तर में ही है। इसके अतिरिक्त कुछ बिंदुओं पर विचार करें 20111111111111111111111 ग्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.35 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) Quanta तरंग है या कण? (2) क्या ऐसा त्रिभुज (स) जैन मत की दृष्टि से किसी दार्शनिक विवाद में संभव है जिसके तीनों कोणों का योग दो समकोणों जितना क्या दृष्टि समीचीन होगी? जबकि वह यह मानता है कि न हो? (3) क्या ईथर है? (4) क्या 1-1 है? इन कोई भी दृष्टि सर्वथा मिथ्या नहीं है। प्रश्नों के उत्तर या तो सापेक्ष होंगे या गलत होंगे। जब हम इसका उत्तर जो मैं देना चाह रहा हं उसके लिए मझे ऐसे प्रश्नों पर विचार करें कि At/2 में इलेक्ट्रोन कहां है थोड़ा-सा तर्कशास्त्र का सहारा लेना पड़ेगा। जो-कुछ जैन (जबकि At वह समय है जो इलेक्ट्रोन को अपने परिमंडल कहते हैं, उसके आधार पर मैं पहले औपचारिक रूप से से छलांग लगाने में लगता है)? तब तृतीय विकल्पाभाव के संशय और विरोध को परिभाषित करूंगा। नियम और अविरोध के नियम की आवश्यकता हमारी संशय (अनिश्चय की स्थिति) तब उत्पन्न होता है भाषागत रूढ़ियों के कारण है न कि वस्तु के वस्तुनिष्ठ जब 'S' (ज्ञाता) इस संबंध में निश्चित न हो कि 'A' 'Xप्रकृति के कारण, यह मतवाद विचित्र नजर नहीं आता है। धर्मी है या 'Y-धर्मी' अर्थात् 'Xa' ठीक है या 'Ya' ठीक अथवा जब हम आज के परा-संगत (Para-Consistent) नैयायिकों द्वारा जो प्रश्न गंभीरता से उठाए जा रहे हैं (जैसा है। इस प्रबंध में परस्पर असहिष्णु अर्थात् व्यावर्तक विकल्प (mutually exclusive disjunction) सूचित करने के कि जो कप पृथ्वी पर गिरता है और टूट जाता है, क्या वह जिस क्षण टूटना प्रारंभ होता है उस क्षण खंडित होता है या लिए मैंने 'V' चिह्न का व्यवहार किया। यह चिह्न व्यावर्तक है। 'S' इस संबंध में निश्चित नहीं है कि 'a' 'X-धर्मी है या नहीं?) उन पर विचार करें तब तृतीय विकल्पाभाव तथा 'Y-धर्मी' यह सूचित करने के लिए हम इस प्रकार अविरोध का नियम संबंधी उपर्युक्त मतवाद विचित्र नजर नहीं आता। स्वयं महावीर ने और उनके अनुगामियों ने इस लिखेंगे-Us(?Xa V?Ya) अब हम संशय को इस प्रकार परिभाषित करेंगे: प्रकार के तर्क गंभीरता से उठाए हैं कि कुछ क्षण पहले जलाई गई मोमबत्ती. किसी भी अर्थ में जल चुकी या नहीं? Us(?Xa V?Ya)=df{(s a को जागरूकतापूर्वक इसका उत्तर विभज्यवाद द्वारा दिया गया है। जानता है तथा ap-धर्मी है) तथा (यह संभव है कि axकहा जा सकता है कि हमारी व्याख्या समीचीन होने धर्मी भी हो तथा Q-धर्मी भी हो) तथा (यह संभव है कि a Y-धर्मी भी हो तथा Q-धर्मी भी हो) तथा (s का विश्वास है पर भी बहुत दूरगामी नहीं है। हमने प्रारंभ में अवश्य यह कहा है कि जैन मत सभी विधेयों को सापेक्ष मानते हैं। किंतु क्या कि a का X-धर्मी एवं Y-धर्मी दोनों होना संभव नहीं है) सुदृढ़ वस्तुवादी व्याख्या के आधार पर वे निरपेक्षतावादी तथा (s के पास कोई ऐसा प्रमाण नहीं है कि वह निर्णय ले जैसे दिखाई नहीं देते? मेरा उत्तर यह है कि प्रथमतः सत् भी र । सके कि a x-धर्मी है अथवा y-धर्मी)} एक योजना के अंतर्गत सापेक्ष हो सकता है और इस प्रकार प्रतीकों की भाषा में हम इस प्रकार कहेंगे : मेरी व्याख्या निरपेक्षवादी नहीं है, यद्यपि यह सुदृढ़ वस्तुवादी Us(?Xa VYa)={(Csa & Qa) & M (Xa & है। आज के विज्ञान के दर्शन में एक आंतरिक वस्तुवाद Ya) & M (Ya & Qa) & Bs (-M(Xa &Ya)) & (internal realism) की प्रवृत्ति चल रही है, जिसमें (-EsXa & -EsYa)} सापेक्षता और वस्तुवाद के बीच समन्वय किया गया है। यह Csa=s जागरूकतापूर्वक 'a' को जानता है; Bsp-s बड़ा व्यापक विषय है। मैं इसकी चर्चा नहीं करूंगा क्योंकि के विश्वास करता है कि 'p' (जबकि p कोई भी तर्क वाक्य है) मैंने इसकी चर्चा अन्यत्र की है। यहां यह उल्लेख करना EsXa=s के पास प्रमाण है कि ax-धर्मी है, तथा 'M' उचित होगा कि जैनों का वस्तुवादी अनेकांतवाद आंतरिक संभावनासूचक घटक चिह्न (Modal operator sign for वस्तुवादी व्याख्या से सहज ही मेल खाता है। 'possiblity') है। अब हम तीन प्रश्नों पर विचार करेंगे । स्याद्वाद की व्याख्या करते समय जैन (i) इस प्रश्न (अ) क्या अनेकांतवाद से संशयवाद फलित पर विचार नहीं करते कि क्या घट एकांततः है या नहीं? होता है ? (ii) परंतु अनेकांतवाद के अनुसार वे यह मानते हैं कि Xa (ब) जैनों के अनुसार वदतो-व्याघात अथवा (घटः अस्ति) तथा Ya (घटः नास्ति) दोनों के पक्ष में स्वविरोध की क्या कसौटी है? प्रमाण हैं (तुलनीय यदनंतधर्मात्मकं न भवति तत्प्रमेयमपि mmmmm 201 1 111111111 स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 36. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न भवति....प्रत्यक्षादिना प्रमाणेन अनंतधर्मात्मकस्येव माने जाएंगे? ये रोचक प्रश्न हैं और जैन दार्शनिकों ने इनका सकलस्य प्रतीतेः-षड्दर्शनसमुच्चय, पृ. 212) अपने ढंग से उत्तर देने का प्रयत्न किया है। परस्पर मतभेद इस प्रकार संशय की परिभाषा का जो अंतिम होने के बावजूद ऐसा लगता है कि जैन इस संबंध में यह वाक्यांश अर्थात् (-Esxa & -EsYa) है वह स्याद्वाद के कहना चाहते हैं कि नैतिक आदेशों के संबंध में वक्ता सापेक्ष वक्तव्य पर लागू नहीं होता, इसलिए स्यावाद के (अधिकृत व्यक्ति) का अभिप्राय ही विचारणीय बिंद है। परंपरागत विरोधी आलोचकों की आपत्ति के बावजूद न अतः नैतिक निर्णय और आदेशों का समाज द्वारा स्वीकृत स्याद्वाद संशयवाद है और न स्याद्वाद का नतीजा होने के कारण न उल्लंघन किया जा सकता है, न परिवर्तन संशयवाद है। और न उनकी कोई दूसरी व्याख्या संभव है। अतः एक प्रकार से ऐसे आदर्श अलंघनीय हैं। इसी प्रकार विरोध की अवधारणा का भी जैन दृष्टि से ऐसा लक्षण दिया जा सकता है कि यह कहा जा सके कि. स्याद्वाद और अनेकांतवाद के संदर्भ में और भी दूसरे स्याद्वाद और अनेकांतवाद संपूर्णतया सापेक्ष दृष्टि होने के अत्यंत रुचिकर दार्शनिक बिंदु हैं, किंतु थोड़े में अधिक ट्रंस बावजूद भी ऐसे वाक्यों को सत्य नहीं मानते कि 'वन्ध्यापुत्रः देने का प्रलोभन मुझे आकृष्ट कर ले, इस आशंका से मैं धनुर्धरः'। इस विषय में विस्तार से जाने के लिए हमें बिना विस्तार में गए केवल कुछ बिंदुओं का उल्लेख मात्र परस्पर संबद्ध ऐसी अवधारणाओं को स्पष्ट करना होगा कर रहा हूंजैसे कि 'असंगत धर्म', 'विरुद्ध धर्म', 'परस्पर विरोधी 1. क्या स्याद्वाद से युक्त वक्तव्य ही सापेक्ष रूप से वचन', 'रूढ़ विरोधी वचन', 'रूढ़स्वविरोधीवचन' इत्यादि। सत्य होता है? अब हम तीसरे प्रश्न को लें। जैनों का कहना है कि 2. क्या अनेकांतवाद एकांततः सत्य है अथवा नहीं? विरोधियों के दार्शनिक सिद्धांत वस्तुतः उनकी दृष्टि के 3. जैन विद्या की विचार-सरणि में वस्तुनिष्ठ सत्य का विरुद्ध नहीं हैं। तब प्रश्न यह होता है कि अजैनों के साथ वस्तुवादी विचार किस प्रकार समझा जाए? जैन दार्शनिकों का विवाद करना किस प्रकार सार्थक है? 4. जैनों का भाषा-दर्शन—विशेषकर उनके वाक्यों के किंतु जैन ऐसे शास्त्रार्थ विवाद करते हैं। इससे क्या समझा वर्गीकरण की योजना और विभज्यवाद का सिद्धांत जाए? एक सरल-सा उत्तर यह है कि जैन और उनके उपर्युक्त दार्शनिक सिद्धांतों से किस प्रकार संबद्ध है? विरोधियों के बीच वस्तुस्वरूप की दृष्टि से सचमुच कोई 5. जैनों के इस कथन कि 'ज्ञान को उत्पन्न करने वाली महत्त्वपूर्ण दार्शनिक मतभेद नहीं है। वास्तविक मतभेद इस कुछ प्रक्रियाएं न प्रमाण हैं न अप्रमाण हैं, प्रमाणात्विक दृष्टि का है कि हम एकांत दृष्टि को अपनाएं या अनेकांत तथा दर्शनशास्त्रीय क्या महत्त्व है? (तुलनीय : नया दृष्टि को? अतः वस्तुतः विवाद परास्तरीय (Meta अपि न प्रमाणं न वा अप्रमाणं-जैन तर्क भाषा, Level) है। यह लगभग उसी प्रकार है जिस अर्थ में मोरिस पृ. 21; अपि च नाप्रमाणं प्रमाणं वा नया ज्ञानात्मकाः लेजरोविट्ज के अनुसार ब्रेडले ने जगत की यथार्थता का मताः तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक)। निषेध किया है। वह अर्थ उससे भिन्न है जिस अर्थ में इस निबंध के लिखने में मेरा उद्देश्य यह है कि मैं सामान्य व्यक्ति यथार्थता को समझता है। ऐसा न समझा स्याद्वाद और अनेकांतवाद के संबंध में अपने कुछ विचार जाए कि मैं नई व्याख्या देने के नाम पर अनुचित लाभ उठा यह प्रदर्शित करने के लिए रखू कि जैन दर्शन में ऐसी रहा हूं और जैनों के ऊपर कोई अति-आधुनिक विचार थोप मूल्यवान् अंतर्दृष्टियां हैं जिनको आज के संदर्भ में पुनः रहा हूं। क्योंकि द्वादशारनयचक्र में मल्लवादी ने मेरी ही विश्लेषित और पुनः व्याख्यायित करने की आवश्यकता है। दृष्टि का अनुसरण किया है। मैं अपने श्रम को सार्थक मानूंगा, यदि यह निबंध अधिक हम वापस स्याद्वाद पर जाएं। यदि सभी वक्तव्य जैन समर्थ विद्वानों को जैन दर्शन पर गंभीर विचार करने के लिए के अनुसार सापेक्ष हैं तो फिर 'चोरी पाप है' अथवा 'झूठ प्रेरित करे और मेरा अहोभाग्य होगा कि इस प्रक्रिया के नहीं बोलना चाहिए' जैसे नैतिक निर्णय अथवा नैतिक चलते मेरे इस निबंध पर समीक्षात्मक शैक्षणिक प्रतिक्रिया आदेश निरपेक्ष रूप में सत्य कैसे होंगे अथवा सार्वभौम कैसे भी मुझे प्राप्त हो। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.37 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांठ दर्शन : ऊवारीहण की साधना प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद आदि तीर्थंकर ऋषभदेव और अंतिम तीर्थकर वर्धमान महावीर की अनुमति के मूल के धरातल तक ऊरिहण की । साधना ही अनेकांत दर्शन है। अतः ऊध्वविहण में जिस विवेचन से सहायता प्राप्त होती हो, जो लेखन या प्रवचन इसके लिए प्रेरित करता हो, वही अनेकांत दर्शन की प्रक्रिया है। ऊध्वविहण की इस प्रक्रिया से गुजरने पर साधक की दृष्टि की संकीर्णता, दुराग्रह, मन की चंचलता मिटने लगती हैं और वह उस स्थिति को प्राप्त होता जाता है जिसमें संपूर्णता का बोध अधिकाधिक स्पष्ट होकर केवली और सर्वज्ञता की स्थिति प्राप्त होती है। जैन दर्शन की अनुभूति की । इस स्थिति को ही वैदिक दर्शन में आत्मसाक्षात्कार, ब्रह्मसाक्षात्कार, अद्वैत दर्शन कहा जाता है और इसी स्थिति को भक्तिमार्ग में महाभाव कहा जाता है। इनमें जो साम्य है वह अनुभति के धरातल की समानता के कारण और जो भेद है वह साधक के प्रस्थान-भेद के कारण ड में स्थित चेतना का ब्रह्मांड-चेतना से योग में आकार ग्रहण नहीं कर सके वे न तो लोकग्राह्य हुए, न अध्यात्म है। समाज की नैतिकतापूर्ण व्यवस्था टिक सके। इस रूप में भारत की तीन मुख्य जीवन दृष्टियां, के स्वरूप का निर्धारण-नियमन धर्म है। पर ये दोनों तीन दर्शन, तीन धर्म हैं वैदिक, जैन और बौद्ध। कालक्रम धारणाएं एक-दूसरे के क्षेत्र में संचरण करती आई हैं। में बौद्ध नवीनतम है, वैदिक प्राचीनतम और जैन लगभग इसीलिए धर्म और अध्यात्म दोनों शब्दों के प्रयोग में उसके समकालीन, क्योंकि प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव अक्सर शिथिलता देखी जाती है। वैदिक युग में हुए। आश्चर्य की बात है कि आज उनके इन दोनों के मूल तक पहुंचने की क्रांतदर्शी दृष्टि व्यक्तित्व और कृतित्व को उतना भी महत्त्व नहीं दिया जा दर्शन है। अतः धर्म का भी दर्शन है, अध्यात्म का भी; इसी रहा है जितना भागवत पुराण में दिया गया है। जैन दर्शन पर प्रकार से अन्य दर्शन भी हैं। इसी अर्थ में वैदिक ऋषि दृष्टा हाल में प्रकाशित विशालकाय ग्रंथ में प्रथम तीर्थंकर का थे, इसी अर्थ में कवि शब्द का भी प्रयोग हुआ है। पाश्चात्य केवल एक बार उल्लेख मिलता है। (द्रष्टव्य, पृ. 244, जैन परंपरा में दर्शन अध्ययन-मनन की एक पद्धति है। अतः दर्शन : एक विश्लेषण, लेखक आचार्य देवेंद्र मुनि, यहां तर्क प्रधान हो जाता है, दृष्टि गौण हो जाती है। अंग्रेजी यूनिवासटा पाब्लकशन, दिल्ली, 1997) के जिस 'फिलॉसफी' शब्द के पर्याय के रूप में आज दर्शन वैदिक वांग्मय न केवल संसार का प्राचीनतम का प्रयोग प्रचलित हो गया है वह मूल ग्रीक शब्द उपलब्ध वांग्मय है बल्कि उसके बाद के हजार वर्षों में भी 'फिलॉसफिया' से निकला है जिसका अर्थ है 'ज्ञान की चाह - किसी परंपरा में ऐसा विशाल वांग्मय नहीं रचा गया। वैदिक या ज्ञान से प्रेम'। युग न तो दर्शन की पद्धति के विकास का युग था, न धर्म के अपने मूल रूप में भारत में दर्शन तर्काश्रित नहीं रूढिबद्ध रूप लेने का। वेद में वेदांत का बीज है, पर वेदांत बल्कि अनुभवाश्रित है और इस रूप में वह धर्म का मूल है। दर्शन का नहीं; कम-से-कम वह वेदांत दर्शन तो वहां नहीं है जिज्ञासा की जिस व्याकुलता से दृष्टि दर्शन का रूप लेती है जिसका निरूपण शंकराचार्य या राधाकृष्णन ने किया है। वही व्याकुलता मनुष्य को तदनुरूप जीवन जीने की प्रेरणा इसी प्रकार से वेद में धर्म 'सत्य धर्माणं अध्वरे' (ऋ. देती है। जब दर्शन दृष्टि की मानसिक भूमि से जीवन की 1.12.7.) है जो ऋत अर्थात् ब्रह्मांड-चक्र के अव्याहत भौतिक भूमि पर अवतरित होता है तब वही धर्म कहा जाने नियम का द्योतक है (ऋतस्य पंथां न तरंति दुष्कृतः, ऋ. लगता है। इसीलिए भारतीय परंपरा में जो दर्शन धर्म के रूप 9.73.6), न कि मनु-स्मृति या अन्य स्मृतियों के स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 38. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक-अनावश्यक उन विधि-निषेधों का, जिनके कठोर वैज्ञानिक विचारधारा बताकर कभी सब पर थोपने की बंधन में धर्म लगभग निष्प्राण हो गया। कोशिश की जाती है, कभी सभ्यताओं की टकराहट का भय भारत में भौतिकवादी दर्शन के विकास की उतनी ही दिखाकर अमेरिकी सभ्यता और विचारधारा को सारे विश्व संभावना और स्वतंत्रता थी जितनी अध्यात्मवादी या किसी पर थोपने का प्रयास किया जाता है। (सैम्यूयेल हंटिंग्टन. अन्य दर्शन के लिए, यह देवीप्रसाद चटोपाध्याय (लोकायत. क्लैश आफ सिविलाइजेशंस, 1996) नई दिल्ली, 1959; इंडियन फिलॉसफी, नई दिल्ली, वैदिक युग में दृष्टि कितनी व्यापक थी इसका प्रमाण 1979) तथा आनंदकुमार स्वामी (बुद्ध ऐंड द गॉस्पेल केवल 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' (ऋ. 1.164.46) ही आफ बुद्धिज्म, 1916%; हिंदुइज्म ऐंड बुद्धिज्म, 1943) नहीं बल्कि अन्य वैदिक मंत्र भी हैं (यजु. 26.2 तथा अथ. आदि से स्पष्ट है। अपने मत के मंडन और अन्य मतों के 12.1.45)। अथर्ववेद ने तो 'नाना-धर्माणं पृथिवी खंडन में अधुनातन दृष्टि से प्राचीन दृष्टि की तुलना करने यथौकसम्' और यजुर्वेद ने अपनी वाणी को ब्राह्मण-क्षत्रियसे स्पष्ट है कि इस लंबे अंतराल के बाद भी स्थिति वैसी वैश्य-शद्र-देशी-विदेशी सबका समान रूप से कल्याण करने है। (द्रष्टव्य, कंचा इलैया, गौड ऐज पॉलिटिकल वाली कहा है। इसी के कारण तीर्थंकर ऋषभदेव और गौतम फिलासफर, साम्य, कोलकाता, 2000) इसमें जैन धर्म के बुद्ध दोनों को चौबीस अवतारों में परिगणित किया गया है। अनेकांतवाद, स्याद्वाद एवं सप्तभंगी-न्याय के साथ-साथ चटोपाध्याय के इस मत को भी स्वीकार कर लिया है कि 2: अहिंसा के संबंध में इसकी अतिवादी दृष्टि के कारण यह वैदिक युग के वातावरण की उदारता, व्यापकता और तत्कालीन समाज की तात्त्विक आवश्यकताओं की पर्ति नहीं सत्य को उसकी पूर्णता में ग्रहण करने की दृष्टि को ध्यान में कर सका जिसके कारण बद्ध और बौद्ध धर्म-दर्शन के लिए रखे बिना अनेकांत दर्शन को नहीं समझा जा सकता। कई मार्ग प्रशस्त हो गया। (वही, प. 43) पर तत्त्व-द्रष्टा देशी-विदेशी विद्वान अनेकांत दर्शन को संशयवाद या आचार्य नरेंद्रदेव ने ठीक ही लिखा है कि ब्राह्मण परंपरा और संदेहवाद मानने की भूल इसीलिए करते आ रहे हैं, वैसे ही श्रमण परंपरा भारतीय लोक-जीवन में ऐसी घल-मिल गईं जैसे वैदिक दर्शन को कुछ देशी-विदेशी विद्वान बहुदेववादी कि एक ने दूसरी को कहां और या प्रकृतिवादी या देहात्मवादी मानने कितना प्रभावित किया, आज इसका की भूल कर बैठते हैं। उपनिषद वैदिक युग के वातावरण की निश्चय करना कठिन है। भारतीय वचनों से जब ऐसी भ्रांति पैदा होने उदारता, व्यापकता और सत्य को लोक-जीवन पर श्रमण परंपरा का उसकी पूर्णता में ग्रहण करने की लगी तब उनमें निहित सामंजस्य की कितना गहरा प्रभाव है, यह इसी से दृष्टि को ध्यान में रखे बिना युक्तिसंगतता को प्रतिपादित करने स्पष्ट है कि श्रमणों-मुनियों, अनेकांत दर्शन को नहीं समझा के लिए जिस प्रकार से व्यास ने योगियों-संन्यासियों-महात्माओं के जा सकता। कई देशी-विदेशी 'ब्रह्मसूत्र' की रचना की उसकी प्रति जो अपार श्रद्धा है उसी के विद्वान अनेकांत दर्शन को आवश्यकता वेद मंत्रों को लेकर कारण गांधीजी महात्मा के रूप में संशयवाद या संदेहवाद मानने की इसलिए नहीं हुई, या होनी चाहिए, सर्वमान्य हो गए। (आचार्य नरेंद्रदेव, भूल इसीलिए करते आ रहे हैं, कि ईशावास्योपनिषद यजुर्वेद का बौद्ध धर्म-दर्शन, बिहार-राष्ट्रभाषा वैसे ही जैसे वैदिक दर्शन को कुछ चालीसवां अध्याय होने के कारण परिषद, पटना) देशी-विदेशी विद्वान बहुदेववादी वेद भी है और वेदांत भी है। लेकिन या प्रकृतिवादी या देहात्मवादी तत्कालीन वैदिक समाज में इस संपूर्ण दृष्टि से इस एकमात्र मूल मानने की भूल कर बैठते हैं। इतनी स्वतंत्रता थी कि ब्राह्मण और वेदांत ग्रंथ का अध्ययन-मनन किया श्रमण परंपराएं समानांतर रूप से ही नहीं जाता है। विकसित हो रही थीं। वैदिक समाज शब्द के जिस पूरे अर्थ बिना सम्यक मनन के यह कथन अनेक लोगों को में बहुलतावादी समाज (प्लुरल सोसायटी) था, तथाकथित नहीं रुचेगा कि वैदिक अद्वैत में अनेकांत और जैन अनेकांत लोकतंत्र और भौतिक विकास के इस युग में भी आज विश्व में वैदिक अद्वैत अंतर्निहित हैं। इसी प्रकार से वैदिक दृष्टि में में कहीं नहीं है। तभी एक ओर मार्क्सवाद को एकमात्र श्रमण-दृष्ट कर्मकांड का निषेध भी विद्यमान है। ऋग्वेद स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 जैन भारती अनेकांत विशेष .39 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1.164.39) के 'यस्तन्न वेद किम् ऋचा करिष्यति' की दर्शन 'एक ही अग्नि' या 'एक ही वायु' न कहकर इतना परंपरा तो वस्तुतः गीता तक चली आई है—'वेदवादरताः भर कहेगा कि अग्नि एवं वायु के अनेक रूप हैं। इन दोनों पार्थ' (गीता, 2.42) में जिसका संकेत-भर है उसे आगे के उपनिषद-मंत्रों के अंत में कहा गया है कि संपूर्ण भूतों का श्लोक में अधिक तीखे ढंग से अभिव्यक्त किया गया है- एक ही अंतरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके उनसे बाहर भी है। यहां सर्वभूतारात्मा का वस्तुतः ब्रह्म के तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।। रूप में प्रतिपादन किया गया है जिसे अनेकांत दर्शन में गीता, 2.46 स्वीकार नहीं किया जाता। अनेकांत दर्शन आत्मा और कर्म हां, यह अवश्य ध्यातव्य है कि गीता (8.11) में को स्वीकार करता है, परमात्मा, वर्णाश्रम और वेद को 'यदक्षरं वेदविदो वदन्ति' भी आया है. संभवतः जिसके नहीं। 'अनुत्तर योगी' में वीरेन्द्रकुमार जैन ने वैशाली के कारण यह परंपरा आस्तिक मानी जाती रही है। पर क्या विद्रोही राजपुरुष तीर्थंकर महावीर को महर्षि रमण की तरह श्रमण परंपरा को नास्तिक कहना युक्तिसंगत है ? (द्रष्टव्य, 'मैं कौन हूं' के रूप में प्रस्तुत करते हुए यथार्थ ऊर्ध्वारोहण पी. टी. राजू, द फिलास्फिकल ट्रैडीशन्स आफ इंडिया, को 'कैवल्य के प्रभा-मंडल में प्रतिष्ठित किया फिर भी 1971, पृ. 93-94) पर राजू जैसे पंडितों की बात को जैन समाज ने इसे इसलिए स्वीकार नहीं किया कि इस कितना प्रामाणिक माना जाय जो वर्धमान महावीर को ही जैन प्रस्तुति से वैदिक परंपरा की पौराणिक गंध निःसृत होती है धर्म का प्रवर्तक मानते हैं! (वही, पृ. 94) और फिर (वीरेन्द्रकुमार जैन, अनुत्तर योगी, दो खंड, राधाकृष्ण, महावीर-पूर्व की जैन-परंपरा का भी उल्लेख करते हैं! 1974. 1993)। लेखक ने स्वयं स्वीकार किया भ्रांति उत्पन्न होती है आस्तिक और नास्तिक के रूद है—'सांप्रदायिक जैन अपने शास्त्रों की सीमित भाषा में अर्थ को प्रधानता देने से। पर तत्त्व-विचार के क्षेत्र में यह वर्णित किसी जैन महावीर को मेरी इस कृति में खोजेंगे, तो उचित नहीं प्रतीत होता। तत्त्व की दृष्टि से 'नास्तिको शायद उन्हें निराश होना पड़ेगा। (वही पहला भाग, पृ. वेदनिन्दकः' के स्थान पर 'नास्तिकः सत्यहिंसकः' कहना- 546) मानना युक्तिसंगत होगा (द्रष्टव्य : लेखक की 'अनुत्तर योगी' में प्रस्तुत तीर्थंकर को अनेकांत के 'ब्रह्मविज्ञानोपनिषद्', सव-सवा-सघ, वाराणसा, 1982, स्याद के रूप में न स्वीकार करना अनेकांत दर्शन की पृ. 11)। आचार्य देवेंद्र मुनि लिखते हैं कि 'साधारणतया अनेक-कोणीयता पर प्रश्न-चिह्न लगाना है जिसे सत् की स्याद्वाद को ही अनेकांतवाद कह दिया जाता है, किंतु सूक्ष्म अस्ति के अस्तित्व को नकारने के कारण स्वीकार नहीं दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत होता है कि दोनों में प्रतिपाद्य-प्रतिपादक संबंध है। . किया जा सकता। इस रूप में जब रूढ़ और अकादमिक दृष्टि एक हो जाती हैं तब अनेकांतात्मक वस्तु को भाषा द्वारा बिना सम्यक् मनन के सत्य ओझल हो जाता है और शेष रह प्रतिपादित करने वाला सिद्धांत स्याद्वाद यह कथन अनेक लोगों कहलाता है। इस प्रकार स्याद्वाद श्रुत है जाता है मात्र कंकाल। फिर अनेकांत दर्शन को नहीं रुचेगा कि और अनेकांत वस्तुगत तत्त्व है' (जैन का प्रयोजन क्या रह जाएगा? सार्थकता वैदिक अद्वैत में अनेकांत दर्शन, पृ. 232)। इन्होंने तो यहां तक कह और जैन अनेकांत में क्या रह जाएगी? अनेकांत दर्शन डाला है कि 'आइन्स्टीन का सापेक्ष- वैदिक अद्वैत अंतर्निहित संशयवाद या संदेहवाद नहीं है, पर यह सिद्धांत स्याद्वाद की विचारधारा का । हैं। इसी प्रकार से दुराग्रह या मूढ़ाग्रह भी नहीं है। पक्ष और अनुसरण करता है।' (वही, पृ. 237) वैदिक दृष्टि में श्रमण- प्रतिपक्ष के कथन में निहित सत्य की परख अनेकांत दर्शन की ऐसी व्याख्याओं दृष्ट कर्मकांड का निषेध की शक्ति से अनेकांत दर्शन का उद्भव से उपनिषद-निरूपित ब्रह्म से इसका भी विद्यमान है। और विकास हुआ है, रूढ़ या अकादमिक अंतर मिट-सा जाता है। कठोपनिषद पिष्टपेषण से नहीं। (2.2.9-10) में कहा गया है कि एक ही अग्नि भुवन में रूढ़ और अकादमिक अध्ययन के रूप में, अनेकांत प्रविष्ट होकर अनेक रूप ग्रहण करता है, एक ही वायु दर्शन के प्रसंग में; स्याद्, सप्तभंगी, निक्षेप, नय, ज्ञान, भुवन में प्रविष्ट होकर अनेक रूप ग्रहण करता है। अनेकांत प्रमाण आदि को लेकर जो विवेचन होता आया है, उनसे स्वर्ण जयंती वर्ष 40. अनेकांत विशेष | जैन भारती मार्च-मई, 2002 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरों की अनुभूति के मूल स्वरूप को ग्रहण करने में केवल यही सत्य है, इसमें सत्य है ही नहीं; ये दोनों दो कितनी मदद मिली है? आदि तीर्थंकर ऋषभदेव और अंतिम सीमांत की अतिवादी दृष्टियां हैं। पर सत्य इन दोनों के मध्य तीर्थंकर वर्धमान महावीर की अनुभूति के मूल के धरातल या औसत में है, यह वैसा ही यथार्थ है जिसके कारण नदी के तक ऊर्वारोहण की साधना ही अनेकांत दर्शन है। अतः जल की औसत गहराई के आधार पर नदी पार करने वाला ऊर्ध्वारोहण में जिस विवेचन से सहायता प्राप्त होती हो. व्यक्ति बीच में ही डूब गया। इसीलिए जैनों का अनेकांत जो लेखन या प्रवचन इसके लिए प्रेरित करता हो, वही दर्शन, गीतोक्त युक्ताहारविहार दर्शन या बौद्धों का अनेकांत दर्शन की प्रक्रिया है। ऊर्ध्वारोहण की इस प्रक्रिया मध्यममार्ग दर्शन विवेचन की दृष्टि से सरल और युक्तिसंगत से गुजरने पर साधक की दृष्टि की संकीर्णता, दुराग्रह, मन प्रतीत हो सकते हैं, परंतु साधक की जीवन-साधना में ये मार्ग की चंचलता मिटने लगती हैं और वह उस स्थिति को प्राप्त उतने ऋजु नहीं होते। यदि होते तो जनक, महावीर और गौतम होता जाता है जिसमें संपूर्णता का बोध अधिकाधिक स्पष्ट को इतनी लंबी अवधि तक ऐसी कठोर साधना नहीं करनी होकर केवली और सर्वज्ञता की स्थिति प्राप्त होती है। जैन पड़ती। ऋषि, अर्हत या बुद्ध होने के सरल मार्ग की खोज दर्शन की अनुभूति की इस स्थिति को ही वैदिक दर्शन में अभी तक नहीं की जा सकी। सर्वज्ञता का दावा भले ही किया आत्मसाक्षात्कार, ब्रह्मसाक्षात्कार, अद्वैत दर्शन कहा जाता जाता हो पर कोई सर्वज्ञ हुआ है क्या? है और इसी स्थिति को भक्तिमार्ग में महाभाव कहा जाता अनेकांत दर्शन के प्रसंग में इधर सापेक्षतावाद/ है। इनमें जो साम्य है वह अनुभूति के धरातल की समानता सापेक्ष्यवाद की भी चर्चा की जाने लगी है जिससे आइन्स्टीन के कारण और जो भेद है वह साधक के प्रस्थान-भेद के का नाम जुड़ा हुआ है। इससे संबंधित उनका प्रसिद्ध सूत्र कारण। तीर्थंकर ऋषभदेव और तीर्थंकर वर्धमान महावीर (E=mc') वस्तुतः अद्वैत और अनेकांत-दोनों को एक दोनों ने मोक्ष की प्राप्ति के लिए राज्यसुख का त्याग साथ प्रमाणित करता है। ऊर्जा और पदार्थ की परस्पर किया। दोनों ने मोक्ष पाया, परिवर्तनीयता वेदांत की इस सर्वज्ञता पाई परंतु तात्त्विक दृष्टि मान्यता की गणित की भाषा में से एक ही बात कहने पर भी दोनों आधुनिक युग में पश्चिमी परंपरा में वैज्ञानिक पुष्टि है कि ब्रह्म ही इस के व्यक्तित्व की भिन्नता के भौतिक विज्ञान का पर्याप्त विकास सृष्टि का निमित्त एवं उपादान कारण, युग की भिन्नता के हुआ है, लेकिन भौतिक विज्ञान के कारण है, अर्थात् निमित्त और कारण, अभिव्यक्ति की भाषा दर्शन का नहीं, क्योंकि वहां अनेकांत उपादान शब्द के प्रयोग में दृष्टिभेद शैली भी भिन्न थी। व्याकरण की दर्शन जैसी कोई परंपरा है ही नहीं। है, तत्त्वभेद नहीं। दूसरी तरफ भाषा में जैसे संज्ञा के कई भेद भारतीय दार्शनिकों ने भौतिक विज्ञान पदार्थ का ऊर्जा में रूपांतरण गति होते हैं वैसे ही अतींद्रिय अनुभूति के दर्शन को विकसित करने की ओर के कारण है और गति की धारणा ध्यान ही नहीं दिया है। भौतिक की इंद्रियज अभिव्यक्ति के भी सदा सापेक्ष्य ही होती है। भारतीय विज्ञान के दर्शन को युक्तिसंगत रूप अनेक रूप होते हैं। एक दृष्टि से परंपरा में गति को काल का धर्म में विकसित करने की अनेकांत दर्शन यह अनेकांत की व्यापकता का कहा गया है। आइन्स्टीन के के तर्कशास्त्र में असीम संभावनाएं प्रमाण है और दूसरी दृष्टि से सिद्धांत में इसकी स्वीकृति है। पर हैं। प्रो. महलनवीस ने इस पर अद्वैत-भावना की उपस्थिति का। 1953 में ही, सूत्र रूप में, विचार पाश्चात्य परंपरा में हुए भौतिक केंद्र से परिधि की ओर गमन में किया था, परंतु आगे इस दिशा में विज्ञान के विकास की दृष्टि से अनेकांत के दर्शन होते हैं, परिधि कोई संतोषजनक प्रगति नहीं हो इसका महत्त्व यह है कि न्यूटन के से केंद्र की ओर गमन का सकी। तीन आयाम, जो वस्तुतः दिक् के पर्यवसान अद्वैत में होता है। अतः आयाम हैं, में काल के रूप में चौथे अद्वैत और अनेकांत परस्पर आयाम के योग से दिक्काल विरोधी नहीं बल्कि परस्पर पूरक हैं, वैसे ही जैसे समीकरण के रूप न्यूटन के (या दकार्ट के) द्वैतवाद (माइंडसामाजिक स्तर पर ब्राह्मण और श्रमण परंपरा एक-दूसरे मैटर) के स्थान पर इनकी तात्त्विक अभिन्नता अर्थात् अद्वैत की पूरक रही हैं। दर्शन का मार्ग प्रशस्त हो गया। काल की एक निश्चित गति स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष .41 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्रकाश की गति) के बिना यह तात्त्विक अभिन्नता प्रतिपादन की सामंजस्यपूर्ण मौलिकता की अनदेखी की जा अभिव्यक्त नहीं होती। काल की गति की सापेक्षता दिक् के सकती है? भारत ही नहीं बल्कि विश्व भर के दर्शनशास्त्र द्वैत-अद्वैत स्वरूप की निर्धारक सिद्ध होती है। यहां प्रयुक्त की परंपरा में अनेकांत के तर्क की युक्तिसंगतता को जिस द्वैत बहुल का बोधक है। बहुलता की इस स्थिति को देखने अधिकार और स्तर पर उन्होंने निरूपित किया है वह के असंख्य कोण हैं, सप्तभंगी के सात कोणों की चर्चा तो संभवतः हिंदी में ही होने के कारण उपेक्षित है। सामान्य बोध भर के लिए है। जब जितने जीव उतनी आत्मा आधुनिक युग में पश्चिमी परंपरा में भौतिक विज्ञान के सिद्धांत को स्वीकार किया जाता है तब दृष्टि के कोण भी भा का पर्याप्त विकास हुआ है, लेकिन भौतिक विज्ञान के तो उतने ही होंगे न! दर्शन का नहीं, क्योंकि वहां अनेकांत दर्शन जैसी कोई हाइजेनबर्ग ने आइन्स्टीन के इस सिद्धांत से एक परंपरा है ही नहीं। भारतीय दार्शनिकों ने भौतिक विज्ञान ऐसा उपसिद्धांत सिद्ध किया जिसे आरंभ में स्वयं के दर्शन को विकसित करने की ओर ध्यान ही नहीं दिया आइन्स्टीन ने अस्वीकार कर दिया, पर भारतीय परंपरा के है। भौतिक विज्ञान के दर्शन को युक्तिसंगत रूप में अनेकांत दर्शन से अभ्यस्त विद्यार्थियों के लिए इसमें विकसित करने की अनेकांत दर्शन के तर्कशास्त्र में असीम आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है। आइन्स्टीन के परस्पर संभावनाएं हैं। प्रो. महलनवीस ने इस पर 1953 में ही, परिवर्तनीयता सूत्र में ही यह सत् निहित है कि वह पदार्थ सूत्र रूप में, विचार किया था, परंतु आगे इस दिशा में और ऊर्जा दोनों हैं; हाइजेनबर्ग ने जब कहा कि पदार्थ की कोई संतोषजनक प्रगति नहीं हो सकी (द्रष्टव्य : स्टडीज लघुतम इकाई की गति की संभाव्यता अनिश्चित-निश्चित है इन द हिस्टी आफ इंडियन फिलासफी, सं. देवीप्रसाद तब इस कथन का निहितार्थ यह है कि पदार्थ की गति चटोपाध्याय, बागची ऐंड कं., कोलकाता, 1979, पृ. संभाव्य-निश्चित है, उसके ऊर्जा 34-51)। उन्होंने सप्तभंगी रूप की असंभाव्य-अनिश्चित। न्याय में निहित द्वंद्वात्मक तत्त्व भारतीय जैन दर्शन की दृष्टि से मानवता की विजयिनी होने की पर जिस मौलिक दृष्टि से विचार यह अनेकांत दर्शन का एक कोण भावना से प्रेरित हुए बिना अनेकांत किया है उससे हीगेल, मार्क्स ही है न! दर्शन के अभिनव विकास की और एंगेल्स के द्वंद्वात्मक दर्शन प्राचीन जैन दर्शनिकों के संभावना नहीं है। विज्ञान ने ज्ञान के में एक नया अध्याय जुड़ने की युग में कैमरे का आविष्कार नहीं विद्युत्कणों को बिखेर दिया है क्योंकि इसलिए संभावना है कि एंगेल्स हुआ था, नहीं तो विभिन्न कोणों वह बहिर्मुखी है और उसकी पद्धति (डाय लेक्टिस आफ नेचर, मूल से जैसे कैमरे से मुद्रा के विभिन्न विश्लेषणात्मक है; दर्शन अंतर्मुखी है आलेख, 1875-76) के बाद फोटो लिए जाते हैं, अपने और उसकी पद्धति संश्लेषणात्मक। भौतिक विज्ञान का जो विकास चूंकि अनेकांत दर्शन यथार्थमूलक रहा दार्शनिक सिद्धांत को बोधगम्य है और विज्ञान की दृष्टि भी। हुआ है उस पर इस दृष्टि से बनाने के लिए इस उपमा का यथार्थमूलक है, इसलिए अनेकांत नाममात्र का विचार किया गया उपयोग कर सकते हैं। आज नित दर्शन की न्याय-पद्धति नए सामंजस्य है। एंगेल्स ने इस पुस्तक की नए शक्तिशाली कैमरों का और समन्वय की वर्तमान रिक्तता की भूमिका में एक ओर काल के आविष्कार हो रहा है, इतना ही पूर्ति कर सकती है। अनंत विस्तार में सतत चल रहे नहीं बल्कि उपग्रहों की ऊंचाई से परिवर्तनों की ओर ध्यान आकृष्ट भी काफी साफ चित्र खींचे जा रहे किया और दूसरी ओर द्रव्य हैं तथा समुद्र-तल की गहराई से भी चित्र खींचे जा रहे हैं। (पदार्थ, मैटर) को अक्षय भी बताया है। फिर तो एंगेल्स इन सबसे सत् के कितने कोण प्रकट हो रहे हैं! उमास्वाति, का द्रव्य वेदांत का ब्रह्म ही ठहरता है! सन् 1875-76 कुन्दकुन्दाचार्य, समन्तभद्र, सिद्धसेन दिवाकर, अकलंक, के बाद के इन एक सौ पचीस वर्षों में भौतिक विज्ञान का हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने जिस भाषा-शैली में अनेकांत जो अभूतपूर्व विकास हुआ है उससे प्राप्त तथ्यों पर दर्शन को प्रस्तुत किया है, क्या उतने में ही अनेकांत निःशेष अनेकांत दर्शन की दृष्टि से चिंतन की आज नितांत हो गया? क्या पं. सुखलालजी जैसे आधुनिक आचार्य के आवश्यकता है, जिसमें भारतीय स्याद्वाद और पाश्चात्य HARE HERI 42. अनेकांत विशेष स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के मंतव्यों के सामंजस्य और समन्वय से द्वंद्वात्मक कि दो समानांतर रेखाएं अनंत पर जाकर मिल जाती हैं। दर्शन को अभिनव रूप प्राप्त हो सके। अभी तक विचार के क्षेत्र में अनंत का वह बिंदु कहां है, इसकी खोज पाश्चात्य दार्शनिक सामंजस्य और समन्वय की दृष्टि से की ओर अभी तक ध्यान नहीं गया है। उल्लेखनीय कार्य इसलिए नहीं कर पाए हैं कि ये दो द्वंद्वात्मक ध्रुवांत हैं-जैन अनेकांत दर्शन से सापेक्षतावाद, दिक्काल-समुच्चय संभाव्य निश्चितता के , ___ पुष्ट अहिंसा और भौतिकतावादी विज्ञान के दर्शन से पुष्ट सिद्धांत ने उनकी संरचना-संबंधी मान्यताओं के लिए हिंसा। अनेकांत की अहिंसा और विज्ञान की हिंसा के वैसी चुनौती प्रस्तुत कर दी है जैसी अद्वैत दर्शन ने वर्ण सामंजस्य और समन्वय के बिना जीवमात्र का अस्तित्व संरचना की मान्यताओं के लिए। सत् के स्वरूप के आज शंका के घेरे में है। द्वंद्वात्मक वैज्ञानिक भौतिकतावादी अनुरूप यदि सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक आदि की दर्शन के आधार पर मार्क्स और एंगेल्स ने वर्ग-संघर्ष की संरचना में अपेक्षित परिवर्तन सत्तासीन वर्ग को स्वीकार्य । न हो तो समाज में असंतोष ही नहीं बढ़ेगा, बल्कि उसके अनिवार्यता और अपरिहार्यता का समर्थन किया और इस विघटन की प्रक्रिया भी तेज हो जाएगी, जैसा कि आज दर्शन का सहारा लिए बिना लोकतंत्र भी हिंसा की विश्वव्यापी पैमाने पर दिखाई पड़ रहा है। इस भावना को अनिवार्यता और अपरिहार्यता को मानकर चलता है। जैन ध्यान में रखकर जयशंकर प्रसाद (कामायनी, श्रद्धा सर्ग) स्याद्वाद का अनेकांत दर्शन जिस द्वंद्वात्मक तर्क से अहिंसा ने लिखा है को मोक्ष के लिए अनिवार्य मानकर सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र की अवधारणा को स्वीकार करता 'शक्ति के विद्युत्कण, जो व्यस्त है, उस पर सामाजिक संरचना के पुनर्गठन की दृष्टि से विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय; हिंसा की सापेक्षता में पुनर्विचार करना होगा। कारण समन्वय उसका करे समस्त विजयिनी मानवता हो जाय।' संभवतः यह है कि विज्ञान का दर्शन मुख्यतया भौतिकी का आश्रय लेकर चलता है और जीव और जीवन पर उसी का ध्यातव्य यह भी है कि मानवता की विजयिनी होने पर प्रक्षेपण कर देता है, लेकिन अनेकांत दर्शन मुख्यतया कर देता है लेकिन अमांत , की भावना से प्रेरित हुए बिना अनेकांत दर्शन के अभिनव जीवन-सापेक्ष है। संभवतः इसीलिए प्रथम का झुकाव हिंसा विकास की संभावना नहीं है। विज्ञान ने ज्ञान के विद्युत्कणों की ओर है तो द्वितीय का अहिंसा की ओर। को बिखेर दिया है क्योंकि वह बहिर्मुखी है और उसकी चार्ल्स डार्विन की 'ओरिजिन आफ पद्धति विश्लेषणात्मक है; दर्शन अंतर्मुखी है और उसकी (1859) के आधार पर संघर्ष और हिंसा को जीवन के पद्धति संश्लेषणात्मक। चूंकि अनेकांत दर्शन यथार्थमूलक लिए अनिवार्य मानकर उनका समर्थन किया जाता रहा है रहा है और विज्ञान की दृष्टि भी यथार्थमूलक है, इसलिए लेकिन अपने परिपक्व विचारों को बारह वर्षों के बाद अनेकांत दर्शन की न्याय-पद्धति नए सामंजस्य और उन्होंने जिस 'डिसेंट आफ मैन' (1871) में अभिव्यक्त समन्वय की वर्तमान रिक्तता की पूर्ति कर सकती है। किया उसका उल्लेख तक नहीं किया जाता है, क्योंकि विज्ञान भौतिक जगत की अनंत संभावनाओं के इसमें डार्विन ने मानव-समाज के विकास के लिए नियमों की खोज है, अनेकांत दर्शन वैचारिक जगत की पारस्परिक सहयोग, दया एवं अन्य उच्चतर मानव-मूल्यों अनंत प्रतीतियों की संभावनाओं में सामंजस्य और समन्वय को अनिवार्य बताते हुए कहा है कि जो व्यक्ति या राष्ट्र इन के सूत्र की खोज। दोनों में से किसी भी जगत की खोज गणों को अपनाता है वह दीर्घजीवी होता है। इन्हें अपनाने अंतिम नहीं होती, हो ही नहीं सकती क्योंकि जीवन-प्रवाह से मनुष्य का सभ्य एवं आध्यात्मिक जीव के रूप में अनादि और अनंत है। इसे तो परम व्योम का परम भी विकास होता है। शायद जानता है या नहीं, इसे कौन जानता है? (ऋग्वेद, अनेकांत दर्शन के अभिनव विकास के सामंजस्य और 10.129.7) समन्वय के नए धरातल की ओर भी इस भावना से संकेत आज सामंजस्य और समन्वय की अत्यंत बृहत्तर भर कर दिया गया है कि इसमें निहित रचनात्मक क्षमता के धरातल पर आवश्यकता है, इसकी गुरुता दो ध्रुवांतों के कारण इसकी असीम संभावनाओं के फलित होने का समय उल्लेख मात्र से स्पष्ट हो जाएगी। आइन्स्टीन का कथन था आ गया है। 1 111111111111111111 2011-1212111111111111111111111111111111 स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.43 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांठ : कुछ समस्याएं प्रो. दयाकृष्ण SHNAMEDIAS अगर हम ज्ञान की बात को छोड़कर ज्ञान के विषय की बात करें और ज्ञान के स्वरूप को उसके विषय के रूप से । अनिवार्य रूप से संबंधित देखें तो शायद अनेकांत का सिद्धांत जो बात कहने की चेष्टा करता है यह अधिक समझ में आए। साधारणत: ज्ञान का विषय देश और काल में स्थित होता है और जो काल में है उसमें परिवर्तन होना स्वाभाविक । । है। परंतु 'ज्ञान' तो यह कहता है कि 'ऐसा है' या 'ऐसा नहीं है, और इस 'कहने का काल की सत्ता परिवर्तनशीलता | से कोई संबंध दिखाई नहीं देता। यही नहीं, वह तो उस सतत परिवर्तनशीलता को नकारता दिखाई देता है। उसके लिए तो ऐसा लगता है--सब कुछ चिरंतन है, स्थिर है, कहीं कोई बदलाव की गुंजाइश ही नहीं है। जो है' सो है, जो । 'नहीं' है वह नहीं है। पर अगर काल सत्य है, तो जो 'हे', उसका 'नहीं होना अवश्यंभावी है; और इसी प्रकार शायद डो'नहीं है। उसका होना दूसरी बात उतमी सच नहीं लगती, लेकिन अगर 'नहीं होने को, 'होने के संदर्भ में देखें । तो शायद वह उतनी गलत नहीं लगेगी। - अनेकांत पर 'स्वतंत्र' विचार तभी हो सकता है 'एक' और 'अनेक' का भेद स्वयं सापेक्ष है। यह बात जजब उसे उसके इतिहास से 'मुक्त' किया जा 'अवयवी' और 'अवयव' के संबंध में साफ दिखाई देती है। सके। उसका इतिहास जैन दर्शन के इतिहास से इस तरह अवयवी 'एक' है, अवयव अनेक और यदि थोड़ा और ध्यान बंधा हुआ है कि उसकी मुक्ति की बात करना उसे उस दें तो क्या 'एक' है और क्या 'अनेक'—इसकी सीमा बांधना दार्शनिक चिंतन से विच्छिन्न करना होगा जो 'जैन' दर्शन के मुश्किल होगा। गणित के साधारण विद्यार्थी को भी यह पता नाम से जाना जाता है। है कि विभाजन की प्रक्रिया अनंत है और अगर ऐसा है तो फिर यह बात एक तरह से समस्त भारतीय चिंतन पर भी यह कहना कि क्या एक है और क्या अनेक, इसी बात पर लागू होती है, क्योंकि सभी चिंतन की परंपरा के संप्रदाय निर्भर करेगा कि आप उसको किस प्रकार देख रहे हैं या किस विशेष से अपने को बंधा मानते हैं। 'संदर्भ' में या किस प्रयोजन के लिए। इस संदर्भ में दूसरी बात जो ध्यान में रखनी है, वह गणित की बात को हम यहां आगे नहीं बढ़ाना चाहते, यह है कि अगर किसी विचार का 'इतिहास' है, तो वह सदा पर जो लोग 'एक' या 'अनेक' की चर्चा करते हैं उन्हें कम एक-सा ही रहा है यह नहीं माना जा सकता। 'अनेकांत' से कम इसका ध्यान रखना जरूरी है। हो, या कुछ और, अगर उसका इतिहास है तो यह अनिवार्य अनेकांत की चर्चा का दूसरा संदर्भ 'सत्य' या रूप से मानना पड़ेगा कि 'कालक्रम' में उस पर जो विचार 'असत्य' से है और जब तक इन पर हम स्वतंत्र विचार नहीं हुआ है उसमें अवश्य महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए होंगे, और करेंगे तब तक अनेकांत की चर्चा अधूरी ही रहेगी। अगर ऐसा है, तो यह भी मानना पड़ेगा कि उसमें और भी सत्य की बात करते ही जो पहला सवाल उठता है, परिवर्तन हो सकते हैं। वह यह है कि इसकी बात केवल ज्ञान के बारे में ही हो अनेकांत का विरोधी 'एकांत' या 'ऐकांतिक' ही हो सकती है, या जो ज्ञान का विषय है उसके बारे में भी। सकता है। पर 'जो भी है' वह तो अपने आप में 'एक' ही ज्ञान के संदर्भ में सत्य, असत्य की बात तो सभी करते हैं समझा जाएगा। 'अनेक' भी 'एक-एक' के मिलने से ही और अनेकांत की बात भी अधिकतर इसी संदर्भ में की बनता है और अगर ऐसा नहीं है तो फिर 'अनेक' स्वयं जाती है। आमतौर पर करीब-करीब सभी यह मानते हैं कि 'एक' का रूप ले लेगा। कोई बात या तो 'सच' होती है या 'झूठ' और अगर वह स्वर्ण जयंती वर्ष 44. अनेकांत विशेष जैन भारती मार्च-मई, 2002 ............. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच हो तो झूठ नहीं होती है और अगर झूठ होती है तो सच बात उतनी सच नहीं लगती, लेकिन अगर 'नहीं' होने को, नहीं। अनेकांत के दावेदार आमतौर पर इस मान्यता का होने के संदर्भ में देखें तो शायद वह उतनी गलत नहीं खंडन करते प्रतीत होते हैं और ऐसा कहने की कोशिश करते लगेगी। हैं कि किसी भी बात के बारे में यह कहना कि वह 'सच' है पर क्या सब चीजें या ज्ञान के सब विषय अनिवार्य या 'झूठ' है----एकांगी है। क्योंकि अगर हम ध्यान से देखें रूप से देश और काल में स्थित होते हैं। 'विषय' होने का तो वही बात सच भी दिखेगी और झूठ भी। लेकिन स्वयं अर्थ यह नहीं होता कि वह देश या काल में हो। देश या अनेकांत को मानने वाले इस बात को स्वीकार करने से काल में होना उसका आगंतुक गुण है, अनिवार्य गुण नहीं। कतराएंगे कि अगर उनकी यह बात ठीक है तो उनकी बात दूसरी ओर, ज्ञान के लिए देश और काल में स्थित विषय का भी न तो सच कही जा सकती है, न झूठ और न दोनों ही। - इस प्रकार वर्णन किया जा सकता है कि उसकी उनमें स्थिति अपनी बात को तो वे पूर्णतः सच मानकर ही बात करते हैं इस प्रकार बताई जा सके कि वे उनके गुणों का रूप ले लें। और इस अंतर्विरोध को देखने से इनकार करते हैं। कौन चीज कहां है और कब है, यह बताना मुश्किल बात यह बात एक तरह से उन सब बातों पर लागू होती है नहीं है, हालांकि विज्ञान की प्रगति ने इन दोनों के बारे में जो जो 'सब बातों के बारे में बात करती हैं। लेकिन, ऐसा समस्याएं और शंकाएं उठाई हैं, उनसे अब यह बात कम से जरूरी नहीं है, क्योंकि जो लोग सच और झूठ के बारे में कम उतनी स्पष्ट नहीं है, जितनी पहले थी। फिर भी किसी अनेकांत के सिद्धांत को नहीं अपनाते उनके लिए इस प्रकार चीज की देश-काल में स्थिति बताना और इस तरह से की समस्या नहीं उठेगी। उसकी सत्यता-असत्यता का उसके ज्ञान के संदर्भ में परंतु अगर हम ज्ञान की बात निर्धारण करना कठिन नहीं है। को छोड़कर ज्ञान के विषय की बात यही नहीं, अगर 'वस्तु' को कालकरें और ज्ञान के स्वरूप को उसके भाव-जगत के संदर्भ में अनैकांतिकता क्रम में 'घटना-प्रवाह' के रूप में विषय के रूप से अनिवार्य रूप से की बात की ही नहीं गई है, लेकिन देखें तब भी उसे ज्ञान में आबद्ध संबंधित देखें तो शायद अनेकांत की जानी चाहिए। इसके संदर्भ में किया जा सकता है। भविष्य को का सिद्धांत जो बात कहने की अनैकांतिकता का अर्थ क्या होगा, हम उसी प्रकार ज्ञान-प्रक्रिया में चेष्टा करता है वह अधिक समझ में यह स्पष्ट नहीं है। लेकिन, अगर हम पकड़ सकते हैं, जिस प्रकार कलाकृतियों को भाव-जगत के आए। साधारणतः ज्ञान का विषय वर्तमान को। यही नहीं, कार्यचित्रण के रूप में देखें तो इतना तो देश और काल में स्थित होता है कारण के नियम के द्वारा भविष्य स्पष्ट ही होगा कि इनमें परस्पर और जो काल में है उसमें परिवर्तन में होने वाली घटनाएं वर्तमान में अंतर्विरोध से ग्रसित भावनाओं को होना स्वाभाविक है। परंतु 'ज्ञान' जो है, उससे इस प्रकार संबंधित एक साथ सामंजस्य में लाने की सदैव तो यह कहता है कि 'ऐसा है' या चेष्टा होती है। यहां साधारणतः वे देखी और दिखाई जा सकती हैं, 'ऐसा नहीं है, और इस 'कहने' का एक-दूसरे की विरोधी न होकर, एक जैसे वो वर्तमान में ही हों। इस काल की सतत परिवर्तनशीलता से दूसरे की पूरक के रूप में अनुभूत प्रकार ज्ञान काल में दिखने वाली कोई संबंध दिखाई नहीं देता। यही होती हैं। चाहे काव्य हो या नाट्य, निरंतर परिवर्तनशीलता को नहीं, वह तो उस सतत चित्र हो या नृत्य, वास्तु हो या नकारता भी है और उसे इस परिवर्तनशीलता को नकारता संगीत, सबमें सदैव यह सत्य प्रकार का 'स्थायित्व' भी प्रदान दिखाई देता है। उसके लिए तो दृष्टिगोचर होता है। इसको करता है जैसे वह केवल आभासऐसा लगता है-सब-कुछ चिरंतन 'अनैकांतिक' कहें या ना कहें, यह मात्र हो, सत् नहीं। ज्ञान को है, स्थिर है, कहीं कोई बदलाव की अलग बात है। इसीलिए 'कालातीत' कहा गया गुंजाइश ही नहीं है। जो 'है' सो है, है, अर्थात् उसका काल से कोई जो 'नहीं' है वह नहीं है। पर अगर संबंध नहीं है। काल सत्य है, तो जो 'है', उसका 'नहीं' होना अवश्यंभावी दूसरी ओर, ज्ञान के उन विषयों के बारे में, जिनका है; और इसी प्रकार शायद जो 'नहीं है' उसका 'होना'। दूसरी 'देश-काल' से कोई संबंध नहीं है, उस प्रकार से अनेकांतता स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष .45 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की बात करने का कोई अर्थ ही नहीं हो सकता जो कि उन दूसरे तरीकों से भी हटाया जा सकता है। यही नहीं, स्याद्वाद विषयों के संदर्भ में होती है जो देश-काल में अनिवार्य रूप के सिद्धांत का अर्थ सार्थक तभी हो सकता है जब उसको से अवस्थित माने जाते हैं। गणित के सिद्धांत कुछ इसी इस मान्यता के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए कि जिन वाक्यों के प्रकार के विषय हैं। 'दो और दो चार' होते हैं, इसके बारे में साथ यह नहीं लगा होता, वे अपने-आप में अपूर्ण हैं और क्या अनेकांतता होगी? क्या इसके विषय में भी कोई अंततोगत्वा भ्रामक हैं। वास्तव में देखा जाए तो वे वाक्य हैं अनेकांतवादी दार्शनिक यह कहेगा कि यह 'सत्य' भी है और ही नहीं, केवल वाक्य का आभास मात्र हैं। 'असत्य' भी? यह ठीक है कि आज के गणितीय दर्शन के स्याद्वाद को सप्तभंगी रूप में देखना जैन दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में कछ लोग ऐसा कहते है कि दो और दो चार' परंपरा में सर्वमान्य है. परंत जहां एक ओर तो यह उस की सत्यता किन्हीं पूर्व मान्यताओं पर आधारित है। लेकिन अनैकांतिकता को सीमाबद्ध करने की चेष्टा है. वहीं दूसरी यह जा बात कहा जा रहा ह इसस काइ खास फक पड़न ओर 'अवक्तव्य' की बात करने से उस अनैकांतिकता पर वाला नहीं है, क्योंकि यह आसानी से कहा जा सकता है कि स्वयं ही संदेह का चिह्न लगाती है। अनैकांतिकता को यदि कोई इन पूर्व मान्यताओं को मानता है तो उसे अनिवार्य सीमाबद्ध करने का अर्थ यही है कि वास्तव में अनैकांतिकता रूप से यह मानना पड़ेगा कि दो और दो चार होते हैं। तर्क- नहीं है। अगर संभावना 'एक' है तो वह ऐकांतिक है और यदि शास्त्र का मूल आधार यही है कि यदि आप यह मानते हैं, किसी दूसरे के 'साथ' एकजुट है तो अनैकांतिक है, यह तभी तो आपको यह भी मानना पड़ेगा। इसमें किसी प्रकार की माना जा सकता है जब किन्हीं दो चीजों के एक साथ होने को है अनैकांतिकता की संभावना दिखाई नहीं देती। ऐकांतिक न कहा जाए। कमरे में कुर्सी एक हो, तो उससे वह कहने का अर्थ यह है कि ज्ञान का विषय चाहे देश- कोई ऐकांतिक नहीं हो जाती, उसी तरह जैसे अगर कई काल में अनिवार्य रूप से अवस्थित हो या उनसे स्वतंत्र, कुर्सियां एक साथ होती हैं तो वे अनैकांतिक नहीं हो जातीं। उसे सदैव इस प्रकार वर्णित किया शायद, 'अनैकांतिक' कहने का जा सकता है कि उसमें अनेकांतता अर्थ यह होता है कि वस्तु के अनेक की संभावना ही न रहे। अनैकांतिकता की बात भेद को प्रधान पर्याय होते हैं। परंतु इससे उस यदि यह सच है तो मानकर चलती है और 'भेद' सर्वत्र 'एक' की 'एकता' पर आंच कैसे व्याप्त है। इस भेद' को भारतीय अनैकांतिकता की बात उस वाक्य आती है? अगर 'एक' है ही नहीं, दार्शनिक परंपरा में केवल 'अद्वैत तो अनैकांतिकता की बात करना की असंपूर्णता पर ही निर्भर होगी वेदांत' ने ही पूर्ण रूप से अस्वीकार व्यर्थ है; और अगर एक है, तो भी। जो किसी सत्य का वर्णन करता किया है और अगर ऐसा है तो है, स्वयं उस तथ्य या सत् पर 'अवक्तव्य' की बात करना अनैकांतिकता अनेक रूपों में उन सब नहीं, जिसका वर्णन किया जा रहा दर्शनों में मिलनी चाहिए जो अद्वैत तो और भी आश्चर्यजनक है। है। एक तरह से यह बात स्वयं दृष्टि को मूलतः अस्वीकार करते हैं। अगर जैन दार्शनिक वास्तव में स्याद्वाद के सिद्धांत में परिलक्षित अनैकांतिकता का जो रूप जैन अनैकांतिकता को मानते हैं तो दार्शनिक परंपरा में प्रस्फुटित हुआ है, होती है। 'स्याद्' को जोड़ने से, 'अस्ति-नास्ति' को एक साथ कहने में क्या कठिनाई प्रतीत होती वह उसका ही एक रूप है। वाक्य के पहले 'स्याद्' लगाने से, अनैकांतिकता पर चिंतन, गहन है? कठिनाई का प्रतीत होना ही अगर वाक्य की अनैकांतिकता चिंतन तब तक नहीं हो सकता जब इस बात का सूचक है कि 'अस्तिसमाप्त हो जाती है, तो इससे तक स्वयं अनैकांतिकता में अनेकता नास्ति ' को एक ही संदर्भ में एक क्या यह सिद्ध नहीं होता कि की संभावना को स्वीकार नहीं किया साथ कहने में कुछ दोष है; पर इस 'दोष' उस वाक्य का था, जिसके जाए। दोष का परिहार 'अवक्तव्य' कहने द्वारा उस तथ्य का वर्णन किया जा - से नहीं किया जा सकता। यही रहा था। जैन दार्शनिक 'स्याद्' नहीं, 'अवक्तव्य' को फिर लगाकर ही अनैकांतिकता से छुट्टी पाना चाहते हैं। लेकिन 'अस्ति-नास्ति' से जोड़ने पर उनका अलग अपना कोई अर्थ उन्होंने यह नहीं सोचा कि वाक्य की अनैकांतिकता को और ही नहीं रहता। HEALTH स्वर्ण जयंती वर्ष 46. अनेकांत विशेष जैन भारती मार्च-मई, 2002 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांतिकता की चर्चा जिन वाक्यों के संदर्भ में की गई है, वे वर्णनात्मक वाक्य हैं। पता नहीं क्यों, जैन दार्शनिक परंपरा में विधि - निषेधात्मक वाक्यों के संदर्भ में इसकी चर्चा नहीं की गई 'क्या करना चाहिए' और 'क्या नहीं करना चाहिए' क्या इसके बारे में भी अनैकांतिकता हो सकती है ? व्यवहार और चरित्र के संदर्भ में अनैकांतिकता की बात साधारणतः जैनियों को ही नहीं, अन्य लोगों को भी, मान्य नहीं होती। पर मूल प्रश्न तो यह है कि क्या ज्ञान के संबंध में अनैकांतिक होने पर व्यवहार के संदर्भ में वैसा ही नहीं होना पड़ेगा ? ज्ञान और कर्म में गहरा संबंध है, क्योंकि कर्म मनुष्य योनि में तो ज्ञान पर ही आश्रित होता है और अगर ज्ञान अनैकांतिक है तो कर्म को भी अनैकांतिक मानना पड़ेगा । एक तरह से देखें तो कर्म के संदर्भ में अनैकांतिक होना अधिक आसान दिखाई देता है, क्योंकि कर्म में हमेशा विकल्प होता है। विकल्प के बिना मनुष्य के स्तर पर कर्म की बात की ही नहीं जा सकती। कर्म में हमेशा एक स्वातंत्र्य होता है, जिसका आधार यही होता है कि ऐसा भी किया जा सकता है और इससे भिन्न भी इसको यह कहकर नकारा नहीं जा सकता कि विकल्प अच्छे-बुरे में होता है और जो अच्छा है उसको करना चाहिए, इसमें विकल्प की कोई बात सोची ही नहीं जा सकती। ऐसा सोचने की पूर्व मान्यता यह है कि जो अच्छा है उसमें विकल्प हो ही नहीं सकता। कर्म के संदर्भ में ऐसे कई विकल्प होते हैं, जो सब अपने-आप में एक से एक 'अच्छे' प्रतीत होते हैं और इसलिए उनमें चयन मुश्किल होता है। - भाव जगत के संदर्भ में अनैकांतिकता की बात की ही नहीं गई है, लेकिन की जानी चाहिए। इसके संदर्भ में अनैकांतिकता का अर्थ क्या होगा, यह स्पष्ट नहीं है। लेकिन, अगर हम कलाकृतियों को भाव-जगत के चित्रण के रूप में देखें तो इतना तो स्पष्ट ही होगा कि इनमें परस्पर अंतर्विरोध से ग्रसित भावनाओं को एक साथ सामंजस्य में लाने की सदैव चेष्टा होती है। यहां साधारणतः वे एक-दूसरे की विरोधी न होकर, एक-दूसरे की पूरक के रूप में अनुभूत होती हैं। चाहे काव्य हो या नाट्य, चित्र हो या नृत्य, वास्तु हो या संगीत, सबमें सदैव यह सत्य दृष्टिगोचर होता है। इसको 'अनैकांतिक' कहें या ना कहें, यह अलग बात है। परंतु इतना तो साफ ही है कि इन क्षेत्रों में परस्पर विरोधी अनुभव होने वाली भावनाएं ही मिलकर एक भाव जगत की सृष्टि करती हैं जो उनको अपने में समाहित करके एक ऐसे मार्च - मई, 2002 भाव को उत्पन्न करती हैं जो उनको विरोध के रूप में महसूस करते हुए भी उनके आधार पर एक नए 'भाव' को अनुभूत करता है। यही नहीं, अगर उस विरोध को समाप्त कर दिया जाए या नष्ट कर दिया जाए तो वह भाव ही समाप्त नहीं हो जाएगा, बल्कि 'कृति' भी प्राणहीन या निर्जीव हो जाएगी। यह सब ठीक होते हुए भी, आश्चर्य की बात तो यह है कि अनुभूत भाव जगत जो कलाकृतियों से स्वतंत्र हैउसमें हम इस विरोधाभास को न सहन कर सकते हैं, न स्वीकार । वहां तो आदमी शांति चाहता है या आनंद। कला के माध्यम से, या कहै तो, कलाकृतियों पर आश्रित या उन पर अवलंबित भाव की अनुभूति, जिसको भारतीय परंपरा में 'रस' का नाम दिया गया है, 'परतंत्र' है और इसलिए मनुष्य की चेतना को अंततोगत्वा अस्वीकार है। कहां तक देखें, सुनें या अन्य इंद्रियों से उस सबको ग्रहण करें जिसकी मनुष्य ने रचना की है? इसकी थकावट की बात न कही गई है. न लिखी गई है, पर आंखें देखते देखते थक जाती हैं और सुनते-सुनते कान पक जाते हैं। भाव जगत में चेतना सब बाहर की वस्तुओं से स्वतंत्र होना चाहती है, अपने आप में सहज रूप में स्थित लेकिन यहां तो न कोई विरोध है, न व्याघात । शायद, अनैकांतिकता की बात चेतना की उस प्रवृत्ति में ही उद्भूत होती है जो बहिर्मुखी है, जो कुछ जानना चाहती है, करना चाहती है, या उनके आधार पर किसी ऐसे भाव जगत की रचना करना चाहती है जो उसे कम से कम कुछ क्षणों के लिए सौंदर्य में अंतर्भूत प्राण आविर्भूत कर सके । अनैकांतिकता की बात भेद को प्रधान मानकर चलती है और 'भेद' सर्वत्र व्याप्त है। इस 'भेद' को भारतीय दार्शनिक परंपरा में केवल 'अद्वैत वेदांत' ने ही पूर्ण रूप से अस्वीकार किया है और अगर ऐसा है तो अनैकांतिकता अनेक रूप में उन सब दर्शनों में मिलनी चाहिए जो अद्वैत दृष्टि को मूलतः अस्वीकार करते हैं। अनैकांतिकता का जो रूप जैन दार्शनिक परंपरा में प्रस्फुटित हुआ है, वह उसका एक ही रूप है। अनैकांतिकता पर चिंतन, गहन चिंतन तब तक नहीं हो सकता जब तक स्वयं अनैकांतिकता में अनेकता की संभावना को स्वीकार नहीं किया जाए। यही नहीं, ऐकांतिकता क्या वास्तव में अनैकांतिकता की विरोधी है, और अगर है तो किस तरह, किन क्षेत्रों में और कहां तक ? आग्रह से मुक्त चिंतन की चेष्टा तभी हो सकती है, जब हम इस प्रत्यय पर इन प्रश्नों के संदर्भ मैं नए सिरे से विचार करें, या कम से कम करने की कोशिश करें । स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती अनेकांत विशेष • 47 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांठ की व्यवहार्यता व डॉ. बच्छराज दूगड़ EVERE अनेकांत दृष्टि के अनुसार एक ओर विज्ञान व प्रौद्योगिकी तथा दूसरी ओर समाज इन दोनों को नीति ही नियंत्रित । कर सकती है। जो यह सोचते हैं कि प्रौद्योगिकी को बदल दें, शस्त्रों को समाप्त कर दे तो सब-कमलामा । वे यह भला जाते हैं कि हमारा ज्ञान जो उनका निर्माण करता है, वह तो हमारे साथ ही रहेगा। प्रोपोमिकी एक प्रजाति के रूप में हमारे उद्विकास के दौरान प्रौद्योगिकी एवं चेतना में घनिष्ठ संबंध रहा है। एक हडी को का अस्त्र के रूप में उसके प्रयोग ने मनुष्य की चिंतन प्रक्रिया में अंतर ला दिया। हमने बहुत-से अस्त्र बनाए-किन हमारी चेतना (हमारी सोच एवं दर्शन) और हमारी संस्कृति (दूसरों एवं पर्यावरण के साथ हमारे संबंधों के तरीकों) में अंतर । ला दिया है। इस सोच पर नियंत्रण केवल निःशस्त्रीकरण, केवल प्रौद्योगिकी परिवर्तन, केवल नीति नहीं कर सकती, किंतु इनके समेकित रूप से ऐसा संभव है। - ama - वस्तु जगत की स्थूल और सूक्ष्म दोनों अवस्थाओं इस प्रकार जैन धर्म-दर्शन की अहिंसा ने जब दूसरे दर्शन को जानने की दार्शनिक प्रणाली अनेकांत है। के प्रति ऐसा आदरभाव रखने की प्रेरणा प्रदान की तो इसे भगवान महावीर ने कहा-----'प्रत्येक धर्म को अपेक्षा से ग्रहण बौद्धिक अहिंसा माना गया और इसे ही अनेकांतवाद कहा करो। सत्य सापेक्ष होता है, एक सत्यांश के साथ अनेक गया। सत्यांशों को ठुकराकर सत्य को पकड़ना चाहें तो वह विश्व का विचार करने वाली परस्पर भिन्न दो मुख्य सत्यांश भी असत्य बन जाता है।' उन्होंने कहा—'दूसरों के दृष्टियां हैं—सामान्यगामिनी और विशेषगामिनी। प्रथम प्रति ही नहीं, उनके विचारों के प्रति भी अन्याय मत करो। दृष्टि प्रारंभ में विश्व में समानता देखती है, पर धीरे-धीरे स्वयं को समझने के साथ-साथ दूसरों को भी समझने का प्रयत्न करो। यही अनेकांत दृष्टि है और इसी का नाम अभेद की ओर झुकते-झुकते अंततः समस्त विश्व को एक बौद्धिक अहिंसा भी है।' ही मूल में देखती है और यह निश्चय करती है कि जो-कुछ प्रतीति का विषय है वह तत्त्व वास्तव में एक ही है। इस तरह जैनाचार्यों का मत है कि तत्त्व के स्वरूप का सम्यक् समानता की प्राथमिक भूमिका से उतरकर अंत में यह दृष्टि ज्ञान कराने के लिए ही जैन आगमों में भी प्रथमतः तात्त्विक एकता की भूमिका पर ठहर जाती है। जहां यह भेदों अनेकांतवाद की खोज की गई होगी और अनेकांतवाद के रूप में बौद्धिक अहिंसा ही प्रतिफलित हुई होगी। क्योंकि को या तो देख ही नहीं पाती या उन्हें देखकर भी वास्तविक न समझने के कारण व्यावहारिक, अपारमार्थिक कहकर अहिंसा के सिद्धांत को जब बौद्धिक क्षेत्र में भी लागू किया गया तब इस अहिंसा ने दूसरों के विचारों का आदर करने छोड़ देती है। और उनकी सहानुभूतिपूर्ण संवीक्षा (परीक्षा) करने की दूसरी दृष्टि समस्त विश्व में असमानता ही प्रेरणा दी। मानव की दृष्टि पदार्थ के विषय में भिन्न-भिन्न असमानता देखती है और धीरे-धीरे असमानता का मूल हो सकती है. क्योंकि एक ही पदार्थ के विभिन्न पहल हैं। खोजते-खोजते अंत में वह विश्लेषण की ऐसी भूमिका पर अन्य विचारों के प्रति आदरभाव रखकर ही वस्तु के पहुंच जाती है, जहां उसे एकता की तो बात ही क्या, तात्त्विक रूप को व्यावहारिक रूप में समझा जा सकता है। समानता भी कृत्रिम मालूम होती है। फलतः इस निश्चय पर HHHHHHHHHH स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 48. अनेकांत विशेष | मार्च-मई, 2002 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुंच जाती है कि यह विश्व एक-दूसरे से अत्यंत भिन्न भेदों किया था, तब 11 अगस्त, 1945 को जनरल डगलस का पुंज मात्र है। मैक्आर्थर ने कहा था-मानव चरित्र में सुधार वैज्ञानिक उपर्युक्त आलोक में अनेकांत दृष्टि का यह फलित प्रगति को नियंत्रित कर सकता है। यदि हम अपना अस्तित्व सामने आया कि प्रतीति अभेदगामिनी हो या भेदगामिनी- बचाए रखना चाहते हैं तो यही एकमात्र हमारी प्रेरणा होगी। दोनों ही वास्तविक हैं। अभेद और भेद की प्रतीतियां विरोधी डगलस ने चेतावनी देते हुए कहा थाइसलिए जान पड़ती हैं, क्योंकि उन्हें ही पूर्ण मान लिया "Our long term security is not so much a जाता है। वस्तु का पूर्ण स्वरूप तो ऐसा होना चाहिए जिससे question of comparative military hardware as it विरुद्ध दिखाई देने वाली प्रतीतियां भी स्व-स्थान पर रहकर is an evolutionary shift of mind.' उसे अविरोधी भाव से प्रकाशित कर सकें और वे सब हम चांद-सितारों की यात्रा कर सकते हैं, किंतु अभी मिलकर वस्तु का पूर्ण स्वरूप प्रकाशित करने के कारण भी हमने एक-दूसरे के साथ एवं प्रकृति के साथ सामंजस्यप्रमाण मानी जा सकें। पूर्वक रहना नहीं सीखा। हमने परस्पर आदर और जीवन के इस पष्ठभमि के साथ अनेकांत की व्यवहार्यता को प्रति सम्मान की क्षमता का विकास नहीं किया। जनरल तीन स्तरों पर परखना उचित होगा उमर ब्रेडले ने ठीक ही कहा था(1) वैज्ञानिक प्रगति एवं उत्तर आधुनिक काल की ओर “We have grasped the mystery of the atom बढ़ते मानव के लिए अंतराल-काल और सापेक्षता, and rejected the sermon on the mount. Ours is a world of nuclear giants and ethical infants.' (2) सोच की शैली में विकासात्मक परिवर्तन, अनेकांत दृष्टि के अनुसार (3) संघर्ष एवं संघर्ष निराकरण। एक ओर विज्ञान व प्रौद्योगिकी इन तीनों स्तरों पर यदि तथा दूसरी ओर समाज-इन व्यक्ति व विश्व की सोच निश्चित ही हमें परिवर्तन की दोनों को नीति ही नियंत्रित कर आवश्यकता है। अपने साथ, एकसापेक्षता की ओर बढ़ती प्रतीत सकती है। जो यह सोचते हैं कि दूसरे के साथ, राष्ट्रों के साथ और होगी तो हम यह कह सकते हैं कि प्रौद्योगिकी को बदल दें, शस्त्रों को यहां तक कि पूरे पृथ्वी ग्रह के साथ व्यक्ति और विश्व सापेक्षता की समाप्त कर दें तो सब-कुछ हमारे मूलभूत संबंधों में परिवर्तन की ओर बढ़ रहा है तथा अनेकांत आवश्यकता है। हम एक-दूसरे के बदल जाएगा, वे यह भूल जाते हैं व्यवहार्य होता जा रहा है और यदि दृष्टिकोणों की सापेक्षता एवं एक कि हमारा ज्ञान जो उनका निर्माण व्यक्ति व विश्व की सोच निरपेक्ष दूसरे के साथ रहने की सापेक्षता को करता है, वह तो हमारे साथ ही चिंतन की ओर प्रवृत्त होती लगे समझें। वैश्विक अंतर्निर्भरता के लिए रहेगा। प्रौद्योगिकी उदासीन है। तो हम यह कह सकेंगे कि वर्तमान हमारी आवश्यकता और यहां तक कि एक प्रजाति के रूप में हमारे में अनेकांत व्यवहार्य नहीं रहा है। हमारी बाध्यता को समझें तो ही। उद्विकास के दौरान प्रौद्योगिकी भविष्य की जिम्मेदारी ली जा सकती एवं चेतना में घनिष्ठ संबंध रहा वैज्ञानिक प्रगति, अंतराल-काल है। सापेक्ष सोच एवं सापेक्ष जीवन है। एक हड्डी को उठाकर अस्त्र के और सापेक्षताका यह परिवर्तन व्यक्ति से प्रारंभ रूप में उसके प्रयोग ने मनुष्य की गत पांच दशकों में हमने, होना चाहिए, क्योंकि चेतना व्यक्ति | चिंतन प्रक्रिया में अंतर ला दिया। विशेषकर पश्चिमी जगत ने में है, राष्ट्र में नहीं। हमने बहुत-से अस्त्र बनाएविस्मयकारी प्रगति की है। जिन्होंने हमारी चेतना (हमारी अमेरिका और यूरोप ने 20वीं सोच एवं दर्शन) और हमारी सदी को वैज्ञानिक उपलब्धियों की सदी सिद्ध करने में कोई संस्कृति (दूसरों एवं पर्यावरण के साथ हमारे संबंधों के कसर बाकी नहीं रखी। उपलब्धियों की चकाचौंध में हम तरीकों) में अंतर ला दिया है। इस सोच पर नियंत्रण केवल आंतरिक रहस्यों को खोजना भूल गए। द्वितीय विश्वयुद्ध की निःशस्त्रीकरण, केवल प्रौद्योगिकी परिवर्तन, केवल नीति समाप्ति पर जब जापानी सेनाओं ने औपचारिक समर्पण नहीं कर सकती, किंतु इनके समेकित रूप से ऐसा संभव है। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.49 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैज्ञानिक प्रगति एवं 21वीं सदी में प्रवेश के बावजूद बाद में आंकी जाती है। वैसे ही हमारी वर्तमान विश्वदृष्टि प्रभुत्व रखने वाली हमारी विश्वदृष्टि अभी भी 19वीं सदी कम आंकी जा रही है। विज्ञान सभी वस्तुओं के पर्यावरण के मॉडल पर आधारित है, जिसके अनुसार मनुष्य प्रकृति की व्याख्या कर चुका है, इसलिए हमारा यह मत बदल रहा से भिन्न है, प्रकृति यंत्रवत् है। प्रकृति के असीमित संसाधन है कि प्रकृति मात्र यंत्र है और मनुष्य उससे अलग है। हमारे हैं और हमारी इच्छानुसार भोग्य हैं। हम प्रकृति के 'इलेक्ट्रोनिक लिंकेज' से भौतिक दूरियां पाटी जा चुकी हैं। अंग नहीं हैं। जब हम स्वयं के तुच्छ स्वार्थों या एकांगी किंतु सचाई फिर भी यह है कि आधुनिक संस्कृति इन दृष्टि से सोचते हैं तो हम व्यापक हितों एवं अंतर्निर्भरता महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों को ग्रहण नहीं कर पा रही है। इसलिए की हमारी पहचान को नकारते हैं। अंतर्निर्भरता के इस यह एक अंतराल-काल है। अज्ञान के कारण हम स्वयं को अकेला एवं खंडित पाते है इसी के साथ परस्पर व्यवहार के सभी स्तरों पर जो हममें भय पैदा करता है—विशेषकर क्षति का भय। भय खंडित मन भी परिलक्षित होता है। इस खंडित मन ने लोभ पैदा करता है कि कुछ भी हमारे लिए पर्याप्त नहीं है मानव मानव-अंतक्रियाओं का एक प्रतिद्वंद्वी 'मॉडल' पैदा किया और लोभ दूसरों पर अधिकार की सोच पैदा करता है। क्षुद्र है-It is me against you. यूनेस्को के संविधान में यह स्वार्थ, दूसरे शब्दों में एकांगी दृष्टि यह सोच पैदा करती। लिखा गया है-At the root of our destructive है कि मैं केंद्र में हूं और दूसरे सभी मेरे हितों की पूर्ति के conflicts is this divided or warring mind. लिए हैं। हम, हमारी जाति, हमारा राष्ट्र केंद्र में हैं तथा दूसरे—यहां तक कि प्रकृति भी हमारी आवश्यकता-पूर्ति खंडित मन के साथ ही अल्पकालिक हितों, संकीर्ण का साधन है। यह निरपेक्ष मन की सोच है जो अपने समूह, मानसिकता, विभाजन की कूटनीति पर आधारित राजनीति जाति, राष्ट्र, विचारधारा को ही अंतिम सत्य मान लेती है। ह । हमें वहां नहीं जाने देती जहां हम जाना चाहते हैं। अब्राहम निरपेक्ष मन विश्व को 'हमारा' और 'उनका' में बांट देता लिकन ने कहा था-A house divided against itself है। निरपेक्ष मन केवल अपनी शर्तों पर ही सह-अस्तित्व cannot stand. राजनीतिक स्तर पर यह अवरुद्धता स्वीकार कर सकता है। उसके सभी तर्क, परंपरा, विचार. इसालए ह, क्याकि अपन निजा स्वाथा का पूति करने वाले धर्मग्रंथ केवल दूसरों को मिटाने तक सीमित हो जाते हैं। समूह राजनीतिक प्रक्रिया पर अपना आधिपत्य रखते हैं। वे यही निरपेक्ष मन जब समहगत हो जाता है तो निरंकशवादी संपूर्ण राजनीतिक प्रक्रिया की आवश्यकता को महसूस नहीं शासन में बदल जाता है, जहां समानता व न्याय को स्थान करते। ऐसे लोगों के अनुसार राजनीतिक विचार-विमर्श नहीं मिलता। विपरीत और विभाजक हैं। चुनाव के समय सभी वर्तमान सदी में हम पुराने मूल्यों और विश्वास तथा अल्पकालीन जीत के लिए लड़ते हैं। कोई भी यह नहीं नए मूल्यों और बुद्धिमत्ता के बीच जी रहे हैं। पुराने सोचता कि कैसे विभिन्न मतों वाले व्यक्ति एक 'कॉमन' दृष्टिकोणों एवं इस शताब्दी की उभरती वास्तविकताओं के (साझा) लक्ष्य के लिए एक साथ कार्य कर सकते हैं। एक महान अंतराल के बीच हम जी रहे हैं। भविष्यदर्शी ऐसे समय में हमारा लक्ष्य विभाजित मन को समेकित विलियम इरविन थोम्पसन लिखते हैं करना एवं समान लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए एक साथ कार्य 'We live in a culture that we do not see. करने के साधनों को विकसित करना होना चाहिए, जिससे we do not live in industrial civilization. we live . शाति का विकास हो सके तथा नीतियों के निर्माण में विरोध in planetization. what we see is really the past; प्रतीत होने वाले दृष्टिकोणों का समावेश हो सके। what we envision as the future is already the सोलोनी निकामाला ne सोच की शैली में विकासात्मक परिवर्तन present.' अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था-The world we अभी हम पूर्णरूपेण नहीं जानते कि क्या उभर रहा है, have made as a result of thinking we have done क्योंकि अभी भी हम औद्योगिक युग और उस काल की cafar creates problems that cannot be solved at संस्थाओं और विश्वासों के बीच जी रहे हैं जो हमारे the same level at which we created them .... we दृष्टिकोण को बनाती हैं। हर उभरता युग, पूर्व युग के shall require a substantially new manner of विश्वासों का स्थान लेता है। किंतु उसकी अनुभूति बहुत thinking if mankind is to survive. IIIIIIIIIIIII 50. अनेकांत विशेष स्वर्ण जयंती वर्ष । जैन भारती मार्च-मई, 2002 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चित ही हमें परिवर्तन की आवश्यकता है। अपने साथ, एक-दूसरे के साथ, राष्ट्रों के साथ और यहां तक कि पूरे पृथ्वी ग्रह के साथ हमारे मूलभूत संबंधों में परिवर्तन की आवश्यकता है। हम एक-दूसरे के दृष्टिकोणों की सापेक्षता एवं एक-दूसरे के साथ रहने की सापेक्षता को समझें। वैश्विक अंतर्निर्भरता के लिए हमारी आवश्यकता और यहां तक कि हमारी बाध्यता को समझें तो ही भविष्य की जिम्मेदारी ली जा सकती है। सापेक्ष सोच एवं सापेक्ष जीवन का यह परिवर्तन व्यक्ति से प्रारंभ होना चाहिए, क्योंकि चेतना व्यक्ति में है, राष्ट्र में नहीं । प्रथम परमाणु विस्फोट के समय काले घने गुबार को उठते देखकर बम के जनक रोबर्ट ओपनहीमर ने ऋग्वेद के एक वाक्य को याद करते हुए कहा था—I have become death-destroyer of the world. बाद में जब आइन्स्टीन को इस पर टिप्पणी करने के लिए कहा गया तो आइन्स्टीन ने कहा था- 'Now all men have become brothers.' दोनों दृष्टिकोण सही थे, किंतु सोच में, परिस्थिति-काल-सापेक्ष चिंतन में परिवर्तन आवश्यक था— जो आइन्स्टीन की टिप्पणी में स्पष्ट झलकता है। हेनरी फोर्ड ने लिखा है— Those who believe they can do something, and those who believe they can't, are both right. यहां हमें व्यक्ति के आत्मसंकल्प पर दृष्टिपात करना होगा हमारा ध्येय ही हमारी दिशा है और यही एक लक्ष्य प्राप्ति के लिए आवश्यक प्रक्रिया को शुरू करने का दृढ निश्चय है। इसलिए हम यह कह सकते हैं अभिप्राय ( इरादा ) - लक्ष्य + दृढ़ निश्चय हम प्रायः दूसरों के शब्दों को सुनते हैं, उस भाव या उस उद्देश्य को नहीं समझते जो उन शब्दों के पीछे है। हम हमारी संचार क्षमता या चेतनापूर्ण कार्य करने की पूर्ण क्षमता का उपयोग नहीं करते। इसीलिए अधिकांश विवाद जन्म लेते हैं। संचार के तीन चरण हो सकते हैं 1. प्रसंग (विषयवस्तु), 2. प्रक्रिया, 3 अभिप्राय । हम क्या कहते हैं या हम क्या करते हैं—यह प्रसंग (Content) है, यह हमारे शब्दों या कार्यों का शाब्दिक संदेश (Literal Message) है। हम कैसे कहते हैं या करते हैं यह प्रक्रिया है, जो अभिप्राय (Intention ) का साधन है। मार्च मई, 2002 हम क्यों कहते हैं या करते हैं—यह अभिप्राय (Intention) है। किसी शब्द या कार्य के पीछे मूल भावना, उसकी प्रेरणा और उसकी दिशा का यह द्योतक है। हम संचार के इन तीन चरणों पर ध्यान नहीं देते तथा संचार और सचेतन कार्य की हमारी क्षमता को कमजोर बना देते हैं । वस्तुतः ये तीनों एक-दूसरे से जुड़े 'गीयर' हैं। हम केवल प्रसंग देखते हैं, उसके पीछे प्रक्रिया और अभिप्राय को नहीं देखते। तीनों पर समान बल आवश्यक है, यदि हम सत्य तक पहुंचना चाहते हैं। दर्शनाचार्यों ने वस्तु के दो रूपों का वर्णन किया है— अवाच्य और वाच्य । अवाच्य का एक सूक्ष्म अंश वाच्य होता है और वाच्य का अनंतवां भाग वाणी का विषय बनता है। इसलिए केवल अभिव्यक्त सत्यांश अर्थात् विषयवस्तु को ही पूर्ण सत्य नहीं समझें। द्रष्टा आत्मा का सिद्धांत मनुष्य केवल अपने जीवन की प्रक्रिया मात्र नहीं है और न ही वह अपने शब्दों, विचारों व कृत्यों की विषयवस्तु (Content) है। मनुष्य अपने विचारों, यहां तक कि अपनी अनुभूतियों एवं विश्वासों से भी अलग है। वह द्रष्टा है, जिसे वस्तु की तरह नहीं जाना जा सकता। वह वि है, जिसे विषयी से ही जाना जा सकता है। मार्टिन बब्बर ने इसे I and thou relationship कहा है। The one you are looking for is the one who is looking अनुभूति से ही अनेकांत का रहस्य जाना जा सकता है। इस रहस्य को जानने के बाद विरोधी विचार व मन एक संपूर्ण सत्य के ही अंश लगेंगे । व्यक्ति, राष्ट्र, विचार, अच्छे-बुरे, काले सफेद के बीच हमारा अज्ञानी मन उनके मध्य की एकता को नहीं देख पाता। जो भिन्न प्रतीत होते हैं, वे भी किसी स्तर पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। जैसे ही हम अपनी सोच में विरोधी पक्षों के सह-अस्तित्व को स्वीकारते हैं, वे हमें विशाल खुले अंतरिक्ष के समान व्यापक बुद्धिमत्ता की ओर ले जाते हैं। यदि हम इसे नहीं स्वीकारते तो हम कैसे दूसरों को सुनने-समझने की हमारी क्षमता को विकसित कर सकते हैं और कैसे विभिन्न मुद्दों पर व्यापक स्तर पर सोच सकते हैं? हम जितने अधिक द्रष्टा आत्मा में केंद्रित होंगे, उतना ही अधिक हम दूसरों के मतों को अपने मत के आलोक में नहीं देखेंगे। यह प्रायः हम सबके साथ होता है कि हम जिससे असहमत हैं उसे अपने अनुरूप बदलने की कोशिश करते हैं। जब ऐसा नहीं होता तब हम उसकी स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती अनेकांत विशेष • 51 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घेराबंदी करते हैं, उसके व्यक्तित्व और उसके सम्मान पर बलात् आक्रमण करते हैं। हम शायद ही उन लोगों से सुनते है जो हमसे मूलभूत रूप से भिन्न विचार वाले हैं। खुली जांच था— Central to the आइन्स्टीन ने कहा advancement of human civilization is the spirit of open inquiry. We must not only learn to tolerate our differences, we must welcome them as the richness and diversity which can lead to true intelligence. यह कहा जाता है कि कम से कम तीन सत्य सदैव होते हैं- - आपका सत्य, मेरा सत्य और सत्य । अधिकांश वैज्ञानिक सहमत होंगे कि सत्य की व्यक्तिगत अभिव्यक्ति केवल अनुमानित ही हो सकती है। हममें से प्रत्येक का दृष्टिकोण हमारे व्यक्तिगत इतिहास, मूल्य और विश्वासों से प्रभावित होता है। जैसे कि वाल्टर लिपमान ने कहा था— 'We see through the stereotypes and the pictures in our minds," हम एक तरह से देखते हैं और दूसरे उसे भिन्न तरीके से देखते हैं और हम जैसा देखते हैं वैसे ही हम वास्तविकताओं को बना लेते हैं। खुली जांच के लिए यह आवश्यक है कि हम सापेक्ष देखना सीखें। उदाहरणार्थ पृथ्वी के एक नक्षत्र मंडल को तब से देखते रहे हैं जब से मनुष्य ने नक्षत्रों का अध्ययन शुरू किया। किंतु हम अंतरिक्षयान से यात्रा करें और किसी विशेष नक्षत्र को पृथ्वी से आधी दूरी से देखें तो अब उस नक्षत्र मंडल का आकार पहले जैसा नहीं दीखेगा, थोड़ा और नजदीक जाने पर नक्षत्र मंडल के तारे भी अदृश्य हो जाएंगे। अर्थात् जिसे हम सत्य कहते हैं, जहां हम खड़े हैं— उसके सापेक्ष है । What we say truth is relative to where we are standing. हम केवल एक ही कोण से देखते हैं, परिणामतः हमारा चिंतन संकीर्ण हो जाता है और हम उन्हीं की ओर ध्यान देते हैं जो हमसे सहमत हैं। वैविध्य के साथ अंतर्क्रियाओं का अनुभव न करके हम सचाई से स्वयं को अलग रखते हैं। यद्यपि दूसरों को सुनने या दूसरे के मत को जानने की इच्छा उससे सहमत या असहमत होना नहीं है, बल्कि सत्य की दिशा में आगे बढ़ने के लिए सूचनाएं संगृहीत करना है। 52 • अनेकांत विशेष यह विश्वास कि हमारा मार्ग ही सत्य है— हमें सुरक्षा की अनुभूति देता है। हम डरते हैं कि यदि हम एक दृष्टिकोण को ग्रहण कर रहे हैं जो हमारे अपने दृष्टिकोण से मेल नहीं खाता, वह हमें भ्रमित या विचलित कर सकता है। यहां मूलतः लगाव ( आसक्ति) की समस्या है। हम हमारी वर्तमान स्थिति के साथ हमारी मूलभूत पहचान से भ्रमित होते हैं और हम नए विचारों को सुनने तथा खुली जांच की हमारी क्षमता को सीमित कर देते हैं। यदि हम अपने सतर्क आत्म के केंद्र में होंगे तो हम अपने दृष्टिकोण पर रहते हुए दूसरे के दृष्टिकोण को सुनने में पूर्ण सक्षम होंगे। यही शांति का आधार होगा। थिच हाटहान ने लिखा है - The situation of the world is still like this. People completely identify with one side, one ideology....Reconciliation is to understand both sides...Doing only that will be a great help for peace. जब हम मतभेद देखते हैं तो हमारा झुकाव सावधान रहने की ओर हो जाता है तथा हमारी ग्रहणशीलता कम हो जाती है। हम सुरक्षात्मक प्रयासों की ओर चले जाते हैं या हम पलायन कर जाते हैं। यहां यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि भय की भूमिका खुली जांच को अवरुद्ध करती है तथा सृजनात्मक संचार को रोकती है। यदि हमें विभिन्न राजनीतिक, सांस्कृतिक, नस्लीय मतों में खुली जांच को बढ़ाना है तो हमें हमारे अंतर्संबंधों में भय के स्तर को कम करना होगा तथा विरोधियों के साथ भी संवाद करना होगा अन्यथा एक प्रजाति के रूप में हमारा अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। क्रेग शिण्डलर और से लेपिड ने लिखा है *Exploring understanding from all directions. The willingness to keep an open mind, to seek truth without prejudice, to inform ourselves from many points of views." हमारे दृष्टिकोण को व्यापक कर सकती है। यही खुली जांच ही हमारी समझ को बढ़ा सकती है, संघर्ष एवं संघर्ष निराकरण संघर्ष को प्रारंभिक काल में बुरा माना गया तथा संघर्ष से निपटने का एक मात्र तरीका हिंसा रहा है। अब यह सोच बना है कि संघर्ष अपरिहार्य है तथा हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। संघर्ष का विलोपन न तो संभव है और न स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च - मई, 2002 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वांछनीय। क्योंकि संघर्ष विकास को भी बढ़ावा देता है। या राष्ट्र मेरे साथ सहमत नहीं है तो वह बुरा है। इन बिना संघर्ष के जीवन व समाज ठहर जाएगा। इसलिए अब परिस्थितियों में तटस्थता अभिशाप बन गई है। किंतु विचार हिंसक संघर्षों के निराकरण की बात होने लगी है। अधिकांश भेद होना तो लाजिमी है, क्योंकि हम भिन्न-भिन्न संघर्षों के कारणों में सचाई यह है कि हम चीजों को भिन्न परिस्थितियों से निर्देशित होते हैं। इसलिए यह सोच गलत तरीकों से देखते हैं। हमें दो परस्पर संघर्षी विचारों के साथ है कि एक पूर्ण सही है और दूसरा पूर्ण गलत। अतएव शांति निपटना सीखना चाहिए। हमें अपने फ्रेम ऑफ रेफ्रेन्स' को की दृष्टि से अब एक नया तर्कशास्त्र चाहिए। इस दर्शन में दूसरों के दृष्टिकोणों में समाहित कर व्यापक करना चाहिए। either...or का स्थान neither... nor या 'यह भी और पाश्चात्य सभ्यता में अभी भी अधिकांश संघर्ष विषयी- 'वह भी' ले लेता है। इस प्रकार की अनैकांतिक दृष्टि जैसा विषय के द्वैतवाद के कारण हो रहे हैं। बुद्धिवाद और कि व्हाईटहैड ने लिखा है अनुभववादियों के बीच संघर्ष का मूल कारण जन्मजात An endeavour to frame a coherent logical, (inherent) और सांयोगिक (Contingent) सिद्धांत ही रहा , necessary system of general ideas in terms of है। वस्तुतः तर्क एवं बुद्धिवाद के आधुनिक युग में जगत, which every element of our experience can be समाज और मानव के संदर्भ में कोई भी चिंतन एकांगी ही रहा interpretated. सी.ई.एम. जोड ने भी लिखा है-We है। यह चिंतन या तो वस्तुनिष्ठता के आधार पर किया गया must have a synoptic view of universe. हमें विश्व या आत्मनिष्ठता के आधार पर। परिणामतः जगत, समाज व की सामंजस्यपरक तस्वीर की परिकल्पना करके चलना मानव की सभी व्याख्याएं अपूर्ण रहीं। वस्तुनिष्ठवादियों ने पडेगा। इसलिए सापेक्ष चिंतन शांति और अहिंसा की नई जहां नैतिक मापदंडों व मानवीय मूल्यों की अवहेलना की वहीं सभ्यता की विचारधारा का पोषक है। एक अमेरिकन विद्वान आत्मनिष्ठवादियों ने ठोस सामाजिक वास्तविकताओं को एवं इतिहासविद् स्टीफन हे ने अपने एक लेख 'जैन नकारा। उत्तर आधुनिकता वैविध्यता और बहुलवाद पर बल इन्फ्लुएन्स ऑन गांधी' में लिखा हैदेती है तथा यह मानती है कि वैविध्यता इतनी व्यापक है कि It has been my experience, wrote Gandhi किसी एक आधार पर कोई भी चिंतन सार्वभौमिक नहीं हो in 1076_that I am alwave tri सकता। वस्तुनिष्ठवादी संघर्ष को हितों का संघर्ष मानते हैं। ये of view, and often wrong from the point of view हित किसी विषयी पर आधारित नहीं हैं, अपितु सामाजिक of my critics. I know that we are both right from संरचना के आधार पर निर्धारित होते हैं। वस्तुनिष्ठवादी ये our respective points of view.'. मानते हैं कि शांतिकर्मी विवाद का निपटारा तो करवा सकते उन्होंने फिर गांधीजी को उद्धृत करते हुए लिखा हैं, पर दोनों पक्षों के बीच संरचनात्मक संबंध नहीं बदलते हैइसालए असमानता विद्यमान रहता हा आत्मानष्ठवादा सघषा I very much like this doctrine of the को पक्षों के लक्ष्यों में विरोध की मात्रा के रूप में देखते हैं। manynece of reality Itic this doctrine that has अतः यहां शांतिपूर्ण साधनों से निपटारा संभव है। विरोध taught me to judge a Mussulman from his stand हमारी मानसिक कल्पना है, जबकि पक्ष के साथ प्रतिपक्ष की point and a Christian from his. .....From the स्वीकृति इस जगत का सौंदर्य। platform of Jainas, I prove the non creative aspect of God, and from the Ramanuja the यहां हम अरस्तू के न्याय की भी चर्चा करें। उसका creative aspect. As a matter of fact we are all तर्कशास्त्र आकारिक, द्वैतवादी और निरपेक्ष है। यह सत्य के thinking of the unthinkable, describing the सही स्वरूप को समझने की दृष्टि से अपर्याप्त है, क्योंकि indes indescribable, seeking to know the unknown, यह सिद्धांत समानता और अविरोध पर आधारित है। इसके and that is why our speech falters, is inadequate अनुसार कोई दो मार्ग नहीं, या तो आप सही हैं या आप and been of often contradictory. गलत हैं। निश्चित ही ये उद्धरण अनेकांत की व्यवहार्यता को विश्व अनेक विरोधी खेमों में बंटा है। वहां प्रकट करने के लिए पर्याप्त हैं। either...or की विश्व राजनीति है। यदि कोई व्यक्ति, विचार MAHARASHTRA मार्च-मई, 2002 स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती अनेकांत विशेष.53 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांनात्मक स्वरूप : ज्ञानमीमांसीय संदर्भ डॉ. राजकुमारी छैन Datti जेन दार्शनिक कहते हैं कि ज्ञान निर्विकल्पक न होकर सदेव सविकल्पक ही होता है तथा उर विषय परस्पर निरपेक्ष धर्म तथा धर्मी आदि न होकर धर्मधयत्मिक वस्तु होती है, जो जेय पदार्थ अनेकांतात्मक स्वरूप का परिचायक है। एक वस्तु के वस्तुत्व के निष्पादक एक-अमेक, भेदन अभेद, सामान्य-विशेष आदि सप्रतिपक्षी धर्मयुमलों का युगपत् सद्भाव अनेकांठ कहलाता है। -सी भी वस्तु का ज्ञान उसकी विशेषताओं के होती है, जो ज्ञेय पदार्थ के अनेकांतात्मक स्वरूप का 'ज्ञान से होता है। हम हरित रंग, विशेष परिचायक है। एक वस्तु के वस्तुत्व के निष्पादक एकआकार आदि अनेक गुणों के ज्ञानपूर्वक एक द्रव्य–पत्ते को अनेक, भेद-अभेद, सामान्य-विशेष आदि सप्रतिपक्षी धर्मजानते हैं। तना, शाखाओं, पत्तों आदि अनेक अवयवों के युगलों का युगपत् सद्भाव अनेकांत कहलाता है। यह वस्तु ज्ञानपूर्वक एक अवयवी वृक्ष ज्ञात होता है। ज्ञान का यह सर्वथा सत् रूप ही है अथवा असत् रूप ही है, एक रूप ही सर्वविदित स्वरूप वस्तु के एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक है अथवा अनेक रूप ही है; नित्य ही है अथवा अनित्य ही है, स्वरूप को प्रस्तुत करता है, जो विभिन्न भारतीय दार्शनिकों इस प्रकार सर्वथा एकांत के त्याग स्वरूप है।' इससे यह के लिए गंभीर समस्या है। वे कहते हैं कि एक और अनेक, प्रतिपादित होता है कि जो तत् है वही अतत् है, जो एक है भेद और अभेद परस्पर विरोधी धर्म होने के कारण एक ही वही अनेक भी है, जो सत् है वही असत् भी है; जो नित्य है वस्तु का स्वरूप नहीं हो सकते। जो वस्तु एक है, उसके वही अनित्य भी है। इस प्रकार एक वस्तु की वस्तुरूपता के परस्पर भिन्न-भिन्न अनेक स्वरूप किस प्रकार हो सकते हैं निष्पादक सप्रतिपक्षी धर्मयुगलों का युगपत् प्रकाशन तथा जो स्वरूपतः परस्पर भिन्न-भिन्न हैं. वे एक अभिन्न अनेकांत है। वस्तु किस प्रकार हो सकते हैं ? इसलिए नैयायिक सत्ता को ज्ञान का विषय अनेकांतात्मक—एकानेकात्मक, परस्पर पृथक-पृथक धर्म और धर्मीरूप, बौद्ध उसे मात्र भेदाभेदात्मक सामान्यविशेषात्मक वस्तु होती है। हम अनेक धर्मरूप तथा अद्वैत वेदांती उसे मात्र धर्मारूप स्वीकार करते सहवर्ती गणों और क्रमवर्ती पर्यायों के ज्ञानपूर्वक एक द्रव्य हैं। इन सभी दार्शनिकों के अनुसार उनके द्वारा मान्य सत्ता को तथा अनेक अवयवों के ज्ञानपूर्वक एक अवयवी को के स्वरूप का ज्ञान इंद्रियार्थ सन्निकर्ष के प्रथम क्षण में जानते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि एक वस्तु के अनेक अथवा समाधि की अवस्था में होने वाले निर्विकल्पक गुण, पर्याय, अवयव आदि क्रमशः गुणी, पर्यायी और साक्षात्कार द्वारा होता है। यद्यपि सविकल्पक ज्ञान वस्तु को अवयवी के विभिन्न अंश हैं; धर्म हैं; स्वभाव तथा गुणी उसके अनेक धर्मों द्वारा और इसलिए एकानेकात्मक स्वरूप अपने अनेक गुण आदि में व्याप्त एक अखंड सत्ता हैं। में जानता है, लेकिन बौद्ध और अद्वैत वेदांत के अनुसार यह दूसरे शब्दों में एक द्रव्य के अनेक सहवर्ती स्वभाव ज्ञान वस्तभत न होकर अनादिकालीन अज्ञानजनित है और उसके विभिन्न गुण हैं। इन अनेक गणों में नाम, लक्षण, इसलिए इसका व्यावहारिक महत्त्व होते हुए भी परमार्थतः प्रयोजन, आदि की अपेक्षा भेद' होने पर भी सत्तापेक्षया यह ज्ञान मिथ्या है। अभेद है। उनका यह पारस्परिक तादात्म्य ही उनकी एक जैन दार्शनिक कहते हैं कि ज्ञान निर्विकल्पक न होकर द्रव्यरूपता है। तादात्म्य तत्+आत्म्य अर्थात् ये परस्पर सदैव सविकल्पक ही होता है तथा उसका विषय परस्पर एक-दूसरे की आत्मा या स्वभाव होते हुए, एक-दूसरे में निरपेक्ष धर्म तथा धर्मी आदि न होकर धर्मधात्मक वस्त अंतर्व्याप्त होते हुए एक द्रव्यरूपता को प्राप्त कर रहे हैं।' स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 54. अनेकांत विशेष । मार्च-मई, 2002 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार द्रव्य और गुण-दो भिन्न-भिन्न सत्ता न स्वरूप प्रदान कर रहा है जिसके होने पर पदार्थ को घट ही होकर संज्ञादि की अपेक्षा परस्पर भिन्न होने पर भी एक कहा जाता है। इसलिए इस विशेष गुण के ज्ञानपूर्वक द्रव्य ही सत्ता हैं। सत्तापेक्षया द्रव्य और गुण में अभेद होने के के प्रति 'घट' इस विशिष्ट बुद्धि की उत्पत्ति होती है। कुछ कारण न केवल एक द्रव्य का आत्मा या स्वभाग उसके गुणों के ज्ञानपूर्वक घट को ज्ञात कहने का अर्थ यह नहीं है समस्त गुण हैं, बल्कि एक गुण का स्वभाग भी उसका कि वह संपूर्णतः ज्ञात हो गया है। इसके विपरीत घट को आश्रयभूत संपूर्ण द्रव्य है। इस प्रकार सत्ता मात्र गुणरूप, ज्ञात अंशों से ही ज्ञात कहा जाता है तथा वह अपने अज्ञात मात्र द्रव्यरूप या परस्पर निरपेक्ष गुण, गुणीरूप न होकर धर्मों की अपेक्षा अज्ञात भी रहता है।” अवगृहीत पदार्थ के गुणगुण्यात्मक स्वरूप में अवस्थित हैं। जिस प्रकार संज्ञादि इस ज्ञाताज्ञात स्वरूप में ज्ञात होने के कारण ही उसके की अपेक्षा परस्पर भिन्न-भिन्न अनेक गुण ही परस्पर विशिष्ट स्वरूप के प्रति ईहापूर्वक आवाय, धारणारूप ज्ञान तादात्म्य संबंधपूर्वक एक द्रव्यरूपता को प्राप्त होते हैं, की उत्पत्ति होती है जो न केवल ज्ञेय पदार्थ के अनेक उसी प्रकार संज्ञा आदि की अपेक्षा भिन्न-भिन्न अनेक क्षणव्यापी एक अस्तित्व को बल्कि ज्ञान के एकानेकात्मक अवयव परस्पर संयोग संबंधपूर्वक एक-दूसरे से संबंधित स्वरूप को भी सिद्ध करती है। और प्रभावित होते हुए एक अवयवीरूपता को प्राप्त ज्ञान के प्रारंभिक चरणों में हम एकधर्मी के विभिन्न करते हैं। धर्मों को परस्पर निरपेक्ष रूप से ही जानते हैं। चक्षु, त्वचा, सत्ता के इस एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक स्वरूप के जिह्वा आदि इंद्रियों से हमें रूप, स्पर्श, रस आदि गुण कारण ज्ञान सदैव धर्मधात्मक स्वरूप लिए हुए होता है परस्पर निरपेक्ष रूप से ही ज्ञात होते हैं। इस स्तर पर हम तथा उसका विषय सदैव गुणगुण्यात्मक अवयव- यह नहीं जान पाते कि.इन गुणों में किसी प्रकार का संबंध अवयव्यात्मक, पर्यायपर्याय्यात्मक सत्ता होती है। है अथवा नहीं। इसी प्रकार शब्द प्रमाण द्वारा एक-एक प्रत्यक्ष अनुमानादि सभी प्रमाणों द्वारा एकानेकात्मक, वाक्य में वस्तु की एक-एक विशेषता को क्रमिक रूप से भेदाभेदात्मक वस्तु ही ज्ञात होती है। बौद्ध कहते हैं कि जानते हुए ही जाना जा सकता है जो हममें अनेक बार इन धर्मधर्मीभाव में युक्त सविकल्पक ज्ञान परमार्थतः सत्य न तत्त्वमीमांसीय भ्रमों को उत्पन्न कर देता है कि एक वस्तु होकर अनादि वासनाजनित मानसिक कल्पना मात्र है। की अनेक विशेषताए परस्पर निरपेक्ष है तथा वस्तु या तो प्रत्यक्ष मात्र धर्म को ही जानता है। उदाहरण के लिए उन अनेक विशेषताओं के स्वरूप पर आरोपित एक नाम चाक्षष प्रत्यक्ष द्वारा मात्र एक गण-रूप का ही प्रत्यक्ष होता मात्र या उनसे भिन्न उनका आश्रय मात्र है। यह भ्रम पदार्थ है। उस एक गुण के ज्ञानपूर्वक होने वाला रूप, रसादि के स्वरूप का नाष्क्रय आर तटस्थ रूप से ग्रहण करने पर अनेक गुणात्मक द्रव्य घट को ज्ञात कहना यथार्थ ज्ञान न ही होता है। यदि हम रुचिपूर्वक किसी पदार्थ को जानने के होकर अनादि वासनाजनित मानसिक कल्पना मात्र है। लिए प्रयत्नरत हो तो वस्तु की ज्ञात हो रही विशेषताएं यथार्थ ज्ञान का विषय एक-अनेक स्वभावी सत्ता न होकर अनेक प्रश्नों को जन्म देती हैं। उदाहरण के लिए विभिन्न मात्र एक स्वभावी सरल धर्म है। अकलंकदेव इस मत को रंगों के प्रत्यक्षपूर्वक हममें यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि प्रत्यक्ष सदैव सविकल्पक हल्के रंगों के प्रत्यक्ष से ठंडक का तथा गहरे रंगों के (विशेषण-विशेष्य भाव से युक्त) ही होता है तथा उसका प्रत्यक्ष से गर्मी का अनुभव क्यों होता है? हम यह देखते हैं विषय द्रव्यपर्यायात्मक. सामान्य-विशेषात्मक वस्त होती कि वस्तु के स्पर्शगुण में परिवर्तन उसके रंग, गंध और रस है। प्रत्यक्ष का विषय रूप, रस आदि कोई एक गण न को परिवर्तित कर देता है। जैसे एक आम को गर्म स्थान होकर गुणात्मक द्रव्य होता है। हम चाक्षुष प्रत्यक्ष द्वारा पर रखने पर वह बहुत जल्दी पक और सड़ जाता है, मात्र एक सरल गुण-रूप को न जानकर अस्तित्व. द्रव्यत्व. उसके रंग, गंधादि में बहुत तेजी से परिवर्तन होता है। प्रमेयत्व, पृथुवुध्नाकारमय रूप को जानते हैं। इन गुणों में जबकि उसे ठंडे स्थान पर रखने पर ऐसा नहीं होता। यह स्वभाव भेद होने पर भी सत्तापेक्षया अभेद होने के कारण अनुभव हमारे समक्ष यह प्रश्न उत्पन्न करता है कि पुद्गल ये एक द्रव्य हैं, इसलिए इनके ज्ञानपूर्वक एक द्रव्य को ज्ञात क स्पश-गुण आर अन्य गुणा म के स्पर्श-गुण और अन्य गुणों में क्या संबंध है। इन तथा कहा जाता है। इन गुणों में पृथुवुध्नाकार वह असाधारण एस अनक प्रश्ना के उत्तर प्राप्त कर पशवनाकार वह असाधारण ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने हेतु किए गए धर्म है जो इस सत्ता को अघट से पृथक एक ऐसा विशिष्ट प्रयत्नपूर्वक ज्ञात हो रही वस्तु की नई विशेषताएं न केवल R R RRRRRRRRRRRRRRRRE स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 जैन भारती अनेकांत विशेष.55 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु के ज्ञान में वृद्धि करती हैं, बल्कि वस्तु की पूर्व ज्ञात उपर्युक्त दोनों वाक्य सत्त्व और द्रव्यत्व में परस्पर विशेष्यविशेषताओं के ज्ञान को भी अधिक विशिष्ट और परिष्कृत विशेषण भाव को सिद्ध करते हुए 'सत्तात्मक द्रव्य' या करते हुए उसके धर्मधात्मक स्वरूप को सिद्ध करती हैं। 'द्रव्यत्वमय सत्ता' रूप विशिष्ट बुद्धि को उत्पन्न करते हैं जो प्राचीन काल में हुआ स्पर्श चिकित्सा, वर्ण रंग चिकित्सा, सत्त्व और द्रव्यत्व धर्मों के पारस्परिक तादात्म्य संबंधपूर्वक गंध चिकित्सा आदि विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों का उनकी एक धर्मीरूपता का परिचायक है। इनमें एकता होने विकास तथा वर्तमान समय में पुद्गल के क्षेत्र में दृष्टिगोचर पर भी अनेकता विद्यमान है जिसके कारण सत्त्व के ज्ञात हो रहा ज्ञान का संपूर्ण विकास ज्ञान की सक्रिय और होने पर भी द्रव्यत्व अज्ञात रहता है तथा उसे जानने के लिए अन्वेषणात्मक प्रक्रिया का परिणाम है और यह ज्ञेय पदार्थ अन्य ज्ञान की सहायता लेनी पड़ती है। द्रव्यत्वरूपता भी के एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक स्वरूप के कारण ही संभव सत्ता का पूर्ण स्वरूप नहीं होने के कारण उसके प्रति पुनः हुआ है। जिज्ञासा होती है कि यह द्रव्यत्वमयसत्ता सामान्य रूप है, जैन आचार्यों का धर्मधर्मी-आत्मक वस्त को ज्ञान का विशेष रूप है या सामान्य-विशेषात्मक। इसके उत्तर में शब्द विषय स्वीकार करने का क्या आशय है-इसे हम शब्द प्रमाण द्वारा उसका सामान्य-विशेषात्मक स्वरूप या वस्तुत्व प्रमाण के माध्यम से समझने का प्रयास करें। भाषा द्वारा गुण ज्ञात होता है। यह द्रव्यत्व-वस्तुत्वमय सत्ता प्रमेय है या एक वस्त क्रमिक रूप से एक-एक वाक्य में उसकी एक-एक नहीं, उसके परिमाण में न्यूनाधिकता संभव है या नहीं जैसे विशेषता के ज्ञानपूर्वक ज्ञात होती है। वस्त की एक विशेषता प्रश्नों के उत्तर में सत्ता के प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व आदि गुण नाम, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा अन्य विशेषताओं से ज्ञात होते हैं। मानवीय ज्ञान की यह सक्रिय और भिन्न और इस अपेक्षा से अपने-आप में परिपूर्ण होते हए अन्वेषणात्मक, दूसरे शब्दों में उपयोगात्मक प्रक्रिया अंतहीन सत्तापेक्षया अपने-आप में अपूर्ण होती है। इस अपेक्षा से है। जैसे-जैसे मानव के ज्ञान में वृद्धि होती जाती है, उसकी उसका पूर्ण स्वरूप उसका आश्रयभूत संपूर्ण द्रव्य अर्थात् द्रव्य के अन्य समस्त गुण हैं। गुण और गुणी में विद्यमान अनेक धर्मात्मकता को बल्कि उसकी अनंतधर्मात्मकता को सिद्ध करती हैं। इसलिए आचार्य विद्यानंद कहते हैं, 'जीवादि द्रव्य के एक गुण के प्रति अनेक जिज्ञासाएं उत्पन्न हो जाती धर्मी अनंत धर्मात्मक हैं अन्यथा उनमें प्रमेयत्व का होना हैं। इन जिज्ञासाओं की शांति हेतु किए गए प्रयत्न से वस्तु असभव है।" के अनेक नवीन गुणों का ज्ञान होता है, जो वस्तु के ज्ञान में उपर्युक्त अनुमान 'जीवादि धर्मी अनंत धर्मात्मक हैं, मात्र वृद्धि ही नहीं करता बल्कि वस्तु की पूर्वज्ञात क्योंकि वे प्रमेय हैं' में जीवादि धर्मी पक्ष हैं। उनके एक धर्म विशेषताओं की समझ को भी और अधिक वैशिष्ट्य और 'प्रमेयत्व' को हेतु बनाकर उनकी अनंतधर्मात्मकता को सिद्ध स्पष्टता प्रदान करता हुआ परिष्कृत करता है। आचार्य किया जा रहा है। प्रश्न उठता है कि वह प्रमेयत्व हेतु स्वयं उमास्वामी कहते हैं 'सत् होना द्रव्य का लक्षण है। 10 'सत्' प्रमेय (ज्ञेय) है अथवा नहीं? यदि यह स्वयं अज्ञात हो तो का अर्थ है 'है', 'सद्भाव', अस्तित्वरूपता तथा इस धर्म का उसके द्वारा कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता। यदि यह स्वयं प्रयोजन है धर्मी को सत् स्वरूपता प्रदान करना, उसके प्रमेय है तो यह स्वयं अनंतधर्मात्मक है, अथवा नहीं है। यदि सद्भाव या होने का ज्ञान कराना। इसलिए उपर्युक्त वाक्य नहीं है तो यह हेतु व्यभिचार दोष से ग्रस्त होगा, क्योंकि 'सत् होना द्रव्य का लक्षण है' से यह ज्ञान होता है कि 'द्रव्य प्रमेयत्व हेतु स्वयं एक स्वभावी होने पर भी ज्ञात हो रहा है है' या जो भी है उसे द्रव्य कहा जाता है। इस लक्षण और और इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जो भी प्रमेय है प्रयोजन की अपेक्षा अस्तित्व गुण के अपने-आप में परिपूर्ण वह अनंत धर्मात्मक है। यदि प्रमेयत्व हेतु की होने पर भी सत्तापेक्षया वह अपने-आप में अपूर्ण है और अनंतधर्मात्मकता स्वीकार की जाए तो अभी तक किसी भी इसलिए इसके प्रति यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि सत् वस्तु की अनंत धर्मात्मकता सिद्ध नहीं हो पाने के कारण यह होने का अर्थ क्या है? जो है वह मात्र एक क्षणस्थाई है, साध्यसम हेत्वाभास हो जाएगा तथा इसके द्वारा कुछ भी शाश्वत है या परिणामी नित्य? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य सिद्ध नहीं हो पाएगा। फिर एक धर्म को भी अनंतधर्मात्मक कहते हैं, 'जो सत् है वह उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त है।'' स्वीकार करने पर उन धर्मों के भी अनंतधर्म और उन धर्मों उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तता को द्रव्यत्व गुण कहा जाता है। में भी प्रत्येक धर्म के अनंतधर्म....स्वीकार करने पड़ेंगे। इस स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 56. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार एक धर्म को अनंतधर्मात्मक स्वीकार करने पर प्रमेयत्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदि समस्त गुणों का विशिष्ट अनवस्था दोष आता है। स्वरूप उनका आश्रयभूत संपूर्ण द्रव्य है। एक द्रव्य के समस्त गुणों के परस्पर एक-दूसरे का स्वरूप होते हुए एक द्रव्यरूपता को प्राप्त होने तथा संपूर्ण द्रव्य के एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक स्वरूपमय होने के कारण एक द्रव्य के प्रत्येक गुण का विशेषण उस द्रव्य के अन्य समस्त गुण होते हैं। इसलिए एक द्रव्य के कुछ गुणों का ज्ञान उस द्रव्य का ही नहीं उसके ज्ञात गुणों का भी आंशिक ज्ञान है। जब द्रव्य का कोई नवीन गुण ज्ञात होता है तो वह द्रव्य के ज्ञान में ही वृद्धि नहीं करता, बल्कि द्रव्य के पूर्ण ज्ञात गुणों का भी विशेषण होता हुआ, उनके ज्ञान को अधिक समृद्ध और परिष्कृत करता हुआ भेदाभेदात्मक रूप से ज्ञात होता है। 3 उपर्युक्त आपत्तियों का उत्तर देते हुए आचार्य विद्यानंद कहते हैं कि इस अनुमान में व्यभिचार दोष नहीं है, क्योंकि कोई भी धर्म सदैव धर्म ही नहीं रहता। सत्त्वादि कोई भी धर्म अपने धर्मी की अपेक्षा ही धर्म होता है तथा अपने अन्य धर्मों की अपेक्षा वह स्वयं अनंत धर्मात्मक धर्मी भी होता है। ऐसा मानने पर अनवस्था दोष भी नहीं आता, क्योंकि एक वस्तु के विभिन्न धर्मों में धर्म-धर्मी भाव अभव्य के संसार के समान अथवा एक घूमते हुए वलय के पूर्वापर भाग के समान अनादि, अनंत तथा अनवस्थित हैं।'' जिस प्रकार एक अभव्य के संसार का न तो आदि है न अंत अथवा जिस प्रकार एक घूमते हुए वलय का एक भाग सामने आने पर पूर्व भाग, तथा वही भाग पीछे चले जाने पर अपर भाग हो जाता है उसी प्रकार एक वस्तु के समस्त धर्मों में परस्पर धर्म धर्मी भाव अनवस्थित और अनादि अनंत है। उसकी किसी भी विशेषता को विशेष्य बनाए जाने पर अन्य सभी विशेषताएं उसका विशेषण हो जाती हैं। वस्तुतः सत्त्व, द्रव्यत्व आदि सत्, द्रव्य आदि व्यक्तियों से भिन्न पदार्थ न होकर उनका सामान्य रूप से शाश्वत और अनिवार्य स्वरूप होने के कारण द्रव्य मात्र के सामान्य गुण हैं ये गुण सभी द्रव्यों में पूर्णरूपेण समान न होकर अपने आश्रय के भेद के अनुसार भिन्न-भिन्न स्वरूप से युक्त होते हैं। उदाहरण के लिए आत्मा का अस्तित्व गुण उसे जड़ व चेतन सभी द्रव्यों में समान रूप से विद्यमान सत् स्वरूपता प्रदान न करके विशिष्ट प्रकार की सत् स्वरूपता प्रदान करता है। वह उसे द्रव्यत्व, वस्तुत्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्यादि स्वरूप में अस्तित्ववान बनाता है। यदि इनमें से एक भी गुण का अभाव हो तो आत्मा का सद्भाव भी नहीं रहेगा। जैसे, यदि आत्मा में वीर्य गुण नहीं हो तो उसमें सक्रियता और इसलिए जानने-देखने हेतु प्रयत्नपूर्वक व्यापाररूप उपयोगात्मकता का अभाव हो जाएगा। ऐसी स्थिति में जब ज्ञान, दर्शन ही नहीं रहेंगे तो परिणामी नित्यता रूप द्रव्यत्व, सामान्यविशेषात्मकता रूप वस्तुत्व किसका होगा ? इस प्रकार आत्मा का अस्तित्व गुण अन्य द्रव्यों से भिन्न एक विशिष्ट प्रकार का अस्तित्व है। उसके अस्तित्व गुण का विशिष्ट स्वरूप संपूर्ण आत्मा अर्थात् आत्मा के समस्त गुण हैं। इसी प्रकार द्रव्यत्व, वस्तुत्व, मार्च - मई, 2002 हमें एक समय में प्रत्यक्ष द्वारा एक द्रव्य के जितने भी गुण ज्ञात होते हैं वे परस्पर गुणगुणी - आत्मक स्वरूप में ही ज्ञात होते हैं, लेकिन भाषा के प्रयोगपूर्वक होने वाले ज्ञान में गुण को गुणी से पृथक करके जाना जाता है। यह ज्ञान स्याद्वाद नय-संस्कृत रूप से होने पर ही यथार्थ होता है । स्याद्वाद प्रमाणात्मक" या सकलादेशी" होता है। उसके द्वारा सामान्य रूप से वस्तु के अनेकांतात्मक स्वरूप का ज्ञान होता है । वस्तु का स्याद्वाद द्वारा प्रविभक्त या विशेषित (स्याद्वाद द्वारा सामान्य रूप से वस्तु के एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक स्वरूप के निश्चयपूर्वक होने वाला) वस्तु के एक धर्म का ज्ञान नय कहलाता है। 17 अथवा प्रमाण द्वारा प्रकाशित वस्तु के विशेष अंश का प्ररूपक ज्ञाता का अभिप्राय नय है।" वस्तु की एक विशेषता का अपना निश्चित विशिष्ट स्वरूप होता है, लेकिन उस रूप में उसका अस्तित्व संपूर्ण वस्तु पर अर्थात् वस्तु की अन्य सभी विशेषताओं पर आश्रित होता है। वह अपने आप में स्वतंत्र तत्त्व न होकर अनेक धर्मात्मक एकधर्मी में रहते हुए तथा उसके विशिष्ट स्वरूप के अनुसार विशिष्ट स्वरूप प्राप्त करती है। उसे जानने वाले नय ज्ञान की प्रवृत्ति प्रमाण ज्ञान द्वारा सामान्य रूप से संपूर्ण वस्तु को जानने के उपरांत ही होती है। इसलिए 'जो भी ज्ञेय है वह अनंतधर्मात्मक है', इस व्याप्ति में व्यभिचार दोष का निराकरण करते हुए अंत में आचार्य विद्यानंद कहते हैं कि जीवादि धर्मी से अलग किया गया प्रमेयत्व हेतु नय ज्ञान का विषय है और नय ज्ञान के प्रमाणांश होने के कारण इस ज्ञान के विषय के रूप में वह स्वयं प्रमेय या अप्रमेय न होकर प्रमेयांश है। अतः नय ज्ञान के रूप में वह स्वयं की अनंतधर्मात्मकता को सिद्ध न करके स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती अनेकांत विशेष • 57 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवादि धर्मी की अनंत धर्मात्मकता को ही सिद्ध करता है । लेकिन यही प्रमेयत्व प्रमाण ज्ञान के विषय के रूप में जीवादि धर्मी की ही नहीं स्वयं की अनंतधर्मात्मकता को भी सिद्ध करता है। 19 बौद्ध और अद्वैत वेदांत मत : बौद्ध उपर्युक्त विवेचन को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि एक धर्मी में अनेक धर्मरूप भेद मात्र शाब्दिक और बुद्धिजनित होने के कारण अयथार्थ हैं। वस्तु पूर्णतया एकस्वभावी ही होती है तथा वह प्रत्यक्ष द्वारा संपूर्णतः ही ज्ञात होती है। उस प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात वस्तु के प्रति किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न हो जाने पर उसमें भेद का आरोप करके उसका सत्, अनित्य, कृतक आदि अनेक रूपों में निश्चय किया जाता है। इस निश्चय का उद्देश्य वस्तु की वास्तविक अनेक स्वभावता का प्रतिपादन न होकर उसे विजातीय वस्तुओं से पृथक् करना है। शब्द विशेषण पदार्थ को अशब्द से, अनित्य नित्य से और कृतक उसे अकृतक से पृथक् करता है। 20 इस प्रकार सविकल्प ज्ञान वस्तु के प्रति मात्र निषेधात्मक बुद्धि 'यह वह नहीं है' को उत्पन्न कर उसके प्रति भ्रम को तो समाप्त कर सकता है लेकिन उसमें वस्तु के स्वरूप का बोध कराने की सामर्थ्य नहीं है । वस्तु के स्वरूप का यथार्थबोध तो इंद्रियार्थ सन्निकर्ष के प्रथम क्षण में और योगियों को समाधि की अवस्था में होने वाले निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा ही होता है । बौद्धों के समान ही अद्वैत वेदांती भी कहते हैं कि सत्ता पूर्णतया अखंड और एकस्वभावी ही होती है । सविकल्पक ज्ञान उस अखंड सत्ता में धर्मधर्मी भेद का आरोप करके उसे अनेक रूपों में जानता है तथा उसमें इन भेदों से परे सत्ता के अखंड स्वरूप को ग्रहण करने की सामर्थ्य नहीं है। इसलिए यह ज्ञान मिथ्या है। इसका महत्त्व इतना ही है कि इसमें सत्ता के प्रति स्वरूपबोध की सामर्थ्य का अभाव होने पर भी उसके प्रति अस्वरूप की निवृत्ति की सामर्थ्य है। वह वस्तु के प्रति 'नेति', 'नेति' अर्थात् वस्तु यह नहीं है, यह नहीं है रूप से उसके प्रति अज्ञान को समाप्त कर देता है। इसके पश्चात् ही सत्ता के यथार्थ स्वरूप की साक्षात्कारात्मक निर्विकल्पक ज्ञान स्वरूप समाधि की अवस्था की प्राप्ति संभव है । 21 इस प्रकार बौद्ध और अद्वैत वेदांत—दोनों के अनुसार ही विशेषण विशेष्य भाव से युक्त सविकल्पक ज्ञान वस्तु के प्रति अज्ञान की निवृत्ति रूप निषेधात्मक कार्य ही करता है तथा उसमें वस्तु के स्वरूपबोध की सामर्थ्य नहीं है। वस्तु के अखंड स्वरूप का 58 • अनेकांत विशेष ज्ञान तो समाधि की अवस्था में होने वाले निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा ही संभव है। जैन मत : जैन वार्शनिक भी बौद्ध और अद्वैत वेदांत के इस मत से सहमत हैं कि सत्ता पूर्णतया एकस्वभावी ही होती है। आत्मा संपूर्णतः एकस्वभावी सत्ता ज्ञानस्वभावी सत्ता है तथा वह ज्ञान के अतिरिक्त कुछ नहीं है। ध्यान का विषय स्वयं का ऐसा शुद्ध ज्ञायक स्वरूप ही होता है। कुंदकुंदाचार्य जीव के सर्वभेदरहित शुद्ध ज्ञायक स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं, 'जो यह ज्ञायक भाव है वह न तो प्रमत्त है न अप्रमत्त है, बल्कि वह शुद्ध ज्ञायक भाव स्वरूप ही है । व्यवहार नय से ज्ञानी के चारित्र हैं, दर्शन हैं, ज्ञान हैं, लेकिन निश्चय नय से ज्ञानी के न तो चारित्र हैं, न दर्शन हैं, न ज्ञान हैं बल्कि वह शुद्ध ज्ञायक भावरूप ही हैं।" ये पद यह प्रतिपादित करते हैं कि चैतन्य आत्मा पूर्णतया एकस्वभावी ज्ञानस्वभावी तत्त्व हैं, लेकिन यह ज्ञानस्वभावी तत्त्व शुद्ध निर्विशेष एकस्वभावी तत्त्व न होकर विशिष्ट प्रकार की सत्ता है तथा उसके विशिष्ट स्वरूप के नियामक उसके अनंत धर्म हैं जो ज्ञान और भाषा में अलग किए जा सकने योग्य होने पर भी तत्त्वतः अपृथक हैं। इसलिए उपयुक्त पदों के टीकाकार अमृतचंद्र कहते हैं कि उस ज्ञायक भाव का अनुभव करने वाले प्रत्यगात्मा अनंत धर्मात्मक तत्त्व को देखते हैं। 23 निश्चय नय से जिसने इस अनंतधर्मात्मक एकधर्मी को नहीं जाना, ऐसे शिष्यों को भाषा द्वारा धर्म को धर्मी से पृथक करते हुए व्यवहार से उपदेश दिया जाता है कि ज्ञानी के दर्शन हैं, ज्ञान हैं, चारित्र हैं, लेकिन परमार्थ से देखा जाए तो एक द्रव्य द्वारा पीए गए अनंत धर्म रूपों के किंचित मिले हुए अभेद स्वभाव वस्तु को अनुभव करने वाले पंडित पुरुषों की दृष्टि में दर्शन भी नहीं, ज्ञान भी नहीं, चारित्र भी नहीं शुद्ध एक ज्ञायक भाव ही है। 24 आत्मा एकस्वभावी ज्ञानस्वभावी तत्त्व ही है, लेकिन उसकी यह एकस्वभावता उसकी सत्त्व, द्रव्यत्व, वस्तुत्व, दर्शन, वीर्यादि वास्तविक अनेक स्वभावता के सद्भाव में ही संभव है। ये सभी स्वभाव ज्ञान के विशेषण होने तथा संज्ञा, लक्षण, प्रयोजनादि की अपेक्षा परस्पर भिन्न-भिन्न होने पर भी सत्तापेक्षया तादात्म्य संबंध से युक्त होने के कारण एकज्ञान ही हैं (इसी प्रकार आत्मा संपूर्णतः एकस्वभावी दर्शनस्वभावी या वीर्यस्वभावी आदि स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च मई, 2002 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी है) इन अनेक स्वभाव के एक ज्ञानस्वभावी सत्ता होने पर भी इनकी स्वभावगत अनेकता वास्तविक है तथा इनमें से किसी भी गुण के सद्भाव अभाव में संपूर्ण सत्ता का स्वरूप बदल जाता है। उदाहरण के लिए ज्ञान वीर्यात्मक अर्थात् सक्रियता से युक्त होने पर सदैव उपयोगात्मक अर्थात् सदैव किसी न किसी पदार्थ को जानने-देखने हेतु प्रवृत्तिपूर्वक सविषयक चेतना है, ऐसी स्थिति में वह ज्ञान सामान्य रूप से सदैव वही रहते हुए एक विशेष ज्ञान पर्यायरूप से नष्ट होता हुआ तथा अन्य विशेष ज्ञान पर्याय- रूप से उत्पन्न होता हुआ सदैव उत्पादव्ययध्रौव्यस्वरूप या द्रव्य है। प्रवृत्तिपूर्वक अपनी विशेष ज्ञान पर्याय का निर्माण करने के स्वभाव से युक्त होने के कारण वह कर्तृत्व से युक्त है। इस प्रकार ज्ञान के वीर्यात्मक होने पर वह उपयोगमय, परिणामीनित्य, सामान्य विशेषात्मक, कर्ता, सविषयक चेतनामय आत्मा है। लेकिन यदि ज्ञान वीर्यरहित हो तो फिर वह निष्क्रिय होने के कारण अकर्ता, कूटस्थ नित्य, पूर्णतया सामान्यरूप, साक्षीभावमय निर्विषयक चेतना होगा। यदि ऐसी चेतना सार्वभौमिक और आनंदमय हो तो वह अद्वैत वेदांत द्वारा स्वीकृत ब्रह्म और यदि वैयक्तिक और आनंदरहित हो तो सांख्य दर्शन द्वारा स्वीकृत पुरुष होगा। ज्ञानमय तत्त्व के इन अनेक स्वभावमय विशिष्ट स्वरूपों को बौद्धिक कल्पनाजनित शब्द मात्र नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इन्हें वास्तविक स्वीकार करके ही विभिन्न दार्शनिक अन्य दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत सत्ता के स्वरूप का निषेध और स्वयं द्वारा मान्य स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं। साथ ही इसके विशेष प्रकार के स्वरूप की स्वीकृति चेतना के वर्तमान स्वरूप और उसके चरम लक्ष्य को भी प्रभावित करती है। एक उपयोगात्मक चेतना का आराधक ज्ञानार्जन के प्रति सदैव उत्साही होता है जबकि साक्षीभावरूप चेतना का आराधक उसके प्रति उदासीन हो जाता है। प्रथम का आदर्श सर्वज्ञता तथा द्वितीय का चरम लक्ष्य निर्विषयक चेतना होती है । इस प्रकार एक सत्ता शुद्ध निर्विशेष सत्ता मात्र न होकर विशिष्ट प्रकार की सत्ता है तथा उसके वैशिष्ट्य के नियामक सत्तापेक्षया परस्पर पृथक् अनेक वास्तविक स्वभाव हैं। अकलंकदेव ज्ञेय पदार्थ के पदार्थ के एकानेकात्मक, एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक स्वरूप के कारण ज्ञान के धर्मधर्म्यात्मक सविकल्पक स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि ज्ञान का आकार सदैव वस्तु का सही स्वरूप है, अन्य नहीं, मार्च मई, 2002 रूप सविकल्पक ज्ञानरूप ही होता है। यदि ऐसा न मानकर सत्ता को पूर्णतया एकस्वभावी और निरंश ही स्वीकार किया जाए तथा यह कहा जाए कि समाधि की अवस्था निर्विकल्पक ज्ञानस्वरूप है, इस अवस्था में शुद्ध निर्विशेष रूप सत्ता ज्ञात होती है और यदि यही ज्ञान यथार्थ है तो इस अवस्था को प्राप्त कर चुके बुद्ध, शंकर आदि सभी दार्शनिक तत्त्वदर्शी होने चाहिएं और उनके मध्य विद्यमान सभी विवाद समाप्त हो जाने चाहिएं। साथ ही किसी भी प्रकार की विशेषताओं से रहित स्व-संवेदनात्मक सत्ता के वचनातीत होने के कारण उन्हें मौन धारण कर लेना चाहिए। लेकिन इसके विपरीत ये दोनों ही सत्ता के विशिष्ट स्वरूप को स्वीकार करते हुए एक-दूसरे के मत का खंडन करते हैं। 25 बुद्ध इस स्व-संवेदनात्मक सत्ता के नित्यत्व, सर्वव्यापकत्व आदि के खंडनपूर्वक उसके वैयक्तिक, क्षणिक और विशिष्ट स्वरूप का तथा शंकर उसकी अनित्यता आदि के खंडनपूर्वक उसकी नित्यता आदि विशेषताओं से परिपूर्ण स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं। उनका यह कार्य यह सिद्ध करता है कि समाधि की अवस्था शुद्ध निर्विशेष पूर्णतया एकस्वभावी स्व-संवेदनरूप नहीं है, बल्कि इस अवस्था में विशिष्ट स्वरूप संपन्न स्वसंवेदन का बोध हुआ है जो समाधि की अवस्था को धर्मधर्म्यात्मक सविकल्पक ज्ञानरूप सिद्ध करता है । वादिराज मुनिराज कहते हैं कि वस्तुतः आत्मस्वरूप की भावनामय सविकल्पक ज्ञान के चरम प्रकर्षरूप समाधि की अवस्था सविकल्पक ज्ञानरूप ही होती है, निर्विकल्पक नहीं हो सकती। " एक मुमुक्षु व्यक्ति श्रवण, मनन और निविध्यासन की प्रक्रिया द्वारा समाधि की अवस्था को प्राप्त करता है। गुरु के वचनों द्वारा आत्मस्वरूप की जानकारी प्राप्त कर व्यक्ति उसका निरंतर मनन करता है। बार-बार के मननपूर्वक व्यक्ति की तदनुरूप अनुभूति निरंतर अधिक गहन होती जाती है, जिसके परिणामस्वरूप अंत में इसके चरम प्रकर्ष रूप समाधि की अवस्था प्राप्त होती है। एक बौद्ध निरंतर अपने क्षणिक, वैयक्तिक, पूर्णतया विशिष्ट, विज्ञानमय एकानेकात्मक भेदाभेदात्मक स्वरूप का मनन करता है। इस स्वरूप की बार बार भावना से उसकी स्वयं के अन्य सबसे पूर्णतया पृथक प्रतिक्षण परिवर्तनशील चैतन्य स्वरूप की अनुभूति निरंतर अधिक गहरी होती जाती है और अंत में इस स्वरूप की शब्द-रहित तथा गहन अनुभूति रूप समाधि की अवस्था प्राप्त होती है इसी प्रकार एक वेदांती गुरूपदेशपूर्वक स्वयं के ब्रह्मस्वरूप को स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती अनेकांत विशेष • 59 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानकर निरंतर यह मनन करता है कि मैं ब्रह्म हूं। इसके निश्चित रूप से एक अवयवी अपने अवयवों के अतिरिक्त फलस्वरूप उसे स्वयं के सार्वभौमिक, कूटस्थनित्य, साक्षी- कुछ नहीं है। लेकिन वह अपने अवयवों का समूह मात्र न रूप सच्चिदानंदस्वरूप की क्रमशः अधिक गहन अनुभूति होकर उनमें व्याप्त एक अखंड सत्ता है। संयोग संबंध से होते हुए अंत में इस अनुभूति के चरम प्रकर्ष-रूप समाधि संबंधित अनेक अवयव परस्पर एक-दूसरे से संबंधित और की अवस्था प्राप्त होती है। इस प्रकार समाधि की अवस्था प्रभावित होकर एक अवयवीरूपता को प्राप्त करते हैं। इस शुद्ध निर्विशेष स्व-संवेदन मात्र न होकर विशिष्ट प्रकार की अवस्था में वे एक ऐसे विशिष्ट स्वरूप को प्राप्त करते हैं स्वानुभूति है जो इस अवस्था में ज्ञात हो रहे तत्त्व के जिसका उनमें अन्यथा अभाव होता है। उदाहरण के लिए एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक स्वरूप को सिद्ध करती है। विभिन्न तंतुओं में ओढ़ने-बिछाने रूप कार्य को करने की श्रवण, मनन, निदिध्यासन की प्रक्रियापूर्वक समाधि की सामर्थ्य का अभाव होता है, लेकिन वे ही तंतु जब परस्पर अवस्था की प्राप्ति न केवल एक सत्ता के अनेक गुणात्मक आतान-वितान रूप से संयुक्त होकर एक वस्त्ररूप विशिष्ट स्वरूप को बल्कि उसके अनेक क्रमभावी विशेष पर्यायों में स्वरूप को प्राप्त करते हैं तो उनमें यह नवीन सामर्थ्य उत्पन्न व्याप्त एक अस्तित्व को भी सिद्ध करती है। हो जाता है। इस प्रकार वस्त्र के अनेक तंतुओं के समूह पर जिस प्रकार हमें अनेक गुणों के ज्ञानपूर्वक एक द्रव्य आरोपित एक नाम मात्र न होकर एक वास्तविक सत्ता होने के का और द्रव्य के ज्ञानपूर्वक उसके एक गुण के विशिष्ट कारण विशिष्ट रूप से संयुक्त अनेक तंतुओं के ज्ञानपूर्वक स्वरूप का ज्ञान होता है। उसी प्रकार हम अनेक अवयवों के होने वाला एक वस्त्र का ज्ञान यथार्थ ज्ञान है। ज्ञानपूर्वक एक अवयवी को जानते हैं तथा जैसे-जैसे अवयवी एक ज्ञेय पदार्थ के अवयय-अवयव्यात्मक स्वरूप को की समझ में वृद्धि होती जाती है, वैसे-वैसे उसके अवयवों स्पष्टतः समझने के लिए हम शरीर के दृष्टांत पर विचार की समझ भी अधिक विकसित और परिष्कृत होती जाती है, करें। हाथ, पैर, सिर, हृदय आदि अनेक अंग एक विशेष जो एक स्थूल वस्तु के अवयव अवयव्यात्मक स्वरूप को प्रकार से संयुक्त होकर एक जटिल संगठन–शरीररूपता सिद्ध करती है। बौद्ध कहते हैं कि अनेक अवयव ही को प्राप्त करते हैं। इस संगठन के सभी अंगों का अपनावास्तविक और स्वतंत्र सत्ताएं हैं। उन अनेक अवयवों का एक अपना निश्चित और विशिष्ट स्वरूप होता है, अपनी-अपनी अवयवीरूप में होने वाला ज्ञान अनादि वासनाजनित शक्तियां और उपयोगिताएं होती हैं. लेकिन ये अपने इस मानसिक कल्पना मात्र होने के कारण मिथ्या है। जिस प्रकार विशिष्ट स्वरूप को शरीर के एक अंग के रूप में ही अर्थात दूर से देखने पर विरल केशों में घनाकारता का भ्रामक शरीर के अन्य अंगों से संबंधित और प्रभावित होकर ही प्रतिभास होता है उसी प्रकार हम परस्पर स्वतंत्र अनेक प्राप्त करते हैं तथा शरीर से अलग हो जाने पर इनका इन परमाणुओं में निकटता और सादृश्य के कारण एकत्व का विशिष्ट स्वरूपों में अस्तित्व समाप्त हो जाता है। उदाहरण आरोप करके उन्हें एक अवयवी-घट, वस्त्र आदि रूप में के लिए हाथ का अपना एक निश्चित आकार होता है। वह पहचानते हैं। वस्तुतः घट, वस्त्र आदि स्थल पदार्थ वस्तुओं को उठाने, रखने आदि कार्यों को करने की क्षमता वास्तविक पदार्थ न होकर अनेक परमाणुओं के समूह पर से युक्त होता है, उसमें सजीवता, रक्त का संचार आदि आरोपित एक नाम मात्र हैं और इसलिए इन्हें जानने वाला विशेषताएं होती हैं। लेकिन हाथ अपने इस विशिष्ट स्वरूप ज्ञान मिथ्या है। वादिराज मनिराज बौद्धों के इस मत की में अस्तित्व शरीर के अंग के रूप में ही रखता है तथा शरीर आलोचना करते हए कहते हैं कि बौद्ध स्थल वस्त के खंडन से पृथक हो जाने पर उसका इस विशिष्ट स्वरूप से के लिए प्रस्तुत किए गए अनमान में विरल केशों में भ्रामक अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इस प्रकार हाथ, पैर आदि घनाकारता का दृष्टांत देते हैं। केशों में घनाकारता का ज्ञान विभिन्न अंगों के शरीर के एक अंग के रूप में ही एक तभी भ्रामक हो सकता है, जबकि उनकी विरलता का ज्ञान विशिष्ट स्वरूप में अवस्थित होने के कारण इन अंगों के यथार्थ हो तथा उनकी विरलता का ज्ञान तभी यथार्थ हो ज्ञानपूर्वक शरीर ही आंशिक रूप से ज्ञात होता है तथा शरीर सकता है जब विरलता के अधिष्ठान केशों का ज्ञान यथार्थ हो के समस्त अंगों के ज्ञात होने पर ही शरीर संपूर्णतः ज्ञात जो स्वयं स्थूल वस्तु रूप हैं। यदि केश ज्ञान यथार्थ हैं तो कहलाता है। स्थूल वस्तु का खंडन नहीं किया जा सकता। यदि वह मिथ्या क्योंकि एक अवयव अपने विशिष्ट स्वरूप को है तो उसके द्वारा कुछ भी सिद्ध नहीं किया जा सकता।27 अवयवी के एक अंग के रूप में ही, अर्थात् संपूर्ण अवयवों से :: :::: :: :: स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 60. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबंधित और प्रभावित होकर ही प्राप्त करता है, इसलिए न सदैव किसी विशेष स्वरूप में अभिव्यक्त होकर ही विद्यमान केवल अवयवों के ज्ञान में वृद्धि के साथ ही साथ अवयवी के होता है तथा वह अनंतावर्ती क्षण में सामान्य रूप से वही ज्ञान में वृद्धि होती जाती है, बल्कि अवयवी के ज्ञान में हो रहते हुए पूर्ववर्ती विशेष स्वरूप से नष्ट होकर उत्तरवर्ती रहा विकास उसके विभिन्न अवयवों के ज्ञान को भी अधिक विशेष स्वरूप को प्राप्त करता है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु परिष्कृत और समृद्ध करता है। अवयवी के प्रति अब तक प्रतिसमय उत्पादव्ययध्रौव्य स्वरूप है। एक वस्तु का अनेक अर्जित जानकारी अनेक नई जिज्ञासाओं को जन्म देती है, शक्ति-संपन्न, सामान्य और ध्रुव स्वरूप उसकी द्रव्यजिनके समाधान हेतु किए गए प्रयत्नपूर्वक अर्जित नवीन रूपता है तथा इस ध्रुव स्वरूप की समय-विशेष में विद्यमान विशेषताओं का ज्ञान संपूर्ण अवयवी के ज्ञान को अधिक उत्पत्ति-विनाशवान विशिष्ट अभिव्यक्ति उसकी स्पष्टता प्रदान करता है। जैसे शरीर के हाथ, पैर विभिन्न पर्यायरूपता है। अतः प्रत्येक वस्तु सदैव द्रव्यपर्यायात्मक, अवयवों का निर्माण एक निश्चित व्यवस्था के अनुसार ही सामान्य-विशेषात्मक होती है। क्यों होता है, विभिन्न व्यक्तियों के रंग, स्वभाव आदि में . . प्रत्यक्ष, अनुमानादि समस्त प्रमाणों से हमें अतर क्यो पाया जाता है, दुनिया में कोई भी दो व्यक्ति द्रव्यपर्यायात्मक वस्त ही ज्ञात होती है। जैसे प्रत्यक्ष द्वारा पूर्णतया समान क्यों नहीं होते, आदि प्रश्नों के समाधानार्थ हमें कुंडलीयमान सर्प ज्ञात होता है। वही सर्प पुनः पुनः खोजे गए शरीर के अवयव-जींस न केवल शरीर के संबंध में प्रत्यक्ष का विषय बनने पर उत्फण, विफण, प्रसारणादि हमारी जानकारी में वृद्धि करते हैं बल्कि ये शरीर और परस्पर विलक्षण और उत्पत्ति-विनाशवान क्रमवर्ती पर्यायउसके अवयवों के संबंध में हमारे पूर्वार्जित ज्ञान को अधिक रूप से अवस्थित एक अन्वयी व्य-सर्परूप में जात होता स्पष्टता और वैशिष्ट्य भी प्रदान करते हैं। यह ज्ञेय पदार्थ है।30 हम देखते हैं कि जो रूपरसगंधस्पर्शमय आम. प्रारंभ के अवयव-अवयव्यात्मक स्वरूप को सिद्ध करता है। में हरित रंग, खद्रे स्वाद आदि रूप कच्चे आम स्वरूप होता इंद्रिय प्रत्यक्ष द्वारा एक स्थूल वस्तु अवयव- है; कुछ दिन पश्चात् वही आम पककर पीले रंग, मीठे स्वाद अवयव्यात्मक स्वरूप में ही ज्ञात होती है, लेकिन जब हम स्वरूप हो जाता है; और एक-दो दिन पश्चात् वह आम सड़ उसे भाषा से समझना चाहते हैं तो यह अवयव और जाता है, उसका पीला रंग काले रंग में तथा मीठा स्वाद अवयवी को परस्पर अलग करके एक-एक वाक्य में अवयवी , कड़वे स्वाद में रूपांतरित हो जाता है। इस प्रकार अनेक के एक-एक अवयव के पृथक्-पृथक् और क्रमिक वर्णनपूर्वक क्रमवर्ती प्रत्यक्षोंपूर्वक होने वाला एक वस्तु का 'कच्चा ही संभव हो पाता है। भाषा का यह स्वरूप हममें अनेक बार आम', 'पका हुआ आम', 'सड़ा हुआ आम' रूप ज्ञान न यह भ्रम पैदा कर देता है कि एक अवयवी अनेक अवयवों का केवल उस वस्तु की अनेक विलक्षण पर्यायरूपता को सिद्ध समूह मात्र है अथवा यह कि अवयव आदि धर्म स्वतंत्र तथा करता है, बल्कि इन प्रत्यक्षोंपूर्वक होने वाला 'यह वही आम परस्पर निरपेक्ष सत्ताएं हैं तथा अवयवी आदि धर्मी उनसे है' रूप एकत्व प्रत्यभिज्ञान उन पर्यायों की एक अन्वयी भिन्न सत्ता हैं। इसलिए जैन आचार्यों के अनुसार भाषा द्वारा द्रव्यरूपता को भी सिद्ध करता है। ति तथा यथावस्थित स्वरूप में जानने के लिए प्रत्यक्षादि प्रमाणों से उस आम जैसे अनेक आमों के वर्णित विषय को स्याद्वादनय संस्कृत रूप में ग्रहण करना पनः-पनः ज्ञान से हमें उनके परिवर्तनशील-स्थाई, आवश्यक है। सामान्य-विशेषात्मक स्वरूप का ही ज्ञान नहीं होता, बल्कि ज्ञान का विषयभूत पदार्थ युगपत् विद्यमान अनेक इसके द्वारा हम यह भी जानते हैं कि एक वस्तु का अनेक गुणों और अवयवों में व्याप्त एक सत्ता ही नहीं है, बल्कि पर्यायों रूप से परिणमन निश्चित कारणात्मक नियमों के वह अनेक क्रमवर्ती पर्यायों में व्याप्त एक द्रव्य भी है। उसके अनुसार होता है तथा आंतरिक-बाह्य कारणों की भिन्नता के अनेक सहवर्ती गुण और अवयव उसका ऐसा अनिवार्य, अनुसार वस्तु में घटित होने वाली परिवर्तन की प्रक्रिया का सामान्य और ध्रुव स्वरूप है जिसमें अनेक विशेष रूपों में स्वरूप भिन्न होता है। जैसे अनेक अन्वय व्यतिरेकी परिणमित होने की सामर्थ्य तथा आंतरिक-बाह्य कारणों के दृष्टांतों के प्रत्यक्षपूर्वक हमें यह ज्ञान होता है कि यदि आम सद्भावानुसार सदैव किसी विशेष स्वरूप को प्राप्त करने को घास में रखकर पकाया जाता है तो वह पेड़ पर की प्रकृत्ति विद्यमान है। अपनी इस सामर्थ्य और प्रवृत्ति के स्वाभाविक रूप से पकने की अपेक्षा शीघ्रता से पकता है, कारण वस्तु का अनेक अवयव, गुणात्मक सामान्य स्वरूप यदि उसे रसायनों से पकाया जाए तो यह प्रक्रिया बहुत तीव्र स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 जैन भारती अनेकांत विशेष.61 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जाती है, यदि उसे फ्रिज में रख दिया जाए तो यह प्रक्रिया के कारण सदैव विशेष पर्याय-स्वरूप होकर ही अस्तित्व अत्यंत मंद हो जाती है...। इस प्रकार प्रत्यक्षादि प्रमाणों रखता है तथा पर्यायरहित द्रव्य की सत्ता कभी नहीं होती। द्वारा एक वस्तु के अनेक अन्वयव्यतिरेकी दृष्टांतों के दूसरे शब्दों में एक द्रव्य का वर्तमानकालीन व्यक्त अस्तित्व ज्ञानपूर्वक होने वाले कारण-कार्य संबंधों के ज्ञान के परिणाम ही पर्याय है। यह वर्तमानकालीन व्यक्ति या पर्याय ही संपूर्ण स्वरूप द्रव्य के शक्ति-व्यक्तिमय द्रव्य-पर्यायात्मक स्वरूप द्रव्य है, क्योंकि द्रव्य के समस्त गुण अपनी संपूर्ण का ज्ञान निरंतर अधिक स्पष्ट और परिष्कृत होता जाता है। संभावनाओं के साथ उस द्रव्य का स्वरूप हैं। इसलिए द्रव्य बौद्ध कहते हैं कि द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु का ज्ञान के गुणात्मक स्वरूप के ज्ञान में जितनी वृद्धि होती जाती है, यथार्थ न होकर अनादि वासनाजनित भ्रम मात्र है। प्रत्येक उसके द्रव्य-पर्यायात्मक स्वरूप का ज्ञान भी उतना ही वस्तु मात्र एक क्षण स्थाई होती है तथा प्रत्यक्ष द्वारा सामने वैशिष्ट्य प्राप्त करता जाता है। सूई को 'बारीक सूई' रूप स्थित वर्तमानकालीन सत्ता को ही विषय बनाए जा सकने के विशिष्ट स्वरूप में जानने पर उसकी कपड़ा सिलने रूप कारण यह क्षणिक सत्ता ही प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात होती है। अनेक अर्थक्रिया सामर्थ्य का ज्ञान भी विशिष्टता प्राप्त कर सकता क्रमवर्ती प्रत्यक्षों द्वारा ज्ञात हो रहे अनेक क्षणिक पदार्थों में है। व्यक्ति को परवर्ती अनुभवों द्वारा यह बोध हो सकता है विद्यमान सादृश्य के कारण हमारा मन उन पर एकत्व का कि इस बारीक सूई से पतले कपड़े की सिलाई की जा आरोपण कर देता है, जिसके परिणामस्वरूप हमें उन क्षणिक सकती है, बारीक कशीदा निकाला जा सकता है। लेकिन तत्त्वों की एक द्रव्यरूपता का भ्रम होता है। इसलिए सत्ता के इससे मोटा कपड़ा सिला जा सकना संभव नहीं है, इस द्रव्य-पर्यायात्मक स्वरूप का ज्ञान मिथ्या है। बारीक सूई से पैर में चुभी हुई सींक को निकाला जा सकता जैन दार्शनिक उपर्युक्त आपत्ति को अस्वीकार करते है, लेकिन यदि यह स्वयं पैर में चुभ गई तो रक्त के साथ हुए कहते हैं कि निश्चित रूप से प्रत्यक्ष का विषय संचार करते हुए व्यक्ति की मृत्यु का कारण भी बन सकती वर्तमानकालीन सत्ता ही होती है। भूत, भविष्यकालीन पर्यायें है। सूई की लौहरूपता, पुद्गल द्रव्यरूपता आदि युगपत् प्रत्यक्ष का विषय नहीं होतीं। लेकिन यह वर्तमानकालीन विद्यमान विशेषताओं के ज्ञान में जितनी-जितनी वृद्धि होती पदार्थ अपनी पूर्वापर पर्यायों से पूर्णरूपेण असंबद्ध, स्वतंत्र है व्यक्ति के उस पर्याय के द्रवणशील स्वभावमय द्रव्यात्मक क्षणिक पर्याय मात्र ही नहीं है, बल्कि वह युगपत् और स्वरूप के ज्ञान में भी उतनी ही वृद्धि होने की संभावना क्रमिक रूप से अनेक कार्यों के संपादन की सामर्थ्य से उत्पन्न हो जाता है। परिपूर्ण तथा उत्तरवर्ती पर्यायरूप से परिणमन की प्रवृत्तिमय किसी भी वस्तु को जानने का अर्थ सामान्य रूप से द्रव्य भी है। उसके इस वर्तमान पर्याय विशिष्ट द्रव्यरूपता उस वस्तु के समस्त गुणों को जान लेना मात्र नहीं है, बल्कि के कारण हम प्रत्यक्ष द्वारा उसके वर्तमानकालीन व्यक्त उसके लिए यह जानना भी आवश्यक है कि इन गुणों की स्वरूप को जानने के उपरांत उसकी अर्थक्रियासामर्थ्य का किन-किन परिस्थितियों में क्या-क्या अवस्थाएं होती हैं। अनुमान कर उसके द्वारा कार्य करने में प्रवृत्त होते हैं तथा इसलिए शास्त्रों में आत्मा के स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए अभीष्ट प्रयोजन की सिद्धि कर सफलता प्राप्त करते हैं। आत्मा के गुण-अस्तित्व, वस्तुत्व-ज्ञान, दर्शन, सुख-वीर्य उदाहरण के लिए किसी वस्तु का 'यह सूई है' रूप से आदि का सामान्य रूप से ही वर्णन नहीं किया गया, बल्कि प्रत्यक्ष होते समय हम उसके ऐसे विशिष्ट स्वरूप को जानते यह भी बताया गया है कि आत्मा के इन अनेक गुणात्मक हैं जिसमें धागा पिरोकर उससे सिलाई की जा सकती है, . सामान्य स्वरूपों का किन-किन परिस्थितियों में किन-किन इस विशिष्ट स्वरूप के ज्ञानपूर्वक ही हम उसकी अर्थक्रिया विशेष स्वरूपों में परिणमन होता है। आत्मा के इस द्रव्यसामर्थ्य का अनुमान करके कपड़ा सिलने की क्रिया में प्रवृत्त पर्यायात्मक स्वरूप के ज्ञानपूर्वक ही व्यक्ति अनिष्ट गतियों होते हैं और सफलता प्राप्त करते हैं। एक ही वस्तु का रूप से परिगमित होने से बचकर अपने अभीष्ट स्वरूप प्रत्यक्ष, अनुमानादि प्रमाणों से पुनः-पुनः ज्ञान तथा उसके मुक्तावस्था को प्राप्त कर सकता है। अनुसार काय करन हतु प्रवृत्ति उस वस्तु क द्रव्य- उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रत्येक वस्तु पर्यायात्मक होने पर ही संभव है। अनेकांतात्मक-एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक, सामान्यएक द्रव्य अपनी अनंत संभावनाओं से परिपूर्ण तथा विशेषात्मक, नित्यानित्यात्मक सत्ता है। जगत में विद्यमान निरंतर नई पर्याय रूप से परिणमन की प्रवृत्तिमय तत्त्व होने प्रत्येक जड़-चेतन पदार्थ अनेक सहवर्ती गुणों और अनंत स्वर्ण जयंती वर्ष 62. अनेकांत विशेष जैन भारती मार्च-मई, 2002 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभावनाओं से परिपूर्ण परिणमनशील द्रव्य है तथा उसकी 6. अभेदभेदात्मक अर्थतत्त्व तव स्वतन्त्रान्तान्यतरत् खपुष्पम् । विभिन्न संभावनाओं की अभिव्यक्ति निश्चित कारणात्मक युक्त्यानुशासन-7 पूर्वार्द्ध कारणकार्यद्रव्ययोगुणगुणिनोः नियमों के अनुसार घटित होने वाली परिवर्तन की प्रक्रिया कर्मतद्वतो सामान्यतद्वतो विशेषतद्वतोश्च पदार्थान्तरतया द्वारा होती है। सत्ता के इस शक्ति-व्यक्तिमय स्वतन्त्रयो सकृदप्यप्रतीयमानत्वात् सर्वदा अवयवायव्यात्मनो गुणगण्यात्मनः कर्मतद्वदात्मनः सामान्यविशेषात्मनश्च द्रव्यगुणपर्यायात्मक स्वरूप के ज्ञानपूर्वक ही समस्त लोक अर्थतत्वस्य जात्यन्तरस्य प्रत्यशादितः सर्वस्य व्यवहार तथा आध्यात्मिक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ निर्वाधगवभासमात्। संभव है। आज विज्ञान द्वारा पुद्गल द्रव्य में अंतर्निहित —युक्त्यानुशासन टीका; पृ. 22 असीम संभावनाओं को पहचानने तथा उन संभावनाओं की 7. न्यायविनिश्चय 1/3 अभिव्यक्ति की प्रक्रिया को समझकर प्रकृति पर नियंत्रण 8. तत्त्वार्थवार्तिक भाग-1 पृ. 18 2 स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। प्राचीन काल में 9. न्यायविनिश्चय, 1/5 भारतीय मनीषियों ने आत्मा के अनंत शक्तिसंपन्न 10. सत्द्रव्यलक्षणम्, तत्त्वार्थसूत्र 5/29 परिणमनशील स्वरूप को समझने हेतु गहन अनुसंधान कार्य 11. उत्पाव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। तत्त्वार्थ सूत्र 5/30 किया है। उन्होंने न केवल विभिन्न जीवों के ज्ञानादि गुणों की 12. आलाप पद्धति, सूत्र-95 अभिव्यक्ति में घटित हो रही उत्थान-पतन की प्रक्रिया की धर्मी तावत् अनन्तधर्मा जीवादिः, प्रमेयत्वाव्यथानुपपत्ते। व्याख्या हेतु कर्मसिद्धांत का विस्तृत विवेचन किया है, —अष्टसहस्री, पृष्ठ 152 बल्कि उन्होंने इस सत्य का भी प्रतिपादन किया है कि जिस । - 13. अष्टसहस्री, पृष्ठ-152 आत्मा में शक्तिरूप से अनंत दर्शन ज्ञान सुख-वीर्य 14. अष्टसहस्री, पृष्ठ 159 15. सिद्धिविनिश्चय-10/3 विद्यमान है वह वर्तमान समय में अपने-आप को शक्तिहीन, 16. लघीयस्त्रय-62 अज्ञानी और दुखी क्यों महसूस कर रहा है ? साथ ही वह 17. अष्टसहस्री-पृष्ठ 290 अपने इस वर्तमानकालीन व्यक्त स्वरूप का परित्याग कर 18. तत्त्वार्थवार्तिक—पृष्ठ 94 अपने में शक्तिरूप से विद्यमान परमात्मस्वरूप को किस 19. अष्टसहस्री, पृष्ठ 15 प्रकार प्राप्त कर सकता है? ज्ञानार्जन की यह प्रक्रिया तथा 20. प्रमाण वार्तिक, मनोरथ नन्दि वृत्ति, 3/41 इसके फलस्वरूप लौकिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार के 21. Encyclopedia of Indian Philosophy. Vol. III लक्ष्यों की सिद्धि हेतु किया जाने वाला पुरुषार्थ-दोनों ही 22. समयसार : गाथा 6-7 कार्य सत्ता के अनेकांतात्मक स्वरूप को सिद्ध करते हैं। संदर्भ : -समयसार, कलश-2 पूर्वार्द्ध 1. सदसन्नित्यानित्यादिसर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः। 24. समयसार गाथा : 7 पर अमृतचन्द्राचार्य कृत टीका -अष्टश. अष्टस. पृ. 286 25. अयमेवं न वेत्येनमविचारितगोचरः ।।163 || 2. यदेव तत् तदेव अतत्, यदेवैकं तदेवानेकम्, यदेव सत् जायेरन् संविदात्मानः सर्वेषामविशेषतः। तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यम्, इत्येकवस्तुवस्तुत्व न्यायविनिश्चय, 1/63 उत्तरार्द्ध 64 पूर्वार्द्ध निष्पादक परस्परविरुद्धशक्तिद्वय-प्रकाशनमनेकान्तः। 26. न्यायविनिश्चय विवरण; भाग-1; पृष्ठ-22 -समयसार (आत्मख्याति) स्याद्वाद अधिकार 27. प्रमाणवार्तिकालंकार 2/223 3. गुणगुण्यादि संज्ञादि भेदात् भेदस्वभावः। 28. न्याय कुमुदचन्द्रः भाग-1, पृष्ठ-227 -आलाप पद्धति, सूत्र-112 29. प्रत्यक्षप्रतिसंवेद्यः कुण्डलादिषु सर्पवत्। 4. स्वद्रव्यचटुष्ठमापेक्षया, गुणाः परस्पर स्वभावाः भवन्ति। न्यायविनिश्चय 1/120 पूर्वार्द्ध द्रव्याण्यपि भवन्ति। 30. न्यायविनिश्चय विवरण; भाग-13; पृष्ठ-445 वही, सूत्र-119 31. भेदज्ञानात-प्रतीयेते प्रादुर्भावात्ययौ यदि। वही, सूत्र-120 अभेदज्ञानतः सिद्धा स्थितिरंशेन केनचित्। 5. तेसु गुणपज्जयाणं अप्पा दव्वति उवदेसो। न्यायविनिश्चय 1/118 -प्रवचनसार, गाथा-87, उत्तरार्द्ध स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 जैन भारती - अनेकांत विशेष.63 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांत : सत्य के खोज की व्यावहारिक पद्धति प्रो. सागरमल जैन अनेकांतवाद का मूल प्रयोजन मत्य को उसके विभिन्न आयामों में देखने, समझने और समझाने का प्रयत्न है। यही कारण है कि मानवीय प्रज्ञा के विकास के प्रथम चरण से ही ऐसे प्रयास परिलक्षित होने लगते हैं। भारतीय मनीषा के प्रारंभिक काल में हमें इस दिशा में दो प्रकार के प्रयत्न दृष्टिमत होते हैं—(क) बहुआयामी सत्ता के किमी पक्ष-विशेष की स्वीकृति के आधार पर अपनी दार्शनिक मान्यता का प्रस्तुतीकरण तथा (ख) उन एकपक्षीय (रेकॉटिक) अवधारणाओं के समन्वय का प्रयास। समन्वयसूत्र का सृजन ही अनेकांतवाद की व्यावहारिक उपादेयता को स्पष्ट करता है। वस्तुतः अनेकांतवाद का कार्य विविध है--प्रथम, यह विभिन्न ऐकांतिक अवधारणाओं के गुण-दोषों की तार्किक समीक्षा करता है। दूसरे, वह उस समीक्षा में यह देखता है कि इस अवधारणा में जो सत्यांश है वह किस अपेक्षा से है। तीसरे, वह उन सापेक्षिक सत्यांशों के आधार पर, उन एकांतवादों को समन्वित करता है। अनेकांतवाद एक दार्शनिक सिद्धांत होने की अपेक्षा दार्शनिक मंतव्यों, मान्यताओं और स्थापनाओं को उनके सम्यक् परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करने की पद्धति (Method) विशेष है। इस प्रकार अनेकांतवाद का मूल प्रयोजन सत्य को उसके विभिन्न आयामों में देखने, समझने और समझाने का प्रयास करना है। अतः वह सत्य की खोज की एक व्यावहारिक पद्धति है, जो सत्ता (Reality) को उसके विविध आयामों में देखने का प्रयत्न करती है। दार्शनिक विधियां दो प्रकार की होती हैं— 1. तार्किक या बौद्धिक और 2. आनुभविक । तार्किक विधि सैद्धांतिक होती है, वह दार्शनिक स्थापनाओं में तार्किक संगति को देखती है। इसके विपरीत आनुभविक विधि सत्य की खोज तर्क के स्थान पर मानवीय अनुभूतियों के सहारे करती है। उसके लिए तार्किक संगति की अपेक्षा आनुभविक संगति ही अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। अनेकांतवाद की विकास-यात्रा इसी आनुभविक पद्धति के सहारे चलती है । उसका लक्ष्य 'सत्य' क्या है, यह बताने की अपेक्षा सत्य कैसा अनुभूत होता है—यह बताना है। अनुभूतियां वैयक्तिक होती हैं और इसीलिए अनुभूतियों के आधार पर निर्मित दर्शन भी विविध होते हैं। अनेकांत का कार्य उन सभी दर्शनों की सापेक्षिक सत्यता को उजागर करके उनमें रहे हुए विरोधों को समाप्त करना है। इस प्रकार अनेकांत एक सिद्धांत होने की अपेक्षा एक 64 • अनेकांत विशेष व्यावहारिक पद्धति ही अधिक है। यही कारण है कि अनेकांतवाद की एक दार्शनिक सिद्धांत के रूप में स्थापना करने वाले आचार्य सिद्धसेन दिवाकर (ई. चतुर्थ शती) को भी अनेकांतवाद की इस व्यावहारिक महत्ता के आगे नतमस्तक होकर कहना पड़ा जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ । तस्स भुवणेक्क गुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ।। सन्मति तर्क-प्रकरण- 3170 सर्वथा संभव नहीं है, उस संसार के एकमात्र गुरु अर्थात् जिसके बिना लोक व्यवहार का निर्वहन भी अनेकांतवाद को नमस्कार है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेकांतवाद एक व्यावहारिक दर्शन है। इसकी महत्ता उसकी व्यावहारिक उपयोगिता पर निर्भर है। उसका जन्म दार्शनिक विवादों के सृजन के लिए नहीं, अपितु उनके निराकरण के लिए हुआ है । दार्शनिक विवादों के बीच समन्वय के सूत्र खोजना ही अनेकांतवाद की व्यावहारिक उपादेयता का प्रमाण है। अनेकांतवाद का यह कार्य त्रिविध है— 1. प्रत्येक दार्शनिक अवधारणा के गुण-दोषों की समीक्षा करना और इस समीक्षा में यह देखने का प्रयत्न करना कि उसकी हमारे व्यावहारिक जीवन में क्या उपयोगिता है। जैसे बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद और स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च - मई, 2002 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनात्मवाद की समीक्षा करते हुए यह देखना कि तृष्णा के रहस्योद्घाटन के लिए प्रयत्नशील थे। इन जिज्ञासु चिंतकों उच्छेद के लिए क्षणिकवाद और अनात्मवाद की दार्शनिक के सामने अनेक समस्याएं थीं, जैसे इस दृश्यमान विश्व अवधारणाएं कितनी आवश्यक एवं उपयोगी हैं। की उत्पत्ति कैसे हुई, इसका मूल कारण क्या है? वह मूल 2. प्रत्येक दार्शनिक अवधारणा की सापेक्षिक सत्यता का कारण या परम तत्त्व जड़ है या चेतन? पुनः यह जगत सत् को स्वीकार करना और यह निश्चित करना कि उसमें जो से उत्पन्न हुआ है या असत् से? यदि यह संसार सत् से सत्यांश है, वह किस अपेक्षा-विशेष से है। जैसे यह बताना उत्पन्न हुआ तो वह सत् या मूल तत्त्व एक है या अनेक। कि सत्ता की नित्यता की अवधारणा द्रव्य की अपेक्षा से यदि वह एक है तो वह पुरुष (ब्रह्म) है या पुरुषेतर (जड़ अर्थात् द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सत्य है और सत्ता की तर तत्त्व) है, यदि पुरुषेतर है तो वह जल, वायु, अग्नि, आकाश अनित्यता उसकी पर्याय की अपेक्षा से औचित्यपूर्ण है। इस आदि में से क्या है? पुनः यदि वह अनेक है तो वे अनेक प्रकार वह प्रत्येक दर्शन की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार तत्त्व कौन-से हैं ? पुनः यदि यह संसार सृष्ट है तो वह स्रष्टा कौन है? उसने जगत की सृष्टि क्यों की और किससे की? करता है और वह सापेक्षिक सत्यता किस अपेक्षा से है, उसे इसके विपरीत यदि यह असृष्ट है तो क्या अनादि है? पुनः भी स्पष्ट करता है। यदि यह अनादि है तो इसमें होने वाले उत्पाद, व्ययरूपी 3. अनेकांतवाद का तीसरा महत्त्वपूर्ण उपयोगी कार्य परिवर्तनों की क्या व्याख्या है, आदि। इस प्रकार के अनेक विभिन्न ऐकांतिक प्रश्न मानव-मस्तिष्क में उठ मान्यताओं को समन्वय के रहे थे। चिंतकों ने अपने सूत्र में पिरोकर उनके एकांत सच्चा अनेकांतवादी किसी दर्शन से द्वेष नहीं चिंतन एवं अनुभव के बल रूपी दोष का निराकरण करता। वह संपूर्ण दृष्टिकोणों (दर्शनों) को इस पर इनके अनेक प्रकार से करते हुए उनके पारस्परिक प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है जैसे कोई उत्तरों दिए। चिंतकों या विद्वेष का निराकरण कर पिता अपने पुत्र को, क्योंकि अनेकांतवादी की दार्शनिकों के इन विविध उनमें सौहार्द और सौमनस्य न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती। सच्चा शास्त्रज्ञ उत्तर या समाधानों का स्थापित कर देना है। जिस कहे जाने का अधिकारी तो वही है, जो स्याद्वाद का आलंबन लेकर संपूर्ण दर्शनों में समान भाव कारण दोहरा था, एक ओर प्रकार एक वैद्य किसी विषरखता है। वास्तव में माध्यस्थ भाव ही शास्त्रों वस्तु तत्त्व या सत्ता की विशेष के दोषों की शुद्धि का गूढ़ रहस्य है। माध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्र बहुआयामिता और दूसरी करके उसे ओषधि बना देता के पद का ज्ञान भी सफल है अन्यथा करोड़ों ओर मानवीय बुद्धि, ऐंद्रिक है उसी प्रकार अनेकांतवाद शास्त्रों का ज्ञान भी वृथा है। क्योंकि जहां आग्रह अनुभूति एवं अभिव्यक्तिभी दर्शनों अथवा मान्यताओं बुद्धि होती है वहां विपक्ष में निहित सत्य का सामर्थ्य की सीमितता। के एकांतरूपी विष का दर्शन संभव नहीं होता। वस्तुतः शाश्वतवाद, फलतः प्रत्येक चिंतक या निराकरण करके उन्हें एक- उच्छेदवाद, नित्यवाद, अनित्यवाद, भेदवाद, दार्शनिक ने सत्ता को अलगदूसरे का सहयोगी बना देता अभेदवाद, द्वैतवाद, हेतुवाद, नियतिवाद, अलग रूप में व्याख्यायित है। अनेकांतवाद के उक्त पुरुषार्थवाद आदि जितने भी दार्शनिक मत किया। तीनों ही कार्य (Functions) मतांतर हैं, वे सभी परम सत्ता के विभिन्न अनेकांतवाद का मूल उसकी व्यावहारिक पहलुओं से लिए गए चित्र हैं और आपेक्षिक रूप से सत्य हैं। द्रव्य दृष्टि और पर्याय दृष्टि के प्रयोजन सत्य को उसके उपादेयता को स्पष्ट कर आधार पर इन विरोधी सिद्धांतों में समन्वय विभिन्न आयामों में देखने, देते हैं। किया जा सकता है। अतः एक सच्चा स्याद्वादी समझने और समझाने का दर्शन का जन्म किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता है, वह सभी प्रयत्न है। यही कारण है कि मानवीय जिज्ञासा से होता दर्शनों का आराधक होता है। मानवीय प्रज्ञा के विकास के है। ईसा पूर्व छठी शती में L प्रथम चरण से ही ऐसे प्रयास मनुष्य की यह जिज्ञासा परिलक्षित होने लगते हैं। पर्याप्त रूप से प्रौढ़ हो चुकी थी। अनेक विचारक विश्व के भारतीय मनीषा के प्रारंभिक काल में हमें इस दिशा में दो SENSE - I HATEL स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 | । अनेकांत विशेष.65 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार के प्रयत्न दृष्टिगत होते हैं—(क) बहुआयामी सत्ता या जागना, तो उन्होंने कहा कि पापियों का सोना व धार्मिकों के किसी पक्ष विशेष की स्वीकृति के आधार पर अपनी का जागना अच्छा है। जैन दार्शनिकों में इस अनेकांत दृष्टि दार्शनिक मान्यता का प्रस्तुतीकरण तथा (ख) उन एकपक्षीय का व्यावहारिक प्रयोग सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर ने किया। (ऐकांतिक) अवधारणाओं के समन्वय का प्रयास। उन्होंने उद्घोष किया कि संसार के एकमात्र गुरु उस समन्वयसूत्र का सृजन ही अनेकांतवाद की व्यावहारिक अनेकांतवाद को नमस्कार है जिसके बिना संसार का उपादेयता को स्पष्ट करता है। वस्तुतः अनेकांतवाद का व्यवहार ही असंभव है। परमतत्त्व या परमार्थ की बात बहुत कार्य त्रिविध है—प्रथम, यह विभिन्न ऐकांतिक की जा सकती है, किंतु वह मनुष्य जो इस संसार में रहता है अवधारणाओं के गुण-दोषों की तार्किक समीक्षा करता है। उसके लिए परमार्थ सत्य की बात करना उतनी सार्थक नहीं दूसरे, वह उस समीक्षा में यह देखता है कि इस अवधारणा है जितनी व्यवहार जगत की, और व्यवहार का क्षेत्र एक में जो सत्यांश है वह किस अपेक्षा से है। तीसरे, वह उन ऐसा क्षेत्र है जहां अनेकांत दृष्टि के बिना काम नहीं चलता सापेक्षिक सत्यांशों के आधार पर, उन एकांतवादों को है। परिवार में एक ही स्त्री को कोई पत्नी कहता है, कोई समन्वित करता है। पुत्रवधू कहता है, कोई मां कहता है तो कोई दादी, कोई बहन कहता है तो कोई चाची, नानी आदि नामों से पुकारता है। इस प्रकार अनेकांतवाद मात्र तार्किक पद्धति न होकर एक व्यक्ति के संदर्भ में विभिन्न पारिवारिक संबंधों की इस एक व्यावहारिक दार्शनिक पद्धति है। यह एक सिद्धांत मात्र संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। आर्थिक क्षेत्र न होकर, सत्य को देखने और समझने की पद्धति में भी अनेक ऐसे प्रश्न हैं जो किसी एक तात्त्विक एकांतवादी (Method or system)-विशेष है, और यही उसकी अवधारणा के आधार पर नहीं सलझाए जा सकते हैं। व्यावहारिक उपादेयता है। उदाहरण के रूप में यदि हम अनेकांतवाद का व्यावहारिक पक्ष एकांतरूप से व्यक्ति को अनेकांत का व्यावहारिक अनेकांत विचार दृष्टि विभिन्न धर्म परिवर्तनशील मानते हैं तो यह कहा जीवन में क्या मूल्य और महत्त्व है, संप्रदायों की समाप्ति द्वारा एकता जा सकता है कि एक सीमा तक इसका यदि ऐतिहासिक दृष्टि से का प्रयास नहीं करती है। क्योंकि उनमें निहित सत्यों को देखने का अध्ययन करें तो हमें सर्वप्रथम वैयक्तिक रुचि-भेद एवं क्षमता-भेद प्रयत्न किया गया है। तथा देशकालगत भिन्नताओं के उसका उपयोग विवाद परांग्मुखता दार्शनिक विचारों के समन्वय का होते हुए विभिन्न धर्मों एवं संप्रदायों के साथ-साथ पर-पक्ष की की उपस्थिति अपरिहार्य है। एक आधार अनेकांतवाद अनावश्यक आलोचना व स्व-पक्ष धर्म या एक संप्रदाय का नारा भगवान महावीर और बुद्ध की अतिरेक प्रशंसा से बचना है। असंगत एवं अव्यावहारिक ही नहीं, के समय भारत में वैचारिक संघर्ष इस प्रकार का निर्देश हमें सर्वप्रथम अपितु अशांति और संघर्ष का और दार्शनिक विवाद अपनी चरम सूत्रकृतांग (1/1/2/23) में कारण भी है। अनेकांत विभिन्न सीमा पर थे। जैन आगमों के मिलता है। जहां यह कहा गया है धर्म-संप्रदायों की समाप्ति का अनुसार उस समय 3 63 और कि जो अपने पक्ष की प्रशंसा और प्रयास न होकर उन्हें एक व्यापक बौद्ध आगमों के अनुसार 62 पर-पक्ष की निंदा में रत हैं, वे पूर्णता में सुसंगत रूप से संयोजित दार्शनिक मत प्रचलित थे। दूसरों के प्रति द्वेष-वृत्ति का विकास करने का प्रयास हो सकता है। वैचारिक आग्रह और मतांधता के करते हैं, परिणामस्वरूप संसार में लेकिन इसके लिए प्राथमिक उस युग में एक ऐसे दृष्टिकोण की भ्रमण करते हैं। साथ ही महावीर आवश्यकता है धार्मिक सहिष्णुता आवश्यकता थी, जो लोगों को और सर्वधर्म समभाव की। चाहते थे कि इस अनेकांत शैली के आग्रह एवं मतांधता से ऊपर माध्यम से कथ्य के सम्यक् रूप से उठकर सही दिशा-निर्देश दे सके। स्पष्टीकरण हो और इस तरह का भगवान बुद्ध ने इस आग्रह एवं प्रयास उन्होंने भगवतीसूत्र में अनैकांतिक उत्तरों के माध्यम मतांधता से ऊपर उठने के लिए विवाद परांग्मुखता को से किया है। जैसे जब उनसे पूछा गया कि सोना अच्छा है अपनाया। सुत्तनिपात में वे कहते हैं, 'मैं विवाद के दो फल मा स्वर्ण जयंती वर्षH RE 66. अनेकांत विशेष जैन भारती मार्च-मई, 2002 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बताता हूं। एक तो वह अपूर्ण व एकांगी होता है और दूसरे नौकरी मिलेगी, वह उनसे पृथक् होगा। इस प्रकार व्यवहार कलह एवं अशांति का कारण होता है। अतः निर्वाण को के क्षेत्र में असंगतियां होंगी, यदि इसके विरुद्ध हम यह निर्विवाद भूमि समझने वाला साधक विवाद में न पड़े माने कि व्यक्तित्व में परिवर्तन ही नहीं होता तो उसके (सुत्तनिपात 51-21) | बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित सभी प्रशिक्षण की व्यवस्था निरर्थक कहलाएगी। इस प्रकार पर-विरोधी दार्शनिक दृष्टिकोणों को सदोष बताया और इस अनेकांत दृष्टि का मूल आधार व्यवहार की समस्याओं का प्रकार अपने को किसी भी दार्शनिक मान्यता के साथ नहीं निराकरण करना है। प्राचीन आगमों में इसका उपयोग बांधा। वे कहते हैं कि पंडित किसी दृष्टि या वाद में नहीं विवादों और आग्रहों से बचने तथा कथनों को स्पष्ट करने पड़ता (सुत्तनिपात-51-3)। बुद्ध की दृष्टि में दार्शनिक के लिए ही किया गया है। सर्वप्रथम आचार्य सिद्धसेन वाद-विवाद निर्वाण मार्ग के साधक के कार्य नहीं हैं दिवाकर ने इस अनेकांत दृष्टि का प्रयोग दार्शनिक विरोधों (सुत्तनिपात-46-8-9)। अनासक्त, मुक्त पुरुष के पास के समन्वय की दिशा में किया। उन्होंने एक ओर परस्पर विवादरूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता। विरोधी ऐकांतिक मान्यताओं में दोषों की उद्भावना करके इसी प्रकार भगवान महावीर ने भी आग्रह को साधना का बताया कि कोई भी ऐकांतिक मान्यता न तो व्यावहारिक सम्यक् पथ नहीं समझा। उन्होंने कहा कि आग्रह, मतांधता है, न ही सत्ता का सम्यक् एवं सत्य स्वरूप ही प्रस्तुत या एकांगी दृष्टि उचित नहीं है। जो व्यक्ति अपने मत की करती है। उनकी विशेषता यह रही कि वे केवल दोषों की प्रशंसा और दूसरों की निंदा करने में ही पांडित्य दिखाते हैं, उद्भावना करके ही सीमित नहीं रहे अपितु उन्होंने उन वे संसार-चक्र में घूमते रहते हैं (सूत्रकृतांग 1/1/2-23)। परस्पर विरोधी धारणाओं में निहित सत्यता का भी दर्शन इस प्रकार भगवान महावीर व बुद्ध दोनों ही उस युग की किया और सत्य के समग्र स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए आग्रह वृत्ति एवं मतांधता से जनमानस को मुक्त करना उन्हें समन्वित करने का प्रयत्न भी किया। जहां उनके पूर्व चाहते थे, फिर भी बुद्ध और महावीर की दृष्टि में थोड़ा तक दूसरे दर्शनों को मिथ्या कहकर उनका मखौल उड़ाया अंतर था। जहां बुद्ध इन विवादों से बचने की सलाह दे रहे जाता था, वहीं उन्होंने विभिन्न नयों के आधार पर उनकी थे, वहीं महावीर इनके समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि सत्यता को स्पष्ट किया। मात्र यही नहीं, जिन-मत को भी प्रस्तुत कर रहे थे, जिसका परिणाम स्याद्वाद है। मिथ्या मत-समूह कहकर उन सभी के प्रति समादर का स्याद्वाद विविध दार्शनिक एकांतवादों में समन्वय भाव प्रकट किया। सिद्धसेन के पश्चात् यद्यपि समन्तभद्र ने करने का प्रयास करता है। उसकी दृष्टि में अनित्यवाद- भी ऐसा ही एक प्रयास किया और विभिन्न दर्शनों में क्षणिकवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद, भेदवाद-अभेदवाद आदि निहित सापेक्षिक सत्यों को विभिन्न नयों के आधार पर सभी वस्तु स्वरूप के आंशिक पक्षों को स्पष्ट करते हैं। व्याख्यायित किया, फिर भी जिन-मत को मिथ्या मतइनमें से कोई भी असत्य तो नहीं है, किन्तु पूर्ण सत्य भी समूह कहने का जो साहस सिद्धसेन के चिंतन में था, वह नहीं है। यदि इनको कोई असत्य बताता है तो वह आंशिक समन्तभद्र के चिंतन में नहीं आ पाया। सिद्धसेन और सत्य को पूर्ण सत्य मान लेने का उसका आग्रह ही है। समन्तभद्र के पश्चात् जिस दार्शनिक ने अनेकांत दृष्टि की स्याद्वाद अपेक्षाभेद से इन सभी के बीच समन्वय करने का समन्वयशीलता का सर्वाधिक उपयोग किया वे आचार्य प्रयास करता है और यह बताता है कि सत्य तब असत्य हरिभद्र हैं। हरिभद्र से पूर्व दिगंबर परंपरा के कुन्दकुन्द ने बन जाता है, जब हम आग्रही दृष्टि से उसे देखते हैं। यदि भी एक प्रयत्न किया था। उन्होंने नियमसार में व्यक्ति की हम हमारी दृष्टि को या अपने को आग्रह से ऊपर उठाकर बहुआयामिता को स्पष्ट करते हुए यह कहा था कि व्यक्ति देखें तो हमें सत्य का दर्शन हो सकता है। सत्य का सच्चा को स्व-मत व पर-मत के विवाद में नहीं पड़ना चाहिए। दर्शन आधुनिक शिक्षा प्रणाली में परीक्षा, प्रमाण-पत्र व किंतु अनेकांत दृष्टि से विभिन्न दर्शनों में पारस्परिक उसके आधार पर मिलने वाली नौकरी आदि में एकरूपता समन्वय का जो प्रयत्न हरिभद्र ने, विशेष रूप से अपने से नहीं होगा। यदि व्यक्ति परिवर्तनशील है, क्षण-क्षण ग्रंथ शास्त्रवार्तासमुच्चय में किया वह निश्चय ही विरल है। बदलता ही रहता है तो अध्ययन करने वाला छात्र भिन्न हरिभद्र ने अनेक प्रसंगों में अपनी वैचारिक उदारता व होगा और जिसे प्रमाण-पत्र मिलेगा वह परीक्षा देने वाले समन्वयशीलता का परिचय दिया है जिसकी चर्चा हमने से भिन्न होगा और उन प्रमाण-पत्रों के आधार पर जिसे अपनी लघु पुस्तिका 'आचार्य हरिभद्र व उनका अवदान' में स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.67 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की है। अनेकांत की इस उदार शैली का प्रभाव परवर्ती और पर्याय दृष्टि के आधार पर इन विरोधी सिद्धांतों में जैन आचार्यों पर भी रहा और यही कारण रहा कि दूसरे समन्वय किया जा सकता है। अतः एक सच्चा स्याद्वादी दर्शनों की समालोचना करते हुए भी वे आग्रही नहीं बने। किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता है, वह सभी दर्शनों का प्रकाश केवल अनाग्रही को ही मिल सकता है। महावीर के आराधक होता है। परमयोगी आनन्दघनजी लिखते हैंप्रथम शिष्य गौतम का जीवन स्वयं इसका एक प्रत्यक्ष षट दरसण जिन अंग भणीजे. न्याय षडंग जो साधे रे। उदाहरण है। गौतम के केवलज्ञान में आखिर कौन-सा तत्त्व नमि जिनवरना चरण उपासक, षटदर्शन आराधे रे।।।।। बाधक बन रहा था? महावीर ने स्वयं इसका समाधान जिन सर पादप पाय बखाणं. सांख्य जोग दोय भेदे रे। करते हुए गौतम से कहा था-'हे गौतम! तेरा मेरे प्रति आतम सत्ता विवरण करता, लही दुय अंग अखेदे रे।। 2 ।। जो ममत्व है यही तेरे केवलज्ञान (सत्य दर्शन) का बाधक भेद अभेद सगत मीमांसक, जिनपर दोय कर भारी रे। है।' महावीर की स्पष्ट घोषणा थी कि सत्य का संपूर्ण नोमालो गलत प्रजिरो गाम्याथी अवधारी ।।1।। दर्शन आग्रह के घेरे में रहकर नहीं किया जा सकता। लोकायतिक सुख कूख जिनवरकी, अंश विचार जो कीजे। आग्रह बुद्धि या दृष्टिराग सत्य को असत्य बना देता है। तत्त्व विचार सुधारस धारा, गुरुगम विण केम पीजे।।4।। सत्य का प्रकटन आग्रह में नहीं, अनाग्रह में होता है, जैन जिनेश्वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंग रे। विरोध में नहीं, समन्वय में होता है। सत्य का साधक अक्षर न्यास धरा आराधक, आराधे धरी संग रे।। 5 ।। अनाग्रही और वीतराग होता है, उपाध्याय यशोविजयजी स्याद्वाद की इसी अनाग्रही एवं समन्वयात्मक दृष्टि को अनेकांत धार्मिक सहिष्णुता के क्षेत्र में स्पष्ट करते हुए अध्यात्मोपनिषद में लिखते हैं सभी धर्म-साधना पद्धतियों का मुख्य लक्ष्य राग, यस्य सर्वत्र समता नयेषु, तनयेष्विव। आसक्ति, अहं एवं तृष्णा की समाप्ति रहा है। जहां जैन तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी।।61 धर्म की साधना का लक्ष्य वीतरागता होना और बौद्ध दर्शन तेन स्याद्वाद्वमालंब्य सर्वदर्शन तुल्यताम्। की साधना का लक्ष्य वीततृष्ण होना माना गया है वहीं मोक्षोद्देशाविशेषेण यः पश्यति सः शास्त्रवित्।।70 वेदांत में अहं और आसक्ति से ऊपर उठना ही मानव का माध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थो येन तच्चारु सिद्ध्यति। साध्य बताया गया है। लेकिन क्या एकांत या आग्रह स एव धर्मवादः स्यादन्यद्वालिशवल्गनम्।171 वैचारिक राग, वैचारिक आसक्ति, वैचारिक तृष्णा अथवा माध्यस्थ सहितं ह्येकपदज्ञानमपि प्रमा। वैचारिक अहं के ही रूप नहीं हैं और जब तक वे उपस्थित शास्त्रकोटिवृथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना।।73 हैं, धार्मिक साधना के क्षेत्र में लक्ष्य की सिद्धि कैसे होगी? सच्चा अनेकांतवादी किसी दर्शन से द्वेष नहीं करता। जिन साधना पद्धतियों में अहिंसा के आदर्श को स्वीकार वह संपूर्ण दृष्टिकोणों (दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य किया गया उनके लिए आग्रह या एकांत वैचारिक हिंसा का दृष्टि से देखता है जैसे कोई पिता अपने पुत्र को, क्योंकि प्रतीक भी बन जाता है। एक ओर साधना के वैयक्तिक अनेकांतवादी की न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती। सच्चा पहलू की दृष्टि से मताग्रह वैचारिक आसक्ति या राग का ही रूप है तो दूसरी ओर साधना के सामाजिक पहलू की आलंबन लेकर संपर्ण दर्शनों में समान भाव रखता है। दृष्टि से वह वैचारिक हिसा है। वैचारिक आसक्ति और वास्तव में माध्यस्थ भाव ही शास्त्रों का गूढ रहस्य है। वैचारिक हिंसा से मुक्ति के लिए धार्मिक क्षेत्र में अनाग्रह माध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्र के पद का ज्ञान भी सफल है और अनेकांत की साधना अपेक्षित है। वस्तुतः धर्म का अन्यथा करोड़ों शास्त्रों का ज्ञान भी वृथा है। क्योंकि जहां आविर्भाव मानव-जाति में शांति और सहयोग के विस्तार आग्रह बुद्धि होती है वहां विपक्ष में निहित सत्य का दर्शन के लिए हुआ था। धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए संभव नहीं होता। वस्तुतः शाश्वतवाद, उच्छेदवाद, है, लेकिन आज वही धर्म मनुष्य-मनुष्य में विभेद की दीवारें नित्यवाद, अनित्यवाद, भेदवाद, अभेदवाद. द्वैतवाद. खींच रहा है। धार्मिक मतांधता में हिंसा, संघर्ष, छल, छद्म, हेतवाद, नियतिवाद, पुरुषार्थवाद आदि जितने भी दार्शनिक अन्याय, अत्याचार क्या नहीं हो रहा है? क्या वस्तुतः मत-मतांतर हैं, वे सभी परम सत्ता के विभिन्न पहलओं से इसका कारण धर्म हो सकता है? इसका उत्तर निश्चित रूप लिए गए चित्र हैं और आपेक्षिक रूप से सत्य हैं। द्रव्य दृष्टि से 'हां' में नहीं दिया जा सकता। यथार्थ में धर्म नहीं, किंतु 1 11111111111111111 स्वर्ण जयंती वर्ष 1111111111111111111 1 68. अनेकांत विशेष जैन भारती मार्च-मई, 2002 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का आवरण डालकर मानव की महत्त्वाकांक्षा, उसका कारण नहीं है। बौद्धिक भिन्नता और देश-कालगत तथ्य भी अहंकार ही यह सब करवाता रहा है। यह धर्म नहीं, धर्म इसके कारण रहे हैं और इसके अतिरिक्त पूर्व प्रचलित का नकाब डाले अधर्म है। परंपराओं में आई हुई विकृतियों के संशोधन के लिए भी मूल प्रश्न यह है कि क्या धर्म अनेक हैं या हो सकते संप्रदाय बने। उनके अनुसार संप्रदाय बनने के निम्न कारण हैं? इस प्रश्न का उत्तर अनैकांतिक शैली से यह होगा कि हो सकत है : धर्म एक भी है और अनेक भी। साध्यात्मक धर्म या धर्मों का (1) ईर्ष्या के कारण (2) किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि साध्य एक है जबकि साधनात्मक धर्म अनेक हैं। साध्य रूप की लिप्सा के कारण (3) किसी वैचारिक मतभेद (मताग्रह) में धर्मों की एकता और साधन रूप से अनेकता को ही के कारण (4) किसी आचार संबंधी नियमोपनियम में भेद यथार्थ दृष्टिकोण कहा जा सकता है। सभी धर्मों का साध्य के कारण (5) किसी व्यक्ति या पूर्व संप्रदाय द्वारा अपमान है–समत्वलाभ (समाधि) अर्थात् आंतरिक तथा बाह्य या खींचतान होने के कारण (6) किसी विशेष सत्य को शांति की स्थापना तथा उसके लिए विक्षोभ के जनक राग- प्राप्त करने की दृष्टि से और (7) किसी सांप्रदायिक परंपरा द्वेष और अस्मिता (अहंकार) का निराकरण। लेकिन राग- या क्रिया में द्रव्य, क्षेत्र एवं काल के अनुसार संशोधन या द्वेष और अस्मिता के निराकरण के उपाय क्या हों? यहीं परिवर्तन करने की दृष्टि से। उपरोक्त कारणों में अंतिम दो विचार-भेद प्रारंभ होता है. लेकिन यह विचार-भेद विरोध को छोड़कर शेष सभी कारणों से उत्पन्न संप्रदाय आग्रह, का आधार नहीं बन सकता। एक ही साध्य की ओर उन्मख धार्मिक असहिष्णुता और सांप्रदायिक विद्वेष को जन्म होने से वे परस्पर विरोधी नहीं कहे जा सकते। एक ही केंद्र देते हैं। से आयोजित होने वाली परिधि से खिंची हुई विभिन्न विश्व इतिहास के अध्येता इसे भलीभांति जानते हैं रेखाओं में पारस्परिक विरोध प्रतीत अवश्य होता है, किंतु कि धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराए। वह यथार्थ में होता नहीं है। क्योंकि केंद्र से संयुक्त प्रत्येक आश्चर्य तो यह है कि इस दमन, अत्याचार, नृशंसता और रेखा में एक-दूसरे को काटने की क्षमता नहीं होती है, किंतु रक्तप्लावन को धर्म का बाना पहनाया गया। शांतिप्रदाता जैसे ही वह केंद्र का परित्याग करती है वह दूसरी रेखाओं धर्म ही अशांति का कारण बना। आज के वैज्ञानिक युग में को अवश्य ही काटती है। साध्य सभी एकता में साधनरूपी धार्मिक अनास्था का मुख्य कारण उपरोक्त भी है। यद्यपि धर्मों की अनेकता स्थित है। अतः यदि धर्मों का साध्य एक विभिन्न मतों, पंथों और वादों में बाह्य भिन्नता परिलक्षित है तो उनमें विरोध कैसा? अनेकांत, धर्मों की साध्यपरक होती है, किंतु यदि हमारी दृष्टि व्यापक और अनाग्रही हो तो मूलभूत एकता और साधनपरक अनेकता को इंगित उसमें भी एकता और समन्वय के सूत्र परिलक्षित हो करता है। सकते हैं। विश्व के विभिन्न धर्माचार्यों ने अपने युग की अनेकांत विचार-दृष्टि विभिन्न धर्म-संप्रदायों की तात्कालिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर अपने सिद्धांतों समाप्ति द्वारा एकता का प्रयास नहीं करती है। क्योंकि एवं साधनों के बाह्य नियमों का प्रतिपादन किया। देश- वैयक्तिक रुचि-भेद एवं क्षमता-भेद तथा देश-कालगत कालगत परिस्थितियों और साधकों की साधना की क्षमता भिन्नताओं के होते हुए विभिन्न धर्मों एवं संप्रदायों की की विभिन्नता के कारण धर्म-साधना के बाह्य रूपों में उपस्थिति अपरिहार्य है। एक धर्म या एक संप्रदाय का नारा भिन्नताओं का आ जाना स्वाभाविक ही था और ऐसा हुआ असंगत एवं अव्यावहारिक ही नहीं, अपितु अशांति और भी। किंतु मनुष्य की अपने धर्माचार्य के प्रति ममता संघर्ष का कारण भी है। अनेकांत विभिन्न धर्म-संप्रदायों की (रागात्मकता) और उसके अपने मन में व्याप्त आग्रह और समाप्ति का प्रयास न होकर उन्हें एक व्यापक पूर्णता में अहंकार ने उसे अपने धर्म या साधना पद्धति को ही एकमात्र सुसंगत रूप से संयोजित करने का प्रयास हो सकता है। एवं अंतिम सत्य मानने को बाध्य किया। फलस्वरूप लेकिन इसके लिए प्राथमिक आवश्यकता है धार्मिक विभिन्न धार्मिक संप्रदायों और उनके बीच सांप्रदायिक सहिष्णुता और सर्वधर्म समभाव की। वैमनस्य प्रारंभ हुआ। यद्यपि वैयक्तिक अहं धर्म-संप्रदायों अनेकांत के समर्थक जैनाचार्यों ने इसी धार्मिक के निर्माण का एक कारण अवश्य है, लेकिन वही एकमात्र सहिष्णता का परिचय दिया है। आचार्य हरिभद्र की धार्मिक स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.69 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहिष्णुता तो सर्वविदित ही है अपने ग्रंथ शास्त्रवार्ता समुच्चय में उन्होंने बुद्ध के अनात्मवाद, न्याय दर्शन के ईश्वर कर्तृत्ववाद और वेदांत के सर्वात्मवाद (ब्रह्मवाद) में भी संगति दिखाने का प्रयास किया। अपने ग्रंथ लोकतत्त्व संग्रह में आचार्य हरिभद्र लिखते हैं। : पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्य परिग्रहः ।। मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात है और न कपिलादि मुनिगणों के प्रति द्वेष है। जो भी वचन तर्कसंगत हो उसे ग्रहण करना चाहिए। - इसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने शिव प्रतिमा को प्रणाम करते समय सर्वदेव समभाव का परिचय देते हुए कहा था : भवबीजांकुरजनना, रागद्या क्षयमुपागता यस्य । । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरौ, जिनो वा नमस्तस्मै ।। संसार परिभ्रमण के कारण रागादि जिनके क्षय हो चुके हैं, उन्हें में प्रणाम करता हूं चाहे वे ब्रह्मा हो, विष्णु हों, शिव हों या जिन हों। राजनीतिक क्षेत्र में अनेकांतवाद के सिद्धांत का उपयोग अनेकांतवाद का सिद्धांत न केवल दार्शनिक एवं धार्मिक अपितु राजनीतिक विवाद भी हल करता है। आज का राजनीतिक जगत भी वैचारिक संकुलता से परिपूर्ण है। पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, फासीवाद, नाजीवाद आदि अनेक राजनीतिक विचारधाराएं तथा राजतंत्र, कुलतंत्र, अधिनायकतंत्र आदि अनेकानेक शासन प्रणालियां वर्तमान में प्रचलित हैं। मात्र इतना ही नहीं उनमें से प्रत्येक एक दूसरे की समाप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं। विश्व के राष्ट्र खेमों में बंटे हुए हैं और प्रत्येक खेमे का अग्रणी राष्ट्र अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने हेतु दूसरे के विनाश में तत्पर है। मुख्य बात यह है कि आज का राजनीतिक संघर्ष मात्र आर्थिक हितों का संघर्ष न होकर वैचारिकता का भी संघर्ष है। अमेरिका, चीन और रूस अपनी वैचारिक प्रभुसत्ता के प्रभाव को बढ़ाने के लिए ही प्रतिस्पर्धा में लगे रहे हैं। एकदूसरे को नाम शेष करने की उनकी यह महत्त्वाकांक्षा कहीं - मानव जाति को ही नाम शेष न कर दे। आज के राजनीतिक जीवन में स्याद्वाद के दो व्यावहारिक फलित वैचारिक सहिष्णुता और समन्वय अत्यंत उपादेय हैं मानव जाति ने राजनीतिक जगत में 70 • अनेकांत विशेष राजतंत्र से प्रजातंत्र तक की जो लंबी यात्रा तय की है उसकी सार्थकता स्याद्वाद दृष्टि को अपनाने में ही है। विरोधी पक्ष द्वारा की जाने वाली आलोचना के प्रति सहिष्णु होकर उसके द्वारा अपने दोषों को समझना और उन्हें दूर करने का प्रयास करना, आज के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है। विपक्ष की धारणाओं में भी सत्यता हो सकती है और सबल विरोधी दल की उपस्थिति से हमें अपने दोषों के निराकरण का अच्छा अवसर मिलता है, इस विचार दृष्टि और सहिष्णु भावना में ही प्रजातंत्र का भविष्य उज्ज्वल रह सकता है। राजनीतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातंत्र (Parliamentary Democracy) वस्तुतः राजनीतिक स्याद्वाद है। इस परंपरा में बहुमत दल द्वारा गठित सरकार अल्पमत दल को अपने विचार प्रस्तुत करने का अधिकार मान्य करती है और यथासंभव उससे लाभ भी उठाती है। दार्शनिक क्षेत्र में जहां भारत स्याद्वाद का सृजक है, वहीं वह राजनीतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातंत्र का समर्थक भी है। अतः आज स्याद्वाद सिद्धांत का व्यावहारिक क्षेत्र में उपयोग करने का दायित्व भारतीय राजनीतिज्ञों पर है। इसी प्रकार हमें यह भी समझना है कि राज्य व्यवस्था का मूल लक्ष्य जनकल्याण को दृष्टि में रखते हुए विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के मध्य एक सांग संतुलन स्थापित करना है आवश्यकता सैद्धांतिक विवादों की नहीं, अपितु जनहित । के संरक्षण एवं मानव की पाशविक वृत्तियों के नियंत्रण की है। मनोविज्ञान और अनेकांतवाद वस्तुतः अनेकांतवाद न केवल एक दार्शनिक पद्धति है, अपितु वह मानवीय व्यक्तित्व की बहुआयामिता को भी स्पष्ट करती है । जिस प्रकार वस्तुतत्त्व विभिन्न गुणधर्मों से युक्त होता है उसी प्रकार से मानव व्यक्तित्व भी विविध विशेषताओं या विलक्षणताओं का पुंज है, उसके भी विविध आयाम हैं। प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व के भी विविध आयाम या पक्ष होते हैं. मात्र यही नहीं, उसमें परस्पर विरोधी गुण भी देखने को मिलते हैं। सामान्यतया वासना व विवेक परस्पर विरोधी माने जाते हैं, किंतु मानव व्यक्तित्व में ये दोनों विरोधी गुण एक साथ उपस्थित हैं। मनुष्य में एक ओर अनेकानेक वासनाएं, इच्छाएं और आकांक्षाएं होती हैं तो दूसरी ओर उसमें विवेक का तत्त्व भी होता है जो उसकी वासनाओं, आकांक्षाओं और इच्छाओं पर नियंत्रण रखता है। यदि मानव व्यक्तित्व को स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च मई, 2002 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझना है तो हमें उसके वासनात्मक पहलू और मृदु आत्मीय व्यवहार एक अच्छा प्रेरक हो सकता है तो आदर्शात्मक पहलू (विवेक)—दोनों को ही देखना होगा। दूसरे के लिए कठोर अनुशासन की आवश्यकता हो सकती मनुष्य में न केवल वासना और विवेक के परस्पर विरोधी है। एक व्यक्ति के लिए आर्थिक उपलब्धियां ही प्रेरक का गुण पाए जाते हैं, अपितु उसमें अनेक दूसरे भी परस्पर कार्य करती हैं तो दूसरे के लिए पद और प्रतिष्ठा महत्त्वपूर्ण विरोधी गुण देखे जाते हैं। उदाहरणार्थ-विद्वत्ता या मूर्खता प्रेरक तत्त्व हो सकते हैं। प्रबंध-व्यवस्था में हमें व्यक्ति की को लें। प्रत्येक व्यक्ति में विद्वत्ता में मूर्खता और मूर्खता प्रकृति और स्वभाव को समझना आवश्यक होता है। एक में विद्वत्ता समाहित होती है। कोई भी व्यक्ति समग्रतः प्रबंधक तभी सफल हो सकता है जब वह मानव-प्रकृति की विद्वान या समग्रतः मूर्ख नहीं होता है। मूर्ख में भी कहीं-न- इस बहुआयामिता को समझे और व्यक्तिविशेष के संदर्भ में कहीं विद्वत्ता और विद्वान में भी कहीं-न-कहीं मूर्खता छिपी यह जाने कि उसके जीवन की प्राथमिकताएं क्या हैं? प्रबंध रहती है। किसी को विद्वान या मूर्ख मानना, यह सापेक्षिक और प्रशासन के क्षेत्र में एक ही चाबुक से सभी को नहीं कथन ही हो सकता है। मानव व्यक्तित्व के संदर्भ में हांका जा सकता। जिस प्रबंधक में प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति मनोविश्लेषणवादियों ने वासनात्मक अहं और आदर्शात्मक की जितनी अच्छी समझ होगी, वह उतना ही सफल प्रबंधक अहं की जो अवधारणाएं प्रस्तुत की हैं वे यही सूचित होगा। इसके लिए अनेकांत दृष्टि या सापेक्ष दृष्टि को करती हैं कि मानव व्यक्तित्व बहुआयामी है। उसमें ऐसे अपनाना आवश्यक है। अनेक परस्पर विरोधी गुण-धर्म छिपे हुए हैं। प्रत्येक प्रबंधशास्त्र के क्षेत्र में वर्तमान में समग्र गुणवत्ता व्यक्ति में जहां एक ओर कोमलता या करुणा का भाव रहा प्रबंधन (Total Quality Management) की अवधारणा हुआ है वहीं दूसरी ओर उसमें आक्रोश और अहंकार भी प्रमुख बनती जा रही है. किंत व्यक्ति अथवा संस्था की विद्यमान है। एक ही मनुष्य के अंदर इनफिरियारिटी समग्र गणवत्ता का आकलन निरपेक्ष नहीं है। गुणवत्ता के कांपलेक्स और सुपीरियारिटी कांपलेक्स दोनों ही देखे अंतर्गत अनेक गुणों की पारस्परिक समन्वयात्मकता जाते हैं। कभी-कभी तो हीनत्व की भावना ही उच्चत्व की आवश्यक होती है। विभिन्न गणों का पारस्परिक सामंजस्य भावना में अनुस्यूत देखी जाती है। भय और साहस में रहते हुए जो एक समग्र रूप बनता है वही गुणवत्ता का परस्पर विरोधी गुण-धर्म हैं। किंतु कभी-कभी भय की आधार है। अनेक गुणों के पारस्परिक सामंजस्य में ही अवस्था में ही व्यक्ति अकल्पनीय साहस का प्रदर्शन गुणवत्ता निहित होती है। व्यक्ति के व्यक्तित्व में विभिन्न करता है। इस प्रकार मानव व्यक्तित्व में वासना और गुण एक-दूसरे के साथ समन्वय करते हुए रहते हैं। विवेक, ज्ञान और अज्ञान, राग और द्वेष, कारुणिकता और विभिन्न गुणों की यही सामंजस्यतापूर्ण स्थिति ही गुणवत्ता आक्रोश, हीनत्व और उच्चत्व की ग्रंथियां एक साथ देखी का आधार है। व्यक्ति के व्यक्तित्व में विभिन्न गुण ठीक जाती हैं। इससे यह फलित होता है कि मानव व्यक्तित्व उसी प्रकार सामंजस्यपूर्वक रहते हैं जिस प्रकार शरीर के भी बहुआयामी है और उसे सही प्रकार से समझने के लिए विभिन्न अवयव सामंजस्यपूर्ण स्थिति में रहते हैं। जैसे अनेकांत की दृष्टि आवश्यक है। शरीर के विभिन्न अंगों का सामंजस्य टूट जाना शारीरिक प्रबंधशास्त्र और अनेकांतवाद विकृति या विकलांगता का प्रतीक है, उसी प्रकार व्यक्ति वर्तमान युग में प्रबंधशास्त्र एक महत्त्वपूर्ण विधा है, के जीवन के गुणों में पारस्परिक सामंजस्य का अभाव किंतु यह विधा भी अनेकांत दृष्टि पर ही आधारित है। किस व्यक्तित्व के विखंडन का आधार बनता है। पारस्परिक व्यक्ति से किस प्रकार कार्य लिया जाए ताकि उसकी संपूर्ण सामंजस्य में ही समग्र गुणवत्ता का विकास होता है। योग्यता का लाभ उठाया जा सके, यह प्रबंधशास्त्र की अनेकांत दृष्टि व्यक्तित्व के उन विभिन्न गुणों या पक्षों विशिष्ट समस्या है। प्रबंधशास्त्र, चाहे वह वैयक्तिक हो या और उनके पारस्परिक सामंजस्य को समझने का आधार संस्थागत, उसका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष तो व्यक्ति ही है। व्यक्ति में वासनात्मक पक्ष अर्थात् उसकी जैविक होता है और प्रबंध और प्रशासक की सफलता इसी बात पर आवश्यकताएं और विवेकात्मक पक्ष अर्थात् वासनाओं के निर्भर होती है कि हम उस व्यक्ति के व्यक्तित्व और उसके संयमन की शक्ति दोनों की अपूर्ण समझ किसी प्रबंधन के प्रेरक तत्त्वों को किस प्रकार समझाएं। एक व्यक्ति के लिए प्रबंधक की असफलता का कारण ही होगी। समग्र गुणवत्ता स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.71 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न गुणों अथवा पक्षों और उनके पारस्परिक सामंजस्य सामाजिक नैतिकता से जुड़ा एक दूसरा महत्त्वपूर्ण की समझ पर ही आधारित होती है और यह समझ ही प्रश्न है वैयक्तिक कल्याण और सामाजिक कल्याण में प्रबंधशास्त्र का प्राण है। दूसरे शब्दों में कहें तो अनेकांत किसे प्रमुख माना जाए? इस समस्या के समाधान के लिए दृष्टि के आधार पर ही संपूर्ण प्रबंधशास्त्र अवस्थित है। भी हमें अनेकांत दृष्टि को ही आधार बनाकर चलना होगा। विविध पक्षों के अस्तित्व की स्वीकृति के साथ उनके यदि व्यक्ति और समाज परस्पर सापेक्ष हैं, व्यक्ति के हित पारस्परिक सामंजस्य की संभावना को देख पाना में समाज का हित है और समाज के हित में व्यक्ति का प्रबंधशास्त्र की सर्वोत्कृष्टता का आधार है। हित समाया है तो इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। जो लोग वैयक्तिक हितों और सामाजिक हितों को परस्पर समाजशास्त्र और अनेकांतवाद निरपेक्ष मानते हैं, वे वस्तुतः व्यक्ति और समाज के समाजशास्त्र के क्षेत्र में सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या पारस्परिक संबंधों से अनभिज्ञ हैं। वैयक्तिक कल्याण और व्यक्ति और समाज के पारस्परिक संबंधों को सम्यक् प्रकार सामाजिक कल्याण परस्पर भिन्न प्रतीत होते हुए भी एकसे समझ पाना या समझा पाना ही है। व्यक्ति के बिना दूसरे से पृथक नहीं हैं। हमें यह मानना होगा कि समाज के समाज और समाज के बिना व्यक्ति (सभ्य व्यक्ति) का हित में ही व्यक्ति का हित है और व्यक्ति के हित में अस्तित्व संभव नहीं है। जहां एक ओर व्यक्तियों के आधार समाज का हित। अतः एकांत स्वार्थपरतावाद और एकांत पर ही समाज खड़ा होता है, वहीं दूसरी ओर व्यक्ति के परोपकारवाद दोनों ही संगत सिद्धांत नहीं हो सकते। न तो व्यक्तित्व का निर्माण समाजरूपी कार्यशाला में ही संपन्न वैयक्तिक हितों की उपेक्षा की जा सकती है, न ही होता है। जो विचारधाराएं व्यक्ति और समाज को एक सामाजिक हितों की। अनेकांत दृष्टि हमें यही बताती है कि दूसरे से निरपेक्ष मानकर चलती हैं वे न तो सही रूप में वैयक्तिक कल्याण में सामाजिक कल्याण और सामाजिक व्यक्ति को समझ पाती हैं और न ही समाज को। व्यक्ति कल्याण में वैयक्तिक कल्याण अनुस्यूत है। दूसरे शब्दों में और समाज-दोनों का अस्तित्व परस्पर सापेक्ष है। इस वे परस्पर सापेक्ष हैं। सापेक्षता को समझे बिना न तो व्यक्ति को ही समझा जा सकता है और न समाज को। समाजशास्त्र के क्षेत्र में पारिवारिक जीवन में स्याद्वाद दृष्टि का उपयोग अनेकांत दृष्टि व्यक्ति और समाज के इस सापेक्षिक संबंध कौटुंबिक क्षेत्र में इस पद्धति का उपयोग परस्पर को देखने का प्रयास करती है। व्यक्ति और समाज एक- कुटुंबों में और कुटुंब के सदस्यों में संघर्ष को टालकर दूसरे से निरपेक्ष नहीं हैं। यह समझ ही समाजशास्त्र के शांतिपूर्ण वातावरण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। सभी सिद्धांतों का मूलभूत आधार है। सामाजिक सुधार के सामान्यतया पारिवारिक जीवन में संघर्ष के दो केंद्र होते जो भी कार्यक्रम हैं उनका आवश्यक अंग व्यक्ति सुधारना हैं। पिता-पुत्र तथा सास-बहू। इन दोनों विवादों में मूल भी है। न तो सामाजिक सुधार के बिना व्यक्ति सुधार संभव कारण दोनों का दृष्टिभेद है। पिता जिस परिवेश में बड़ा है न व्यक्ति सुधार के बिना सामाजिक सुधार। वस्तुतः हुआ, उन्हीं संस्कारों के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना व्यक्ति और समाज में आंगिकता का संबंध है। व्यक्ति में चाहता है। पिता की दृष्टि अनुभवप्रधान होती है, जबकि समाज और समाज में व्यक्ति इस प्रकार अनुस्यूत हैं कि पुत्र की दृष्टि तर्कप्रधान। एक प्राचीन संस्कारों से ग्रसित उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। व्यक्ति होता है तो दूसरा उन्हें समाप्त कर देना चाहता है। यही और समाज की इस सापेक्षिकता को समझना समाजशास्त्र स्थिति सास-बहू में होती है। सास यह अपेक्षा करती है के लिए आवश्यक है और यह समझ अनेकांत दृष्टि के कि बहू ऐसा जीवन जीए जैसा उसने स्वयं बहू के रूप में विकास से ही संभव है, क्योंकि वह एकत्व में अनेकत्व जीया था, जबकि बहू अपने युग के अनुरूप और अपने अथवा एकता में विभिन्नता तथा विभिन्नता में एकता का मातृ पक्ष के संस्कारों से प्रभावित जीवन जीना चाहती है। दर्शन करती है, उसके लिए एकत्व और पृथकत्व दोनों का मात्र इतना ही नहीं, उसकी अपेक्षा यह भी होती है कि वह ही समान महत्त्व है। वह यह मानकर चलती है कि व्यक्ति उतना ही स्वतंत्र जीवन जीए, जैसा वह अपने माता-पिता और समाज परस्पर सापेक्ष हैं और एक के अभाव में दूसरे के पास जीती थी। इसके विपरीत श्वसुर पक्ष उससे एक की कोई सत्ता नहीं है। अनुशासित जीवन की अपेक्षा करता है। यही सब विवाद स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती ___72. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के कारण बनते हैं। इसमें जब तक सहिष्णु दृष्टि और सुविधाओं में वृद्धि की, किंतु उसके परिणामस्वरूप आज स्थिति को समझने का प्रयास नहीं किया जाता, मानव जाति उपभोक्तावादी संस्कृति से ग्रसित हो गई है तब तक संघर्ष समाप्त नहीं हो सकता। वस्तुतः इसके मूल और इच्छाओं और आकांक्षाओं की दृष्टि के साथ चाहे में जो दृष्टिभेद है, उसे अनेकांत पद्धति से सम्यक् प्रकार भौतिक सुख-सुविधाओं के साधन बढ़े भी हों, किंतु उसने से जाना जा सकता है। मनुष्य की अंतरात्मा को विपन्न बना दिया। आकांक्षाओं वास्तविकता यह है कि हम जब दूसरे के संबंध में की पूर्ति की दौड़ में मानव अपनी आंतरिक शांति खो का पूति का दा कोई विचार करें, कोई निर्णय लें तो स्वयं अपने को उस बैठा। फलतः आज हमारा आर्थिक क्षेत्र विफल होता स्थिति में खड़ा कर सोचना चाहिए। दूसरे की भूमिका में दिखाई दे रहा है। वस्तुतः इस सबके पीछे आर्थिक प्रगति स्वयं को खड़ा करके ही उसे सम्यक् प्रकार से जाना जा को ही एकमात्र लक्ष्य बना लेने की ऐकांतिक जीवन सकता है। पिता पुत्र से जिस बात की अपेक्षा करता है * दृष्टि है। ! उसके पहले अपने को पुत्र की भूमिका में खड़ा कर विचार कर ले। अधिकारी कर्मचारी से किस ढंग से काम लेना धर्मतंत्र, बिना अनेकांत दृष्टि को स्वीकार किए सफल नहीं चाहता है, उसके पहले स्वयं को उस स्थिति में खड़ा करे. हो सकता, क्योंकि इन सबका मूल केंद्र तो मनुष्य ही है। फिर निर्णय ले। यही एक ऐसी दृष्टि है, जिसके अभाव में जब तक वे मानव-व्यक्तित्व की बहुआयामिता और उसमें लोक-व्यवहार असंभव है और इसी आधार पर अनेकांतवाद निहित सामान्यताओं को नहीं स्वीकार करेंगे, तब तक इन जगद्गुरु होने का दावा करता है। क्षेत्रों में हमारी सफलताएं भी अंततः विफलताओं में ही बदलती रहेंगी। वस्तुतः अनेकांत दृष्टि ही एक ऐसी दृष्टि है अर्थशास्त्र और अनेकांत जो मानव के समग्र कल्याण की दिशा में हमें अग्रसर कर सामान्यतया अर्थशास्त्र का उद्देश्य जन-सामान्य का सकती है। समग्रता की दिशा में अंगों की उपेक्षा नहीं, आर्थिक कल्याण होता है, किंतु आर्थिक प्रगति के पीछे अपितु उनका पारस्परिक सामंजस्य ही महत्त्वपूर्ण होता है मूलतः वैयक्तिक हितों की प्रेरणा ही कार्य करती है। यही और अनेकांतवाद का यह सिद्धांत इसी व्यावहारिक जीवन कारण है कि अर्थशास्त्र के क्षेत्र में पूंजीवादी और साम्यवादी दृष्टि को समुपस्थित करता है। दृष्टियों के केंद्र बिंदु ही भिन्न-भिन्न बन गए। साम्यवादी शक्तियों का आर्थिक क्षेत्र में पिछड़ने का एकमात्र कारण यह अनकात का जान का आव अनेकांत को जीने की आवश्यकता रहा कि उन्होंने आर्थिक प्रगति के लिए वैयक्तिक प्रेरणा की अनेकांतवाद के सैद्धांतिक पक्ष पर तो प्राचीन काल उपेक्षा की, किंतु दूसरी ओर यह भी हुआ कि वैयक्तिक से लेकर अब तक बहुत विचार-विमर्श या आलोचनआर्थिक प्रेरणा और वैयक्तिक अर्थलाभ को प्रमखता देने के प्रत्यालोचन हुआ, किंतु उसका व्यावहारिक पक्ष उपेक्षित ही कारण सामाजिक कल्याण की आर्थिक दृष्टि असफल हो रहा। अनेकांतवाद मात्र सैद्धांतिक चर्चा का विषय नहीं है, गई और उपभोक्तावाद इतना प्रबल हो गया कि उसने वह प्रयोग में लाने का विषय है, क्योंकि इस प्रयोगात्मकता सामाजिक-आर्थिक कल्याण की पूर्णतः उपेक्षा कर दी। के द्वारा ही हम वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के संघर्षों परिणामस्वरूप अमीर और गरीब के बीच खाई अधिक एवं वैचारिक विवादों का निराकरण कर सकते हैं। गहरी होती गई। अनेकांतवाद को मात्र जान लेना या समझ लेना ही पर्याप्त ___ इसी प्रकार अर्थशास्त्र के क्षेत्र में आर्थिक प्रगति का नहीं है, उसे व्यावहारिक जीवन में जीना भी होगा और तभी भाधार निी साों पाया और उसकी वास्तविक मूल्यवत्ता को समझ सकेंगे। आवश्यकताओं को बढ़ाना मान लिया गया। किंतु इसका हम देखते हैं कि अनेकांत एवं स्याद्वाद के सिद्धांत परिणाम यह हुआ कि अर्थशास्त्र के क्षेत्र में स्वार्थपरता दार्शनिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं पारिवारिक और शोषण की दृष्टि ही प्रमुख हो गई। आवश्यकताओं जीवन के विरोधों के समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि की सृष्टि और इच्छाओं की पूर्ति को ही आर्थिक प्रगति प्रस्तुत करते हैं जिससे मानव-जाति को संघर्षों के का प्रेरक तत्त्व मानकर हमने आर्थिक साधन और निराकरण में सहायता मिल सकती है। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.73 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक युग को जैन दर्शन का प्रदेय नयवाद और अनेकांतवाद डॉ. फूलचन्द जैन प्रेमी जैन धर्म-दर्शन भारत के प्राचीनतम धर्म-दर्शनों में से एक प्रमुख धर्म-दर्शन है। इसके सिद्धांत ऐसे शाश्वत एवं चिरनवीन हैं, जो समसामयिक एवं प्रासंगिकता की कसौटी पर सदा खरे उतरे हैं। ये प्राचीन काल में जितने आवश्यक थे, उतने ही आधुनिक युग में भी हैं। क्योंकि संसार - परिभ्रमण से क्लांत मुमुक्षु जीव को स्वपुरुषार्थ के बल पर बंधन से मुक्ति की प्रक्रिया का प्रशस्त मार्ग जैन धर्म स्पष्ट रूप से दिखलाता है। यहां न तो ईश्वर - कर्तृत्व का प्रलोभन है, और न ही मोक्षप्राप्ति हेतु संयम साधना में किसी प्रकार की छूट। हां, इसमें भावों की विशुद्धता की महत्ता जरूर दिखलाई देती है। आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म, लोक-परलोक आदि मान्यताएं इस जैन धर्म को पूर्ण आस्तिक धर्म-दर्शन प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं। नयवाद या इसके भेद-प्रभेदों आदि के विवेचन-प्रसंग में मुख्य, गौण, सामान्य और विशेष—इन शब्दों का काफी प्रयोग होता है। वस्तुतः इन शब्दों पर ही नय, प्रमाण, अनेकांत और स्याद्वाद जैसे दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन आधारित होता है। अतः इन शब्दों का अर्थ समझ लेने से इन जटिल सिद्धांतों को समझ लेने में सरलता होती है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, समता, सापेक्षता, सह-अस्तित्व, सात तत्त्व, छह द्रव्य, अनेकांत, स्याद्वाद, नय, निक्षेप आदि अनेक जैन धर्म के ऐसे अनुपम और मौलिक सिद्धांत हैं, जिनके कारण जैन धर्मदर्शन समृद्ध और गौरवान्वित है। जैसे-जैसे विज्ञान प्रगति करता जा रहा है और उसके आश्चर्यजनक अन्वेषण सामने आ रहे हैं, इसके परिप्रेक्ष्य में जैन धर्म के ये सिद्धांत और मान्यताएं और भी निखर कर सामने आ रही हैं। अतः आधुनिक युग को जैन दर्शन का प्रदेय अनुपम है ' 74 • अनेकांत विशेष यहां मेरे आलेख का विषय इन प्रदेयों में नयवाद और अनेकांतवाद पर विशेष आधारित है। ये दोनों जैन दर्शन के विशेष पारिभाषिक शब्द हैं। ये अन्यत्र कहीं इन अर्थों और अभिप्रायों में उपलब्ध नहीं होते। इसीलिए भारतीय दर्शन को जैन दर्शन का इस दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण अवदान है। नयवाद और अनेकांतवाद ऐसे सिद्धांत हैं, जिन्हें एक निबंध में बांधना संभव नहीं है। ये अनेक ग्रंथों के विषय हैं। फिर भी इस विषयक प्रयास यहां प्रस्तुत है : नयवाद विषयक साहित्य भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन का अपना विशिष्ट स्थान एवं महत्त्व है। इसके पुरस्कर्ता जैन आचार्यों ने साहित्य की प्रत्येक विधा की तरह प्रत्येक दार्शनिक एवं तात्त्विक विषय पर गहन, स्वतंत्र एवं मौलिक विवेचन प्रस्तुत किया है। प्रमाण की तरह अनेक ग्रंथों में स्वतंत्र एवं विविध विषयों के साथ 'नय' का विवेचन किया गया है। भारतीय दर्शन के क्षेत्र में 'नयवाद' जैन दर्शन की अपनी मौलिक देन है। नय विषयक वांग्मय में प्रमुख रूप में आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार, उमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्र, समन्तभद्राचार्यकृत आप्तमीमांसा एवं स्वयंभू-स्तोत्र, आचार्य सिद्धसेनकृत सन्मतिसूत्र, आचार्य अकलंकदेवकृत लघीयस्त्रय, सिद्धिविनिश्चय, तत्त्वार्थवार्तिक, आचार्य विद्यानन्दकृत तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक, आचार्य देवसेनकृत लघुनयचक्र और आलाप पद्धति, माइल्ल-धवलकृत द्रव्यस्वभाव प्रकाशक-नयचक्र, आचार्य मल्लवादी कृत द्वादशारनयचक्र, भट्टारक देवसेनकृत नयचक्र, महाकवि स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च - मई, 2002 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजमल्लविरचित पंचाध्यायी इत्यादि जैन बांग्मय के इन महान ग्रंथों के साथ ही साथ अनेक अन्यान्य ग्रंथों में भी भी प्रासंगिक रूप में नयवाद का अच्छा विवेचन किया गया है। यद्यपि विविध विधाओं में विरचित जैन वांग्मय अगाध है, किंतु उपर्युक्त प्रमुख ग्रंथ 'नयवाद, पर आधारित हैं। वस्तुतः नय को समझे बिना जैन आगम का हार्द हृदयंगम होना मुश्किल है। जबकि नय का सम्यक् स्वरूप जानने वालों का उसमें प्रवेश सहज हो जाता है। संपूर्ण मतभेदों को समाप्त करने के लिए नयवाद प्रमुख आधार है। सम्यक ज्ञान के लिए नयविवक्षा अपरिहार्य है। यद्यपि नय विवेचन गूढ़ विषय लगता अवश्य है, किंतु इसमें प्रवेश करते ही इसकी सरल पद्धति का एवं द्रव्यस्वभाव के प्रकाशन हेतु इसकी अनिवार्यता का स्पष्ट अनुभव होता है । नय स्वरूप जैन दर्शन के अनुसार जिन तत्त्वों का श्रद्धान और ज्ञान करके मुमुक्षु मोक्षमार्ग में रत होता है, उन तत्त्वों का अधिगम ज्ञान से होता है। यही ज्ञान अधिगम के उपायों को प्रमाण और नय इन दो रूपों में विभाजित कर देता है। प्रत्येक वस्तु प्रमाण एवं नय का विषय है। अतः अधिगम के उपायों में प्रमाण के साथ नयों का भी निर्देश है ये ही तत्त्वाधिगम के मूल दो भेद हैं।' यद्यपि प्रमाण और नय— ये दोनों ही ज्ञान हैं, किंतु दोनों में अंतर यही है कि नय वस्तु के एक अंश (धर्म) का ज्ञान कराता है, जबकि प्रमाण वस्तु के संपूर्ण अंश (धर्मों) का । अर्थात् प्रमाण वस्तु के पूर्ण रूप को ग्रहण करता है, जबकि नय प्रमाण द्वारा गृहीत के अंश को ग्रहण करता है। वस्तु इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि 'नय' पूर्ण सत्य की एक बाजू को जानने वाली दृष्टि का नाम है। इस तरह कहा जा सकता है कि जिससे वस्तुतत्त्व का निर्णय किया जाता है, उसे सम्यक् रूप से जाना जाता है— उसे प्रमाण कहते हैं तथा ज्ञाता का वह अभिप्राय विशेष 'नय' कहलाता है जो मार्च - मई, 2002 प्रमाण के द्वारा जानी गई वस्तु के एकदेश का स्पर्श करता है। नयज्ञान वस्तु के प्रत्येक अंश का अवबोध करता है। अतः 'नय' विवेचन प्रक्रिया का प्रमाण द्वारा गृहीत वस्तु के अंश को अभिप्राय के अनुसार विश्लेषित करना है। जैन दर्शन के अनुसार वस्तु का वस्तुत्व भी दो बातों पर आधारित है। प्रथम प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप को अपनाए हुए है और द्वितीय यह है कि प्रत्येक वस्तु अपने से भिन्न अनंत वस्तुओं के स्वरूप को नहीं अपनाए हुए है और तभी उस वस्तु का वस्तुत्व कायम है। यदि ऐसा नहीं माना जाएगा तो वह वस्तु ही नहीं रहेगी। यही कारण है कि घट, घट ही है तथा घट, पट नहीं है। इन दो बातों पर ही घट का अस्तित्व बनता है।' इसे कहते हैं घट है भी और नहीं भी है अपने स्वरूप से 'अस्ति' रूप है और अपने से भिन्न पर - स्वरूप से 'नास्ति' रूप है। वस्तुतः जैन दर्शन अनेकांतवादी दर्शन है। जैन दार्शनिकों ने अपने अनेकांतवादी दृष्टिकोण का प्रतिपादन स्याद्वाद शैली में किया है। स्याद्वाद शैली में नयों का प्रयोग किया जाता है, जो वस्तु के एक एक अंश को विषय बनाते हैं। जैन दर्शन केवल भावना और विश्वास की भूमि पर खड़ा होकर मात्र कल्पनालोक में विचरण नहीं करता और न ही यह वस्तुवाही दृष्टिकोणों का तिरस्कार ही करता है यह तो अनंत गुण पर्यायात्मक वस्तु का विभिन्न दृष्टिकोणों द्वारा विश्लेषण और विवेचन करता है। वस्तु के धर्म अनंत हैं और उसके दर्शक - दृष्टिकोण भी अनंत हैं। प्रतिपादन के साधन 'शब्द' भी अनंत हैं। अतः वस्तु स्पर्श करने वाली दृष्टियां अपने से भिन्न वस्तुओं को ग्रहण करने वाले दृष्टिकोणों का समादर करती हैं, वे सत्योन्मुख होने के कारण यथार्थ कही जाती हैं। अनेक धर्मात्मक वस्तु प्रमाण का विषय है और प्रमाणज्ञान उसे समग्रभाव से ग्रहण करता है, उसमें अंश विभाजन करने की ओर उसका लक्ष्य नहीं होता। जैसे 'यह घड़ा है' – इस ज्ञान में प्रमाण घड़े को अखंड भाव से उसके रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि अनंत गुण-धर्मों का विभाजन न करके पूर्ण रूप में जानता है, जबकि 'नय' उसका विभाजन करके रूपवान् घटः, रसवान् घटः इत्यादि रूप में उसे अपने-अपने अभिप्राय के अनुसार जानता है । ' इस तरह जो वाद विभिन्न दृष्टि-भंगों में से उत्पन्न सापेक्ष विचारों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास करता है उसे ही 'नयवाद' कहते हैं। क्योंकि नय अंश-विभाजन कर अभिप्राय विशेषानुसार वस्तु को ग्रहण करता है। प्रमाण- ज्ञान अंश स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती अनेकांत विशेष • 75 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राही नय उत्पत्ति के लिए भूमिका प्रस्तुत करता है। जैसे इस तरह नयवाद वस्तु के गुण, स्वरूप एवं विविध छोटे-बड़े पात्रों के अनुसार ही जल भरा जाता है, उसी पर्यायों का यथार्थ विवेचन है, जो पूर्ण सत्य को प्राप्त करने प्रकार प्रमाण के धरातल पर नय अनेक रूपों में और वेशों में में महत्त्वपूर्ण योग देता है, क्योंकि नय का आविष्कार वस्तु अपना अस्तित्व प्रदर्शित करता है। अतः नय प्रमाण रूप के यथार्थ स्वरूप को अवगत करने के लिए ही किया गया सागर का वह अंश है, जिसे ज्ञाता ने अपने अभिप्राय के पात्र है। अपनी दृष्टि तक सीमित रहते हुए भी दूसरों की दृष्टि में भर लिया है। अलग-अलग दृष्टिकोणों या भंगों को पर प्रहार न करना ही नय का मूल लक्ष्य है। आंशिक सत्य स्वीकार कर उनमें सामंजस्य स्थापित करते वस्तुतः श्रुत के दो कार्य हैं—स्याद्वाद और नय। हुए पूर्ण सत्य की ओर अग्रसर होना नयवाद का लक्ष्य है। संपूर्ण वस्तु के कथन को स्याद्वाद और वस्तु के एकदेश के नय का विषय एकांत है, किंतु एकांतों के समूह का कथन को 'नय' कहते हैं। आ. समन्तभद्र ने कहा है कि नाम ही तो अनेकांत है। अतः जो वस्तु प्रमाण की दृष्टि में स्याद्वाद के द्वारा गृहीत अनेकांतात्मक पदार्थ के धर्मों का अनेकांत रूप है, वही वस्तु नय की दृष्टि में एकांत स्वरूप अलग-अलग कथन करने वाला नय है। अतः प्रमाण के है। जैसे एक के बिना अनेक नहीं, वैसे ही एकांत के बिना द्वारा अनेकांत का बोध होता है और नय के द्वारा एकांत का अनेकांत नहीं। कहा भी है बोध होता है। किंतु नय तभी सुनय है जब वह सापेक्ष हो। अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । यदि वह अन्य नयों के द्वारा गृहीत अन्य धर्मों का निराकरण अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात्।। करता है तो वह दुर्नय हो जाता है। अतः सापेक्ष नयों के (बृहत्स्वयभू स्तात्र 103) द्वारा गहीत एकांतों के समह का नाम ही अनेकांत है और अर्थात् प्रमाण और नय के द्वारा अनेकांत भी अनेकांत अनेकांत का ग्राहक या प्रतिपादन स्याद्वाद है। अतः स्याद्वाद रूप है। प्रमाण की अपेक्षा अनेकांत है और विवक्षित नय की को समझने के लिए नय को समझना आवश्यक है और नय अपेक्षा एकांत है। अतः नय के बिना अनेकांत संभव नहीं है। के द्वारा ही एकांत का निरास संभव है। क्योंकि यद्यपि नय अकलंकदेव के अनुसार सम्यक् एकांत नय कहलाता है और एकांत का ग्राहक है, किंतु वह एकांत भी तभी 'सम्यक् सम्यक् अनेकांत प्रमाण। नय विवक्षा वस्तु के एक धर्म का एकांत' कहा जाता है जब वह अन्य एकांतों का निराकरण निश्चय कराने वाली होने से एकांत है और प्रमाण विवक्षा नहीं करता। अतः अन्य सापेक्ष एकांत ही सम्यक् एकांत हैं। वस्तु के अनेक धर्मों की निश्चय स्वरूप होने के कारण यद्यपि जैन दर्शन सम्यक एकांत का विरोधी नहीं है, किंतु अनेकांत है। मिथ्या एकांत का विरोधी है। इस प्रकार के एकांतों के अस्तित्व आदि जितने वस्तु के निज स्वभाव हैं उन समन्वय के लिए नय का ज्ञान आवश्यक है। नय का ज्ञाता सबको अथवा विरोधी धर्मों को युगपत् ग्रहण करने वाला यह जानता है कि वस्तु को जानने के बाद ज्ञाता अपने प्रमाण है। प्रमाण वस्तु को सब दृष्टि बिंदुओं से जानता है। अभिप्राय के अनुसार उसका कथन करता है, अतः उसका इसीलिए वस्तु के समस्त अंशों को जानने वाला प्रमाण होता कथन उतने ही अंश में सत्य है, सर्वांश में नहीं। दूसरा ज्ञाता है। और उन्हें गौण-मुख्य भाव से ग्रहण करने वाला नय है। उसी वस्तु को अपने अभिप्राय के अनुसार भिन्न रूप से अर्थात् प्रमाण द्वारा ज्ञात अनंत धर्मात्मक वस्तु के किसी एक कहता है। उनके पारस्परिक विरोध को नय दृष्टि से ही दूर अंश अथवा गुण को मुख्य करके जानने वाले ज्ञान को नय किया जा सकता है। अतः वस्तु के यथार्थ स्वरूप को कहते हैं। नय-ज्ञान में वस्तु के अन्य अंश की ओर उपेक्षा समझने के साथ उसके संबंध में विभिन्न कलाओं के या गौणता रहती है। विभिन्न अभिप्रायों को समझने के लिए नय को जानना नय तथा प्रमाण के उपर्युक्त स्वरूप-विवेचन से इन चाहिए। दोनों का अंतर भी स्पष्ट हो जाता है। षट्खंडागम की मूलतः नय के दो रूप हैं सम्यक् नय अर्थात् सुनय धवला टीका में कहा भी है कि प्रमाण नय नहीं है क्योंकि एवं मिथ्या नय अर्थात् दुर्नय। सुनय सापेक्ष होता है, पर प्रमाण का विषय अनेकांत (अनेक धर्मात्मक वस्तु) है और दुर्नय अन्य निरपेक्ष होकर अन्य का निराकरण करता है। जो न नय प्रमाण है क्योंकि नय का विषय एकांत अर्थात् अनंत नय अनेकांतात्मक वस्तु के किसी धर्मविशेष को सापेक्षिक धर्मात्मक वस्तु का एक अंश (धर्म) है। रूप से ग्रहण करता है वह सुनय है तथा जो नय दूसरे धर्मों BHILASHIARRIA स्वर्ण जयंती वर्ष 76. अनेकांत विशेष जैन भारती मार्च-मई, 2002 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का निराकरण करता है और अपने ही अधिकार प्रतिष्ठित करता है वह दुर्नय है। दुर्नय स्यात् का तिरस्कार कर निरपेक्षता को अपनाता है। यह अपने पक्ष का आग्रह और पर का विरोध करता है, किंतु सुनय अनेकांतात्मक वस्तु के किसी विशेष अंश को मुख्य भाव से ग्रहण करके भी अन्य अंशों का निराकरण नहीं करता। उनकी ओर तटस्थ भाव रखता है। क्योंकि अनंत धर्मात्मक वस्तु में सभी नय बराबर हैं। इस तरह सभी सापेक्ष नय सुनय और निरपेक्ष नय दुर्नय कहे जाते हैं। नयवाद या इसके भेद - प्रभेदों आदि के विवेचन प्रसंग में मुख्य, गौण, सामान्य और विशेष—इन शब्दों का काफी प्रयोग होता है। वस्तुतः इन शब्दों पर ही नय, प्रमाण, अनेकांत और स्याद्वाद जैसे दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन आधारित होता है। अतः इन शब्दों का अर्थ समझ लेने से इन जटिल सिद्धांतों को समझ लेने में सरलता होती है। इन शब्दों के क्रमशः यहां तात्पर्यार्थ प्रस्तुत हैं मुख्य: प्रत्येक पदार्थ में अनेक धर्म या गुण होते हैं। उन अनेक धर्मों में से जिस समय जिस धर्म की विवक्षा होती है, उस समय वही धर्म प्रधान माना जाता है। इस विवक्षित प्रधान धर्म को उस समय मुख्य धर्म कहा जाता है। गौण : अनंतधर्मात्मक वस्तु में एक साथ सभी धर्मों का कथन तो संभव नहीं है। अतः उनमें से एक बार में एक धर्म का ही कथन संभव है । जिस समय जिस बिवक्षित धर्म का प्रतिपादन किया जा रहा है, उस मुख्य धर्म के अतिरिक्त बाकी सभी धर्म उस समय अविवक्षित होने से 'गौण' कहलाते हैं। अर्थात् जिनकी विवक्षा उस समय न हो, वे गौण होते हैं। यही गौण शब्द का अर्थ है। सामान्य : जैन दर्शन में वस्तु का लक्षण सामान्यविशेषात्मक माना जाता है। इसमें सामान्य द्रव्य है और उस द्रव्य की पर्याय 'विशेष' कही जाती है। अतः वस्तु के जिस धर्म के कारण अनेक पदार्थ एक जैसे दिखते हों, उसको सामान्य कहते हैं। जैसे अनेक गायों में गोत्व धर्म सामान्य है। विशेष सजातीय और विजातीय पदार्थों से भिन्नता का बोध कराने वाला धर्म 'विशेष' कहा जाता है। नय के भेद : नय के अनेक तरह से भेद किए गए हैं। सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन दिवाकर ने तो यहां तक कह दिया है कि 'जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया'अर्थात् जितने वचन विकल्प हैं उतने ही नयवाद हैं। मार्च मई, 2002 सर्वार्थसिद्धि में कहा है— 'नय अनंत भी हो सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक वस्तु की शक्तियां अनंत हैं अतः प्रत्येक शक्ति की अपेक्षा भेद को प्राप्त होकर नय अनंत विकल्परूप हो जाते हैं। फिर भी मूलरूप में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक—ये दो नय हैं, क्योंकि वस्तु सामान्यविशेषात्मक होती है। माइल्ल धवल के अनुसार सर्वनयों के मूल निश्चय और व्यवहार—ये दो नय हैं। इनमें निश्चय नय द्रव्याश्रित है और व्यवहार नय पर्यायाश्रित है। जो वस्तु में सामान्य धर्म को मुख्य और विशेष धर्म को गौण करता है, वह द्रव्यार्थिक नय है। इसके विपरीत जो वस्तु के सामान्य स्वरूप को गौण कर विशेष स्वरूप को मुख्यता से ग्रहण करता है, वह पर्यायार्थिक नय है। अर्थात् जो पर्याय को गौण करके द्रव्य का ग्रहण करता है उसे द्रव्यार्थिक नय तथा जो द्रव्य को गौण करके पर्याय को ग्रहण करता है उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं। वस्तुतः वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक या सामान्य विशेषात्मक है। द्रव्य और पर्याय को या सामान्य और विशेष को देखने वाली दो आंखें हैं—द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । एक दृष्टि से देखना एक देश को देखना है और दोनों दृष्टियों से देखना सब वस्तु को देखना है । इस तरह वस्तु को देखने की ये दो दृष्टियां हैं। इन्हीं को जब निश्चय तथा व्यवहार नय के नाम से अभिहित करते हैं तब जो अभेद और अनुपचार रूप से वस्तु का निश्चय करते हैं, वह निश्चय नय है तथा भेद और उपचार रूप से वस्तु का व्यवहार करना व्यवहार नय है । माइल्ल धवल ने भी कहा है- 'जो एक वस्तु के धर्मों में कथंचित् भेद व उपचार करता है उसे व्यवहार नय कहते हैं और उससे विपरीत निश्चय नय होता है। निश्चय नय को भूतार्थ और व्यवहार नय को अभूतार्थ कहते हैं। निश्चय न आत्मसिद्धि का हेतु है, अतः जब यह शुद्धात्मा को मुख्यता से विषय करता है, उस समय व्यवहार नय गौण रूप में उपस्थित रहता है। यदि एक नय का व्यवहार करते समय दूसरी नयदृष्टि का सर्वथा परित्याग कर दिया जाए, तो नयज्ञान सुनय कोटि में नहीं आ सकेगा। इस प्रकार नय के अनेक भेद किए गए हैं। किंतु जैनाचार्यों ने मुख्यता से जिन नैगम, संग्रह आदि सात नयों का प्रतिपादन किया है, नयवाद को समझने में बहुत सहयोगी बनते हैं। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि विविध दृष्टिकोणों के आधार पर नयों के असंख्यात भेद संभव हैं। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती अनेकांत विशेष • 77 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि प्रत्येक नय एक नया दृष्टिकोण उपस्थित करता है और यह दृष्टिकोण अपने में समीचीन होता है। किंतु मूल नय के भेदों के विषय में विभिन्न मत हैं। किंतु द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु के दो ही मूल अंश हैं और उनको विषय करने वाले ये दो मूल नय माने गए हैं। क्योंकि इन दो ही नयों में सभी नय गर्भित हैं। सात नय वचन प्रकारों के आधार पर निम्नलिखित सात नयों की व्यवस्था जैनाचार्यों ने की है—नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूद और एवंभूत' द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयों के ये सात उत्तर भेद हैं। इनका विवेचन इस प्रकार है: 1. नैगम नय : निगम अर्थात् संकल्प | प्रस्थ आदि रूप संकल्पमात्र को जो वस्तु रूप से ग्रहण करता है उसे नैगम नय कहते हैं। जैसे कोई पुरुष इस संकल्प से कि जंगल से लकड़ी लाकर उसका प्रस्थ (अनाज मापने का एक बर्तनविशेष) बनाऊंगा, कुल्हाड़ी लेकर जंगल की ओर जाता है, उससे कोई पूछता है कि कहां जा रहे हो ? वह कहता है, प्रस्थ लाने के लिए। यहां वह लकड़ी में प्रस्थ बनाने का संकल्प मात्र है, उसमें ही प्रस्थ का व्यवहार करता है। इस प्रकार यह लोक व्यवहार अनिष्पन्न अर्थ के आलंबन से संकल्पमात्र को विषय करता है । अतः यह सब नैगम नय का विषय है। 2. संग्रह नय : भेद सहित सब पर्यायों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करने वाला नय संग्रह नय है। जैसे सत्, द्रव्य और घट आदि । समस्त भेद प्रभेदों का उनकी जो-जो जाति है, उसके अनुसार उनमें एकत्व के ग्रहण करने वाले नय को संग्रह नय कहते हैं । जैसे सत् कहने पर सत्ता के आधारभूत सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है। 'द्रव्य' कहने पर जीव, अजीव और उनके भेदप्रभेदों का संग्रह होता है 'घट' कहने पर 'घट' रूप से कड़े जाने वाले समस्त घटों का संग्रह हो जाता है। - 3. व्यवहार नय : संग्रह नय के द्वारा ग्रहण किए गए पदार्थों का विधिपूर्वक भेद करना व्यवहार नय है जैसे जो सत् है, वह द्रव्य और पर्याय के भेद से दो प्रकार का है। व्यवहार से जीव द्रव्य के देव, नारकी आदि रूप और अजीव द्रव्य से 78 • अनेकांत विशेष घटादि रूप भेदों का आश्रय लिया जाता है। इस प्रकार इस नय की प्रवृत्ति वहीं तक होती है, जहां तक वस्तु में फिर कोई भेद करना संभव नहीं रहता। इस तरह लौकिक व्यवहार के अनुसार विभाग करने वाले नय को व्यवहार नय इसलिए कहा क्योंकि यह भेद-मूलक होता है। 4. ऋजुसूत्र नय : जो सरल को सूत्रित अर्थात् स्वीकार करता है वह ऋजुसूत्र नय है। यह एक समयवर्ती पर्याय को विषय करता है अतीत और अनागत चूंकि विनष्ट और अनुत्पन्न हैं, उनसे व्यवहार नहीं हो सकता। अतः इनका विषय एक क्षणवर्ती वर्तमान पर्याय है इसीलिए वर्तमान क्षण में होने वाले पर्याय को, प्रधान रूप से ग्रहण करने वाले नय को ऋजुसूत्र नय कहते हैं। 5. शब्द नय : लिंग, संख्या, कारक, काल, पुरुष और उपसर्ग आदि के भेद से अर्थ को भेद-रूप ग्रहण करने वाला शब्द नय होता है। शब्द की प्रधानता के कारण इसे शब्द नय कहते हैं। इसके अनुसार जब ये सब अलग-अलग हैं, तब इनके द्वारा कहा जाने वाला अर्थ भी पृथक्-पृथक् ही होना चाहिए। इसी कारण क्रियाभेद से भी अर्थभेद माना जाता है। 6. समभिरू नय लिंग आदि का भेद न होने पर भी शब्दभेद से अर्थ का भेद मानने वाला समभिरुद्ध है। जहां शब्द नय शब्दभेद से अर्थभेद नहीं मानता, वहां यह नय शब्दभेद द्वारा अर्थभेद स्वीकार करता है जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर – ये तीनों शब्द स्वर्ग के स्वामी इन्द्र के वाचक और सभी पर्यायवाची एवं एक ही लिंग के हैं, किंतु ये तीनों शब्द उस इन्द्र के भिन्न-भिन्न धर्मों को कहते हैं अर्थात् जब आनंद करता है तब इन्द्र, शक्तिशाली होने से शक्र तथा नगरों को नष्ट करने वाला होने से पुरन्दर कहा जाता है। इस प्रकार यह नय पर्याय भेद से शब्द के भिन्न अर्थ मानता है। 7. एवंभूत नय : जिस शब्द का जिस क्रियारूप अर्थ है, वह क्रिया जब हो रही हो तभी उस पदार्थ को ग्रहण करने वाला वचन और ज्ञान एवंभूत नय कहलाता है । समभिरूढ़ नय जहां शब्द - भेद के अनुसार अर्थभेद करता है, वहां एवंभूत नय व्युत्पत्यर्थ के घटित होने पर ही शब्दभेद के अनुसार अर्थभेद करता है। इसके अनुसार जिस शब्द का जिस क्रियारूप अर्थ स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च - मई, 2002 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है तद्रूप क्रिया से परिणत समय में ही उस शब्द का वह अर्थ हो सकता है, अन्य समय में नहीं। जैसे पूजा करते समय ही पुजारी कहना, अन्य समय में उस व्यक्ति को पुजारी न कहना एवंभूत का विषय है। एवंभूत नय में उपयोग सहित क्रिया की प्रधानता है। इन सात नयों में प्रारंभ के तीन द्रव्यार्थिक, शेष चार पर्यायार्थिक नय हैं। इन्हीं सात नयों में नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार अर्थ नय कहलाते हैं। शेष तीन नय शब्द नय हैं। ये सातों नय परस्पर सापेक्ष अवस्था में ही सम्यक् माने जाते हैं तथा निरपेक्ष अवस्था में दुर्नय । इन सातों की यह भी विशेषता है कि इनका विषय उत्तरोत्तर अल्प होता जाता है। इस प्रकार जैन दर्शन केवल भावना और विश्वास की भूमि पर खड़ा होकर मात्र कल्पनालोक में विचरण नहीं करता और न ही यह वस्तुग्राही दृष्टिकोणों का तिरस्कार ही करता है। यह तो अनंत गुण पर्यायात्मक वस्तु का विभिन्न दृष्टिकोणों द्वारा विश्लेषण और विवेचन करता है । वस्तु के धर्म अनंत हैं और उसके दर्शक दृष्टिकोण भी अनंत है। प्रतिपादन के साधन 'शब्द' भी अनंत हैं। अतः वस्तु स्पर्श करने वाली दृष्टियां अपने से भिन्न वस्तुओं को ग्रहण करने वाले दृष्टिकोणों को समादर करती हैं, वे सत्योन्मुख होने के कारण यथार्थ कही जाती हैं। जिन दृष्टियों में यह आग्रह रहता है कि मेरे द्वारा देखा गया वस्तु का अंश ही सत्य है, अन्य के द्वारा जाना गया मिथ्या है। वे वस्तु स्वरूप से परांग्मुख होने के कारण मिथ्या और विषमवादिनी होती हैं। इस प्रकार अनंत धर्मात्मक वस्तु को ग्रहण करने वाला दृष्टिकोण दर्शन है। मार्च मई, 2002 - अनेकांतवाद जैन दर्शन का हार्द यदि एक शब्द में कहना हो तो वह शब्द है—अनेकांतवाद । यही जैन दर्शन की विश्व को एक अनुपम और मौलिक देन है। जैन दर्शन की यह मान्यता है कि वस्तु बहुआयामी है, उसमें परस्पर विरोधी अनेक गुणधर्म हैं, किंतु प्रायः लोग अपनी एकांत दृष्टि से वस्तु का समय बोध नहीं कर पाते। जबकि अनेकांतवाद एक ऐसा सिद्धांत है जो वस्तुतत्त्व को उसके समग्र स्वरूप के साथ प्रस्तुत करता है। इसके बिना निर्विवाद लोक व्यवहार भी नहीं चल सकता। वस्तुतः आग्रही, एकांत और संकीर्ण स्वार्थपूर्ण विचारों के कारण ही आज ईर्ष्या, कलह, कलुषता और परस्पर विवाद की स्थिति निर्मित होती जा रही है, ऐसी स्थिति में अनेकांतवाद बहुत उपयोगी है। क्योंकि अनेकांतवादी वस्तुतत्त्व के विभिन्न पक्षों को तत्-तद् दृष्टि से स्वीकार कर समन्वय का श्रेष्ठ मार्ग अपनाता है, वह सिर्फ अपनी ही बात नहीं करता अपितु सामने वाले की बात को भी धैर्यपूर्वक सुनता है। जहां सिर्फ अपनी ही बात का आग्रह होता है, वहां दूर-दूर तक सत्य के दर्शन नहीं होते। वैचारिक अहिंसा अर्थात् अनेकांतवाद अहिंसा - पालन हेतु वैचारिक मतभेदों को दूर करने का मार्ग जैन धर्म में 'अनेकांत' सिद्धांत द्वारा प्रतिपादित किया गया। अनेकांतवाद वह सिद्धांत है जो वस्तुतत्त्व विषयक वैज्ञानिक अनुभव पर आधारित है, जो व्यक्ति को उदार एवं सम्यक दृष्टि प्रदान करता है। प्रत्येक वस्तु में अनेक गुणधर्म होते हैं। उनके अनेक पहलू होते हैं। भिन्नभिन्न व्यक्ति, भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से उनका वर्णन करते हैं, क्योंकि सत्य किसी व्यक्ति या धर्म की बपौती नहीं है। सबकी बात सहिष्णुतापूर्वक सुनो और जिस दृष्टिकोण से वह कही गई है, उसे उसी दृष्टिकोण से समझने का प्रयत्न करना चाहिए। हमारे बड़े से बड़े विरोधी की बात भी किसी-न-किसी दृष्टिकोण से सही हो सकती है । उदार, समन्वय बुद्धि से उस बात को सुनने और उस पर विचार करने की आवश्यकता है। ऐसी दृष्टि प्राप्त होने पर कदाग्रह, हठधर्म, पक्षपात आदि के लिए गुंजाइश नहीं रहती। समस्त पारस्परिक विवाद एवं झगड़े समाप्त करने का यह अमोघ उपाय है। अनेकांत विचारधारा वाला व्यक्ति जो कथन करता है, वह स्याद्वाद पद्धति से करता है । 'ही' के स्थान में 'भी' का प्रयोग करता है। अपनी बात ही संपूर्ण सत्य है और अन्य सबका मत सर्वथा असत्य है—ऐसा एकांत दावा वह नहीं करता। वह तो 'जो सच्चा सो मेरा' – इस यथार्थ मान्यता का अनुसरण करते हुए 'जो मेरा सो सच्चा' - इस अयथार्थ मान्यता के आग्रह का त्याग करता है। इस प्रकार की सहिष्णुतापूर्ण उदार समन्वय बुद्धि, पारस्परिक शांति की विधायक है । इसका प्रयोग दार्शनिक और धार्मिक क्षेत्र में ही नहीं, सामाजिक, राजनीतिक तथा लौकिक जीवन के भी प्रत्येक क्षेत्र में सफलतापूर्वक किया जा सकता है और उसके द्वारा शांति का संप्रसारण होगा ही । इसीलिए जैन धर्म के इस सापेक्षिक अनेकांत सिद्धांत को वैचारिक और । व्यावहारिक अहिंसा कहें तो अत्युक्ति न होगी। वस्तुतः सत्य का परिज्ञान कराने के लिए वस्तु का सभी दृष्टियों से विचार करना अत्यन्त अपेक्षित है। अतः स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती अनेकांत विशेष • 79 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांतवादी दृष्टिकोण के अनुसार प्रत्येक पदार्थ नित्य और यद्यपि इस सिद्धांत की कुछ जटिलता के कारण अनित्य है। जहां नित्यता है, वहां अनित्यता भी है। इसीलिए कहीं-कहीं इस दर्शन की विवेचनाओं में पूर्वापर विरोध-सा तीर्थंकर महावीर ने कहा, 'उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' प्रतीत होने लगता है, किंतु इस सिद्धांत का हार्द समझ (स्थानांग सूत्र-10) अर्थात् तत्त्व उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य लेने पर कोई भी सहृदयी व्यक्ति इसे अपनाकर इसकी से युक्त है, अर्थात् पर्याय दृष्टि से उत्पन्न और विनष्ट प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता। क्योंकि तत्त्व की होता हुआ भी द्रव्य नित्य है। कोई भी पदार्थ इसका कभी भी जितनी विशदता तथा व्यापकता से विवेचना प्रस्तुत करने अपवाद नहीं हो सकता। किंतु पर्यायों का विनाश और में यह अनेकांत का सिद्धांत समर्थ है, उतना विश्व में अन्य उत्पाद सदैव होता रहता है। नित्यत्व पदार्थ के मूल स्वभाव कोई सिद्धांत नहीं है। से संबधित है, जो सदा-सर्वदा ध्रुव है, शाश्वत है और इस तरह हम देखते हैं कि आज के संदर्भ में हम जबकि अनित्यत्व पदार्थ की पर्याय से संबंध रखता है। अपने प्यारे भारत देश की एकता और अखंडता सुरक्षित पर्याय परिवर्तनशील है। अतः नाशवान है। इसे हम इस रखने में इस अनेकांत सिद्धांत का प्रयोग करके उसे साकार तरह भी समझ सकते हैं जैसे एक घड़ा है, घड़े का दूसरा कर सकते हैं। क्योंकि हमारा देश विभिन्न वर्गों, जातियों, रूप मिट्टी है। वह अतीत काल में भी विद्यमान थी, वर्तमान समदायों भाषाओंभों विभिन्न भाषाओं आदि कप में में भी है और आगतकाल में भी रहेगी, अर्थात् घड़े का ऐसा संगठित रूप है, जहां अनेकता और विभिन्नताओं में विनाश होने पर भी मिट्टी अपने रूप में रही है। इस एकता के दर्शन होते हैं। इस प्रकार की राष्ट्रीय एकता की दृष्टिकोण से पदार्थ न एकांत नित्य है, न एकांत अनित्य, वह भावना का निरंतर विकास अनेकांत सिद्धांत का प्रत्यक्ष तो नित्य-अनित्य उभय रूप है। उदाहरण है और विशेषकर यह सिद्धांत तब और कार्यकारी इसीलिए अनेकांत शब्द की उत्पत्ति भी इस प्रकार की सिद्ध होता है जब हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में अब केंद्र गई है—'अनेके अन्ताः यस्मिन् असौ अनेकान्तः'- और प्रदेशों में किसी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत न मिल जिसमें अनेक धर्म तादात्म्य भाव से रहते हैं, उसका नाम पाने के कारण विभिन्न और विरोधी विचारधाराओं की अनेकांत है। इसी अनेकांतमयी जैन शासन में विवक्षावश तेरह-तेरह या इससे भी अधिक पार्टियों को एक साथ किसी बात को गौण और कभी किसी को मुख्यरूपता प्रदान मिलकर सरकार बनाने के लिए विवश होना पड़ता है, तब की जाती है। तो विभिन्नताओं में एकता के इस प्रयास को अनेकांत नाम तत्त्वार्थवार्तिक में अनेकांत का छल करने वालों को ही दिया जा सकता है। इस प्रकार के संतुलित समझौते. आचार्य अकलंकदेव स्वामी ने कहा कि जो लोग' वही सामंजस्य, सापेक्षता और समरसता की भावनाएं वस्तु है और वही वस्तु नहीं है, वही नित्य है और वही अनेकांतिक चिंतनधाराओं के विकास की प्रत्यक्ष उदाहरण अनित्य—ऐसा कैसे हो सकता है? वह तो छलमात्र हुआ, ह, जा हम वा हा है, जो हमें विभिन्नताओं के बाद भी मिला-जुलाकर एक ऐसा कहकर अनेकांत का मजाक उड़ाते हैं, वे वस्तुतः साथ रहने और विश्वबंधुत्व की भावना को प्रोत्साहित करने अनेकांत को समझ ही नहीं सके। अनेकांत छल रूप नहीं में सहायक हैं। किंतु हमें तीर्थंकर महावीर की उन भावनाओं है, क्योंकि जहां वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की को ध्यान में रखना होगा, जिनमें 'सर्वजीव हिताय सर्वजीव कल्पना करके वचन-विधान किया जाता है. वहां छल होता सुखाय' की मंगल भावना निहित है। है। जैसे 'नव कम्बलो देवदत्तः'- यहां 'नव' शब्द के दो संदर्भ अर्थ होते हैं। '9' संख्या तथा दूसरा 'नया'| तब 'नूतन' 1. प्रमाणनयैरधिगमः तत्त्वार्थसूत्र 1/6 विवक्षा कहे गए 'नव' शब्द संख्या रूप अर्थ विकल्प करके 2. क. ज्ञातृणामभिसन्धयः खलु नयाः-सिद्धिविनिश्चय 10/1 वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना छल कही ख. नयोज्ञातुरभिप्राय:-लघीयस्त्रय, श्लोक 52 जाती है। किंतु सुनिश्चित मुख्य-गौण विवक्षा से संभव 3. माइल्ल धवल कृत नयचक्र : प्रस्तावना, पृ. 11, सं. पं. अनेक धर्मों का सुनिर्णीत रूप से प्रतिपादन करने वाला कैलाशचंद्र शास्त्री अनेकांतवाद 'छल' नहीं हो सकता, क्योंकि वचन विघात 4. सिद्धिविनिश्चय, भाग 1, प्रस्तावना, पृ. 140, सं. पं. महेन्द्र नहीं किया गया है, अपितु यथास्थिति वस्तुतत्त्व का कुमार जैन निरूपण किया गया है। 5. सर्वार्थसिद्धि 1/33-2, पैरा. 1-249 स्वर्ण जयंती वर्ष 80. अनेकांत विशेष जैन भारती मार्च-मई, 2002 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शारीरिक संरचना में झलकता अनेकांत डॉ. जे. पी. एन. मिश्रा सर्वथा सर्वथा भिन्न प्रकार की रचना एवं क्रिया वाले जीवों का एक साथ सामंजस्य बिठाते हुए सहजीवन बिताना अनेकांत का उत्कृष्ट उदाहरण माना जा सकता है। यूं तो विरोधीगुण, विरोधी प्रकृति तथा विरोधी विचारधारा के बावजूद मिलजुल कर परस्पर प्रेम से रहना, संघर्ष से बचते हुए सह-अस्तित्व की रक्षा करना ही अनेकांत है, पर यह केवल व्यवहार के लिए ही नहीं प्रकृति के अनेक अन्य क्षेत्रों में भी लागू होता है। मानव समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ माना जाता है। इस श्रेष्ठता का पैमाना उसका चिंतन और व्यवहार है । व्यवहार वह प्रक्रिया है जो मनुष्य स्वयं के साथ करता है, अन्य मनुष्यों के साथ करता है, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के साथ करता है और अन्य प्राणियों के साथ संपादित करता है। व्यवहार की प्रक्रिया में मनुष्य के साथ-साथ कोई एक अन्य पक्ष अवश्य होता है, यानी व्यवहार द्विपक्षीय प्रक्रिया है। द्विपक्षीय व्यवहार में अनेकांत की भूमिका अपेक्षाकृत स्पष्ट दृष्टिगोचर हो सकती है। यदि हम सूक्ष्मता से विचार करें तो मानव शरीर की रचना एवं क्रिया अनेकांत की सार्वभौमिकता एवं शाश्वतता को सिद्ध कर रही दिखाई देती है। परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, शरीर के अंदर प्रतिक्रियाएं सदा संतुलित रूप से ही संपादित होती हैं। यदि कहीं असंतुलन होता है तो वह आनुवंशिकता या अन्य रचनात्मक दोषों के कारण ही होता है। इन सभी अनुक्रियाओं के बीच विरोध के साथ सह-अस्तित्व अनेकांत का ज्वलंत उदाहरण है। शारीरिक संरचना के स्तरों में अनैकांतिक व्यवस्था मानव शरीर की संरचना के मुख्य पांच स्तर होते हैं— 1. रासायनिक स्तर, 2. कोशिकीय स्तर, 3. ऊतकीय स्तर, 4. अंगीय स्तर 5. तंत्रीय स्तर । मार्च - मई, 2002 रासायनिक स्तर का संबंध प्रकृति में पाए जाने वाले रासायनिक तत्त्वों से है। हाइड्रोजन, आक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन, फास्फोरस, लोहा, तांबा आदि इसके कुछ उदाहरण हैं। ये सारे तत्त्व, जिनकी कुल संख्या वर्तमान में 109 है— स्वतंत्र रूप से भी और संयुक्त रूप से भी प्रकृति में पाए जाते हैं। हममें से हर कोई पानी से परिचित है। पानी का निर्माण हाइड्रोजन और आक्सीजन के क्रमशः दो और एक अणुओं के मिलने से होता है। ये दोनों प्रकार के अणु जब एक विशेष प्रकार के 'बंध' के द्वारा एक-दूसरे से बंध जाते हैं, तो पानी बन जाता है। इसी प्रकार विभिन्न प्रकार के दो या दो से अधिक अणु जब निश्चित अनुपात में 'बंध' बनाते हैं तो उसे यौगिक कहते हैं। कहना न होगा कि समस्त सृष्टि की रचना इन्हीं तत्त्वों / यौगिकों के द्वारा ही हुई है— चाहे वे जीवित प्राणी हों या मृत पदार्थ। यहां यह उल्लेखनीय है कि इन तत्त्वों की रचना विरोधी गुणधर्म वाले इलेक्ट्रॉनों / प्रोटॉनों के संयोग से होती है। इन तत्त्वों के अणु विपरीत गुण वाले होते हुए भी आपस में संयोग करते हैं। संयोग ही नहीं, कुछ इस प्रकार की रचना के लिए आपस में 'बंध' बनाते हैं जो सर्वथा स्थाई और दृढ़ होते हैं। मानव शरीर की संरचना में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन, खनिज लवण आदि यौगिक प्रमुख हैं । सर्वथा विपरीत गुण रखते हुए भी ये सारे रासायनिक पदार्थ एक साथ मिलते हैं, रहते हैं, कार्य करते हैं और जीवन को आयाम देते हैं। कोशिकीय स्तर का प्रादुर्भाव विशिष्ट इकाई रचनाओं से होता है जिसे कोशिका कहते हैं। कोशिका जीव की ऐसी इकाई है जो जीवन के समस्त लक्षणों से ओतप्रोत तथा समग्र गुणों वाली होती है। सबसे पहली भिन्नता कोशिका के आकार-प्रकार में होती है। कुछ कोशिकाएं गोल या स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती अनेकांत विशेष • 81 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंडाकार, कुछ आयताकार, कुछ सूत्र की तरह लंबी, कुछ 'गुणों के जोड़ों' के कतिपय उदाहरण हैं। यह प्रकृति का बेलनाकार, कुछ शंखाकार तथा कुछ चपटी होती हैं। कुछ चमत्कार और अनेकांत का अनुपम उदाहरण ही तो है कि कोशिकाओं से रोम निकले होते हैं जबकि कुछ कोशिकाओं हजारों गुणों के एक साथ रहते हुए भी कभी अंतर्गुणीय संघर्ष का आकार अव्यवस्थित और अस्तव्यस्त होता है। यही नहीं होता। जहां-कहीं भी एक गुण होगा उसका विरोधी नहीं, कोशिकाओं की अवस्थिति में भी बहुत-सारी उसके साथ होगा, परंतु जब एक सक्रिय होगा तो दूसरा विविधताएं होती हैं। कोशिकाओं का आकार कुछ निष्क्रिय-जिसके कारण स्वतः ही सामंजस्य स्थापित हो माईक्रोमीटर से लेकर मिलीमीटर व्यास या परिमाप का होता जाता है। है। यह तो हुई बात इनके आकार-प्रकार की। अब इनकी शरीर के ऊतकीय स्तर में एक समान कोशिकाएं संरचना की ओर दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि वहां भी अलग- अपने-अपने व्यक्तिगत गुणों के साथ एक साथ सहवास अलग प्रकार की विशिष्टताओं की भरमार है। किसी एक करते हुए एक विशेष प्रकार की रचना बनाती हैं। जब कोमल कोशिका की मूल संरचना में सबसे बाहरी आवरण होता है कोशिकाएं मिलती हैं तो मद् ऊतक बनता है और जब कड़ी जो झिल्ली के आकार का होता है जिसे कोशिका भित्ति कहते कोशिकाएं (ऐसी कोशिकाएं जिनकी भित्ति अपेक्षाकत हैं। उसके अंदर गाढ़ा तरल पदार्थ होता है जिसे जीवद्रव्य अधिक कठोर और मजबूत होती है) मिलती हैं तो कठोर कहते हैं। जीवद्रव्य के केंद्र में एक छोटी-सी गोल रचना होती ऊतक बनता है। आवश्यकतानुसार मृदु और कठोर ऊतक है जिसे केंद्रक कहते हैं। कोशिका भित्ति के निर्माण हेतु वसा एक साथ भी सहवास करते हैं तो अतिविशिष्ट प्रकार के और प्रोटीन तथा फास्फेट नामक तीन विपरीत गुण-धर्म वाले ऊतकों का निर्माण होता है। अलग प्रकार की विशेषता एवं रासायनिक पदार्थ मिलते हैं जो कोशिका को दृढ़ रूप देते हैं। विपरीत गुण-धर्म के बाद भी दो भिन्न ऊतक एक-दूसरे का यह भित्ति अनेक अति सूक्ष्म छिद्रों वाली होती है। इन छिद्रों आदर करते हैं, पोषण करते हैं तथा एक-दूसरे की सुरक्षा भी पर रासायनिक यौगिक ही सुरक्षा प्रहरी का कार्य करते हैं जो करते हैं, यही नहीं एक-दूसरे की तकलीफों में भागीदार भी चुने हुए पदार्थों को कोशिका के अंदर आने-जाने की अनुमति बनते हैं। जब किसी एक ऊतक में घाव हो जाता है या कोई देते हैं। प्रकृति की कितनी चामत्कारिक विशेषता और विकृति आ जाती है तो दूसरा ऊतक, जो उसके पास भी हो जटिलता है कि अनेकानेक पदार्थों के आस-पास भ्रमण के सकता है और दूर भी हो सकता है—निःस्वार्थ भाव से बाद भी वहां कोई रासायनिक संघर्ष नहीं होता, सब-कुछ उसकी रोगमुक्ति का कारण बनता है। यह है सह-अस्तित्व सहजता से होता चला जाता है। जीवद्रव्य गाढ़ा तरल पदार्थ एवं अनेकांत का सच्चा दृष्टांत।। होते हुए भी अपने अंदर भांति-भांति के कोशिका उपांगों को शरीर की रचना के क्रम में ऊतकों के बाद अगली समाहित किए होता है। इनमें माइटोकान्ड्रिया, सीढ़ी अंगीय स्तर की होती है। जब भिन्न-भिन्न प्रकार के एन्डोप्लामिक रेटिकुलम, गाल्जीकाम, लाइसोसोम आदि अंग एक साथ मिलते हैं तो विशेष कार्य के लिए विशेष रचना प्रमुख हैं। इनमें से कोई श्वसन का काम करता है, कोई खाना बनती है, जिसे अंग कहा जाता है। नाक, आंख, कान, दांत, खाने-पचाने का काम करता है तो कोई उत्सर्जन का। कोई जीभ, अंगुली, हाथ, पैर, हृदय, यकृत, फेफड़े अंगों के भी उपांग एक-दूसरे के कामों में हस्तक्षेप नहीं करते, बल्कि कतिपय उदाहरण हैं। एक 'अंगुली' की रचना को देखें तो एक-दूसरे को सहयोग ही करते हैं। अनेकांत का इससे इसकी व्यवस्था में अनेक ऊतक शामिल हैं। कठोर तथा बेहतर उदाहरण अन्यत्र कहां मिल सकता है। जीवद्रव्य के निश्चित आकार वाली अस्थि, रक्तवाहिकाएं, तंत्रिका अंदर पाया जाने वाला केंद्रक कोशिका का या यों कहें कि शाखाएं, रक्त, पेशियां और त्वचा मिलकर इसका निर्माण जीवन का तिलिस्मी खजाना है। इसके अंदर पत्ती के आकार करती हैं। इन सभी ऊतकों की प्रकृति सर्वथा भिन्न है, फिर के गुणसूत्र होते हैं जिन्हें सामान्यतया क्रोमोसोम कहा जाता भी जब अंगुली की बात आती है तो सभी की एकजुटता या है। इनके ऊपर डी.एन.ए. के बने हुए 'जीन' होते हैं। मानव इनके बीच अनैकांतिक समावेश स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। जाति के जितने भी संभावित गुण होते हैं उनमें से हर एक के शरीर की रचना के स्तरों में अंतिम है तंत्रीय लिए अलग-अलग 'जीन' होते हैं। कालापन-गोरापन, व्यवस्था। कोशिका से लेकर अंगों तक की जितनी रचना लंबाई-ठिगनापन, मंदबुद्धि-तीव्रबुद्धि, क्रोधी-शांत आदि बनती है वह सोद्देश्य होती है। हर अंग का योगदान एक ETHER E 82. अनेकांत विशेष स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती | मार्च-मई, 2002 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्यविशेष की दिशा में होता है जो एक जैसा भी हो सकता हमारा शरीर प्रकृति का एक अंश है और आत्मा है और भिन्न भी हो सकता है। एक तंत्र की व्यवस्था में पुरुष का। कर्म करना हमारा सहज स्वभाव है। कर्मों के अनेक, परंतु अलग-अलग आकार-प्रकार तथा प्रकृति के कारण सभी आत्माएं जन्म, मृत्यु एवं पुनर्जन्म के चक्र में अंग शामिल होते हैं। उदाहरण के लिए हम श्वसन तंत्र को उलझी रहती हैं। जीवन के वैज्ञानिक स्वरूप को समझने लें। इसमें नासाद्वार, नासागुहा, ग्रसनी, श्वासनली, तथा उससे लाभान्वित होने में कर्म-सिद्धांत अत्यंत सहायक श्वसनिका और फेफड़े शामिल होते हैं। नासाद्वार, नासागुहा होते हैं। कार्मिक विकास प्रक्रिया को ठीक ढंग से न समझ और ग्रसनी, जो अपेक्षाकृत कठोर स्वरूप की होती पाने के कारण ही लोग उसे धारण नहीं कर पाते। पूर्ववत् हैं—मिलकर वायु को श्वासनली तक पहुंचाते हैं। कर्म को रूढ़ता के साथ किया जाता है तथा वर्तमान जीवन श्वासनली—जो कुछ मुलायम तथा कुछ कठोर ऊतकों का के प्रति एक नियतिवादी धारणा बना ली जाती है। मिलाजुला रूप है-उस वायु को निश्चित दाब के साथ प्रकति और पुरुष, सूक्ष्म तत्त्व और पंचमहाभूत, फेफड़ों तक ले जाती है। फेफड़ों की रचना अत्यंत मृदु, ज्ञानेंद्रियां तथा कर्मेंद्रियां आदि अपने-आप में एक-दूसरे से झिल्लीनुमा तिहरे आवरणों से होती है जिनके बीच-बीच में सर्वथा भिन्न होते हुए भी परस्पर सहयोग कर शारीरिक छोटे-छोटे प्रकोष्ठ होते हैं, जिनके चारों तरफ रक्त की अस्तित्व के कारण बनते हैं यह अनेकांत दर्शन का वाहिकाओं में रक्त का सघन प्रवाह होता है। वहां पहुंचने के ज्वलंत उदाहरण है। बाद वायु से आक्सीजन रक्त में चली जाती है और रक्त के अंदर से कार्बन-डाईआक्साइड निकलकर प्रकोष्ठों की वायु विविध शरीर-क्रियाओं में अनेकांत में मिल जाती है। इस प्रकार एक ही तंत्र के सहयोगी मूलतः शरीर एक इकाई के रूप में कार्य करता है। अवयवों में कुछ इस प्रकार तालमेल होता है कि एक वाय एक व्यक्ति के पीछे एक ही शरीर होता है। उसके व्यवहार को अंदर लाता है, दूसरा उसे बाहर निकालता है; एक को एक व्यक्ति के व्यवहार के रूप में देखा जाता है, परतु आक्सीजन अपने अंदर आत्मसात करता है; दूसरा उसके शरीर-क्रिया विज्ञान के दृष्टिकोण से देखा जाए तो कई विपरीत कार्बन-डाईआक्साइड को बाहर निकालता है। आश्चर्यजनक तथ्य सामने आते हैं। जीवन चलाने के लिए मुख्य रूप से निम्नांकित क्रियाएं की जाती हैं। दर्शन ___ सांख्य दर्शन के अनुसार शरीर का अस्तित्व भिन्न __1. चयापचय, 2. वृद्धि, 3. गति, 4. उत्तेजनात्मकता प्रकृति वाले घटकों के मेल का परिणाम है। उसके अनुसार अथवा प्रतिक्रिया, 5. विभेदित विकास, 6. प्रजनन। समूचा ब्रह्मांड विश्वात्मा और प्रकृति नामक दो घटकों से चयापचय-एक सामान्य-सी बात दिखाई देती है मिलकर बना है। प्रकति में तीन गण होते हैं-सत्त्व (सत्य, कि मनुष्य जो-कुछ खाता-पीता है या ग्रहण करता है वह शुचिता, सौंदर्य और संतुलन), रजस (शक्ति तथा वेग) तथा शरीर के अंदर जाकर किसी अन्य रूप में परिवर्तित हो तमस (गति को रोकने तथा बाधित करने का गुण)। प्रकति जाता है। आहार के रूप में ग्रहण किए गए पदार्थों-चावल, के अंदर कर्म करने की प्रवृत्ति नहीं होती, क्योंकि वह जड़ है। दाल, चपाती, सब्जी, दूध, घी, मिठाई आदि को यदि शरीर पुरुष प्रकृति का चेतन तत्त्व है। यह गुणों से ऊपर होता है। के अंदर खोजा जाए तो उनका कोई अस्तित्व नहीं मिलेगा। पुरुष पदार्थ में जीवन का संचार करता है। पुरुष और प्रकृति यह शरीर की क्षमता ही है जो बाजरे की कठोर रोटी तथा के संयोग से ही संपूर्ण सृष्टि को अस्तित्व प्राप्त होता है। मक्खन जैसे कोमल पदार्थों दोनों को समूल परिवर्तित कर शरीर का अस्तित्व भी इनमें से एक है। इनके संयोग से तीन देती है। ये खाद्य पदार्थ परिवर्तित होकर अस्थि, मज्जा, अन्य घटकों की उत्पत्ति होती है। ये हैं-महत या बद्धि. रक्त, हार्मोन, आंसू, पाचक रस आदि-आदि अनेक अहंकार तथा मन। इन तीनों से पांच सूक्ष्म तत्त्वों की उत्पति रासायनिक पदार्थों में बदल जाते हैं। चयापचय की संपूर्ण होती है–ध्वनि, स्पर्श, आकृति, रस एवं गंध। सूक्ष्म तत्त्वों प्रक्रिया 'चय' और 'अपचय' नामक दो क्रियाओं के क्रमिक द्वारा ही पंच महाभूतों-आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा रूप से घटित होने से पूरी होती है। जो-कुछ हम खाते-पीते पृथ्वी का ज्ञान होता है। इन पांचों से संबंधित पांच ज्ञानेंद्रियां हैं उसे तोड़-फोड़ कर उनके मूल यौगिकों/अणुओं में हैं-कर्ण, त्वचा, चक्ष, जिह्वा, नासिका तथा पांच कर्मेंद्रियां परिवर्तित करने को अपचय तथा इन अणुओं को हैं—मुख, हस्त, पाद, गुदा तथा जननेंद्रिय। पुनर्नियोजित कर नए और शरीर के उपयोग लायक पदार्थों स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.83 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के निर्माण को चय कहते हैं। यह प्रक्रिया सुनने में जितनी सहज लगती है, हकीकत में उतनी आसान नहीं है। अनैकांतिक व्यवहार के रूप में शरीर के अनेक अंग इसमें अपना सक्रिय योगदान देते हैं। दांत भोजन को काटते चबाते हैं। जीभ चबाने में मदद करती है। लार ग्रंथियां लार बनाती हैं जो भोजन की रासायनिक क्रिया व पाचन में मदद करती है। भोजन जब ग्रासनली के सहयोग से नीचे आमाशय में जाता है, वहां जठर रस भोजन को आगे पचाता है। फिर जब कुछ पचा हुआ भोजन आगे छोटी आंत में जाता है तो उसमें यकृत (लीवर) से पित्त और क्लोम ग्रंथि से अग्नाशय रस मिलता है तब जाकर भोजन का पाचन पूर्ण होता है। यहां तक आते-आते भोजन शरीर के उपयोग लायक पदार्थों में टूटकर रक्त में अवशोषित कर लिया जाता है। इसी प्रकार श्वसन क्रिया के क्रम में नाक की सहायता से श्वास श्वासनली में होता हुआ फेफड़ों में पहुंचता है, जहां गैसों (आक्सीजन, कॉर्बनडाई आक्साईड) का विनिमय होता है। आक्सीजन रक्त में जाती है और कार्बनडाईआक्साईड बाहर निकलती है। रक्त के साथ मिलकर उपयोगी खाद्य- अणु तथा आक्सीजन शरीर की प्रत्येक कोशिका के अंदर पहुंचते हैं, जहां उनका आक्सीकरण होता है। इस आक्सीकरण की प्रक्रिया में कोशिका के वही उपांग सक्रिय भूमिका निभाते हैं जिनका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। आक्सीकरण के पश्चात् ऊर्जा मुक्त होती है जो ए.टी.पी. के रूप में संग्रह की जाती है तथा कार्बनडाईआक्साईड, पानी एवं अन्य त्याज्य पदार्थ पुनः रक्त परिपथ में आ जाते हैं जो गुर्दों के द्वारा छानकर पेशाब के रूप में बाहर कर दिए जाते हैं। कोशिकाओं तक लाए गए विभिन्न यौगिकों / अणुओं की पुनर्संयोजन की प्रक्रिया तथा ऊर्जा की सहायता से एक ओर आवश्यक नवीन रसायनों का उत्पादन होता है, दूसरी ओर नवीन कोशिकाओं का निर्माण होता है जिससे शरीर में वृद्धि होती है इस प्रकार चयापचय का चक्र अनवरत चलता रहता है। उपरोक्त पूरे प्रकरणों पर समग्र रूप से दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि शरीर के बहुत सारे अंग, बहुत सारे तंत्र एक साथ मिलकर कार्य करते हैं अलग-अलग रचना तथा कार्य होते हुए भी वे कभी एक दूसरे का विरोध नहीं करते, बल्कि सहयोग करते हैं। पूरी प्रक्रिया में यदि कोई कड़ी कमजोर साबित होती है तो उसके कार्यों को कोई दूसरा अंग निर्वहन 84 • अनेकांत विशेष करने के लिए वैकल्पिक व्यवस्था तत्काल कर लेता है। उदाहरण के लिए जब किन्हीं कारणों से शरीर के अंदर प्रोटीन की कमी हो जाती है तो पाचन संस्थान और शरीर की कतिपय अन्य कोशिकाएं पहले कार्बोहाईड्रेट को जोड़कर कार्बन, आक्सीजन और हाईड्रोजन मुक्त करती हैं। तत्पश्चात् नाईट्रोजन अणुओं को मिलाकर वे प्रोटीन का निर्माण कर लेती हैं तथा प्रोटीन की न्यूनतम आवश्यकता पूरी हो जाती है। इसी प्रकार जब कार्बोहाइड्रेट की कमी होती है तो प्रोटीन को कार्बोहाईड्रेट में परिवर्तित करने का क्रम शुरू हो जाता है। कार्बोहाइड्रेट और वसा दोनों यौगिक शरीर के लिए ऊर्जा के मुख्य स्रोत होते हैं, परंतु शरीर बसा का उपयोग तभी करता है जब कार्बोहाइड्रेट की कमी होती है। ऐसी स्थिति में परस्पर सहयोग की भावना के अंतर्गत बसा को अन्य कार्यों से मुक्त करके मात्र ऊर्जा उत्पादन के लिए उपलब्ध कराया जाता है। ये सारी व्यवस्थाएं शरीर के अंदर क्रियात्मक अनेकांत की भावना की परिचायक हैं। वृद्धि — मात्र एक कोशिका से प्रारंभ होकर एक वयस्क प्राणी बन जाना वृद्धि कहलाता है। यह जीवन का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है। वास्तव में आकार में बढ़ने की प्रक्रिया ही वृद्धि है। जीवित प्राणी होने के कारण मानव शरीर की वृद्धि सुनियोजित ढंग से होती है। हर एक अंग की वृद्धि आनुपातिक रूप में ही होती है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण और नियंत्रक की भूमिका निभाने वाले अंग मस्तिष्क के वृद्धि विकास का क्रम भी सदैव सीमा के अंदर होता है। - ऐसा नहीं है कि अपेक्षाकृत अधिक शक्तिशाली तथा नियामक शक्तियों से युक्त होने के कारण वह आकार में बड़ा हो जाए तथा हाथ, पैर, अंगुलियां और आंख, कान, नाक आदि छोटे रह जाएं। ऐसी ही व्यवस्था सभी अंगों और तंत्रों के साथ लागू होती है। कोई अंग किसी अन्य अंग के अधिकारों का अतिक्रमण कभी नहीं करता, चाहे वह कितना ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हो। इसी का परिणाम है कि शरीर संतुलित रूप से कार्य करने में सक्षम होता है। हां, कभीकभी ऐसी परिस्थितियां भी सामने आती हैं कि किसी अंगविशेष को अधिक कार्य करने की आवश्यकता होती है। उस दशा में उसको अधिक सशक्त बनाया जाना अपेक्षित होता है। तब इसकी इकाइयों में बढ़ोतरी के साथ उसके आकार में भी बढोतरी आवश्यक हो जाती है। ऐसे में अन्य सभी अंगों के सापेक्षिक सहयोग एवं सहमति से उसमें अधिक वृद्धि का क्रम शुरू हो जाता है। स्वस्थ जीवन चलाने एवं संतुलित शारीरिक कार्यों के लिए इस प्रकार के नियोजित एवं परस्पर स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च - मई, 2002 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोग की भावना को अनेकांत की व्यावहारिक परंपरा के शरीर के अंदर का तापमान सदैव एक जैसा ही रहता है। रूप में देखा जा सकता है। जब बाहर तापमान बहुत कम होता है तो पेशियां तथा लीवर गति-सभी जीवित प्राणी और वनस्पतियां गति की कोशिकाएं अधिक मात्रा में ऊष्मा का उत्पादन करती हैं। करते हैं. परंत सब में उसका स्वरूप अलग-अलग होता है। रक्त उस ऊष्मा को पूरे शरीर में फैलाने का माध्यम बनता मानव स्वच्छंद रूप से गति करने वाले प्राणियों में से एक है। है। इस क्रम में जब तापमान बढ़ने लगता है और वह नियत गति करने के लिए पेशियों का कार्य करना. शरीर की सीमा से ऊपर जाने लगता है तो इन्हीं अंगों की कतिपय अस्थि-संधियों में निरंतरता बने रहना, इन सभी कार्यों में कोशिकाएं उसका विरोध शुरू कर देती हैं और ऊष्मा का निरंतर आवश्यक निर्देश मिलते रहना आवश्यक होता है। उत्पादन रुक जाता है। इसके ठीक विपरीत जब बाहर पेशियां फैलती-सिकुड़ती हैं, अस्थियां उन्हें फैलने-सिकड़ने तापमान अपेक्षाकृत अत्यधिक न्यून होता है तब एक तो का आधार देती हैं, रक्त प्रवाह से उन्हें समर्थन और सहयोग ऊष्मा का उत्पादन अत्यधिक कम कर दिया जाता है, दूसरे मिलता है, तंत्रिकाएं उन्हें आवश्यक निर्देश देती रहती हैं। पसीना निकालकर एवं ऊष्मा के फैलाव की दिशा बदलकर आदेश कभी काम करने का होता है और कभी काम बंद करने आंतरिक तापमान को नियंत्रित किया जाता है। यहां यह का। इन दो विरोधी आदेशों के बीच संतुलन बनाकर गति की उल्लेखनीय है कि एक ही समय में दोनों विरोधी प्रक्रियाएं प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है और जीवन चलाने के लिए सक्रिय रहती हैं, फिर भी इनके बीच संतुलन बना रहता है, आवश्यक सामग्री तथा साधन जुटाए जाते हैं। गतिहीन शरीर वे दोनों एक-दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करतीं। को रुग्ण कहा जाता है। वास्तव में जीवन के रहने तक शरीर जब कभी ऐसी अप्रिय स्थिति उत्पन्न होती है तो मस्तिष्क पूरी तरह गतिहीन हो ही नहीं सकता। यदि बाह्यगति को रोक के द्वारा उसका परिमार्जन किया जाता है। यह एक शुद्ध भी दिया जाए तो भी श्वसन के क्रम में फेफड़ों की गति तथा अनैकांतिक व्यवस्था का उदाहरण है। रक्त प्रवाह के लिए हृदय-गति को भला कैसे रोका जा इसी प्रकार की एक अन्य अनैकांतिक व्यवस्था का सकता है ? इस प्रकार बाह्य तथा आंतरिक गतियों के बीच उदाहरण शरीर में ग्लूकोज (शुगर) के स्तर को लेकर देखा हर हाल में संतुलन बनाए रखना अपेक्षित होता है। हर जा सकता है। भोजन पाचन के बाद ग्लूकोज के रूप में प्रतिरोध के बावजूद भी शरीर ऐसा करता है। अनेकांत का परिवर्तित होता है और रक्त में अवशोषित हो जाता है, इससे बेहतर उदाहरण भला क्या हो सकता है? जिससे रक्त में एकाएक शुगर की मात्रा बढ़ जाती है। शरीर प्रतिक्रिया और साम्यावस्था सामाजिक प्राणी होने की वे तमाम कोशिकाएं और ऊतक इसका विरोध करते हैं, के कारण मानव का संबंध स्वयं से, पर्यावरण से, अन्य क्योंकि, उन्हें बढ़ी हुई शुगर के कारण परेशानी होती है। जंतुओं से तथा सहजीवी मानवों से अविच्छिन्न होता है। तब इन्सुलिन-हार्मोन को अग्नाशय से अलग हटा दिया एक तरफ वह स्वयं से आवश्यकतानुरूप व्यवहार करता है, जाता है और रक्त में शुगर की सामान्य मात्रा ही शेष रह दूसरी तरफ ब्रह्मांड के अन्य सभी घटकों से निरंतर संपर्क जाती है। बनाकर रखता है। ऐसा करना केवल आवश्यकता नहीं मानव शरीर के अंदर रचना और क्रिया के दृष्टिकोण उसकी मजबूरी है, इस क्रम में अनेकानेक उद्दीपन देता और से देखा जाए तो तंत्रिकातंत्र की रचना और इसकी लेता है। परिणामस्वरूप उसकी शरीर की संरचना में एवं क्रियाविधि अनैकांतिक व्यवस्था का सर्वोत्कष्ट उदाहरण है। क्रिया में इस तरह के परिवर्तन होते रहते हैं। इन परिवर्तनों तंत्रिकातंत्र की इकाइयां जिन्हें 'न्यूरान' कहते हैं-रचना में के चलते शरीर के विभिन्न तंत्र कभी अनुकूल तो कभी भी भिन्न होती हैं और क्रिया में भी। एक समह शरीर के प्रतिकल परिस्थितियों का सामना करते हैं। ऐसे में एक अंग अंगों की सक्रियता बढ़ाता है जबकि दूसरा उनकी सक्रियता या अवयव दूसरे की सहायता भी करता है और विरोध भी। घटाता है। तंत्रिकाएं 'नर्वज' भी विरोधी गुणों वाली होती हैं। परंतु इस सहयोग और विरोध के बीच एक सामंजस्य सदैव एक वे होती हैं जो उत्तेजना उत्पन्न करती हैं. दूसरी वे होती बना रहता है जो अपने-आप में अनेकातिक व्यवस्था का हैं जो उत्तेजना कम करने के लिए काम करती हैं। तंत्रिकातंत्र द्योतक है। का ही एक भाग होता है जिसे स्वायतशाषी तंत्रिकातंत्र के हममें से अनेक इस तथ्य से परिचित होंगे कि मनुष्य नाम से जाना जाता है। इसके द्वारा शरीर के आंतरिक एक समतापी जीव है अर्थात् बाह्य वातावरण कैसा भी हो महत्त्वपूर्ण अंगों की गतिविधियों को नियंत्रित और नियोजित स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 | जैन भारती अनेकांत विशेष.85 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जाता है। इसके दो अनुभाग होते हैं अनुकंपी और है। मस्तिष्क इस पुकार को सुनकर मास्टर अंतःस्रावी ग्रंथि परानुकंपी। ये दोनों कार्य की दृष्टि से एक-दूसरे के सतत पिट्युटरी के द्वारा अन्य ग्रंथियों के स्रावों को रोकने का विरोधी होते हैं तथा एक-दूसरे के ठीक विपरीत काम करते आदेश देता है, तब जाकर स्थिति पुनः सामान्य हो पाती है। हैं। इनमें से एक अनुकंपी हृदय गति को बढ़ाता है तो दूसरा प्रतिक्रियाएं जीवन चलाने के लिए आवश्यक हैं, क्योंकि परानुकंपी उसे कम करता है। एक यदि श्वसन गति को तेज इनके घटित होने से ही एक ओर सक्रियता बनी रहती है तो करता है तो दूसरा इसके ठीक विपरीत इसे घटाने का प्रयास दूसरी ओर सामंजस्य और संतुलन स्थापित करने में भी करता है। इनके आपसी विरोध के बाद भी शारीरिक क्रियाएं सहायता मिलती है। इन प्रतिक्रियाओं के क्रम में मनुष्य को ठीक ढंग से चलती हैं तो उसका कारण है इनके कार्यों में प्रियता और अप्रियता दोनों ही स्थितियों का सामना तालमेल और सामंजस्य का स्थापत्य। जब जैसी करना पड़ता है। संतुलन स्थापित करने के लिए हृदय को आवश्यकता हो, तभी एक की गति बढ़ती तो दूसरा स्वयमेव अप्रिय स्थिति में डालकर उसकी सुविधा के विपरीत कार्य ही पीछे हट जाता है और संतुलन बना रहता है। यहां यह संपादित होता है। यकृत और आंतों से उनकी इच्छा के भी ध्यान देने योग्य बात है कि समय-समय पर दोनों की विपरीत कार्य संपादित होता है। न चाहते हुए भी स्वयं सक्रियता अपरिहार्य है। इसके बावजूद भी इनके बीच मस्तिष्क को अधिक कार्य संपन्न करना पड़ता है। ये सारी टकराव न होकर सदैव सामंजस्य की स्थिति बनी रहती है स्थितियां अंगीय अप्रियता की श्रेणी में आती हैं। इसके ठीक और शरीर का काम ठीक ढंग से चलता रहता है। उलट शरीर का नियंत्रक कभी-कभी इन अंगों को पूरी तरह सामान्य परिस्थितियों में हमारी यह धारणा होती है आराम करने या काम बंद करने की भी सलाह और आदेश कि शरीर शांत होना चाहिए. उसमें उत्तेजना नहीं होनी दे देता है जिसके फलस्वरूप अंगीय प्रियता की स्थिति पैदा चाहिए। परंत सदा के लिए ऐसा होना न तो उचित है और होती है। इसे ही हम प्रतिक्रिया विरति की संज्ञा देते हैं। न ही अपेक्षित। बाह्य उद्दीपनों या सूचनाओं को पांच इंद्रियां कभी-कभी ऐसे हालात भी बनते हैं कि दो विपरीत ग्रहण कर मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं। वहां उनका विश्लेषण रासायनिक या यांत्रिक क्रियाएं एक साथ प्रारंभ हो जाती हैं। होता है। विश्लेषण के परिणामस्वरूप अपेक्षित प्रतिक्रिया तब मस्तिष्क उन दोनों के बीच संतुलन स्थापित करने के तैयार की जाती है। अब बारी आती है। इस प्रतिक्रिया को लिए प्रक्रियाओं का नया क्रम शुरू करवा देता है। तब वे अंजाम देने की। इसके लिए मस्तिष्क से मख्यतया तीन विरोधी क्रियाएं स्वतः ही स्थगित हो जाती हैं। परिस्थिति मार्ग निकलते हैं। पहला मार्ग होता है मस्तिष्क के चाहे कैसी भी हो शरीर के अंदर प्रतिक्रियाएं सदा संतुलित हाइपोथैलेमस से होता पीयूष ग्रंथि और अन्य अंतःस्रावी रूप से ही संपादित होती हैं। यदि कहीं असंतुलन होता है तो ग्रंथियों तक जाने का। इनसे हार्मोन का स्राव होता है जो वह आनुवांशिकता या अन्य रचनात्मक दोषों के कारण ही रक्त प्रवाह के द्वारा ऊतकों/कोशिकाओं तक पहुंचता है होता है। इन सभी अनुक्रियाओं के बीच विरोध के साथ और उनमें परिवर्तन उत्पन्न करता है। दूसरा मार्ग है सह-अस्तित्व अनेकांत का ज्वलंत उदाहरण है। स्पाइनल और क्रेनियल तंत्रिकाओं के रास्ते सीधे अस्थियों/ सार संक्षेप-मानव शरीर की रचना और क्रिया-- अस्थिपेशियों तक जाने का। इसके परिणामस्वरूप अपेक्षित दोनों में अनेक विरोधी युग्मों का समावेश दृष्टिगोचर होता गति और परिवर्तन होता है। तीसरा मार्ग है स्वायत्तशाषी है। विपरीत प्रकृति की रचनाओं के साथ रहते हुए भी उनमें तंत्रिकातंत्र का जिसके द्वारा शरीर के विभिन्न आंतरिक परस्पर सहयोग और सहजीवन की भावना का संचार रहता अंगों में परिवर्तन उत्पन्न किया जाता है। इस पूरे परिदृश्य है। वे एक-दूसरे के कार्यों में सदा सहयोग करते हैं। पर दृष्टि डालने से एक बात स्पष्ट होती है कि किसी एक आवश्यकता पड़ने पर अपने कार्यों की दिशा को किसी अंग उद्दीपन-विशेष के पश्चात् या तो शरीर का एक तंत्र-विशेष के कार्य जो कमजोर पड़ गया है की दिशा में मोड़ देते प्रभावित होता है अथवा एक से अधिक तंत्र एक साथ हैं। जीवन के विशेष गुणों के संपादन में भी, परस्पर विरोध प्रभावित होते हैं। उदाहरण के लिए जब अंतःस्रावी ग्रंथियों में के बावजूद सहयोग से कार्य किया जाता है। इन सभी हार्मोन का स्राव होता है जो आंगिक उत्तेजना बढ़ाते लक्षणों के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव हैं यदि अधिक देर तक ऐसी स्थिति बनी रहे तो शरीर की रचना और क्रियाएं अनेकांत की अवधारणा को तंत्रिकाओं के द्वारा इसके विरोध की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती पुष्ट करती हैं तथा मूर्त रूप देती हैं। ......... 2011 स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 86. अनेकांत विशेष | मार्च-मई, 2002 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांठ और अरस्तू डॉ. आनंदप्रकाश त्रिपाठी 'उला । जहाँ पाश्चात्य जगत में अरस्तु के पूर्व यह मान्यता थी कि द्रव्य वह निरपेक्ष सत्ता है जो अपने अस्तित्व एवं ज्ञान के लिए किसी पर निर्भर नहीं है, वहीं अरस्तु ने द्रव्य की निरपेक्षता को समाप्त कर द्रव्य एवं आकार को सापेक्ष माना है। उसके अनुसार द्रव्य एवं आकार आपस में परिवर्तित होते रहते हैं, अथति ॥ द्रव्य आकार में और आकार द्रव्य में बदलता रहता है। उदाहरणार्थ लकड़ी द्रव्य है तथा भेड, की आदि आकार हैं। पुनः लकड़ी आकार है तो वृक्ष द्रव्य और वृक्ष आकार है तो बीज द्रव्य है। श्चात्य दर्शन में ज्ञानियों के सम्राट के रूप में अपने गुरु प्लेटो की ही नहीं, अपितु पितामह गुरु सुकरात प्रसिद्ध अरस्तू ने अपने चिंतन एवं दार्शनिक की भी खबर ली। सुकरात का सिद्धांत 'ज्ञान ही परम शुभ विचारों से ज्ञान एवं दर्शन-प्रेमियों को अत्यधिक प्रभावित है' अरस्तू को मान्य नहीं था, क्योंकि इसमें उन्हें एकांत की किया है। यूनान के एक नगर स्टैगिरा में 384 ई. पू. में बू आती थी। उनका मानना था कि यदि किसी के समक्ष जन्म लेकर 322 ई. पू. में प्राणांत होने तक (63 वर्षों तक) शुभ ही शुभ हो, ज्ञान ही ज्ञान हो तथा अशुभ एवं अज्ञान का उन्होंने दर्शन की जो सेवा की है, उसके लिए वे आज भी कोई विकल्प न हो तो उसके शुभ एवं ज्ञान को स्वीकार अमर हैं और युगों-युगों तक अमर रहेंगे। एथेंस के इस करने का कोई महत्त्व नहीं होगा अर्थात् अरस्तू को सुकरात महान दार्शनिक ने दर्शन के अध्ययन को प्रोत्साहित करने के का यह ऐकांतिक विचार कभी अच्छा नहीं लगा था। लिए 335 ई. पू. में 'लाइसियम' नामक संस्था की स्थापना उपर्यक्त उद्धरणों एवं दृष्टांतों से यह स्पष्ट प्रतीत की जिसे दर्शन के इतिहास में भ्रमणशील संस्था के नाम से होता है कि अरस्त को एकांतवादी दृष्टिकोण. ऐकांतिक जाना जाता है। चूंकि इस संस्था में वे भ्रमण करते हुए विचार एवं एकवादी तत्त्व चिंतन कभी प्रिय नहीं था। इसका विद्यार्थियों को शिक्षा देते थे, अतः इसे 'पेरिपेटेटिक' मतलब यह नहीं निकालना चाहिए कि वे जैन के अनेकांत (भ्रमणशील) संस्था के रूप में मान्यता मिली थी। अरस्तू सिद्धांत से प्रभावित थे। अपनी संस्था के माध्यम से दार्शनिकों की एक ऐसी फौज टापि यह सच है कि उन्होंने एकांत कोन स्वीकार खड़ी करना चाहते थे जो दर्शन के गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित कर अपने चिंतन में अनेकांत को बढ़ावा दिया है। ऐसा करते हए दर्शन के मर्म को जन-जन तक पहुंचा सके। इस उन्होंने अपने ज्ञान एवं विवेक से किया है। दृष्टि से उन्होंने अपने गुरु प्लेटो के दार्शनिक सिद्धांतों पर प्रश्न उठता है कि अनेकांत क्या है? अरस्तू का कैंची चलाने में कोई हिचक नहीं दिखाई। तत्त्व एवं द्रव्य के अनेकांतवादी चिंतन क्या है? दर्शन के विद्यार्थी यह जानते हैं संदर्भ में प्लेटो के एकांतवादी विचारों को भी उन्होंने नहीं। कि अनेकांतवाद जैन दर्शन का आधारभूत सिद्धांत है। इस बख्शा। दर्शन में वे स्वतंत्र चिंतन के पक्षधर थे। इसी स्वतंत्र सिद्धांत के अनुसार 'अनंतधर्माम् वस्तु' अर्थात् वस्तु एक चिंतन के कारण दर्शन जगत में उन्होंने एक क्रांति धर्मा न होकर अनंत धर्मा है। समयसार आत्मख्याति टीका की-जिसे समन्वय की क्रांति कहा जाता है। प्रो. गौम्पर्ज में आचार्य अमतचन्द ने अनेकांत को परिभाषित करते हुए के अनुसार अरस्तू ने प्लेटो के दर्शन के एकांतवादी चिंतन लिखा है—'यदेव तत तदेव अतत. यदेवेकं तदेवानेकम, का खंडन करने में कोई संकोच नहीं किया। प्लेटो के यदेवसत तदेवासत. यदेव नित्यं तदेवानित्यम. इत्येक वस्त सामान्य-विशेष, नित्य-अनित्य, द्रव्य-सार के भेद अरस्तू वस्तुत्वनिष्पादक परस्पर विरुद्ध शक्तिद्वय को मान्य नहीं थे।' अरस्तू ने एकांत विचार की दृष्टि से प्रकाशनमनेकान्तः। 1 1111111111111 स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष .87 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् एक ही वस्तु सत्-असत्, एक-अनेक, नित्य- उसके अनुसार वस्तु अनेक, अनित्य, असत् एवं विशेष है। अनित्य स्वभाव वाली है। ऐसी एक ही वस्तु के वस्तुत्व के इसके विपरीत प्रत्यय एक, नित्य, सत् एवं सामान्य है। निष्पादक परस्पर विरोधी शक्तियुक्त धर्मों को प्रकाशित अरस्तू को प्लेटो का यह सिद्धांत मान्य नहीं था। अतः करने वाला अनेकांत है। उसने दर्शन जगत में कुछ ऐसे निष्कर्ष प्रतिपादित किए तात्पर्य यह है कि अनेकांत केवल अनंत धर्मों का पुंज जिनसे प्लेटो के ऐकांतिक चिंतन के खंडन के साथ-साथ मात्र वस्त को नहीं मानता है. अपित एक ही वस्त में एक ही उसके स्वयं के अनैकांतिक दृष्टिकोण को समझा जा सकता काल में अनंत विरोधी धर्म एक साथ रहते हैं—ऐसा मानता है है। द्रव्य में शाश्वत और अशाश्वत, एक और अनेक, वस्तुओं का तत्त्व वस्तुओं में प्लेटो ने वस्तुओं से सामान्य और विशेष, वाच्य और अवाच्य आदि विरोधी पृथक प्रत्यय के अस्तित्व को स्वीकार किया था। वह मानता युगलों को अनेकांत में स्वीकृति मिलती है। आचार्य था कि वस्तुओं का स्थान सांसारिक जगत है और प्रत्ययों अकलंक ने अनेकांत को व्याख्यायित करते हुए अष्टसहस्री का पारमार्थिक जगत। इसके विपरीत अरस्तू का मानना था में लिखा है- 'सदसन्नित्यानित्यादि सर्वथैकान्त कि चूंकि प्रत्यय वस्तुओं के तत्त्व (Essence) हैं, अतः कोई प्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः' अर्थात् वस्तु सत् ही नहीं असत् वस्तु भला अपने तत्त्व या सार से रहित नहीं हो सकती है? भी है, नित्य ही नहीं अनित्य भी है। इसीलिए अनेकांत को अतः यह कहना उचित नहीं है कि वस्तुएं सांसारिक जगत में समन्वय, सहिष्णुता, सह-अस्तित्व, सामंजस्य का हैं और प्रत्यय पारमार्थिक जगत में। अरस्तू के अनुसार प्रतिष्ठापक माना जाता है। किसी भी वस्तु का प्रत्यय उसी में ही निहित है, उससे पृथक इस प्रकार अनेकांत के अनुसार वस्तु विरोधी युगलों नहीं।' रेटोरिक ग्रंथ में अरस्तू यह स्पष्ट करता है कि का पुंज है। सूत्रकृतांग का विभज्यवाद, भगवती सूत्र की अनुभव-आधारित वस्तु और बुद्धि पर आधारित उसके तत्त्व गौतम-महावीर प्रश्नोत्तरी से यह स्पष्ट होता है कि को अलग-अलग करके देखा नहीं जा सकता।' अनेकांतवाद का बीज आगमों में निहित था। आगमों में कहीं सामान्य और विशेष अनुस्यूत हैं-प्लेटो ने प्रत्यय अनेकांत का उल्लेख नहीं मिलता है। सर्वप्रथम अनेकांत को सामान्य और वस्तु को विशेष कहकर सामान्य और शब्द का उल्लेख आचार्य सिद्धसेन के ग्रंथ सन्मति तर्क विशेष को पृथक-पृथक माना था। उसके अनुसार सामान्य प्रकरण में मिलता है और विशेष का अलग-अलग अस्तित्व है। प्लेटो के इस विचार पर टिप्पणी करते हुए अरस्तू ने माना है कि सामान्य जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वहाण निव्वडइ। के बिना विशेष का कोई महत्त्व नहीं है और विशेष के बिना तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंत वायस्स।।। सामान्य का कोई अस्तित्व नहीं है। उसके अनुसार न केवल अर्थात जिसके बिना जगत का व्यवहार भी नहीं विशेष द्रव्य है और न केवल सामान्य द्रव्य है। सामान्य चलता, सत्य प्राप्ति की बात तो दूर है ऐसे जगत के एकमात्र और विशेष अन्योन्याश्रित हैं। एक के अभाव में दूसरे की गुरु अनेकांत को नमस्कार है। कल्पना संभव नहीं। वह यह प्रश्न करता है कि क्या जिस प्रकार आगमों में अनेकांत शब्द का उल्लेख हुए मनुष्यत्व किसी मनुष्य से पृथक् है, गोत्व किसी गाय से बिना अनेकांत का विचार निहित है, उसी प्रकार अरस्तू के पृथक है, मेजत्व किसी मेज से पृथक है? अर्थात् नहीं। दर्शन में अनेकांत शब्द का प्रयोग हुए बिना अनेकांतवाद का मनुष्यत्व मनुष्य में ही होगा और मनुष्य बिना मनुष्यत्व चिंतन निहित है। कुछ लोगों के अनुसार अरस्तु के दर्शन के मनुष्य नहीं कहलाएगा। इस प्रकार एक ही वस्तु एक का अभ्युदय प्लेटो के दर्शन की प्रतिक्रिया-स्वरूप हुआ था। समय सामान्य भी है और विशेष भी। राम एक मनुष्य है। प्लेटो ने जो सामान्य-विशेष का, एक-अनेक का, नित्य एवं वह सामान्य भी है और विशेष भी। अरस्तू का यह चिंतन अनित्य का, द्रव्य एवं आकार का भेद स्वीकार कर दोनों को अनेकांतवाद को ही पुष्ट करता है। पृथक-पृथक माना था, वहीं अरस्तू ने भेदाभेद को स्वीकार द्रव्य और आकार अपृथक हैं-अरस्तू के अनुसार किया था। इस भेदाभेद को स्वीकार करने के कारण ही द्रव्य वह है जिसका परिवर्तन होता है और आकार वह है अरस्तू को प्लेटो के दर्शन की समीक्षा करनी पड़ी थी। जिस रूप में परिवर्तन होता है। कहा भी गया है—What प्लेटो के दर्शन का मुख्य सिद्धांत है उसका प्रत्ययवाद। become is matter what it becomes is form. जहां स्वर्ण जयंती वर्ष 88. अनेकांत विशेष जैन भारती मार्च-मई, 2002 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्चात्य जगत में अरस्तू के पूर्व यह मान्यता थी कि द्रव्य इन कारणों को एक दृष्टांत से समझा जा सकता है। वह निरपेक्ष सत्ता है जो अपने अस्तित्व एवं ज्ञान के लिए मिट्टी का घड़ा बनकर तैयार हुआ। यह एक कार्य है। यह किसी पर निर्भर नहीं है, वहीं अरस्तू ने द्रव्य की निरपेक्षता घड़ा मिट्टी से बना है, अतः मिट्टी घड़े का उपादान कारण है। को समाप्त कर द्रव्य एवं आकार को सापेक्ष माना है। उसके इस घड़े को बनाने में निमित्त कुंभकार बना, अतः कुंभकार अनुसार द्रव्य एवं आकार आपस में परिवर्तित होते रहते हैं, निमित्त कारण है। कुंभकार घड़ा बनाने के पूर्व घड़े का अर्थात् द्रव्य आकार में और आकार द्रव्य में बदलता रहता आकार अपने मस्तिष्क में बनाता है। यह स्वरूप कारण है है। उदाहरणार्थ लकड़ी द्रव्य है तथा मेज, कुर्सी आदि आकार और जिस घड़े को देखकर कुंभकार घड़ा बनाने के लिए हैं। पुनः लकड़ी आकार है तो वृक्ष द्रव्य और वृक्ष आकार है प्रेरित होता है वह अंतिम या लक्ष्य कारण है। इन चार तो बीज द्रव्य है। कारणों को वह (अरस्त) दो भागों में विभक्त करता हैउपर्युक्त मत से यह स्पष्ट होता है कि अरस्तू द्रव्य 1. द्रव्य, 2. आकार। उपादान कारण को ही वह एवं आकार को सापेक्ष ही मानता है। अरस्तू के द्रव्य एवं द्रव्य कहता है और अंतिम तीन कारणों को वह आकार के आकार की सापेक्षता के संदर्भ में बिलड्यूरांट ने लिखा अंतर्गत समाहित कर देता है। इस प्रकार चार कारण द्रव्य है-Every thing is both the form or reality which एवं आकार में समाहित होकर सापेक्ष हो जाते हैं।12 has grown out of something which was its सत् और असत् सापेक्ष हैं—पाश्चात्य दर्शन में जहां matter or raw material, and it may in its turn be the matter out of which still higher forms will शलवार दाशानका नसत् स जगत का उत्पात्त का स्वाकार grow. So the man is the form of which the child किया था, वहीं हेराक्लाइटल ने असत् से सत् जगत की was the matter. The child is the form and its उत्पत्ति को स्वीकार किया था। दोनों ही सिद्धांतों में विरोध embryo the matter. The embryo the form, the दृष्टिगोचर होता है। यदि जगत सत् से बना है तो जगत के Ovum the matter and so back till we reach in a परिवर्तन एवं विकास की व्याख्या कटस्थ नित्य सत से कैसे Vauge way the conception of matter without की जा सकती है और यदि जगत असत् से निर्मित है तो form at all. असत् अर्थात् अस्तित्वविहीन तत्त्व से जगत की व्याख्या अर्थात् प्रत्येक वस्तु में द्रव्य एवं आकार का वास है। कैसे की जा सकती है? इसका समाधान अरस्तू अपने दर्शन द्रव्य एवं आकार एक-दूसरे में परिवर्तित होते रहते हैं। यदि में इस प्रकार देता है सत् और असत् परस्पर विरोधी नहीं आदमी आकार है तो द्रव्य बच्चा है और बच्चा आकार है औ हैं। उसके अनुसार दोनों सापेक्ष हैं। अरस्तू ने असत् के र तो भ्रूण द्रव्य है और भ्रूण आकार है तो रज (अन्य संदर्भ में लिए संभाव्यता (Potentiality) शब्द का और सत् के लिए अंडा) द्रव्य है। अतः वस्तु में एक ही समय में द्रव्य एवं वास्तविकता (Actuality) शब्द का प्रयोग किया है। इस आकार हैं, जबकि दोनों विरोधी हैं। द्रव्य निर्गुण है और प्रकार अरस्तू असत् का मतलब शून्य न मानकर संभाव्य आकार सगुण है। द्रव्य संभावना है और आकार मानता है। असत् से उत्पत्ति का मतलब शून्यता या अभाव वास्तविकता है। द्रव्य ह्रास का कारण है और आकार से उत्पत्ति नहीं अपितु संभाव्य से उत्पत्ति संभव है।" विकास का कारण है (Matter Obstructs and form constructs.)। आकार पूर्व में और पश्चात् में भी-अरस्तू के दर्शन का सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धांत द्रव्य एवं आकार है। कारणता सापेक्ष है-अरस्तू के दर्शन में कारणता इनमें भी उसने आकार को विशेष महत्त्व दिया है और इसे सिद्धांत का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। वह चार प्रकार के विकास का सूचक बतलाया है। यों तो द्रव्य के परिवर्तन को कारणों को स्वीकार करता हुआ देखा जाता है।'' वे इस वह आकार मानता है। इस दृष्टि से आकार का अस्तित्व प्रकार हैं बाद में ही है। किंतु अरस्तू द्रव्य के पहले भी आकार के 1. भौतिक या उपादान कारण—(Material Cause) अस्तित्व को मानता है। चूंकि स्वरूप एवं लक्ष्यकारण 2. निमित्त कारण (Efficient Cause) आकार में समाहित हैं, अतः आकार पहले भी है। कुंभकार 3. स्वरूप कारण—(Formal Cause) मिट्टी तब इकट्ठा करता है जब उसके मस्तिष्क में घड़ा 4. अंतिम कारण (Final Cause) बनाने का विचार आ जाता है, अतः स्वरूपकारण की दृष्टि स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.89 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से घड़ा (आकार) पहले है। कुंभकार ने एक घड़ा देखा। अरस्तू का न्याय सिद्धांत भी अनैकांतिक था। यद्यपि उस घड़े से वह बहुत प्रभावित होता है। उसके अनुरूप वह वह दो प्रकार का न्याय मानता थास्वयं घड़ा बनाना चाहता है। पूर्व घड़े अर्थात् लक्ष्यकारण 1. वितरणात्मक न्याय, 2. सुधारात्मक न्याय। से प्रेरित होकर वह घड़ा बनाना चाहता है। अतः वितरणात्मक न्याय के अंतर्गत वह व्यक्तियों को लक्ष्यकारण की दृष्टि से आकार पूर्व में भी है। इस प्रकार योग्यता के अनुसार सम्मान और पुरस्कार देने का हिमायती यह सिद्ध होता है कि अरस्तू के दर्शन में आकार पहले भी था। किंतु सुधारात्मक न्याय के अंतर्गत वह व्यक्तियों के है और पश्चात् में भी। अपराध के अनुसार दंड का भी हिमायती था। वितरण एवं नैतिकता और अनेकांत-अरस्तू के तात्त्विक सधार का मल्यांकन वह निरपेक्ष रूप में नहीं करता था। विवेचन में ही अनेकांत दृष्टिगोचर नहीं होता, अपितु नैतिक उसके अनुसार— Justice is relative to persons and चितन में भी अनेकात परिलक्षित होता है। उसके अनुसार a just distribution is one in which the relative नैतिकता की दृष्टि से भावना उपयोगी भी है और उपयोगी values of the things given correspond to those of नहीं भी है। उपयोगी इसलिए है कि भावना से ही दूसरों का योगा इसलिए है कि भावना स हा दूसरा का the persons receiving.' दुख-दर्द समझकर उन्हें सहयोग दे सकते हैं और अनुपयोगी इस प्रकार वह न्याय को भी व्यक्ति के सापेक्ष ही इसलिए है कि भावना के वशीभूत होकर हम कभी-कभी मानता है। इतने भावुक हो जाते हैं कि अपना कर्तव्य ही भूल जाते हैं। अतः वह भावना को तिलांजलि न देकर बुद्धि नियंत्रित उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि ग्रीक युग भावना को नैतिकता की दृष्टि से उपयोगी मानता है। अतः का महान दार्शनिक अरस्तू जैन अनेकांतवाद से भले ही उसके अनुसार हमें भावना का दास न बनकर भावना का अप्रभावित हो, किंतु उसके सिद्धांत, दर्शन एवं विचार जैन शासक बनना चाहिए। अनेकांतवाद के अधिक निकट हैं। उनका द्रव्य और आकार सिद्धांत अर्थात् उसकी तत्त्व मीमांसा अनेकांत को ही वह नैतिकता के अंतर्गत सद्गुणों की व्याख्या अपने परिपुष्ट करती है। उसका नैतिक दर्शन भी निरपेक्ष नैतिकता ढंग से करता है। वह सुकरात की तरह न ही एक सद्गुण के स्थान पर सापेक्ष नैतिकता को बढ़ावा देता है। सद्गुण मानता है और प्लेटो की तरह न ही चार सद्गुण मानता है। संबंधी मध्यम प्रतिपदा एवं न्याय सिद्धांत भी उसे अनेकांत उसके अनुसार सद्गुण अनंत हैं। वह सद्गुणों में मध्यम प्रतिपक्ष को मानता है। उसके सद्गुण दो अंतों के बीच में के निकट ही खड़ा करते हैं। इस प्रकार यह कहने में कोई निदृष्ट हैं। उदाहरण की दृष्टि से संकोच नहीं होना चाहिए कि अरस्तू का दर्शन अनेकांतवाद के अधिक सन्निकट है। 1. साहस कायरता और उतावलेपन के बीच में है। 2. दानशीलता क्षुद्रता और अपरिष्कृत अपव्यय के बीच में है। 1. ग्रीक थिंकर्स, भाग 4, पृ. 78 2. ए क्रिटिकल हिस्ट्री ऑफ ग्रीक फिलास्फी, पृ. 320 3. सुशीलता उत्साहहीनता और प्रचंडता के मध्य है। 3. 10/247 4. विनम्रता क्रूरता और चापलूसी के मध्य है। 4. अन्ययोग व्यवच्छेदिका, श्लोक 25 5. भद्रता निर्लज्जता और लज्जाशीलता के बीच में है। 5. 3/68 6. आत्मसंयम उदासीनता एवं संयमहीनता के बीच 6. मेटाफिजिक्स, 4/28/1024 में है। 7. 1/2/1356 इसी प्रकार वह समस्त सद्गुणों की व्याख्या करता 8. मेटाफिजिक्स, 4/28/1030 है। यह मध्यम प्रतिपदा भी स्थाई नहीं है। अरस्तू के 9. आऊटलाईन्स आफ फिलास्फी, पृ. 78-79 अनुसार व्यक्ति की प्रतिभा ही समय-समय पर सदगणों के 10. डिमीटरियोलोजिया, 4/3/381 मध्यम मार्ग का निर्धारण करती है। यह मध्यम मार्ग हर 11. ए क्रिटिकल हिस्ट्री ऑफ ग्रीक फिलास्फी, पृ. 268 परिस्थिति एवं देश-काल में एक जैसा नहीं रहता है। 12. ग्रीक दर्शन, पृ. 225 परिवर्तित भी हो सकता है। 13. अरिस्टाटल, पृ. 279 : - स्वर्ण जयंती वर्ष | जैन भारती 90. अनेकांत विशेष । मार्च-मई, 2002 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनामती Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर इस लैंप से आता सफेद प्रकाश वास्तविक है, वास्तविक है वह हाथ जो लिखता है। तो क्या वास्तविक हैं वे आंखें भी जो देखती हैं वह जो मैं लिखता हूं एक शब्द से दूसरे तक जाते मेरा कहा मिट जाता है। मैं जानता है कि मैं जीवित हूं दो वाक्यांशों के बीच -आक्तोवियो पाज (स्पहानी कवि) रूपांतर : उदयन वाजपेयी Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार में अनेकांत का प्रयोग युवाचार्य महाश्रमण अनाग्रह भाग दुराग्रही जादगी के व्यवहार में मलिनता पैदा करता है जबकि मिथ्या बातों और अनुपयोगी तथ्यों का आग्रह नहीं होना चाहिए। आदमी का दृष्टिकोण भी सत्यपरक होना चाहिए। अनेकांत और स्याद्वाद दार्शनिक सिद्धांत हैं। ये लचीली नीतियां मुझे पसंद नहीं हैं। अपना भविष्य मैं खुद सोच सकता हूं।' व्यवहार में भी इनका प्रयोग किया जा सकता है । इन्हें व्यावहारिक बनाने के लिए कुछ बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है। अनाग्रह भाव दुराग्रही आदमी के व्यवहार मलिनता पैदा करता है, जबकि मिथ्या बातों और अनुपयोगी तथ्यों का आग्रह नहीं होना चाहिए। आदमी का दृष्टिकोण भी सत्यपरक होना चाहिए। मिघ्या आग्रह के संबंध में कुमार श्रमणकेशी ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है चार वणिक् मित्र अर्थार्जन के लिए निकले। मार्ग में उन्हें एक लोहे की खान मिली। चारों मित्रों ने अपनी शक्ति के अनुसार लोहे की गठरियां बांध लीं। वे थोड़ा आगे बढ़े और चांदी की खान आ गई। तीन मित्रों ने लोहा छोड़कर चांदी की गठरियां बांध लीं। किंतु चौथा मित्र बोला— मैंने एक बार जो ले लिया, वही ठीक है। मुझे चांदी नहीं चाहिए । उन्होंने थोड़ा ही रास्ता पार किया कि सोने की खान आ गई। तीनों ने अपनी गठरियों में चांदी के स्थान पर सोना भर लिया। वे और थोड़ा आगे बढ़े कि हीरों की खान मिली। तीनों मित्रों ने सोने के पत्थर वहीं छोड़ दिए और हीरक तीनों मित्रों ने सोने के पत्थर वहीं छोड़ दिए और हीरक प्रस्तरों से अपनी गठरियां भर लीं। तीनों मित्रों ने लोहवणिक् को काफी समझाते हुए कहा, 'भैया ! कहां लोहखंड और कहां हीरे ? तुम वणिक् हो । व्यापार करना जानते हो । किस वस्तु से कितना लाभ होता है, यह तुमसे छिपा नहीं है जरा अपने भविष्य को सोचो और दुराग्रह छोड़कर माल बदल लो।' मार्च - मई, 2002 लोहवणिक ने अपने मित्रों का यह उपदेश तो सुना, पर उत्तेजित हो बोला- मेरी चिंता करने वाले तुम कौन होते हो ? क्या मैं इतनी बात भी नहीं सोच सकता ? तुम्हारी अपने मित्र की इतनी कड़ी बात सुनने के बाद भी तीनों मित्रों के मन में उसके प्रति करुणा ही उमड़ी रही। उन्होंने एक मुट्ठी हीरक-प्रस्तर उठाए और पोटली में डालने का प्रयत्न किया। किंतु मित्र की हठधर्मिता ने उनको यह भी न करने दिया उनकी मुट्ठी को हवा में उछालते हुए उसने कहा, 'मेरे काम में हस्तक्षेप करने की कोई जरूरत नहीं है आपको।' वे बेचारे क्या करते! मित्र के इस व्यवहार से उनके दिल पर बड़ा आघात लगा । वे चारों अपने शहर लौट गए। तीनों मित्रों ने बाजार में अपने हीरक-प्रस्तर बेचे और लाखों रुपये कमा लिए । उनका जीवन स्तर अब काफी ऊंचा उठ गया। रहने के लिए बंगला, घूमने के लिए कार, अन्य सुविधा सामग्री और अच्छा खासा व्यवसाय एक दिन तीनों मित्रों ने मिलकर एक प्रीतिभोज का आयोजन किया। मनोरंजन के लिए संगीत और नृत्य के कार्यक्रम भी थे। अनेक विशिष्ट अतिथि उपस्थित थे। ऐसे ही क्षणों में एक चने बेचने वाला बंगले के नीचे से गुजरा। तीनों मित्रों ने उसको देखा और अपने अनुचर को भेजकर उसे ऊपर बुला लिया। उसने सोचा, आज तो भगवान की कृपा हो गई, जो इतने बड़े लोगों को मेरा चना पसंद आया है। वह इसी खुशी में आत्म-विभोर था । अमीर मित्र बोले, 'क्यों रे ! पहचानता है हमें ?' 'बाबूजी! आपको मैं कैसे पहचानूंगा? कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली १' मित्रों ने पिछला सारा घटनाचक्र उसके सामने उधेड़ते हुए कहा, 'कितना समझाया था तुझे उस समय, पर तू नहीं माना। यदि हमारी बात मान लेता तो आज यों चने स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती अनेकांत विशेष • 93 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेचता नहीं फिरता !' यह बात सुनते ही वह बेहोश होकर गिर पड़ा। उसके सारे चने बिखर गए। वहां उपस्थित व्यक्ति बोले, 'अरे! यह क्या रंग में भंग कर दिया। निकालो इसे यहां से बाहर।' बड़ी मुश्किल से उसे होश में लाया गया। कुछ लोगों ने मिलकर उसके चने इकट्ठे किए। मित्र-वणिक् ने एक सौ का नोट उसके पात्र में रख उसको बंगले से नीचे भेज दिया। वह चने बेचने वाला और कोई नहीं, वही लोहवणिक् था, जो अपने मित्रों के समझाने पर लोहा छोड़कर अन्य खनिज लेने के लिए तैयार नहीं हुआ था। उसने लोहा बेचकर जो पैसा कमाया, कुछ ऋण चुकाने में लगा दिया और बाकी पैसों से चने भूनकर बेचने का धंधा शुरू किया। अपने साथियों का ठाट-बाट देख उसे अपनी बुद्धि पर तरस आ गया। चने बेचे बिना ही सौ का नोट ले रोता-बिलखता वह अपने घर आ गया । पति की आंखों में आंसू देख उसकी पत्नी बोली, 'आज क्या हो गया आपको ? इतनी जल्दी कैसे लौट आए ? चने बिके नहीं? किसी ने आपको पीटा ? क्या हुआ हम गरीब हैं तो, जीने का अधिकार सबको है? आप बोलते क्यों नहीं? मुझे सही बात बताइए, अभी जाकर राजदरबार मैं फरियाद करूंगी...।' पत्नी की सहानुभूति पाकर उसके धैर्य का बांध टूट गया। उसने रोते-रोते अपनी सारी रामकहानी कह सुनाई। पत्नी ने सारी बात सुनी कि उत्तेजित हो गई। बेलन हाथ में लेकर उसे मारने दौड़ी, किंतु तब तक वह घर की दहलीज लांघ चुका था। पीछे से आकर टकराते हुए शब्द ही उसके कानों में पड़े, 'अरे कर्मफूट ! मुट्ठी भर हीरे ही ले आते तो मैं भी अच्छे कपड़े और जेवर पहनकर बैठती, तुम्हारे पीछे तो मैंने जीवन के सारे सुख ही खो दिए। ' अपनी हठधर्मिता के परिणाम को समझकर लोहवणिक बहुत दुखी हुआ, पर अब हो क्या सकता था ? इस प्रसंग से यह स्पष्ट है कि अर्थहीन आग्रह कितना नुकसानदेह हो जाता है। दुनिया में कलह के अनेक कारण हैं। उनमें एक कारण मत का दुराग्रह भी बनता है। । आदमी को अपने नियम व्रत में अवश्य आग्रह रखना चाहिए यानी उसके पालन में वृढ़ता रखनी चाहिए। वृढ़ता भी यहां तक कि मरना मंजूर, पर नियम को नहीं तोडूंगा इस आग्रह की तुलना श्रद्धा और निष्ठा के साथ की जा सकती है। निष्ठा आस्था जो अच्छे तत्त्वों में होती है, उसे सदाग्रह कहा जा सकता है। सदाग्रह ग्राह्य है, कदाग्रह - 94 • अनेकांत विशेष त्याज्य है । सदाग्रह में शक्ति होती है, बल होता है। इसे करता भी कहा जा सकता है, पर वह कट्टरता वांछनीय नहीं जिसके द्वारा हिंसा को महत्त्व दिया जाता है। एक बात को सत्य मानकर आदमी स्वीकार करता है, पर असत्यता स्पष्ट प्रतीत हो तो उसे छोड़ने में संकोच भी नहीं होना चाहिए । यद्यपि यह साहस आसान नहीं है। व्यावहारिक जीवन में दुराग्रह से समस्याएं उत्पन्न होती है अथवा बढ़ती हैं। इसी प्रकार स्वार्थपरक विचारधारा भी पारस्परिक संबंधों को कमजोर बनाती है जहां एक व्यक्ति केवल अपने हित और स्वार्थपूर्ति की बात ही सोचता है, दूसरों के हित पर विचार ही नहीं करता, ध्यान नहीं देता वहां भी मधुर संबंध विच्छिन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार केवल अपनी रुचि को प्रधानता देना और दूसरों की रुचि की उपेक्षा करना भी व्यक्ति व्यक्ति में दुराव पैदा करता है। '... लड़के ने कहा – पिताजी अब मैं आपके साथ भोजन नहीं करूंगा और अकेला भोजन करने के लिए बैठा। पिता यह कहते हुए उसके साथ भोजन करने बैठ गया कि इतने दिन तुम मेरे साथ भोजन करते थे, अब मैं तुम्हारे साथ भोजन किया करूंगा लडका पानी-पानी हो गया अपने पिता के निरहंकार और वात्सल्य भाव पर । मधुरता के साथ पिता ने मूल स्थिति को कायम रख लिया।' ऐसा ही एक प्रसंग आचार्य भिक्षु के जीवन में भी आता है। एक बार स्वामीजी विहार करते हुए देसूर जा रहे थे। मार्ग में घाणेराव के महाराज मिले। उन्होंने पूछा, 'तुम्हारा नाम क्या है ।' स्वामीजी ने कहा, 'मेरा नाम भीखण है । ' वे बोले, 'क्या भीखणजी तेरापंथी तुम ही हो ?' स्वामीजी, 'हां, मैं ही हूं।' उनमें से एक व्यक्ति ने आवेश में आकर कहा, 'तुम्हारा मुंह देखने वाला नरक में जाता है।' स्वामीजी ने तत्काल उलटकर पूछा, 'और तुम्हारा मुंह देखने वाला ?" उसने सिर ऊंचा उठाते हुए गर्वीले स्वर में कहा, 'मेरा मुंह देखने वाला स्वर्ग में जाता है।' स्वामीजी बोले, 'किसी का मुंह देखने मात्र से स्वर्ग या नरक मिलता हो, यह बात तो मैं नहीं मानता, पर हमने तो तुम्हारा मुंह देखा है, तुम्हारे ही कथनानुसार हम तो स्वर्ग या मोक्ष में जाएंगे। तुमने चूंकि हमारा मुंह देखा है, इसलिए तुम नरक के भागी बनोगे।' यह सुनकर वे सब चुपचाप आगे चले गए। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च - मई, 2002 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांत का सेतु : विचारों के तट ग्राध्वीप्रमुखा कनकप्रभा । अनेकांत दर्शन में अस्ति, नास्ति, अस्ति-मास्ति, अवक्तव्य, अस्ति अबक्तव्य, नास्ति अश्क्तव्य, अस्ति-मास्ति अवक्तव्य यह सप्तभंगी वस्तुबोध की न्यूनतम प्रक्रिया है। इसके विस्तार की कोई इयता नहीं है। इस आधार पर यह स्वीकार किया जा सकता है कि प्रत्येक वस्तु अर्मतधमत्मिक होती. हा एक समय में एक ही धर्म का प्रतिपादन संभव है, इसलिए उसका प्रतिपादन अपेक्षाभेद के साथ किया जाता है। यह क्थ्य भी ज्ञातव्य है कि बस्तु के अनंतद्यमों को स्वीकार करने पर भी उनको अभिव्यक्ति देने की किसी में नहीं है। ऐसी स्थिति में सापेक्षता का सिळीत ही समाधायक हो सकता है। - नुष्य एक विचारशील प्राणी है। विचार का का आधार खोजने के लिए अनेकांत की परिक्रमा करनी आधार है मस्तिष्क। मस्तिष्क की संरचना एक होगी। ही प्रकार की नहीं होती। विचार-तरंगों का प्रवाह भी एक जैन दर्शन अनेकांतवादी दर्शन है। यह न केवल समान नहीं होता। मनुष्य के आसपास का परिवेश उसके द्रव्यवादी है और न केवल पर्यायवादी है। द्रव्यार्थिक और विचारों को एक ठोस धरातल देता है। परिवेश बदलता पर्यायार्थिक दृष्टिकोण का समन्वित रूप जैन दर्शन है। इसने रहता है. इसलिए विचारों में भी स्थायित्व नहीं रह पाता। एकांततः नित्यता-अनित्यता, सामान्य-विशेष, वाच्यएक दिन की अथवा एक घंटे की विचार-यात्रा का सर्वे किया अवाच्य. अस्तित्व-नास्तित्व आदि वस्तुधर्मों की अवस्थिति जाए तो एक बेतरतीब-सा विचार-व्यूह उभरकर सामने आ को मान्य नहीं किया। अमुक तत्त्व नित्य या अनित्य ही है, जाता है। एक व्यक्ति का विचार-वैविध्य इस तथ्य को ऐसा मिथ्या अभिनिवेश यहां टिक भी नहीं सकता। आग्रह उजागर करता है कि विचार-भेद मानव-जीवन की सहज वहीं पनपता है, जहां एकांत होता है। मनुष्य स्वयं जड़ और प्रक्रिया है। इस सहजता के आधार पर दूसरे के विचारों को चेतन-इन दो विरोधी तत्त्वों की युति है। ऐसी स्थिति में एक सहमति मिल जाए या उसके प्रति सापेक्ष दृष्टिकोण अपना को ही सब-कुछ मानने का औचित्य प्रमाणित नहीं होता। लिया जाए तो विचारों का एक सुंदर गुलदस्ता तैयार किया आधार खेती का जा सकता है। किसानों की गोष्ठी हो रही थी। गोष्ठी में चर्चा का प्रश्न अस्तित्व का विषय था खेती। खेती कैसे होती है? इस प्रश्न पर अनेक भारत में अनेक जातियों, धर्मों, संस्कृतियों, कृषिकारों ने अपने विचार प्रकट किए। उन विचारों में परंपराओं और दार्शनिक विचारधाराओं को पल्लवित होने विविधता थी। एक-दूसरे के विचारों में मेल न होने से वे का अवसर है। एक बीज से विकसित पौधे की विभिन्न अपनी-अपनी बात पर अड़ गए। चर्चा का निष्कर्ष नहीं टहनियों की तरह इन सबका उत्स एक है। प्रत्येक जाति, निकल पाया। किसान हताश हो गए। संयोग से वहां धर्म आदि का स्वतंत्र अस्तित्व है, पर उसकी सुरक्षा अन्य कृषिशास्त्र का विशेषज्ञ पहुंच गया। किसानों ने उसको जाति, धर्म आदि की स्वीकृति में ही संभव है। दूसरे का अधिमान दिया। उनकी समस्या सामने आई। कृषि विशेषज्ञ अस्वीकार स्वयं के अस्तित्व का सीधा नकार है। यत सत ने सबकी बात सुनकर अपना मंतव्य प्रस्तुत कियातत् सप्रतिपक्षम्-जो भी अस्तित्ववान है, वह अपने एक कहे खेती होत बरसे सघन घन, विरोधी अस्तित्व के कारण ही है, इस दार्शनिक अवधारणा दूजो कहे खेती भूमि सेती निपजती है। HEREHE स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 जैन भारती अनेकांत विशेष.95 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीजो कहे बीज सेती चौथो कहे हल सेती, के धरातल पर ही संभव है। मेरा चिंतन, कथन और हाळी सेती पांचवों बतावै सो ही छती है। आचरण सही है, इसी प्रकार तुम्हारा चिंतन, कथन और छट्ठो कहे बैल सेती सातवों निषेधे यार, आचरण भी सही हो सकता है। इस अवधारणा में दो खेती भाग सेती ऐसी हिये दरसती है। विपरीत दिशागामी व्यक्ति भी मिल सकते हैं। मिलने की एक बात माने सो ही मिथ्यादृष्टि जीव द्वै, संभावना का आधार एकमात्र सापेक्ष दृष्टिकोण है। सात बात माने सो ही साचो जैन मती है।। जहां सापेक्षता है, वहीं गति है। जहां सापेक्षता है, अनेकांत दर्शन में अस्ति, नास्ति, अस्ति-नास्ति, वहीं दही का मंथन होकर नवनीत निकलता है। जहां अवक्तव्य, अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य, अस्ति- सापेक्षता है, वहीं प्रकाश है। इस सचाई का अनुभव करने नास्ति अवक्तव्य यह सप्तभंगी वस्तुबोध की न्यूनतम वाला व्यक्ति निरपेक्ष चिंतन, निरपेक्ष भाषण और निरपेक्ष प्रक्रिया है। इसके विस्तार की कोई इयत्ता नहीं है। इस क्रिया की बात सोच ही नहीं सकता। काश! हर मनुष्य आधार पर यह स्वीकार किया जा सकता है कि प्रत्येक वस्तु सापेक्षता का मूल्य समझता और उसे अपने जीवन-व्यवहार अनंतधर्मात्मक होती है। एक समय में एक ही धर्म का में स्थान देता। प्रतिपादन संभव है, इसलिए उसका प्रतिपादन अपेक्षाभेद के परिवार-संस्कृति पर हमला साथ किया जाता है। यह तथ्य भी ज्ञातव्य है कि वस्तु के अनंतधर्मों को स्वीकार करने पर भी उनको अभिव्यक्ति देने एक समय था, जब भारतीय-परिवार-परंपरा बहुत समृद्ध थी। सौ-पचास व्यक्ति एक ही घर में मिल-जुल कर की क्षमता किसी में नहीं है। ऐसी स्थिति में सापेक्षता का रहते थे। वे एक-दूसरे के सुख-दुख में संभागी बनते थे और सिद्धांत ही समाधायक हो सकता है। निश्चिंतता का जीवन जीते थे। बचपन, बुढ़ापा, बीमारी, मूल्य सापेक्षता का विकलांगता आदि विशेष परिस्थितियों में व्यक्ति असहाय वैचारिक स्वतंत्रता के युग में हर व्यक्ति अपने नहीं रहता था। परिवार के सहारे से कठिनतम परिस्थितियों विचारों को महत्त्व देने की बात सोचता है। किसी के विचारों का भी सहज रूप से निस्तार हो जाता था। परिवार-संस्कृति की थोड़ी-सी उपेक्षा असामंजस्य की स्थिति पैदा कर देती है। पर कब और कैसे हमला हुआ-पता ही नहीं चला। धीरेमैं जो कहता हूं, वही सत्य है—ऐसा आग्रह ज्ञान की धीरे व्यक्ति की मानसिकता में बदलाव आया और वह अपर्णता में कैसे किया जा सकता है? जो परिपर्ण ज्ञानी होते परिवार से कटता गया। एक से दो, दो से नौ और नौ से सौ हैं, उनका कोई आग्रह होता नहीं और जो अपूर्णज्ञानी हैं, परिवारों में वैचारिक प्रदूषण फैला तो विस्फोट-सा हो गया। उनका आग्रह चलता नहीं। इस सचाई को समझ लिया जाए आतंकवादियों द्वारा प्रयुक्त आत्मघाती दस्तों की तो विरोधी विचारों में भी विवाद को कोई अवकाश नहीं तरह परिवार को तोड़ने का प्रयास करने वाले व्यक्ति स्वयं रहता। टूटे और परिवार व्यवस्था की नींव को हिलाने में सफल हो जीवन की दो शैलियां हैं व्यक्तिगत और गए। पारिवारिक टूटन की त्रासदी इस सदी का एक सामूहिक। साधना की भूमिका में जिनकल्प की साधना । भयंकरतम संकट है। इस संकट से पूरा देश प्रभावित हो रहा करने वाला अकेला रहता है। अकेला व्यक्ति अधिक है, फिर भी संयुक्त परिवार की वापसी के कहीं कोई आसार सोचता नहीं है। कोई परिस्थिति उसे सोचने के लिए विवश परिलक्षित नहीं होते। आज की पीढ़ी के लिए कई पीढ़ियों भी करे तो उसकी विचार-यात्रा में कोई व्यवधान नहीं होता। का एक साथ रहना महान आश्चर्य का विषय बन रहा है। इस बात को यों भी प्रस्तुत किया जा सकता है कि वह अब सवाल एक ही है कि संयुक्त परिवार वाली संस्कृति की विरोधी विचारों को भी सह लेता है. क्योंकि सारे विचार चूलें हिलाने वाला शक्तिशाली तत्त्व क्या है? उसके अपने होते हैं। वायरस असहिष्णुता का परिवार और समाज की भूमिका में जीवन-यापन किसी भी समस्या के कारणों का अनुमान तभी करने वाला व्यक्ति कभी निरपेक्ष विचार नहीं कर सकता। लगाया जा सकता है, जब गहरे में उतरकर उस समस्या को यदि वह निरपेक्ष हो जाए तो उसे पग-पग पर समस्याओं का देखा जाए। संयुक्त परिवार-प्रथा पर कहर बरपाने वाला सामना करना पड़ता है। समूह-चेतना का विकास अनेकांत एक छोटा-सा तत्त्व है असहिष्णुता। इस असहिष्णुता का स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 96. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वायरस' इतना शक्तिशाली और संक्रामक है कि परिवार शहर में विश्व व्यापार केंद्र के विशाल भवनों और वाशिंगटन के एक व्यक्ति को लगने के बाद पूरे परिवार पर अपना में अमरीकी रक्षाविभाग 'पेंटागन' के भवन पर हुए शिकंजा कस लेता है। पारस्परिक संदेह, निरपेक्षता का आतंकवादी हमलों से संसार की सबसे बड़ी शक्ति दहशत मनोभाव, सहयोगी मनोवृत्ति का अभाव, स्वार्थपरता का में आ गई। इन हमलों के अनेक कारण हो सकते हैं। उनमें विकास आदि ऐसे लक्षण हैं, जो उस 'वायरस की सूचना सबसे बड़ा कारण असहिष्णुता है, असामंजस्य है और सहदेने वाले हैं। अस्तित्व की नीति का अभाव है। सहिष्णुता, सामंजस्य या भारतीय परंपरा में दूर-दराज के रिश्तों में भी अनुपम । अनेकांत का आलंबन लेकर हिंसा या युद्ध की समस्या को मिठास का अनुभव होता था। भाई-भाई, पिता-पुत्र, मां सदा-सदा के लिए समाप्त किया जा सकता है। बेटी, सास-बहू, भाभी-ननद आदि सभी रिश्ते आत्मीय सत्य अपने-आप में सत्य होता है। व्यवहार में धरातल पर अंकरित होते थे। जब तक इन संबंधों में अपने उसकी सत्यता का आधार अनेकांतवादी दृष्टिकोण बनता और पराए की भेदरेखा नहीं उभरी, तब तक परिवार अच्छे ह है। एकांतवादी दृष्टि व्यक्ति को सत्य से दूर ले जाती है ढंग से चलते रहे। स्व और पर की भावना पुष्ट होते ही टोले ही ॐ और विचार या विग्रह खड़ा कर देती है। परिवार में ऐसी दरार हो जाती है, जिसे भरना बहुत कठिन पांच अंधे मित्र किसी गांव में घूम रहे थे। उन्होंने है। यदि मनुष्य सहने की कला सीख लेता तो ऐसी दरार को हाथी का नाम सुना। हाथी को देखने की उत्सुकता जागी। वे अवकाश ही नहीं रहता। हाथी के पास गए। आंख की शक्ति उनके पास नहीं थी। उन्होंने स्पर्श शक्ति का प्रयोग किया, हाथी को छूकर देखा। आज एक भाई अपने भाई को सहन करने की स्थिति हाथी कैसा लगा? इस जिज्ञासा के समाधान में पहला में नहीं है। पिता-पुत्र के संबंधों में बढ़ती जा रही कटुता । __व्यक्ति बोला-'हाथी खंभे जैसा है।' दूसरा बोला—'हाथी बताती है कि पुत्र में इतनी भी क्षमता नहीं है कि वह अपने केले के तने जैसा है।' तीसरा बोला—'हाथी मूसल जैसा पिता को सहन कर सके। सास-बहू के संबंध की जितनी : है।' चौथा बोला—'हाथी छाज जैसा है।' पांचवां बोलाबदनामी गत शताब्दी में हो चुकी है, अब नई शताब्दी उसे 'हाथी मोटी रस्सी जैसा है।' कौन-सा 'तोहफा' देगी--कहा नहीं जा सकता। इन सब पांचों व्यक्तियों ने अपने स्पर्श की अनुभूति को संबंधों से भी घनिष्ठ संबंध होता है पति-पत्नी का। दो शब्दों का परिधान दे दिया। पांचों अपनी-अपनी बात पर व्यक्ति एक-दूसरे का पूरक बनने का संकल्प स्वीकार कर अड़ गए। हाथी का स्वरूप निश्चित नहीं हो पाया। उनके अपनी जीवनयात्रा शुरू करते हैं। उन दोनों का सुख-दुख विवाद का भी अंत नहीं हुआ। साझा होता है, किंतु आपसी समझ के अभाव में वे बिछुड़ पांचों मित्रों के बीच विवाद चल रहा था। उस समय जाते हैं। काश वे आचार्यश्री तुलसी के अग्रांकित परामर्श के वहां एक आदमी आया। वह चक्षुष्मान था। उसने हाथी को अनुसार एक-दूसरे को सहन कर सहयात्रा कर पाते। देखा और कहा-'भाइयो! आप सब झूठे हो और सभी आचार्यश्री ने व्यवहार-बोध में लिखा है सच्चे हो।' यह एक नई समस्या खड़ी हो गई। चक्षुष्मान मेरी हरकत सहे सहज वह आदमी ने उनको समझाते हुए कहा-'आपने हाथी को नहीं मैं भी उसकी क्यों न सहूं छुआ, उसके एक-एक अंग को छूकर देखा है। उसका पैर साथीरूप निभाना है तो खंभे जैसा है। उसकी सूंड केले के तने जैसी है। उसका दांत सहिष्णुता के साथ रहूं।। ___ मूसल जैसा है। उसका कान छाज जैसा है। उसकी पूंछ पति-पत्नी दोनों सहिष्णुता की कला में निष्णात हों मोटी रस्सी जैसी है। तुम अपनी पकड़ को सत्य और दूसरों तो तलाक की नौबत नहीं आ पाती। यदि सहना नहीं आता की पकड़ को मिथ्या बताते हो, इसलिए तुम सब झूठे हो। है तो बहुत छोटी-छोटी बातें अलगाव का कारण बन जाती तुम अपने-अपने सत्यांश को मिलाकर अखंड सत्य को हैं। इससे स्पष्ट होता है कि असहिष्णुता पारिवारिक या प्राप्त कर सकोगे।' अंधे मित्रों की समस्या समाहित हो गई। सामाजिक बिखराव के लिए उत्तरदाई है। यह एक व्यापक यह अनेकांत का प्रयोग है। इसके माध्यम से ऐसे सेतु का समस्या है। परिवार, समाज, संस्थान, राज्य, राष्ट्र और निर्माण हो सकता है, जो इस तट से उस तट तक पहुंचाकर उससे आगे पूरा विश्व इस समस्या से आक्रांत है। न्यूयार्क सत्य का साक्षात्कार करा देता है। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 । अनेकांत विशेष.97 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांत : महावीर का सत्यान्वेषण डॉ. रामजीसिंह । जहां तक जैन विचारधारा का प्रश्न है उसने श्री समन्वय की साधना में अद्वैत एवं विभज्यवाद की तरह । अनेकांत का आविष्कार किया। अनेकांत केवल कोई बौद्धिक व्यायाम नहीं, एक जीवनदर्शन है। यह । कोई विकल्पवाद नहीं, यह कोई संशयवाद नहीं, इसमें तो पूर्णता एवं यथार्थता दोनों हैं। व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं हो सकता सर्व सर्व म जानाति । फिर प्रकृति का रहस्य अत्यंत अटिल रहता है। इसलिए हमें यह अहंकार कभी नहीं करना चाहिए कि हम सब-कुछ जानते हैं। चाहे आत्मा के स्वरूप का प्रश्न हो या नैतिकता का या शरीर-आत्मा का संवैध, इनके संबंध में भिन्न दृष्टियां होगी। ASTHAN चार्य हरिभद्र ने योगदृष्टि सम्मुचय में बौद्ध एवं वैदिक दर्शनों ने भी स्वीकार किया है। भारतीय धार्मिक साधन' की विविधताओं के विषय में चिंतन धारा की यह विशेषता है कि अहिंसा का क्षितिज लिखा है केवल मानवों के लिए ही नहीं, मानवेतर प्राणियों के लिए यद्वा तत्तन्नयापेक्षा तत्कालाविनियोगतः। खोल दिया। अभी भी जैनों के अलावा हिंदू-वैष्णव आदि ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैषापि तत्त्वतः।। कई समाज के लोग निरामिष हैं। अहिंसा का पर्यायवाची (योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक 138) शांति तो वैदिक सभ्यता का प्राण है और वही शांति की भावना मानव और पशु-पक्षियों से भी आगे वृक्षों एवं जल प्रत्येक ऋषि अपने देश, काल और परिस्थिति के आदि तक विस्तृत है। 'द्यौ शान्तिः ' से लेकर 'आपः शांति', आधार पर भिन्न-भिन्न धर्म-मार्गों का प्रतिपादन करते हैं। 'अंतरिक्ष शांति' आदि मंत्र हैं। देश और कालगत विविधताएं तथा साधकों की रुचि और स्वभावगत वैविध्य धार्मिक साधनाओं की विविधताओं का समन्वय की खोज में भगवान बुद्ध ने अहिंसा के आधार है। जब हम मान लेते हैं कि हमारी साधना पद्धति ही आंतरिक पर्यायवाची 'करुणा' का आविष्कार किया। सचमुच जब तक हृदय में करुणा, दया आदि के भावों का उद्रेक नहीं एकमात्र अंतिम साध्य तक पहुंचा सकती है, तभी होता, अहिंसा टिक नहीं सकती। यूनेस्को की घोषणा में कहा असहिष्णुता का जन्म होता है। देश, काल, प्रवृत्ति और गया है—'युद्ध का सूत्रपात मानव-मन से होता है अतः शांति योग्यता आदि ऐसे तत्त्व हैं जिनके कारण साधनागत का दुर्ग भी मानव-मन से ही बनेगा। वस्तुतः भगवान बुद्ध की विविधताओं का होना आवश्यक है। जिससे व्यक्ति का करुणा का आधार मानव-हृदय है। विचार के रूप में समन्वय आध्यात्मिक विकास होता है, वह आचार बाह्य विधि-निषेध .. के लिए उन्होंने विभज्यवाद का सिद्धांत रखा। एकांश एवं या बाह्य कर्मकांड नहीं, साधक की भावना या जीवन-दृष्टि है। भारत का वैभव इसका वैविध्य है, लेकिन बद्ध ने किसी प्रश्न का उत्तर 'हां' या 'नहीं' में देना पसंद नहीं विविधताओं के समन्वय की साधना भारत की अनुपम देन किया, बल्कि उसका विभाग करके दिया। इसी को है। इस सत्यान्वेषण में भारतीय मनीषा ने कई तरह के रूप विभज्यवाद कहते हैं। ब्रह्म जाल सुत में बुद्ध ने इसीलिए पाए। पहली खोज अहिंसा की हुई। अहिंसा समन्वय की शाश्वतवाद के साथ उच्छेदवाद दोनों को अस्वीकार कर साधना की ही एक प्रविधि है। विविधताओं या मझिम निकाय स्वीकार किया। संक्षेप में समन्वय की एक असामंजस्यताओं का समाधान हम हिंसा से भी कर सकते प्रविधि मध्यम-मार्ग ढूंढ़ना भी है। अरस्तु ने इसी को हैं या अहिंसा से। अहिंसा को केवल जैनों ने ही नहीं, बल्कि स्वर्णनियम (Golden Mean) कहा था। वैदिक विचारधारा स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 98. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में अद्वैत की अवधारणा समन्वय की साधना ही है। ऋग्वेद में ग्रहण कर लेता है तो दूसरी ओर एक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति कहा ही गया है सम्यक्-श्रुत में भी बुराई या कमियां देख सकता है। (नन्दी एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति। सूत्र 42) शास्त्र एवं शब्द जड़ हैं, उससे जो अर्थबोध किया एकं देवो बहुधा कल्पयन्ति।। जाता है, वही महत्त्वपूर्ण है। यह अर्थबोध की प्रक्रिया साधक अबैत शायद समन्वय की पराकाष्ठा है. क्योंकि एक का दृष्टि पर निभर करता है। में सबों का समन्वय है-एकमेवाद्वितीयम्। धार्मिक असहिष्णुता का बीज रागात्मकता या अपनी जहां तक जैन . धर्म पद्धति को या अपने धर्म विचारधारा का प्रश्न है उसने गुरु को अंतिम मानने में है। भी समन्वय की साधना में इसी से कदाग्रह एवं धार्मिक असहिष्णुता का बीज रागात्मकता अद्वैत एवं विभज्यवाद की तरह या अपनी धर्म पद्धति को या अपने धर्म असहिष्णुता का बीज बढ़ता है। भगवान महावीर के प्रथम अनेकांत का आविष्कार किया। गुरु को अंतिम मानने में है। इसी से अनेकांत केवल कोई बौद्धिक कदाग्रह एवं असहिष्णुता का बीज बढ़ता शिष्य एवं गणधर इंद्रभूति व्यायाम नहीं, एक जीवनदर्शन है। भगवान महावीर के प्रथम शिष्य एवं गौतम को तब तक कैवल्य की है। यह कोई विकल्पवाद नहीं, गणधर इंद्रभूति गौतम को तब तक कैवल्य प्राप्ति नहीं हो सकी, जब तक की प्राप्ति नहीं हो सकी, जब तक वे यह कोई संशयवाद नहीं, इसमें वे वीतरागता को प्राप्त नहीं कर वीतरागता को प्राप्त नहीं कर सके। तो पूर्णता एवं यथार्थता दोनों सके। महावीर के प्रति गौतम महावीर के प्रति गौतम का राग उनके हैं। कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं का राग उनके कैवल्य का कैवल्य का बाधक है। इस दृष्टि से सोचें हो सकता-सर्वं सर्व न बाधक है। इस दृष्टि से सोचें तो किसी धर्मपंथ के लोग अपने धर्मगुरु तो किसी धर्मपंथ के लोग जानाति। फिर प्रकृति का या धर्मपंथ को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं तो यह अपने धर्मगुरु या धर्मपंथ को रहस्य अत्यंत जटिल रहता है। अनेकांत की हत्या है। मुझे तो दीक्षा की इसलिए हमें यह अहंकार कभी सर्वश्रेष्ठ मानते हैं तो यह परिपाटी भी एकांतवाद का स्थूल एवं नहीं करना चाहिए कि हम अनेकांत की हत्या है। मुझे तो वीभत्स रूप दीखता है। 'पंच णमोकार सब-कुछ जानते हैं। चाहे मंत्र' में किसी व्यक्ति का उल्लेख नहीं, दीक्षा की परिपाटी भी आत्मा के स्वरूप का प्रश्न हो केवल गुणवाचक है। इसमें संप्रदायवाद एकांतवाद' का स्थूल एवं या नैतिकता का या शरीर- नहीं है। इस दृष्टि से यह सगुण अनेकांत वीभत्स रूप दीखता है। 'पंच आत्मा का संबंध, इनके संबंध है। णमो लोए सव्वे साहूणं' सर्वोदय णमोकार मंत्र' में किसी व्यक्ति में भिन्न दृष्टियां होंगी। भावना की तरह उदारता की पराकाष्ठा है। का उल्लेख नहीं, केवल आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टि गुणवाचक है। इसमें समुच्चय में कहा है संप्रदायवाद नहीं है। इस दृष्टि से यह सगुण अनेकांत है। ‘णमो लोए सव्वे साहूणं' सर्वोदय चित्रा तु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः। भावना की तरह उदारता की पराकाष्ठा है। हेमचन्द्र ने य स्यादेते महात्मनो भवव्याधि भिषवराः।। महादेव स्तोत्र में कहा हैजिस प्रकार एक अच्छा वैद्य रोगी की प्रकृति, ऋतु को ध्यान में रखकर एक ही रोग के लिए दो व्यक्तियों को ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्यै। अलग-अलग ओषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार धर्म चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो या महादेव हो या जिन, उन उपदेश भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले व्यक्तियों के लिए सभी को प्रणाम। हरिभद्र भी कहते हैंअलग-अलग साधना विधि देते हैं। सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथतेति च। शास्त्र की सत्यता का प्रश्न भी विवाद खड़ा कर देता शब्दैस्तद् उच्यतेऽन्वर्थात् एकं एवैवमादिभिः।। है कि मेरा ही धर्मशास्त्र सच्चा धर्मशास्त्र है। एक सम्यक् एक ही तत्त्व है चाहे उसे सदाशिव कहें, परब्रह्म कहें, दृष्टि व्यक्ति मिथ्या-श्रुत से भी अच्छाई और सारतत्त्व सिद्धात्मा कहें या तथागत। नाम को लेकर विवाद जड़ता है। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 । अनेकांत विशेष .99 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस समन्वय का आधार प्रज्ञा है। धार्मिक जीवन में श्रद्धा का प्रहरी प्रज्ञा या बुद्धि को बनाया जाना चाहिए। इंद्रभूति गौतम ने जो कभी कहा था, आज भी प्रासंगिक है— पन्ना समिक्खए धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छ्रयं धार्मिक आचार के नियमों की समीक्षा प्रज्ञा से करनी चाहिए। जैन धर्म में धार्मिक सहिष्णुता केवल रागात्मकता पर नहीं, बल्कि विचार पर आधारित है जब वस्तुतत्त्व अनंत धर्मात्मक है तो उस संबंध में हमारा ज्ञान एवं कथन दोनों सापेक्ष होंगे। मानव की बुद्धि अल्प है, अतः वह संपूर्ण सत्य को नहीं, उसके एक अंश को जान सकती है। यहां तो हमारे एवं हमारे विरोधी के विश्वास और कथन दो भिन्न भिन्न परिप्रेक्ष्यों में एक साथ सत्य हो सकते हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मति तर्क में कहा है— णाययवयणा ज्जसच्चा सव्वन्या पर वियातणो मोहा ते उण शा दिट्ठसमओ विभयह सच्चे व अलिये वा । ( सन्मति - तर्क, 1 / 28 ) इसीलिए यशोविजय कहते हैं कि सच्चा अनेकांतवादी किसी दर्शन से द्वेष नहीं करता। वह संपूर्ण दर्शनों को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है जैसे पिता अपने पुत्र कोयस्य सर्वत्र समता नयेषु वनयेष्तिव । तस्यानेकांतवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी ।। (अध्यात्मोपनिषद्, 61) आचार्य अमितगति का मंगलमंत्र भी अनेकांत भावना का जीवन रूप है सत्वेषु मैत्री गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवे सुकृपापरूपं । माध्यस्थ भावं विपरीत वृतौ सदा ममात्माविदधातु देव || अनेकांत निर्गुण भी होता है, सगुण भी जीवन विचार, वाणी एवं व्यवहार की समग्रता है। विचार व्यवहार को प्रभावित करता है। इसलिए सम्यक् दृष्टि एवं सम्यक्ज्ञान दोनों पर जोर है। लेकिन सत्य क्या है, असत्य क्या है, यह कोई नहीं जानता क्योंकि सत्य संश्लिष्ट होता है। ज्ञान का अर्थ है ज्ञाता एवं ज्ञेय का संबंध अतः ज्ञान स्वयं । सापेक्ष है। इसमें न संशयवाद है न आत्मवाद। इसमें तो पूर्णता एवं समग्रता के साथ यथार्थवाद है। महावीर गौतम के - बीच वार्ता में भगवान महावीर कहते हैं कि द्रव्य की दृष्टि से आत्मा अशाश्वत है, किंतु पर्याय की दृष्टि से शाश्वत । अनेक वार्ताएं हैं, लेकिन इसका ऐकांतिक उत्तर संभव नहीं हो सकता। असल में दो गुणात्मक तर्कशास्त्र जीवन की संश्लिष्टताओं का समाधान करने में सक्षम नहीं होते? अब 100 • अनेकांत विशेष तो बहुआयामी तर्कशास्त्र की जरूरत है। वैचारिक जीवन में अहिंसा का सिद्धांत ही अनेकांतवाद है। हमें किसी एक आयाम को संपूर्णता प्रदान करना गलत है। जैन सप्तभंगी न तो द्वि-मूल्यात्मक है, न त्रिमूल्यात्मक ही इसे बहुमूल्यात्मक कहा जा सकता है। अभी तक आधुनिक तर्कशास्त्र में ऐसा आदर्श सिद्धांत विकसित नहीं हुआ है जो कथन की सप्त- मूल्यात्मकता को प्रकाशित करे । सप्तभंगी का प्रत्येक भंग वस्तु स्वरूप के संबंध में नवीन तथ्यों का प्रकाशन करता है। इसलिए उसके प्रत्येक भंग का अपना स्वतंत्र स्थान एवं मूल्य है। महावीर का अनेकांतवाद निषेधात्मक नहीं, विधायक दृष्टिकोण है। बुद्ध ने तत्त्वमीमांसा के प्रश्नों पर मौनावलंबन किया, किंतु महावीर ने सभी प्रश्नों को सार्थक एवं व्याकरणीय बताया अनेकांतवाद संजय का संशयवाद नहीं है यह किसी प्रकार का विकल्पों का व्यायाम नहीं इसमें तो सत्य का संकेत है। एक प्रश्न है कि अनेकांत 'क्या एकांत नहीं है ? क्या यह बात का बतंगड़ है?' हम कह सकते हैं कि कुतर्क है। लेकिन अनेकांत का भी एक एकांतवाद कहा जा सकता है। यदि अनेकांत निरपेक्ष है तो यह सार्वभौम नहीं है, किंतु यदि एकांत है तो भी यह सार्वभौम नहीं है। इस पर दो द्विविधाओं के मध्यांतर अनेकांतवाद झूलता है। असल में जैन तर्कशास्त्र अमूर्त है, केवल बौद्धिकतावाद पर आश्रित नहीं इसकी जड़ यथार्थता में और सप्तभंगों में कोई भी भंग काल्पनिक नहीं बल्कि सही एवं यथार्थ हैं। अनेकांतवाद एकांती नहीं। यह अनैकांतिक एवं ऐकांतिक दोनों है। यह एकांत दृष्टि कहलाएगा क्योंकि यह एक अलग स्वतंत्र दृष्टिकोण है। यह अनेकांत है क्योंकि यह सभी आयामों का योगफल है। मनुष्य की शक्ति सीमित है, किंतु वस्तु का स्वरूप असीम है उसमें अनंत प्रदेश एवं अनंत धर्म होते हैं। किसी वस्तु के विषय में भिन्न-भिन्न विचार हो सकते हैं और वे परस्पर विरोधी भी हो सकते हैं परंतु उनमें एक सामंजस्य है, अविरोधी तत्त्व है जो उसे भलीभांति देख सकता है। यह तत्त्व दर्शन है। यह सापेक्षतावाद आज के वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। विरोध के स्वीकार और विरोध के परिहार का यह अनूठा सिद्धांत है। जैन परंपरा की विश्व संस्कृति को एक अनुपम देन है। इसके लिए अंतर में सभी के प्रति मैत्रीभाव आवश्यक है। किसी के प्रति वैरभाव न हो। जीओ एवं जीने दो सबके प्रति स्नेह एवं आदर यही तो सगुण । - अनेकांत है। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च मई, 2002 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांठ : चिंतन का चरमचक्षु STATNIST dिar VERSTANDISEART APE E THENDE किसी भी भौतिक पदार्थ को देखने-पसी के लिए जिस प्रकार आँख अनिवार्य साधन है, उसी प्रकार किसी भी वस्तु के ऐसे स्वभाव या उसके गुण-दोषों को, बो आँखों से नहीं देखे जा सकते, उन्हें जानने । और मानने के लिए अमेकांत आवश्यक और अनिवार्य साधन है। आगहों के सघन अंधकार में प्रवेश करके वास्तविकता को हृदयंगम करने के लिए यह एकमात्र प्रकाश-किरणहान विचारकों ने अनेकांत को अंधकार में हाथ पर रखे दीपक के समान सहायक मानकर उसे नमन किया है। बू प्रायः प्रतिदिन हमारे उपयोग में आने वाला अभाव की अनिवार्यता ने हमारे ज्ञान को सीमित तो किया ही छोटा-सा फल है। हम बचपन से जानते- है, पराधीन भी बना दिया है। ऐसी दशा में वस्तु को सही पहचानते हैं। इतना परिचित है वह हमारे लिए कि सामने रूप में देखने-जानने का एक ही उपाय है कि जब हम वस्तु आते ही उसके रूप-रस और आकार-प्रकार सब हमारे ज्ञान का कोई भी रूप अपने सामने देखें और जानें, तब बिना में एक साथ आ गए लगते हैं, परंतु ऐसा होता नहीं। हमारे किसी हठाग्रह के, अपने जानने के अधूरेपन को स्वीकार करें उस ज्ञान में जानना बहुत कम होता है। अधिकांश तो और जो जितना हमसे अनजाना रह गया है, उसका निषेध अनुमान और धारणा की सहायता से ही हम उसे जान रहे न करें। पदार्थ में ऐसे अनंत गुण-धर्मों की स्वीकृति के लिए होते हैं। धारणा एक काल में अनेक बातों की हो सकती है. अवकाश छोड़ दें जिनके होने की पूरी संभावना प्रत्येक पदार्थ परंतु जानना तो एक काल में पदार्थ के एक ही गुण का होता में है। है। वह भी पूरा नहीं होता, आधा-अधूरा ही होता है। जिस किसी एक छोर से हम वस्तु को जानते हैं, उसे वास्तविकता यह है कि जब हम नीबू के रूप को जान जानने का वही एकमात्र छोर तो नहीं है। उसे जानने के तो रहे होते हैं, तब हम उसके रस का ज्ञान नहीं कर रहे होते हैं। ऐसे अनेक छोर है। अनेक दृष्टिकोण हैं या हो सकते हैं, रूप देखकर जब हम उस फल के नीब होने का निर्णय करते अनेक दृष्टियां हैं या हो सकती हैं। छोर कहें या 'अंत' कहें हैं तब उसका रस, उसका खट्टापन और उसकी सुगंध हमारे एक ही बात है। इसलिए जो विद्या ज्ञेय पदार्थ के एक छोर अनुभव, अनुमान और धारणा में से व्यक्त होकर हमें नीबू के को जानते समय उसके दूसरे किसी छोर का निषेध नहीं रस, गंध और स्पर्श का भी बोध करा देती है। इसका अर्थ करती, उसके हर संभावित छोर को या अनेक अंतों को एक हुआ कि जब हम नीबू का रूप जान रहे होते हैं, तब हम साथ अवकाश देती है, उसी समर्थ विद्या को या उसी पवित्र उसका रस, गंध और स्पर्श नहीं जान रहे होते। इतना-भर अनाग्रही दृष्टि को, जैनाचार्यों ने 'अनेकांत' कहा है। नहीं, हमारे ज्ञान की सीमा तो इतनी पराधीन है कि रूप में भी अनेकांत जब हम उसका पूर्वी भाग जान रहे होते हैं, तब उसका किसी भी भौतिक पदार्थ को देखने-परखने के लिए पश्चिमी भाग कहां जान रहे होते हैं। यही सीमा दसों दिशाओं जिस प्रकार आंख अनिवार्य साधन है, उसी प्रकार किसी भी से हमारे जानने को अल्प और एकपक्षीय बना देती है। पदार्थ वस्तु के ऐसे स्वभाव या उसके गुण-दोषों को, जो आंखों से को पूरा जानने के लिए हमें उसे अनंत दृष्टियों से और अनंत । नहीं देखे जा सकते, उन्हें जानने और मानने के लिए दृष्टिकोणों से जानने-देखने की आवश्यकता होगी। अनेकांत आवश्यक और अनिवार्य साधन है। आग्रहों के वर्तमान में हमारी इंद्रियों की सामर्थ्य, प्रकाश, चश्मा सघन अंधकार में प्रवेश करके वास्तविकता को हृदयंगम आदि साधक कारणों के सद्भाव तथा इनके बाधक कारणों के करने के लिए वह एकमात्र प्रकाश-किरण है। जैन विचारकों 1 11111111111111111111111 स्वर्ण जयंती वर्षu ni जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.101 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने अनेकांत को अंधकार में हाथ पर रखे दीपक के समान भगवान महावीर और उनकी आचार्य परंपरा के सहायक मानकर उसे नमन किया है। आचार्य सिद्धसेन ने मनीषी अहिंसा के इतने प्रबल पक्षधर रहे हैं कि वे किसी के कहा विचारों की भी हिंसा नहीं करना चाहते। वे प्रतिपल जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ, सावधान हैं कि हिंसा की प्रतिक्रिया हिंसा ही है। उनके लिए तस्स भुवनेक गुरुणो णमो अणेगंतवायस्स। सर्वथा असत्य कुछ होता ही नहीं। हर कथन किसी-न-किसी जिसके बिना लोक का व्यवहार भी भले प्रकार चल अपेक्षा से आंशिक सत्य होता है। महावीर का अनेकांत कहीं नहीं सकता, भुवन के उस एकमेव असाधारण गुरु तोड़ता नहीं, सर्वत्र जोड़ता ही है। विचार को विचार से, 'अनेकांत' को मेरा नमस्कार। आचार को आचार से और मनुष्य को मनुष्य से जोड़ना ही आचार्य अमृतचंद्र देव ने अनंत नयों के समूह उस अनेकांत का साध्य है। महान तत्त्व को इन शब्दों में प्रणाम किया है अनेकांत दर्शन मिथ्यात्व और एकांत के हठाग्रह का परमागमस्य बीजं निषिद्ध जात्यंध-सिन्धुर-विधानम्, विमोचक होने से मोक्षमार्ग में तो उपयोगी है ही, परंतु वह सकल नयविलसितानां, विरोध-मथनं नमाम्यनेकान्तम् । लौकिक जीवन को सुधारने और संस्कारित करने का भी अमोघ उपाय है। जो परम आगम का बीज है : जैन आगम का प्राण है, जिसने जन्मांध पुरुषों के द्वारा टटोले गए हाथी के, आधे अनेकांत हमें दूसरे के दृष्टिकोण को समझने की अधूरे और परस्पर विरोधी अनुमानों का, अथवा एकांतवादी प्रेरणा देता है और आपेक्षिक सत्य के रूप में उसे स्वीकार दार्शनिक-व्याख्याताओं की भ्रामक करने की उदारता हमारे भीतर उत्पन्न करता है। अवधारणाओं से निष्पन्न, सकल अनेकांत की इस उदारता में वैचारिक-विकारों का सम्यक् से सहिष्णुता का जन्म होता है। वर्तमान में हमारी इंद्रियों की सामर्थ्य, समापन कर दिया है, और जो मानव स्वभाव में सहिष्णुता आने प्रकाश, चश्मा आदि साधक कारणों परस्पर-सापेक्ष, अनंत, नयों से पर सह-अस्तित्व की भावना को के सद्भाव तथा इनके बाधक कारणों विभूषित, उन नयों की के अभाव की अनिवार्यता ने हमारे बल मिलता है। सह-अस्तित्व की विवक्षाओं-अपेक्षाओं एवं ज्ञान को सीमित तो किया ही है, भावना भाईचारे और पारिवारिक उपेक्षाओं की संभावनाओं का पराधीन भी बना दिया है। ऐसी दशा सुख-शांति से लेकर मनुष्य को संरक्षक बनकर, हर हठाग्रह को में वस्तु को सही रूप में देखने-जानने विश्व-बंधुत्व की ऊंचाइयों तक हटाने वाला और चिंतन की तरंगों का एक ही उपाय है कि जब हम पहुंचाने की सामर्थ्य रखती है। में व्याप्त समस्त मिथ्या-मल को वस्तु का कोई भी रूप अपने सामने अनेकांत का चिंतन समता शमन करने वाला है, उस देखें और जानें, तब बिना किसी को जन्म देता है। एकांत से 'अनेकांत' को मैं नमन करता हूं। हठाग्रह के, अपने जानने के अधूरेपन विषमता का जन्म होता है। सापेक्षता, विवक्षा, अपेक्षा, को स्वीकार करें और जो जितना हमसे अनजाना रह गया है, उसका अनेकांत की क्यारी में स्याद्वाद और समन्वयवाद ये निषेध न करें। पदार्थ में ऐसे अनंत विनय, वात्सल्य, स्वीकृति और सब अनेकांत के ही समानार्थी गुण-धर्मों की स्वीकृति के लिए विचार-विमर्श के सुमन खिलते हैं। शब्द हैं। आइन्स्टीन द्वारा अवकाश छोड़ दें जिनके होने की पूरी एकांत से निषेध और संघर्षों की प्रतिपादित सापेक्षवाद—'थ्योरी संभावना प्रत्येक पदार्थ में है। फसल उगती है। आफ रिलेटिविटी'—का मूलमंत्र अनेकांत ही है। अनेकांत की अनेकांत वैचारिक अहिंसा विशेषता यही है कि वह कभी कहीं टकराता नहीं। वह तो का नाम है। एकांत या हठाग्रह एक एक-दूसरे की भावनाओं को तथा हर पदार्थ में निहित प्रकार की मानसिक हिंसा है। विभिन्न संभावनाओं को समझने की एक सुगम और अनेकांत के माध्यम से ही महावीर द्वारा परिभाषित सदाशयपूर्ण पद्धति है। 'भाव-हिंसा' का मूलोच्छेद संभव होता है। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 102 • अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिंतन में प्रतिष्ठित अनेकांत, व्यवहार में आकर सत्य नहीं है। अन्य दृष्टियों से वस्तु का स्वरूप कुछ भिन्न 'अहिंसा' बन जाता है। विश्व की वर्तमान विस्फोटक ही दिखाई देगा। परिस्थितियों में महावीर की यह अहिंसामूलक सहिष्णु जैनाचार्यों ने इस समस्या के समाधान के लिए विचारधारा प्राणीमात्र के लिए उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है। 'स्याद्वाद' का आविष्कार किया। चिंतन की धरा पर एक इस अनेकांत में मनुष्य को संप्रदायवादी संकीर्णताओं से । साथ जाने-समझे गए वस्तु के स्वरूप को जब शब्दों के ऊपर उठाकर, मानवतावादी और शांतिकामी चिंतन का माध्यम से कहा जाए या लि माध्यम से कहा जाए या लिखा जाए तब उसके साथ प्रकाश प्रदान करने की अद्भुत क्षमताएं हैं। यही अनेकांत का स्यात' शब्द का प्रयोग करने का विधान जैन दर्शन की साध्य है। मानव-मन में धार्मिक सहिष्णुता और वैचारिक मौलिक व्यवस्था है। यह एक ऐसी चामत्कारिक विधा है जो उदारता की भावनाओं का विकास करने के लिए यह वस्त के स्वभाव की मर्यादा को सरक्षित रखती हई सहज ही अनेकांतवादी जैन विचार-पद्धति, समस्त दार्शनिक जगत के सारे विवादों का अंत कर देती है। लिए जैन दर्शन की अनमोल और अनोखी देन है। काश, . स्याद्वाद अनेकांत की कथन-पद्धति का नाम है। वह विनाश के ज्वालामुखी पर बैठकर इतराता हुआ आज का वचन रूप होने के कारण किसी एक प्रमुख वाच्य धर्म को दिग्भ्रमित मनुष्य इस प्रकाश में अपने लिए सही मार्ग की कहकर, उस पदार्थ के किन्हीं अन्य धर्म या धर्मों का निषेध तलाश कर सकता। नहीं होने देता। वह उन सभी गुण-धर्मों की मौन व्यवस्था स्याद्वाद करता है, उनके लिए वह पर्याप्त व्यवस्था छोड़ता है। अनेकांत की ऐसी समर्थ दृष्टि के माध्यम से वस्तु के चिंतन और कथन में, विचार और वचन में यही तो अंतर अनेक गुण-धर्मों की स्पष्ट - है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों अवधारणा हो जाने पर भी, उन्हें को जान सकता है, उन सबको एक साथ कहना संभव नहीं होता। चिंतन में प्रतिष्ठित अनेकांत, व्यवहार चिंतन में एक साथ उतार सकता अनेकांत एक भाववाचक पद है। में आकर 'अहिंसा' बन जाता है। है, परंतु वाणी में ऐसी सामर्थ्य उसे चिंतन में उतारा जा सकता विश्व की वर्तमान विस्फोटक नहीं है कि उन सबका एक साथ है, कहा नहीं जा सकता। अनेकांत परिस्थितियों में महावीर की यह कथन कर सके। वचन द्वारा तो में वस्तु के समस्त गुण-धर्मों की अहिंसामूलक सहिष्णु विचारधारा एक बार में एक ही धर्म का कथन प्राणीमात्र के लिए उपयोगी और युगपत् स्वीकृति है, परंतु एक बार संभव है। यहां स्मरणीय है कि महत्त्वपूर्ण है। इस अनेकांत में मनुष्य में उनमें से एक ही गुण या धर्म यह वचन की सीमा है, वस्तु की को संप्रदायवादी संकीर्णताओं से कहा जाएगा। उस समय हमारे न ऊपर उठाकर, मानवतावादी और नहीं। चाहते हुए भी, वस्तु में रहने वाले शांतिकामी चिंतन का प्रकाश प्रदान जिस छोर से हमने पदार्थ अन्य अनंत गुण-धर्मों का सहज करने की अद्भुत क्षमताएं हैं। यही को देखा है, उसे ईमानदारी से ही निषेध हो जाता है। जब हम अनेकांत का साध्य है। मानव-मन में कहना हो तो यही तो कहना होगा कहते हैं कि नीबू पीला है, तब धार्मिक सहिष्णुता और वैचारिक कि इस दृष्टि से यह वस्तु ऐसी उसी काल में हम यह नहीं कह उदारता की भावनाओं का विकास है। रंग की अपेक्षा नीबू पीला है, पाते कि नीबू खट्टा है। तब हमारे करने के लिए यह अनेकांतवादी जैन रस की अपेक्षा वह खट्टा है। वह सामने यह समस्या पैदा होती है विचार-पद्धति, समस्त दार्शनिक एक होकर भी अनेकता लिए हुए कि भिन्न-भिन्न समयों में कहे गए जगत के लिए जैन दर्शन की अनमोल है। उसका समग्र स्वरूप एक साथ एक ही वस्तु का परिचय देने वाले और अनोखी देन है। कहा नहीं जा सकता। तब स्यात् उन भिन्न-भिन्न कथनों या वाक्यों पदांकित वचन ही सम्यक् हो का अधूरापन कैसे व्यक्त हो? या उनका परस्पर संबंध कैसे सूचित किया जाए, जिससे यह , सकता है, जैसेघोषित होता हो कि जो कहा गया है वह मात्र किसी एक 'स्यात् निंबुक पीतः अस्ति : स्यात् हरितः नास्ति', अंत, एक छोर या एक दृष्टि से देखा गया सच है। वह पूर्ण (रंग की अपेक्षा नीबू पीला है, हरा नहीं है) स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 जैन भारती अनेकांत विशेष. 103 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "स्यात् कठोर अस्ति : स्यात् मृदुः नास्ति', (स्पर्श का अनुगामी मान लिया गया। ऐसा केवल ध्वनिसाम्य के की अपेक्षा वह कठोर-कड़ा है, नरम नहीं) कारण नहीं हुआ, वरन धार्मिक हठाग्रहों के कारण, जैन 'स्यात् सुगंधवान अस्ति : स्यात् दुर्गंधितो नास्ति', विद्याओं का खंडन करने के गर्हित उद्देश्य से किया गया। (गंध की अपेक्षा सुगंधित है, दुर्गंधित नहीं) 'संशयवाद' कहकर या 'अनिश्चयवाद' का आरोप लगाकर अनेकांत जैसे स्वर्णिम सिद्धांत का उपहास किया गया। 'स्यात् अवक्तव्यः अस्ति' (अनिर्वचनीय है, कैसा है, शब्दकोशों में उसकी हास्यास्पद और अपमानजनक कैसा नहीं--सो एक साथ कहा नहीं जा सकता आदिआदि।) यहां स्यात् शब्द से कथंचित, किसी अपेक्षा से या परिभाषाएं दर्ज की गईं। उदाहरण के लिए वामन आप्टे के संस्कृत-हिंदी शब्दकोश में परिवर्त्य, अनिश्चित, अस्थिर किसी दृष्टि से वस्तु का स्वरूप ऐसा है, यह अभिप्राय और सामयिक जैसे हल्के शब्दों को अनेकांत का पर्यायवाची समझना चाहिए। पदार्थ के इन सारे परस्पर विरोधी गुणधर्मों को कहने के लिए स्याद्वाद आवश्यक है। स्याद्वाद बताया गया, इन पांच शब्दों में क्या एक भी शब्द ऐसा है जो अनेकांत सिद्धांत की सागर जैसी गंभीरता की एक बूंद पदांकित वाणी में ही वह सामर्थ्य है कि अन्य धर्मों का निषेध को भी वहन करने में सक्षम हो? अन्य कोशों में भी स्थिति किए बिना किसी धर्म का कथन कर सके। कुछ ऐसी ही होगी—ऐसा मेरा अनुमान है। इस प्रकार एकांत का प्रतिकार करने में और वस्तु की हमसे भी यह प्रमाद अवश्य हुआ है कि हमने अहिंसा, अनंत धर्मात्मकता को सिद्ध करने में स्याद्वाद शैली ही सत्य, अस्तेय, शील और अपरिग्रह की उपयोगिता को सक्षम है। यह स्याद्वाद 'अनेकांत' का ही शब्दात्मक रूप है। प्रचारित करने के लिए जितना अध्यवसाय किया, उसका यह कहा गया अनेकांत ही है और कुछ नहीं। अनेकांत की शतांश भी अनेकांत की महत्ता को स्थापित या विज्ञापित परिभाषा इतनी ही है कि वस्तु के एक या कुछेक गुण-धर्मों करने के लिए नहीं किया। इस हितकर विद्या के प्रचार की को जानते हुए भी, उसमें निहित अनेक या अनंत अनजाने ओर हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया। देश के प्रसिद्ध या अनदेखे गुण-धर्मों को स्वीकार करते चलना। उनका न्यायविद् श्री एन.ए. पालखीवाला ने सच ही कहा था निषेध नहीं करना। इसी अनेकांतमय चिंतन को जब बोलकर कि-'भगवान महावीर के द्वारा परिभाषित अनेकांत और या लिखकर व्यक्त किया जाए तब उसका नाम है अपरिग्रह के जिन लोक कल्याणकारी सिद्धांतों को पूरे देश 'स्याद्वाद। में 'प्राइमरी' की कक्षाओं से पढ़ाने की आवश्यकता स्याद्वाद की मोहर ही वाणी की सत्यता सूचित थी-उसे जैनों ने आलमारियों में बंद करके रखा, यह करेगी। स्यात् चिह्न हमारे अनाग्रह का महावीर के साथ अन्याय हुआ है।' प्रमाण है। इस चिह्न के बिना कहा या हमसे भी यह प्रमाद अवश्य मनुष्य जीवन पाने पर ही हमें लिखा गया पद या वाक्य एकांत या हुआ है कि हमने अहिंसा, मनन और चिंतन की वह शक्ति प्राप्त हठाग्रह प्रेरित हो जाएगा। वह कभी सत्य, अस्तेय, शील और हुई है जो अन्य जन्मों में नहीं मिली प्रामाणिक हो ही नहीं सकेगा। जिस अपरिग्रह की उपयोगिता को थी। इस जीवन की सार्थकता इसी में प्रकार न्यायाधीश के आदेश को प्रचारित करने के लिए जितना है कि हम, कम-से-कम वैचारिक स्तर न्यायालय की सील ही मान्यता प्रदान अध्यवसाय किया, उसका पर मिथ्यात्व, हिंसा और क्रोध-मानकराती है, उसी प्रकार स्याद्वाद की शतांश भी अनेकांत की महत्ता माया-लोभ आदि विकारों की मलिनता सील वक्ता की वाणी को मान्यता को स्थापित या विज्ञापित करने से अपने भावलोक को बचाएं। इन दिलाती है। के लिए नहीं किया। इस पापों से अपने-आप को दूर रखें। इसे बिडंबना ही कहा जाना हितकर विद्या के प्रचार की अनेकांत के माध्यम से यह सहज ओर हमने कभी ध्यान ही चाहिए कि अधिकांश भारतीय साध्य है। ये सारे विकार नित्य हमारे नहीं दिया। दार्शनिकों के द्वारा जैन विद्या के इस भीतर वैचारिक प्रदूषण फैला रहे हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण अंग 'अनेकांत' और यही हमारे 'अंतरंग परिग्रह' हैं। इन 'स्याद्वाद' को सही संदर्भो में समझने का कोई पारदर्शी महारोगों के शमन की जो अमोघ ओषधि भगवान महावीर प्रयत्न प्रायः नहीं किया गया। स्यात् पद को 'शायद' शब्द हमें दे गए हैं उस महौषधि का नाम है 'अनेकांत'। * स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 104 . अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांठ के अनुप्रयोग डॉ. अनिल धर भारत की कई दार्शनिक परंपराओं ने यधपि अनेकांतवाद का निरसन किया है, तथापि इसके उद्देश्य एवं तर्कपूर्ण यथार्थ के आधार का सर्वथा निषेध नहीं किया है। ईसोबास्य उपनिषद् में आत्मा को एक साथ मतिशील तथा अगतिशील, निकट एवं दूरस्थ तथा आंतरिक एवं नाम बाब तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। शंकराचार्य एवं रामानुजाचार्य ने अनेकांतवाद के एक ही साथ विरोधी सत्य के अस्तित्व पर यद्यपि प्रश्नवाचक चिह्न प्रस्तुत किया है, तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि अनेकांत की तार्किकता के विरोध में उन्होंने अनेकांतवादी दृष्टिकोण को ही अपनाया है। बाहा का वर्णन 'प' एवं 'अप' के रूप में तथा सत्य के विश्लेषण में पारमार्थिक, व्यावहारिक एवं प्रातिभासिक स्वरूप को स्वीकार करना अनेकांत की भावना को ही व्यक्त करता है। RANTARomamali अनुष्य जाति के उत्थान हेतु विभिन्न धर्म एवं बुद्ध ने आग्रह एवं मतांधता से ऊपर उठने के लिए विवाद 'दार्शनिक परंपराएं अनादिकाल से ही विद्यमान परांग्मुखता को अपनाया, किंतु उससे मानवीय जिज्ञासा का रही हैं। काल के विकास के साथ-साथ विभिन्न धर्म एवं सम्यक् समाधान नहीं हो पाता था जबकि उस युग का दर्शनों का प्रादुर्भाव हुआ। धर्म जहां नीति एवं मूल्यों के जनमानस एक विधायक हल की अपेक्षा कर रहा था। संरक्षण हेतु मानव मस्तिष्क को उद्दीप्त करता है वहीं दार्शनिक विचारों की इस संकुलता में वह सत्य को देखना दार्शनिक परंपराएं भेद एवं तर्क के द्वारा मनुष्य को चाहता था। वह जानना चाहता था कि इन विविध मतवादों विवेकवान बनाती हैं। भगवान महावीर के पूर्व भारत भूमि में सत्य कहां और किस रूप में उपस्थित है? क्योंकि उसके पर वैचारिक संघर्ष एवं दार्शनिक विवाद अपनी चरम सीमा सम्मुख प्रत्येक मतवाद एक-दूसरे के खंडन में ही अपनी पर था। जैनागमों के अनसार उस समय 363 और विद्वत्ता की इतिश्री मान रहा था। ऐसी परिस्थिति में भगवान बौद्धागमों के अनुसार 63 दार्शनिक मत प्रचलित थे। जैन महावीर विरोध समन्वय की एक विधायक दृष्टि लेकर परंपरा में इन 363 दार्शनिक संप्रदायों को चार वर्गों में । आए। विचार संकुलता के उस युग में उन्होंने स्पष्ट रूप से वर्गीकृत किया गया था कहा है कि आग्रह, मतांधता या एकांत ही मिथ्यात्व हैं। आग्रह ही सत्य का बाधक तत्त्व है। आग्रह राग है और जहां ___ 1. क्रियावादी-जो आत्मा को पुण्य-पाप आदि का राग है वहां संपूर्ण सत्य का दर्शन संभव नहीं। सत्य विवाद कर्ता, भोक्ता मानते थे। से नहीं, अपितु विवाद के समन्वय से प्रकट होता है। 2. अक्रियावादी-जो आत्मा को अकर्ता मानते थे। दार्शनिक पृष्ठभूमि 3. विनयवादी-जो आचार नियमों पर अधिक बल देते थे। सीमित क्षमताओं से युक्त मानव प्राणी के लिए पूर्ण ज्ञान सदैव ही एक जटिल प्रश्न रहा है। अपूर्ण के द्वारा पूर्ण 4. अज्ञानवादी-इनकी मान्यता यह थी कि ज्ञान से को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से विवाद उत्पन्न होते हैं, अतः अधिक जिज्ञासा में न उतरकर अधिक आगे नहीं जा पाए हैं और जब इसी आंशिक सत्य विवाद-परांग्मुख रहना तथा अज्ञान को ही परम श्रेय 1 को पूर्ण सत्य मान लिया जाता है तो विवाद एवं वैचारिक मानना चाहिए। संघर्षों का जन्म हो जाता है। सत्य न केवल उतना है जितना वैचारिक आग्रह और मतांधता के उस युग में जो दो कि हम जानते हैं, अपितु वह एक व्यापक पूर्णता है। उसे महापुरुष आए, वे थे भगवान महावीर और भगवान बुद्ध। तर्क, विचार, बद्धि एवं वाणी का विषय नहीं बनाया जा स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 जैन भारती अनेकांत विशेष.105 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता, वह तो इनसे परे है। कठोपनिषद् में उसे बुद्धि एवं तर्क से परे माना गया है। मुंडकोपनिषद् में उसे मेधा और श्रुति से अगम्य कहकर इसी तथ्य को स्पष्ट किया गया है। आचारांग में भी उसे शब्द, वाणी और तर्क से अगोचर कहा गया है । इसी प्रकार के भाव बौद्ध विचारक चंद्रकीर्ति ने प्रकट किए हैं। पाश्चात्य विचारक लॉक, कांट, ब्रेडले और बर्गसां आदि ने भी सत्य को तर्क या विचार की कोटि से परे माना है। वस्तुतः हमारी ऐंद्रिय क्षमता, तर्कबुद्धि, विचार क्षमता, वाणी और भाषा इतनी अपूर्ण हैं कि वे संपूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं हैं। मानव बुद्धि संपूर्ण सत्य को नहीं, केवल उसके एकांश को ग्रहण कर सकती है। मात्र इतना ही नहीं, वस्तुतत्त्व में परस्पर विरोधी गुण भी एक साथ रहते हैं और ऐसी स्थिति में दो भिन्न दृष्टियों में परस्पर विरोधी तथ्य भी एक साथ सत्य हो सकते हैं । समयसार में इसी का उल्लेख हुआ है कि जो वस्तु तत्त्वस्वरूप है, वही अतत्त्वस्वरूप भी है। जो वस्तु एक है वही अनेक भी है। जो वस्तु सत् है वही असत् भी है तथा जो वस्तु नित्य है, वह अनित्य भी है।' इस कारण एक ही वस्तु के वस्तुतत्त्व के कारणभूत परस्पर विरोधी धर्मयुगलों का प्रकाशन अनेकांत है देवागम अष्टशती कारिका में इसी को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है— वस्तु सर्वथा सत् ही है अथवा असत् ही है नित्य ही है अथवा अनित्य ही है—इस प्रकार सर्वथा एकांत के निराकरण करने का नाम अनेकांत है। अनेकांत का एक सूत्र है सह प्रतिपक्ष केवल युगल ही पर्याप्त नहीं है, विरोधी युगल भी होना चाहिए। प्रकृति की समूची व्यवस्था में विरोधी युगलों का अस्तित्व है। हमारा जीवन विरोधी युगलों के आधार पर चलता है। शरीर की रचना, प्रकृति की रचना, परमाणु की या विद्युत की रचना रचना - सबमें विरोधी तत्त्व काम कर रहे हैं। अनेकांत का मूल आधार है—विरोधी के अस्तित्व की स्वीकृति, प्रतिपक्ष 106 • अनेकांत विशेष की स्वीकृति अनेकांत दृष्टि का मुख्य कार्य एकांत या आग्रह बुद्धि का निरसन कर अनाग्रही दृष्टि को प्रकट करना है अनेकांत दर्शन यह बतलाता है कि वस्तु में सामान्यतः । विभिन्न अपेक्षाओं से अनंत धर्म रहते हैं। किंतु प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ वस्तु में रहता है—यह प्रतिपादन करना ही अनेकांत दर्शन का विशेष प्रयोजन है। यथार्थ में अनेकांत पूर्णदर्शी है और एकांत अपूर्णवर्शी है। एकांत मिथ्या अभिनिवेश के कारण एक अंश को ही पूर्ण सत्य मान लेना विवाद की जड़ है। इसी कारण एक मत का दूसरे मत से विरोध हो जाता है। किंतु अनेकांत इस विरोध का परिहार कर उनका समन्वय करता है। एकांत दृष्टि कहती है कि तत्त्व ऐसा ही है और अनेकांत वृष्टि कहती है कि तत्त्व ऐसा 'भी' है। यथार्थ में सारे संघर्ष या विवाद 'ही' के आग्रह से उत्पन्न होते हैं। विवाद वस्तु में नहीं अपितु देखने वाले की दृष्टि में है। अनेकांत का दार्शनिक प्रभाव भारत की कई दार्शनिक परंपराओं ने यद्यपि अनेकांतवाद का निरसन किया है, तथापि इसके उद्देश्य एवं तर्कपूर्ण यथार्थ के आधार का सर्वथा निषेध नहीं किया है। ईशावास्य उपनिषद में आत्मा को एक साथ गतिशील तथा अगतिशील, निकट एवं दूरस्थ तथा आंतरिक एवं नाम बाह्य तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। शंकराचार्य एवं रामानुजाचार्य ने अनेकांतवाद के एक ही साथ विरोधी सत्य के अस्तित्व पर यद्यपि प्रश्नवाचक चिह्न प्रस्तुत किया है, तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि अनेकांत की तार्किकता के विरोध में उन्होंने अनेकांतवादी दृष्टिकोण को ही अपनाया है। बाह्य का वर्णन 'परा' एवं 'अपरा' के रूप में तथा सत्य के विश्लेषण में पारमार्थिक, व्यावहारिक एवं प्रातिभासिक स्वरूप को स्वीकार करना अनेकांत की भावना को ही शंकराचार्य का सृष्टि सिद्धांत उसकी शुद्धता एवं अशुद्धता, शुभत्व एवं प्रभुत्व वस्तुतः अनेकांत वैचारिक अहिंसा को पुष्ट आधार प्रस्तुत कराता है। जिस क्षण से मनुष्य अपने विरोधी को उसकी दृष्टि एवं विचारों से जानने का प्रयास करता है, उसी क्षण से उसमें सहिष्णुता की भावना का विकास होने लगता है जो अहिंसा के व्यवहार हेतु प्रथम आधारभूत आवश्यकता है। संसार के समस्त हिंसक क्रियाकलापों के स्रोत को विभिन्न सिद्धांतों एवं विश्वासों के युद्ध में पाया जा सकता है। अनेकांत मनुष्य की चेतना परिष्कृत कर तथा मनुष्य के चिंतन को लचीला बनाकर हिंसक क्रियाकलापों को रोकने की सामर्थ्य रखता है। व्यक्त करता है। अनेक इकाइयों में स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च - मई, 2002 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को स्वीकार कर अनेकांतवाद की पुष्टि करता है। इसी विज्ञान और दार्शनिक- दोनों ही दृष्टियों से सामान्य प्रकार बौद्ध परंपरा का विभज्यवाद एवं मध्यमवर्ग भी मानववाद निरपेक्ष पूर्ण सत्य को जानने में असमर्थ है। अनेकांत सिद्धांत की स्वीकृति प्रतीत होते हैं। अनेकांत विचार दृष्टि हमें यही बताती है कि परस्पर पाश्चात्य दार्शनिक परंपराओं पर भी दृष्टिपात करने विरोधी प्रतीत होने वाले दो सापेक्षिक सत्य अपेक्षा भेद से से ऐसा प्रतीत होता है कि अनेकांत दर्शन के समान सत्य हो सकते हैं। भगवान महावीर ने जो सत्य 2600 विचारों को अन्य संदर्भो, अर्थों एवं भाषाओं में स्वीकार वर्ष पूर्व ज्ञान के द्वारा जान लिया था, आइन्स्टीन ने वही किया गया है। ग्रीक दार्शनिक परंपराओं ने नित्यता एवं सत्य 1905 में प्रमाणित कर दिया। सापेक्षवाद के सिद्धांत अनित्यता के रहस्य को परिभाषित करने के प्रयास में ने आधुनिक वैज्ञानिक जगत को तार्किकता के आधार पर स्वीकार किया है कि अंतिम सत्य के वास्तविक स्वरूप को सत्य के दर्शन का मार्ग प्रशस्त किया। वास्तव में जैन दृष्टिपात या इंद्रियगत आधार पर नहीं जाना जा सकता। दर्शन में प्रतिपादित अनेकांत तत्त्व एवं दर्शन मीमांसा की प्लेटो के विचारों में भी जब हम किसी वस्तु-तथ्य का वैज्ञानिक अनुसंधानों एवं निष्कर्षों ने समय-समय पर पुष्टि विरोध कर रहे होते हैं तो वह वस्तु के अस्तित्व का निषेध की है। अनेकांत दर्शन से अनभिज्ञ होते हुए भी लेनिन ने नहीं, अपितु वस्तु के अस्तित्व के अन्य पक्ष के विचार को मनुष्य एवं विज्ञान के निरंतर विकास को संपूर्ण सत्य प्रकट कर रहे होते हैं। आधुनिक दार्शनिक परंपरा में हेगल प्राप्ति का प्रयत्न ही माना था। यदि मार्क्स द्वारा ने विरोधी युगल के अस्तित्व को ही जीवन एवं गति का प्रतिपादित सामाजिक एवं आर्थिक सिद्धांतों के अनुप्रयोग आधार माना है तथा यह भी स्वीकार किया है कि विरोधी के संदर्भ में लेनिन मनुष्य की सीमा को स्वीकारते तो युगल का सह-अस्तित्व का सिद्धांत ही जीवन को निश्चित रूप से समाजवाद के सिद्धांत का भाग्य कुछ और वास्तविक एवं प्राकृतिक रूप में निर्देशित करता है। ब्रेडले ही होता और शायद मार्क्स के दर्शन के प्रयोग को के अनुसार हर वस्तु अन्य की तुलना में अपेक्षा से असफलता का मुंह नहीं देखना पड़ता। आवश्यक भी है तथा अनावश्यक भी। हर असत्य के अंश बोलन का में सत्यांश का भी अंश विद्यमान रहता है। जोआश्मि ने अनेकांत दर्शन विचारों की शुद्धि करता है। वह मानव किसी भी निर्णय को पूर्णतः सत्य न मानते हुए इसी , मस्तिष्क से दूषित विचारों को दूर कर शुद्ध एवं सत्य विचार सिद्धांत का समर्थन किया है। इसी प्रकार का चिंतन के लिए मनुष्य का आह्वान करता है। वह कहता है कि वस्तु प्रो.पेरी, विलियम जेम्स, जॉन कॉर्ड, जोसेफ, एडमंड होम्स विराट है, अनंत धर्मात्मक है। अपेक्षा भेद से वस्तु में अनेक आदि ने भी प्रकट किया है। विरोधी धर्म रहते हैं। उन अनेक धर्मों में से प्रत्येक धर्म आधुनिक विज्ञान और अनेकांत सापेक्ष है। वे सब एक ही वस्तु में बिना किसी वैरभाव के अनेकांत का अर्थ है-संभावनाओं को स्वीकार रहते हैं। विरोधी होते हुए भी वे विरोध का अवसर नहीं आने करना। आज के वैज्ञानिकों ने अनेकांत का अर्थ संभावना देते। किया है तथा अपने आविष्कारों एवं अनुसंधान के माध्यम अमेरिका के प्रसिद्ध इतिहासकार स्टीफन हे ने से इसकी पुष्टि की है। विज्ञान ने इस तथ्य को भली महात्मा गांधी को उद्धृत करते हुए कहा है कि, 'मैं प्रायः प्रकार सिद्ध कर दिया है कि जिस पदार्थ को हम स्थित, अपने मत के कार्यों को अपनी दृष्टि से उचित मानता हूं, नित्य एवं ठोस समझते हैं वह पदार्थ बड़े वेग से गतिशील जबकि मेरे विरोधियों की दृष्टि से मेरे कार्य एवं मत अनुचित है न केवल गतिशील है, वरन् परिवर्तनशील भी है। होते हैं।' गांधीजी ने स्वीकारा था कि वे अनंत धर्मात्मक के आज का प्रबुद्ध वैज्ञानिक भी ऐसा दावा नहीं करता है कि इस सिद्धांत से अत्यधिक प्रभावित हैं। उन्होंने कहा उसने सृष्टि का रहस्य और उसके वस्तुतत्त्व का पूर्ण ज्ञान था—'यह एक ऐसा सिद्धांत है जिसने मुझे एक मुस्लिम को प्राप्त कर लिया है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टीन उसकी दृष्टि से तथा एक ईसाई को उसकी दृष्टि से समझने ने कहा था कि, 'हम तो केवल सापेक्षिक सत्यों को जान की विवेक दृष्टि दी है। जैन मत के आधार पर मैंने ईश्वर के सकते हैं, पूर्ण या निरपेक्ष सत्य को कोई पूर्ण द्रष्टा ही अकर्ता, रामानुजाचार्य के आधार पर ईश्वर के कर्ता रूप को जान सकेगा।' इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिक स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं पाई।' वास्तव में हम स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 | अनेकांत विशेष.107 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी अविचारणीय पर विचार करते हैं, अनिर्वचनीय को प्रकट करना चाहते हैं तथा न जानने की क्षमता होते हुए भी जानने का प्रयास करते हैं, जिसके कारण हमारी वाणी एवं विचार में दोष उत्पन्न होता है। विश्व के समस्त संघर्षों एवं विवादों का इतिहास अज्ञान एवं एकांत के कारण उत्पन्न असहिष्णुता का सिद्धांत है । अनेकांत मनुष्य को अपूर्ण इंद्रियों द्वारा अपूर्ण ज्ञान से परिचित करा उसे संकुचित परिधि से बाहर निकालने का प्रयास करता है तथा निर्णय लेने से पूर्व वस्तु एवं परिस्थिति के विधेयक एवं नकारात्मक दोनों पक्षों पर विचार करने को प्रेरित करता है। निश्चित रूप से यदि मनुष्य ने विरोधी विचारों को भी समझने में विवेक बुद्धि का सहारा लिया होता तो संसार भर से काफी मात्रा में युद्ध एवं हिंसक संघर्षो का समापन संभव होता। यदि संसार के राजनीतिज्ञ भी अनेकांत के स्वरूप को ठीक तरह से समझ लें तो बहुतकुछ संभव है कि संसार में और युद्धों का नग्न नृत्य देखने को न मिले। क्योंकि अनेकांत से विरोधी धर्म समन्वय की तरह मानव समता का भी बोध हो सकता है और मानव समता का ज्ञान होने से आपसी विवादों का अंत होना संभव है। वस्तुतः अनेकांत वैचारिक अहिंसा को पुष्ट आधार प्रस्तुत कराता है। जिस क्षण से मनुष्य अपने विरोधी को उसकी दृष्टि एवं विचारों से जानने का प्रयास करता है, उसी क्षण से उसमें सहिष्णुता की भावना का विकास होने लगता है जो अहिंसा के व्यवहार हेतु प्रथम आधारभूत आवश्यकता है। संसार के समस्त हिंसक क्रियाकलापों के स्रोत को विभिन्न सिद्धांतों एवं विश्वासों के में पाया जा युद्ध सकता है । अनेकांत मनुष्य की चेतना परिष्कृत कर तथा मनुष्य के चिंतन को लचीला बनाकर हिंसक क्रियाकलापों को रोकने की सामर्थ्य रखता है। वास्तव में काल, द्रव्य एवं क्षेत्र के आधार पर अस्तित्व की सुरक्षा हेतु लचीला व्यक्तित्व ही सहयोगी हो सकता है, कहा भी गया कि 108 ● अनेकांत विशेष सहिष्णुता आदि। जीवन के विभिन्न एवं आवश्यक क्षेत्रों यथा— पारिवारिक राजनीतिक व धार्मिक क्षेत्रों में अनेकांत का सिद्धांत दृष्टिकोण परिवर्तन में सहायक होकर संघर्ष निवारण के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि का निर्माण कर सकता है। यही आईने कुदरत है, यही दस्तूरे गुलशन है लचक जिनमें नहीं होती, वे शाखें टूट जाती हैं। यदि मनुष्य अनेकांत सिद्धांत के वास्तविक रूप से परिचित होकर इसे ग्रहण करे तो वह समझ सकेगा कि 'फ्रेंच' या 'रसिया' की क्रांति की अपेक्षा वास्तविक क्रांति वह है जो सभी संभव पक्षों के मतों के संदर्भ में अपने विचारों को परिवर्तित कर पाने में सक्षम हुआ है या भविष्य में हो पाएगा। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अनेकांत का अर्थ है-सह-अस्तित्व, समन्वय, सापेक्षता तथा न देना । पारिवारिक क्षेत्र में अनेकांत समाज की विभिन्न इकाइयों में परिवार एक महत्त्वपूर्ण इकाई है । अनेकांत दृष्टि का प्रयोग पारिवारिक कलह का शमन करने में सहायक हो सकता है। पारिवारिक क्षेत्र में इस पद्धति का उपयोग परस्पर परिवारों में और परिवार के सदस्यों में संघर्ष टालकर शांतिपूर्ण वातावरण का निर्माण होते हैं। पिता-पुत्र तथा सास-बहू इन दोनों विवादों में मूल करता है। सामान्यतः पारिवारिक जीवन में संघर्ष के दो केंद्र कारण दोनों का दृष्टिभेद है। पिता जिस परिवेश में पोषित हुआ, उन्हीं संस्कारों के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना चाहता है। जिस मान्यता को स्वयं मानकर बैठा है, उन्हीं मान्यताओं को दूसरे से मनवाना चाहता है। पिता की दृष्टि अनुभव - प्रधान होती है, जबकि पुत्र की तर्क-प्रधान । यही स्थिति सास-बहू की होती है। सास यह अपेक्षा करती है कि जैसा जीवन उसने स्वयं बहू के रूप में जीया था उसकी बहू भी वैसा ही जीए। जबकि बहू अपने युग के अनुरूप और भी वैसा ही जीए। जबकि अपने मातृ-पक्ष के संस्कारों से प्रभावित जीवन जीना चाहती है। मात्र इतना ही नहीं, उसकी अपेक्षा होती है कि वह उतना ही स्वतंत्र जीवन जीए जैसा वह अपने माता-पिता के पास जीती थी। इसके विपरीत सुसराल पक्ष उससे एक अनुशासित जीवन की अपेक्षा करता है। यही सब विवाद के कारण बनते हैं। इनमें जब तक सहिष्णु दृष्टि और दूसरे की स्थिति को समझने का प्रयास नहीं किया जाएगा, तब तक संघर्ष एवं विवाद समाप्त नहीं होंगे। सहिष्णुता का अर्थ है— अपने संवेगों पर नियंत्रण होना। जिसका अपने संवेगों पर नियंत्रण होगा, वही शक्तिशाली हो सकेगा। संवेगों पर नियंत्रण के लिए सहिष्णुता की साधना का अभ्यास अत्यंत अपेक्षित है, तभी उसका उपयोग व्यावहारिक क्षेत्र में किया जा सकता है। दूसरे के विचारों के प्रति सहिष्णु रहे, मात्र अपने दृष्टिकोण के प्रति आग्रह न रहे, इसके लिए सहिष्णुता का विकास अपेक्षित है यथा 1. भावात्मक संवेगों पर नियंत्रण, 2. अन्यों के विचारों को समझना, 3. अहं और गर्व की भावना को महत्त्व स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च मई, 2002 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिवारिक क्षेत्र में अहिंसक व्यवहार का महत्त्वपूर्ण लिए आवश्यकता है धार्मिक सहिष्णुता और सर्व-धर्म घटक है—समन्वय। विभिन्न आदर्शों, विश्वासों एवं समभाव की। रुचियों में समन्वय निश्चित रूप से संभव है। इस हेतु राजनीतिक क्षेत्र में अनेकांत अनैकांतिक जीवन शैली का प्रशिक्षण उपयोगी एवं वर्तमान राजनीतिक जगत भी वैचारिक संकुलता से उल्लेखनीय भूमिका निभा सकता है। अनेकांत स्वतंत्रता को परिपूर्ण है। पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, फासिस्टवाद स्वीकार करता है, किंतु अंतरनिर्भरता एवं संबंधों के मूल्य आदि अनेक राजनीतिक विचारधाराएं तथा राजतंत्र, पर नहीं। सह-अस्तित्व स्वीकार्य है, किंतु अन्याय के मूल्य प्रजातंत्र, कुलीनतंत्र, अधिनायकतंत्र, सैन्यतंत्र, धर्मतंत्र आदि पर नहीं। समता स्वीकार्य है, किंतु विभिन्नताओं में एकता अनेकानेक शासन प्रणालियां वर्तमान में प्रचलित हैं। मात्र के वास्तविक मूल्य पर नहीं। वास्तव में शांतिपूर्ण सह इतना ही नहीं, उनमें से प्रत्येक एक-दूसरे की समाप्ति के अस्तित्व का आधारस्तंभ इतना क्षीण नहीं होना चाहिए कि लिए प्रयत्नशील है। विश्व के राष्ट्र खेमों में बंटे हुए हैं और मात्र विभिन्नताओं के कारण ध्वस्त हो जाए। प्रत्येक खेमे का अग्रणी राष्ट्र अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने हेतु धार्मिक क्षेत्र में अनेकांत दूसरे के विनाश में तत्पर है। अनेकांत दृष्टिकोण का उपयोग धार्मिक क्षेत्र में आज के राजनीतिक जीवन में अनेकांत के दो सहिष्णता व सर्व-धर्म समभाव हेतु सफलतापूर्वक किया जा व्यावहारिक फलित वैचारिक सहिष्णता और समन्वय सकता है। विश्व के विभिन्न धर्माचार्यों ने अपने युग की अत्यंत उपादेय हैं। मानव जाति ने राजनीतिक जगत में तात्कालिक परिस्थतिया से प्रभावित हाकर अपन सिद्धाता राजतंत्र से प्रजातंत्र तक की जो लंबी यात्रा की है, उसकी एवं बाह्य नियमों का प्रतिपादन किया। किंतु मनुष्य की अपने सार्थकता अनेकांत दष्टि को अपनाने में ही है, विरोधी पक्ष के धर्माचार्यों के प्रति ममता एवं उसके अपने मन में व्याप्त द्वारा की जाने वाली आलोचना के प्रति सहिष्णु होकर अपने आग्रह और अहंकार ने उसे अपने धर्म या साधना पद्धति को दोषों को समझना और उन्हें दूर करने का प्रयास करना आज ही एकमात्र एव अतिम सत्य मानने को बाध्य किया। के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है। विपक्ष फलस्वरूप विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के बीच सांप्रदायिक A प्रदायक की धारणा में भी सत्यता हो सकती है और विरोधी दल की वैमनस्य का प्रारंभ हुआ। उपस्थिति में अपने दोषों के निराकरण का अच्छा अवसर इतिहास साक्षी है कि धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में मिलता है। इस विचार दृष्टि तथा सहिष्णुता एवं सहजघन्य दुष्कृत्य कराए। सांप्रदायिक आग्रह, धार्मिक अस्तित्व की भावना में ही प्रजातंत्र का उज्ज्वल भविष्य है। असहिष्णुता और सांप्रदायिक विद्वेष को जन्म देने वाले कुछ राजनीतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातंत्र वस्तुतः राजनीतिक मुख्य कारण निम्न माने जा सकते हैं अनेकांतवाद है। दार्शनिक क्षेत्र में जहां भारत अनेकांतवाद का 1. ईर्ष्या, 2. किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि की लिप्सा, सृजक है, वहीं वह राजनीतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातंत्र का 3. वैचारिक मतभेद, 4. आचार संबंधी नियमोपनियम में समर्थक है, अतः आज अनेकांत का व्यावहारिक क्षेत्र में अंतर, 5. व्यक्ति या पूर्व संप्रदाय के द्वारा अपमान या उपयोग करने का दायित्व भारतीय राजनीतिज्ञों पर है। खींच-तान। निष्कर्षतः अनेकांत दर्शन का सैद्धांतिक पक्ष तथा अनेकांत विचार दृष्टि विभिन्न धर्म-संप्रदायों की वैज्ञानिक प्रयोगों पर आधारित तथ्य जगत में विरोधी युगल समाप्ति के द्वारा एकता का प्रयास नहीं करती है, क्योंकि के सह-अस्तित्व को स्वीकार करता है, साथ ही इसी सहवैयक्तिक रुचि-भेद तथा देश-कालगत भिन्नताओं के होते अस्तित्व को, जीवन को, जीवन का आधार मानता है। हुए विभिन्न धर्म एवं विचार संप्रदायों की उपस्थिति इसका बोध हो जाने से जीवन में समन्वय, सह-अस्तित्व, अपरिहार्य है। एक धर्म या एक संप्रदाय का नारा असंगत सहिष्णुता, संप्रदाय निरपेक्षता आदि आदर्श मूल्यों की एवं अव्यावहारिक ही नहीं अपितु अशांति और संघर्ष का स्थापना संभव हो सकती है। दृष्टिकोण परिवर्तन के लिए कारण भी है। अनेकांत विभिन्न धर्म-संप्रदायों की समाप्ति अनेकांत की सहायक भूमिका अपेक्षित है, जिससे मानव में का प्रयास न होकर उन्हें एक व्यापक पूर्णता में सुसंगत रूप वैचारिक आग्रह का बोध समाप्त होकर दूसरे के विकास के से संयोजित करने का प्रयास हो सकता है, लेकिन इसके प्रति भी समान भावना का विकास हो सके। स्वर्ण जयंती वर्ष ........................................ मार्च-मई, 2002 जैन भारती अनेकांत विशेष. 109 ................... Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांतवाद : समन्वय का आधार प्रौ. Cडॉ.) प्रैम सुमन जैन HOOpects विश्व की तमाम चीजें अनेकांतमय हैं। अनेकांत का अर्थ है नानाधर्म । अनेक यानी नाना और अंत यानी धर्म और इसलिए नानाधर्म को अनेकांत कहते हैं। अतः प्रत्येक वस्तु में नानाधर्म पाए जाने के कारण उसे अनेकांतमय अथवा अनेकांतस्वरूप कहा गया है। अनेकांतवाद स्वरूपता वस्तु में स्वयं है-आरोपित या काल्पनिक नहीं है। एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो सर्वथा एकांतस्वरूप (एकधर्मात्मक) हो। उदाहरणार्थ यह लोक, जो हमारे और आपके प्रत्यक्ष गोचर है, चर और अचर अथवा डीय और अडीव-इन दो द्रव्यों से युक्त है, वह सामान्य की अपेक्षा एक होता हुआ भी इन दो द्रव्यों की अपेक्षा अनेक भी है और इस तरह वह अनेकांतमय सिद्ध है। गवान महावीर ने ज्ञान के भेद-प्रभेदों का जो अतः प्रत्येक वस्तु का ज्ञान सापेक्ष रूप से हो सकता है। 'प्रतिपादन किया, उसके द्वारा आत्मा के क्रमिक पदार्थों का ज्ञान करने के दो साधन हैं—प्रमाण एवं नय। विकास का पता चलता है तथा इस वस्तुस्थिति का भी भान जब हम केवलज्ञान जैसे प्रामाणिक ज्ञान के अधिकारी होते हैं होता है कि हम ज्ञान की कितनी छोटी-सी किरण को पकड़े तब वस्तु को पूर्णरूपेण जानने की क्षमता रखते हैं। किंतु बैठे हैं, जबकि सत्य की जानकारी सूर्य-सदृश प्रकाश वाले जब हमारा ज्ञान इससे कम होता है तो हम वस्तु के एक ज्ञान से हो पाती है। महावीर ने इस क्षेत्र में एक अद्भुत कार्य अंश को जानते हैं, जिसे नय कहते हैं। लेकिन जब हम वस्तु और किया। उनके युग में चिंतन की धारा अनेक टुकड़ों में को जानकर उसका स्वरूप कहने लगते हैं तो एक समय में बंट गई थी। वैदिक परंपरा के अनेक विचारक थे तथा उसके एक अंश को ही कह पाएंगे। अतः सत्य को सापेक्ष श्रमण-परंपरा में 6-7 तीर्थंकरों का अस्तित्व था। प्रत्येक मानना चाहिए। अपने को इस परंपरा का 24वां तीर्थंकर प्रमाणित करने में उस युग में महावीर की इस बात से अधिकांश लोग लगा था। ये सभी विचारक अपनी दृष्टि से सत्य को सहमत नहीं हो पाए। लोगों को यह देखकर आश्चर्य होता पूर्णरूपेण जान लेने का दावा कर रहे थे। प्रत्येक के कथन में कि यह कैसा तीर्थंकर है, जो एक ही वस्त को कहता है-है दृढ़ता थी कि सत्य मेरे कथन में ही है, अन्यत्र नहीं। इसका और कहता है नहीं है। अपनी बात को भी सही कहता है परिणाम यह हुआ कि अज्ञानी एवं अंधविश्वासी लोगों का और जो दसरों का कथन है उसे भी गलत नहीं मानता। इस कुछ निश्चित समुदाय प्रत्येक के साथ जुड़ गया था। अतः आश्चर्य के कारण उस युग में भी महावीर के अनयाई उतने प्रत्येक संप्रदाय का सत्य अलग-अलग हो गया था। नहीं बने, जितने दसरे विचारकों के थे। क्योंकि व्यक्ति तभी महावीर यह सब देख-सुनकर आश्चर्य में थे कि सत्य अनुयाई बनता है, जब उसका गुरु कोई बंधी-बंधाई बात के इतने दावेदार कैसे हो सकते हैं? प्रत्येक अपने को ही कहता हो। जो यह सुरक्षा देता हो कि मेरा उपदेश तुम्हें सत्य का बोधक समझता है, दूसरे को नहीं। ऐसी स्थिति में निश्चित रूप से मोक्ष दिला देगा। महावीर ने यह कभी नहीं महावीर ने अपनी साधना एवं अनुभव के आधार पर कहा कहा। इस कारण उनके ज्ञान और उपदेशों के वही श्रावक कि सत्य उतना ही नहीं है, जिसे मैं देख या जान रहा हूं। यह बन सके जो स्वयं के पुरुषार्थ में विश्वास रखते थे एवं वस्तु के एक धर्म का ज्ञान है, एक गुण का। पदार्थ में अनंत बुद्धिमान थे। महावीर जैसा गैरदावेदार आदमी ही नहीं हुआ गुण एवं अनंत पर्याएं हैं। किंतु व्यवहार में उसका कोई एक इस जगत में। उनका एकदम असांप्रदायिक चित्त था। इसी स्वरूप ही हमारे सामने आता है। उसे ही हम जान पाते हैं। कारण वे सत्य को विभिन्न कोणों से देख सके हैं। महावीर H ARRAIMIRRIE स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 110. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के पूर्व उपनिषद् कहते थे कि ब्रह्म की व्याख्या नहीं हो स्याद्वाद महावीर के जीवन में व्याप्त था। उनके सकती। बड़ा अद्भुत है उसका स्वरूप। महावीर ने कहा, बचपन में ही स्याद्वादी चिंतन प्रारंभ हो गया था। कहा जाता 'ब्रह्म तो बहुत दूर की चीज है, तुम एक घड़े की ही व्याख्या है कि एक दिन वर्द्धमान के कुछ बालक साथी उन्हें खोजते नहीं कर सकते। उसका अस्तित्व भी अनिर्वचनीय है।' इसे हुए मां त्रिशला के पास पहुंचे। त्रिशला ने कह दियामहावीर ने विस्तार से समझाया। 'वर्द्धमान भवन में ऊपर है।' बच्चे भवन के सबसे ऊपरी महावीर के पूर्व सत्य के संबंध में तीन दृष्टिकोण खंड पर पहुंच गए। वहां पिता सिद्धार्थ थे, वर्द्धमान नहीं। थे—(1) है, (2) नहीं है और (3) दोनों—नहीं भी एवं है जब बच्चा न पिता सिद्धाथ स पूछा ता उन्हान कह दियाभी। घट के संबंध में यह कहा जाता था कि वह घट है, कोई 'वर्द्धमान नीचे है।' बच्चों को बीच की एक मंजिल में कपड़ा आदि नहीं। घट नहीं है, क्योंकि वह तो मिट्टी है तथा । वर्द्धमान मिल गए। बच्चों ने महावीर से शिकायत की कि घड़े के अर्थ में वह घड़ा है तथा मिट्टी के अर्थ में घड़ा नहीं है। आज आपकी मां एवं पिता दोनों ने झूठ बोला। म इस प्रकार वस्तु को इस त्रिभंगी से देखा जाता था। महावीर वर्द्धमान ने अपने साथियों से कहा-'तुम्हें भ्रम हुआ ने कहा कि सिर्फ तीन से काम नहीं चलेगा। सत्य और भी है। मां एवं पिताजी दोनों ने सत्य कहा था। तुम्हारे समझने जटिल है। अतः उन्होंने इसमें चार संभावनाएं और जोड़ का फर्क है। मां नीचे की मंजिल पर खड़ी थीं। अतः उनकी दीं। उन्होंने कहा कि घट स्यात् अनिर्वचनीय है, क्योंकि न अपेक्षा मैं ऊपर था और पिताजी सबसे ऊपरी खंड पर थे तो वह मिट्टी कहा जा सकता है और न घड़ा ही। इसी इसलिए उनकी अपेक्षा मैं नीचे था।' वस्तुओं की सभी अनिर्वचनीय को महावीर ने प्रथम तीन के साथ और जोड स्थितियों के संबंध में इसी प्रकार सोचने से हम सत्य तक दिया। इस प्रकार सप्तभंगी द्वारा वे पदार्थ के स्वरूप की पहुंच सकते हैं। भ्रम में नहीं पड़ते। वर्द्धमान की यह व्याख्या व्याख्या करना चाहते थे। सुनकर बालक हैरान रह गए। महावीर स्याद्वाद की बात कह इस सप्तभंगी नय को महावीर ने अनेक दृष्टांतों द्वारा गए। समझाया है। उनमें छह अंधों और हाथी का दृष्टांत प्रसिद्ध स्याद्वाद और अनेकांतवाद में घनिष्ठ संबंध है। है। हम इसे अन्य उदाहरण से समझें। एक ही व्यक्ति पिता, भगवान महावीर ने इन दोनों के स्वरूप एवं महत्त्व को स्पष्ट पुत्र, पति, मामा, भानजा, काका, भतीजा इत्यादि सभी हो किया है। अनेकांतवाद के मूल में है—सत्य की खोज। सकता है। एक साथ होता है। किंतु उसे ऐसा सब-कुछ एक महावीर ने अपने अनुभव से जाना था कि जगत में परमात्मा साथ नहीं कहा जा सकता। उसकी एक विशेषता को मुख्य अथवा विश्व की बात तो अलग, व्यक्ति अपने सीमित ज्ञान और शेष को गौण रखकर ही कहना होगा। यहां गौण रखने द्वारा घट को भी पूर्ण रूप से नहीं जान पाता। रूप, रस, का अभिप्राय उसकी विशेषताओं का अस्वीकार नहीं है और गंध, स्पर्श आदि गुणों से युक्त वह घट छोटा-बड़ा, कालान संशय या अनिश्चय ही। बल्कि व्यावहारिकता का निर्वाह सफेद, हल्का-भारी, उत्पत्ति-नाश आदि अनंत धर्मों से है। अतः किसी वस्तु का युगपद कथन न जरूरी है और न युक्त है। पर जब कोई व्यक्ति उसका स्वरूप कहने लगता संभव। फिर भी उसकी पूर्णता अवश्य बनी रहती है। है तो एक बार में उसके किसी एक गुण को ही कह पाता है। वस्तुओं के इस अनेकत्व को मानना ही अनेकांतवाद है। यही स्थिति संसार की प्रत्येक वस्तु की है। पदार्थों की अनेकता स्वयं द्रव्य के स्वरूप में छिपी है, हम प्रतिदिन सोने का आभूषण देखते हैं। लकड़ी की प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य से युक्त होता है। टेबिल देखते हैं और कुछ दिनों बाद इनके बनते-बिगड़ते प्रत्येक क्षण उसमें नई पर्याय की उत्पत्ति, पुरानी पर्याय का रूप भी देखते हैं, किंतु सोना और लकड़ी वही बनी रहती नाश एवं द्रव्यपने की स्थिरता बनी रहती है। इसी बात को है। आज के मशीनी युग में किसी धातु के कारखाने में हम कहने के लिए महावीर ने अनेकांत की बात कही। वस्तु का खड़े हो जाएं तो देखेंगे कि प्रारंभ में पत्थर का एक टुकड़ा अनेकधर्मा होना अनेकांतवाद है तथा उसे अभिव्यक्त करने मशीन में प्रवेश करता है और अंत में जस्ता, तांबा आदि के की शैली का नाम स्यावाद है। स्याद्वाद कोई संशयवाद नहीं रूप में बाहर आता है। वस्तु के इसी स्वरूप के कारण है। अपितु स्यात् शब्द का प्रयोग वस्तु के एक और गुण की महावीर ने कहा था-'प्रत्येक पदार्थ उत्पत्ति, विनाश और संभावना का द्योतक है। स्थिरता से युक्त है।' द्रव्य के इस स्वरूप को ध्यान में स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष .111 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखकर उन्होंने जड़ और चेतन आदि छह द्रव्यों की व्याख्या अनेक सूतों के संयोग को कपड़ा कहते हैं। एक व्यक्ति को की है। मति, श्रुति, केवलज्ञान आदि पांच ज्ञानों के स्वरूप कोई सभा या संघ नहीं कहता। उनके समुदाय को ही को समझाया है। केवलज्ञान द्वारा हम सत्य को पूर्णतः जान समिति, सभा, संघ या दल आदि कहा जाता है। एक-एक पाते हैं। अतः सामान्य ज्ञान के रहते हम वस्तु को पूर्णतः व्यक्ति मिलकर जाति और अनेक जातियां मिलकर देश जानने का दावा नहीं कर सकते। जानकर भी उसे सभी बनते हैं। दृष्टियों से अभिव्यक्त नहीं कर सकते। इसलिए सापेक्ष जिस प्रकार समद्र के सदभाव में ही उसकी अनंत कथन की अनिवार्यता है। सत्य की खोज की यह पगडंडी है। बिंदओं की सत्ता बनती है और उसके अभाव में उन बिंदुओं अनेकांत-दर्शन महावीर की सत्य के प्रति निष्ठा का की सत्ता नहीं बनती, उसी प्रकार अनेकांत रूप वस्तु के परिचायक है। उनके संपूर्ण और यथार्थ ज्ञान का द्योतक। सद्भाव में ही सर्व एकांत दृष्टियां सिद्ध होती हैं और उसके महावीर की अहिंसा का प्रतिबिंब है-स्याद्वाद। उनके जीवन अभाव में एक भी दृष्टि अपने अस्तित्व को नहीं रख पाती। की साधना रही है कि सत्य का उद्घाटन भी सही हो तथा आचार्य सिद्धसेन अपनी चौथी द्वात्रिंशिका में इसी बात का उसके कथन में भी किसी का विरोध न हो। यह तभी संभव बहुत ही सुंदर ढंग से प्रतिपादन करते हैं : है जब हम किसी वस्तु का स्वरूप कहते समय उसके अन्य उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि सर्वदृष्टयः। पक्ष को भी ध्यान में रखें, तो अपनी बात भी प्रामाणिकता से न च तासु भवानुदीक्ष्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः।। कहें। स्यात् शब्द के प्रयोग द्वारा यह संभव है। यहां स्यात् का अर्थ है—किसी अपेक्षा से यह वस्तु ऐसी है। -जिस प्रकार समस्त नदियां समुद्र में सम्मिलित हैं, उसी तरह समस्त दृष्टियां अनेकांत-समुद्र में मिली हैं। परंतु विश्व की तमाम चीजें अनेकांतमय हैं। अनेकांत का उन एक-एक में अनेकांत दर्शन नहीं होता। जैसे पृथक्-पृथक् अर्थ है नानाधर्म। अनेक यानी नाना और अंत यानी धर्म और इसलिए नानाधर्म को अनेकांत कहते हैं। अतः प्रत्येक नदियों में समुद्र नहीं दीखता। वस्तु में नानाधर्म पाए जाने के कारण उसे अनेकांतमय इसे एक अन्य उदाहरण से भी समझा जा सकता है। अथवा अनेकांतस्वरूप कहा गया है। अनेकांतवाद स्वरूपता राजेश एक व्यक्ति है। वह अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है वस्तु में स्वयं है—आरोपित या काल्पनिक नहीं है। एक भी तथा अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है। वह पति है एवं जीजा वस्तु ऐसी नहीं है, जो सर्वथा एकांतस्वरूप (एकधर्मात्मक) भी। मामा है और भानजा भी। अब यदि कोई उसे केवल हो। उदाहरणार्थ यह लोक, जो हमारे और आपके प्रत्यक्ष मामा ही माने और अन्य संबंधों को गलत ठहराए तो यह गोचर है, चर और अचर अथवा जीव और अजीव-इन दो राजेश नामक व्यक्ति का सही परिचय नहीं है--इसमें द्रव्यों से युक्त है, वह सामान्य की अपेक्षा एक होता हुआ हठधर्मी है. अज्ञान है। महावीर इस प्रकार के आग्रह को भी इन दो द्रव्यों की अपेक्षा अनेक भी है और इस तरह वह वैचारिक हिंसा कहते हैं। अज्ञान से अहिंसा फलित नहीं अनेकांतमय सिद्ध है। होती। अतः उन्होंने कहा कि स्याद्वाद पद्धति से प्रथम जो जल प्यास को शांत करने, खेती को पैदा करने वैचारिक उदारता उपलब्ध करो। केवल अपनी बात कहना आदि में सहायक होने से प्राणियों का प्राण है--जीवन है, ही पर्याप्त नहीं है, दूसरों को भी अपना दृष्टिकोण रखने का वही बाढ़ लाने, डूबकर मरने आदि में कारण होने से उनका अवसर दो। सत्य के दर्शन तभी होंगे। तभी व्यवहार की घातक भी है। कौन नहीं जानता कि अग्नि कितनी संहारक अहिंसा सार्थक होगी। है, पर वही अग्नि हमारे भोजन बनाने आदि में परम सहायक सत्य को विभिन्न कोणों से जानना और कहना दर्शन भी है। भूखे को भोजन प्राणदायक है, पर वही भोजन के क्षेत्र में नई बात नहीं है। किंतु महावीर ने स्याद्वाद के अजीर्ण वाले अथवा मियादी बुखार वाले बीमार आदमी के लिए विष है। मकान, किताब, कपड़ा, सभा, संघ, देश आदि कथन द्वारा सत्य को जीवन के धरातल पर उतारने का कार्य ये सब अनेकांत ही तो हैं। अकेली ईंटों या चूने-गारे का नाम किया है। यही उनका वैशिष्ट्य है। हम सभी जानते हैं कि मकान नहीं है। उनके मिलाप का नाम ही मकान है। एक-एक हर वस्तु के कम से कम दो पहलू होते हैं। कोई भी वस्तु न पन्ना किताब नहीं है, नाना पन्नों के समूह का नाम किताब सर्वथा अच्छी होती है और न सर्वथा बुरीहै। एक-एक सूत कपड़ा नहीं कहलाता। ताने-बाने रूप 'दृष्टं किमपि लोकेस्मिन् न निर्दोषं न निर्गुणम् ।' स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 112. अनेकांत विशेष | । मार्च-मई, 2002 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीम सामान्य व्यक्ति को कड़वा लगता है। वही रोगी के लिए ओषधि भी है। अतः नीम के संबंध में कोई एक धारणा बनाकर किसी दूसरे गुण का विरोध करना बेमानी है। सामान्य नीम की जब यह स्थिति है तो संसार के अनंत पदार्थों; अनंत धर्मों के स्वरूप को जानकर उनका आग्रहपूर्वक कथन करना संभव नहीं है। महावीर ने इसे गहराई से समझा था । अतः वे मनुष्य तक ही सीमित नहीं रहे। प्राणी मात्र के स्पंदन की सापेक्षता को भी उन्होंने स्थान दिया । मनुष्य की भांति एक सामान्य प्राणी भी जीने का अधिकार रखता है अपने साधनों द्वारा उसे भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। यह महावीर के स्याद्वाद की फलश्रुति है। महावीर अनेकांतवाद व स्याद्वाद से उन गलत धारणाओं को दूर कर देना चाहते थे, जो व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में बाधक थीं। उनके युग में ऐकांतिक दृष्टि से यह कहा जा रहा था कि जगत शाश्वत है अथवा क्षणिक है। इससे वास्तविक जगत का स्वरूप खंडित हो रहा था । मनुष्य का पुरुषार्थ कुंठित होने लगा था — नियतिवाद के हाथों । अतः महावीर ने आत्मा, परमात्मा और जगत—इन तीनों के स्वरूप का ऐसा यथार्थ सामने रख दिया कि जिससे व्यक्ति अपनी राह का स्वयं निर्णायक बन सके। अपूर्व थी महावीर की यह देन । अनेकांत व स्याद्वाद के संबंध में महावीर ने जो कहा वह उनके जीवन से भी प्रकट हुआ है। वे अपने जीवन में कभी किसी की बाधा नहीं बने। जगत में रहते हुए किसी अन्य के स्वार्थ से न टकराना कम लोगों के जीवन में सध पाता है। महावीर के अनुसार यह टकराहट अधूरे ज्ञान के अहंकार से होती है, प्रमाद व अविवेक से होती है। अतः अप्रमादी होकर विवेकपूर्वक आचरण करने से ही अनेकांत जीवन में आ पाता है। अनेकांत दृष्टि से ही सत्य का साक्षात्कार संभव है। महावीर द्वारा प्रतिपादित स्याद्वाद में वस्तु के अनंत धर्मात्मक होने के कारण उसे अवक्तव्य कहा गया है। मुख्य की अपेक्षा से गौण को अकथनीय कहा गया है। वेदांत दर्शन में सत्य को अनिर्वचनीय और बौद्ध दर्शन में उसे शून्य व विभज्यवाद कहा गया है। अन्य भारतीय दार्शनिकों के अतिरिक्त प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन व दार्शनिक वर्टन रसेल के सापेक्षवाद के सिद्धांत भी महावीर के स्याद्वाद से मिलते-जुलते हैं महावीर ने कहा था कि वस्तु के कण-कण को जानो, तब उसके स्वरूप को कहो । ज्ञान की यह प्रक्रिया आज के विज्ञान में भी है इसका अर्थ है कि स्याद्वाद का मार्च - मई, 2002 चिंतन संशयवाद नहीं है। अपितु, इसके द्वारा मिथ्या मान्यताओं की अस्वीकृति और वस्तु के यथार्थ पक्षों की स्वीकृति होती है। विचार के क्षेत्र में इससे जो सहिष्णुता विकसित होती है वह दीनता व जी हुजूरी नहीं है, बल्कि मिथ्या अहंकार के विसर्जन की प्रक्रिया है। दर्शन व चिंतन के क्षेत्र में अनेकांत व स्याद्वाद की जितनी आवश्यकता है, उतनी ही व्यावहारिक दैनिक जीवन में । वस्तुतः इस विचारधारा से अच्छे-बुरे की पहचान जागृत होती है। अनुभव बताता है कि एकांत विग्रह है, फूट है जबकि अनेकांत मैत्री है, संधि है। इसे यौ भी समझ यों सकते हैं कि जिस प्रकार सही मार्ग पर चलने के लिए कुछ अंतरराष्ट्रीय यातायात संकेत बने हुए हैं, पथिक उनके अनुसरण से ठीक-ठीक चलकर अपने गंतव्य पर पहुंच जाते हैं। उसी प्रकार स्वस्थ चिंतन के मार्ग पर चलने के लिए स्याद्वाद द्वारा महावीर ने सप्तभंगीरूपी सात संकेतों की रचना की है इनका अनुगमन करने पर किसी बौद्धिक दुर्घटना की आशंका नहीं रह जाती। अतः बौद्धिक शोषण का समाधान है स्याद्वाद । महावीर के स्याद्वाद से फलित होता है कि हम अपने क्षेत्र में दूसरों के लिए भी स्थान रखें। अतिथि के स्वागत के लिए हमारे दरवाजे हमेशा खुले हों। हम प्रायः बचपन से कागज पर हाशिया छोड़ कर लिखते आए हैं, ताकि अपने लिखे हुए पर कभी संशोधन की गुंजाइश बनी रहे। जो हमने अधूरा लिखा है, वह पूर्णता पा सके। महावीर का स्याद्वाद जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमें हाशिया छोड़ने का संदेश देता है। चाहे हम ज्ञान संग्रह करें अथवा धन व यश का, प्रत्येक के साथ सापेक्षता आवश्यक है। संविभाग की समझ जागृत होना ही महावीर के अनेकांत को समझना है। यही हमारे चरित्र की कुंजी है । अनेकांत हमारे चिंतन को निर्दोष करता है निर्मल चिंतन से निर्दोष भाषा का व्यवहार होता है। सापेक्ष भाषा व्यवहार में अहिंसा प्रकट करती है अहिंसक वृत्ति से अनावश्यक संग्रह और किसी का शोषण नहीं हो सकता। जीवन अपरिग्रही हो जाता है। इस तरह आत्मशोधन की प्रक्रिया का मूलमंत्र है महावीर का स्याद्वाद । जैनाचार्य कहते हैं कि संसार के उस एकमात्र गुरु अनेकांतवाद को मेरा नमस्कार है, जिसके बिना इस लोक का कोई व्यवहार संभव नहीं है। यथा जेण विणा लोयस्स वि ववहारो सव्वहा न निव्वडइ । तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ।। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती अनेकांत विशेष • 113 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदिक साहित्य में भाषिक अनेकांठ डॉ. हरिशंकर पाण्डेय RON दार्शनिक परंपरा में अनेकांत का स्वरूप है-अनेक धर्मात्मक अथवा अनंत धर्मात्मक वस्तु । परस्पर विरोधी गुणों का समवाय अनेकांत है। वैदिक साहित्य के परिप्रेक्ष्य में । अनेकांत से तात्पर्य है एक वस्तु में अनेक विरोधी-अविरोधी गुणों का समवाय । विषय। एवं भाषा के परिप्रेक्ष्य में वैदिक साहित्य में अनेक ऐसे स्थल मिलते हैं, जहां एक ही वस्तु में अनेक विरोधी-अविरोधी गुणों की उपस्थिति देखी जा सकती है। दिक साहित्य की प्राचीन एवं विशाल विरासत 2. एकं वा इदं वि बभूव सर्वम् (ऋग्वेद 8.58.2) है। संसार का आद्यग्रंथ ऋग्वेद माना जाता है, वह एक रूप होकर भी सभी रूपों वाला है। ऋग, यजु, साम और अथर्ववेद ये चार वेद हैं। इनकी अनेक 3. एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति (ऋग्वेद शाखाएं हैं। वेदों के बाद ब्राह्मण साहित्य आता है जो अत्यंत 1.164.46) विशाल है। आरण्यक और उपनिषद् वैदिक साहित्य के अंतर्गत ही परिगणित हैं। वह एक है, विद्वान लोग नाना रूपों में वर्णन करते हैं। तात्पर्य है कि वह एक भी है अनेक भी। वेदों के छह अंग हैं—शिक्षा, कल्प, निरुक्त । व्याकरण, छंद और ज्योतिष। इन्हीं सबके परिप्रेक्ष्य में 4. एकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति (ऋग्वेद भाषिक अनेकांत का प्रतिपादन हुआ है। 10.114.5) भाषिक अनेकांत का अर्थ वह एक है, विद्वान लोग नाना रूपों वाला कहते हैं। दार्शनिक परंपरा में अनेकांत का स्वरूप है—अनेक 5. एकं एवाग्निर्बहुधा समिद्धः (ऋग्वेद 8.58.2) धर्मात्मक अथवा अनंत धर्मात्मक वस्तु। परस्पर विरोधी वह एक अग्नि नाना रूपों में प्रज्वलित है। गुणों का समवाय अनेकांत है। वैदिक साहित्य के परिप्रेक्ष्य 6. ऋग्वेद के एक मंत्र 'अदिति' में अनेक विरोधीमें अनेकांत से तात्पर्य है एक वस्तु में अनेक विरोधी अविरोधी धर्मों की उपस्थापना की गई है। वह मंत्र इस अविरोधी गुणों का समवाय। विषय एवं भाषा के परिप्रेक्ष्य में प्रकार हैवैदिक साहित्य में अनेक ऐसे स्थल मिलते हैं, जहां एक ही वस्तु में अनेक विरोधी-अविरोधी गणों की उपस्थिति देखी अदितिद्यौरदितिरन्तरिक्षम् जा सकती है। अदितिर्माता स पिता स पुत्रः। वेदों में भाषिक अनेकांत विश्वेदेवा अदितिः पञ्चजना वैदिक भाषा में अनेक स्थल मिलते हैं जहां पर अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्।। (ऋग्वेद 1.89.16) भाषिक वैदिक भाषा अनेकांत के उदाहरण विद्यमान हैं। कुछ अर्थात् अदिति ही प्रकाशमान स्वर्ग है, अंतरिक्ष है, ऐसे प्रसंग यहां प्रस्तुत हैं जिनमें परस्पर विरोधाविरोध धर्मों जगत की माता है. पिता है. पत्र है। सभी देव अदिति हैं। जो का एकत्र समवाय उपस्थापित है कुछ भी उत्पन्न हुआ वह अदिति है। यहां एक ही वस्तु 1. अस्मद् हृदो भूरिजन्मा विचष्टे (ऋग्वेद 10.5.1) अदिति माता, पिता, पुत्र, द्यौ, स्वर्ग, धरती आदि विभिन्न वह ईश एक है लेकिन नाना रूपों में प्रकट होता है। विरुद्धाविरुद्ध धर्मों के धारक के रूप में उपस्थित है। स्वर्ण जयंती वर्ष 114. अनेकांत विशेष | जैन भारती मार्च-मई, 2002 ......................... Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. एक स्थल पर अदिति से दक्ष और दक्ष से अदिति इस प्रकार वैदिक भाषा में अनेक ऐसे प्रसंग और की उत्पत्ति हुई। यहां स्पष्ट रूप से दो विरोधी धर्मों की बात शब्द हैं जो परस्पर विरुद्धाविरुद्ध धर्मों के समवाय के कही गई है। लोक व्यवहार में यह कैसे संभव है। आचार्य अभिव्यंजक बनते हैं। यास्क समाधान करते हैं-अपिवा देवधर्मेणेतरेत्तर जन्मानौ एक वस्तु (शब्द) में अनेक गुण स्याताम्। इतरेतरप्रकृति । (निरुक्त 11.25) प्रथमतया 'वेद' शब्द ही अनेक धर्मात्मक वस्तु की उपर्युक्त प्रसंगों में एक वस्तु को अनेक रूपों में या एक दष्टि से विचारणीय है। वेद शब्द संस्कत की पांच धातओं ही वस्तु में अनेक धर्मों की उपस्थापना की गई है। माता-पिता से निष्पन्न होता है—विदज्ञाने, विदललाभे विदसत्तायाम आदि अनेक रूपों में एक वस्तु की उपस्थापना अन्य ग्रंथों में विदविचारणे, विदचेतनाख्याननिवासेष, आदि से घन प्रत्यय भी मिलती है। श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन की स्तुति में करने पर वेद शब्द निष्पन्न होता है। यह 'वेद' शब्द अनेक भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक धर्मों के समवाय की बात कही है। अर्थों एवं धर्मों को धारण किए हुए है। धातुओं के आधार पर वे धर्म परस्पर विरुद्ध भी हैं, अविरुद्ध भी हैं वेद शब्द का अर्थ ज्ञान की परम प्राप्ति का साधन, सत्ता, त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण चिंतन, चेतना, आख्यान (इतिहास) तथा सभी श्रेयस् त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्। पदार्थों का अधिष्ठान है। ऋग्वेद का प्रारंभ अग्नि की स्तुति से होता है। वह अग्नि अनेक गुणों का धारक है। ऋग्वेद का वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम प्रथम मंत्र हैत्वया ततं विश्वमनन्तरूप। (गीता. 38) अग्निमीडे पुरोहितं यज्ञस्य देवं ऋत्विजं होतरम अर्थात् हे श्रीकृष्ण ! आप आदिदेव सनातन पुरुष हैं, रत्नधातमम्। (ऋग्वेद 1.1.1.) आप इस जगत के परम आश्रय और जानने वाले तथा अर्थात् अग्नि पुरोहित (यजमान का कल्याणकारक), जानने योग्य हैं, परमधाम हैं। हे अनंत रूप, आपसे यह यज्ञ का प्रधान देव, प्रधान ऋत्विज, होता तथा विभिन्न रत्नों जगत परिव्याप्त है। का, ज्ञानादि गुणों का धारक है। यहां विविध धर्मों के भागवतपुराण की स्तुतियों में ऐसे अनेक प्रसंग हैं। समवाय हैं—अग्निदेव । वे पुरोहित भी हैं, यज्ञ के प्रधान देव जहां एक ही वस्तु (प्रभु) में अनेक विरोधी धर्मों का समवाय भी हैं. अन्य देवों को बलाकर लाने वाले भी हैं। यही नहीं, उपस्थित है। 'गजेंद्रमोक्ष' नामक विश्वप्रसिद्ध 'भक्ति-प्र तिशि अपि लोग दमनस एवं गहपति के स्तोत्र' में भगवान में विविध विरुद्ध धर्मों का निरूपण हुआ नारी को अभिहित करने में हविष्यात को है। भक्तराज गजेंद्र कहता है-- ग्रहण कर अन्य देवों तक पहुंचाते हैं, इसलिए उन्हें न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा हव्यवाहन कहते हैं। बलि आदि भी अन्य देवों के पास ले न नाम रूपे गुणदोष एव वा। जाते हैं, इसलिए उन्हीं को क्रव्यवाहन भी कहते हैं। शरीर तथापि लोकाप्यय संभवाय को चिता में जला भी देते हैं, इसलिए उन्हीं को क्रव्याद् भी ' कहते हैं। केवल ऋग्वेद में शताधिक विभिन्न विरोधी गुणों यः स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति।। (भा.पु. 8. 3.8) से युक्त अग्नि को बताया गया है। यही नहीं, अग्नि और हे प्रभो। आपका न जन्म है, न कर्म है, न नाम-रूप है, देव शब्द भी अनेक धर्मात्मक हैं। अग्नि शब्द का बड़ा ही न गण-दोष, लेकिन लोक की उत्पत्ति-विनाश-कल्याण के संदर एवं विविध धर्मों का समन्वयपरक निर्वचन आचार्य लिए आप अपनी माया से अनेक रूपों का सृजन करते हैं। यास्क ने किया हैभगवान श्रीकृष्ण के अनेक रूपों का वर्णन निम्न अग्निः अग्रणीभवति, अग्रंयज्ञेष प्रणीयते अडं नयति म श्लोक में द्रष्टव्य है सन्नममानः श्रियपतिः यज्ञपति प्रजापति अक्नोपनो भवतीति स्थौलाष्ठिविः, न क्नोपयति न धियांपतिः लोकपतिः धरापतिः । स्नेहयति। पतिगतिश्चान्धकवृष्णि सात्वतां त्रिभ्यः आख्यातेभ्यः जायते इति शाकपूणिः। इतात् अक्तात् प्रसीदतां मे भगवान् सतां पतिः।। (भा. पुराण) दग्धाद् वा नीतात्। (निरुक्त 7.14) स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 | अनेकांत विशेष • 115 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् वह अग्रणी है, वह यज्ञ में सर्वप्रथम प्रणीत की जाती है, जिस ओर वह जाती है, उस ओर की प्रत्येक वस्तु को अपना अंग बना लेती है। स्थौलाष्ठीवि ऋषि का मंतव्य है कि यह सुखाने वाली है। शाकपूणि आचार्य की दृष्टि में अग्नि शब्द तीन क्रियाओं के मेल से बना है— इंगगतौ से अ अञ्चु व्यक्ति धातु से या दह धातु से मध्य अक्षर ग् तथा नी (ले जाना) से नि शब्द लेकर 'अग्नि' शब्द बना। इस शब्द में अनेक धातुओं का सम्मिलन होने से अनेक विरोधी धर्मों का अस्तित्व है वह ज्ञान रूप है, वह जाता है, वह चमकता है, वह प्रकाश रूप है, वह जलाता है तथा वह हविष्यान्नादि को ले जाता है। देव शब्द भी अनेक धर्मों एवं अर्थों का समवाय है। निर्वचनकार यास्क ने लिखा है— देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनात्वा यु स्थानो भावतीतिवा । देव, दान, दीपन और द्योतन स्वभाव वाला होता है। यहां पर वा शब्द अनेक धर्मों का संग्राहक है। अग्नि का एक नाम 'वैश्वानर' भी है। वैश्वानर शब्द अनेक विरुद्ध अविरुद्ध धर्मों का वाचक है। वैश्वानर का निर्वाचन है— विश्वान् नरान्नयति । विश्व एनं नरा नयन्तीति वा । अवि वा विश्वानर एवं स्यात् । प्रत्यृतः सर्वाणि भूतानि तस्य वैश्वानरः (निरुक्त 7.21) अर्थात् वह समस्त मनुष्यों को ले जाता है अथवा समस्त मनुष्य उसको ले जाते हैं अथवा समस्त उत्पन्न प्राणियों को व्याप्त करता है। वैश्वानर दो परस्पर विरोधी धर्मों के समवाय का वाचक है। एक जगह यह स्वयं लोगों को ले जाता है तथा इसके विपरीत दूसरे निर्वाचन में लोग इसे ले जाते हैं—ऐसा कहा गया है। अग्नि को 'जातवेदस्' भी कहते हैं। ॐ उदुत्यं जातवेदसं देवं बहन्ति केतवः । (ऋग्वेद 1.50.1) 116 • अनेकांत विशेष जाते-जाते विद्यत इतिवा जातवित्तो वा । । जातधनः जातविद्यो वा जातप्रज्ञानः । अर्थात् वह जातवेदा समस्त उत्पन्न प्राणियों को जानता है जो समस्त उत्पन्न प्राणियों के द्वारा जाना जाता है या वह समस्त प्राणियों में व्याप्त या समस्त प्राण उसके धन के रूप में हैं या समस्त प्राणी उसके ज्ञान अथवा विचार रूप हैं। यहां पर भी जातवेदा के अनेक गुण, जो विरोधी एवं अविरोधी हैं, समन्वित रूप से साहचर्य में है। । वैदिक अंग साहित्य में भाषिक अनेकांत विषयक अवधारणाएं वैदिक भाषा के छह अंग होते हैं—शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष व्याकरण, निरुक्त और छंद का सीधा भाषा से संबंध है। व्याकरण - व्याकरण को मुख कहा जाता है—मुखं व्याकरणं स्मृतम् | यह सभी विधाओं में श्रेष्ठ तथा सबका उपकारक है। पतंजलि ने इसे 'महान्देव' कहा है। व्याकरण में भाषा की शुद्धता का परिज्ञान होता है । व्याकरण के नियमों में विकल्प प्रयोग, बहुल प्रयोग, छांदस प्रयोग आदि भाषिक अनेकांत की सूचना देते हैं। आचार्य पतंजलि ने तो यहां तक कहा कि दो विरोधियों के अस्तित्व सामान्य और अपवाद नियम को स्वीकार किए बिना भाषा के आधार स्वरूप व्याकरण की गाड़ी एक पग भी नहीं चल सकती है। आचार्य पतंजलि महाभाष्य के प्रथमाह्निक में कहते हैं व्याकरण को मुख कहा जाता है— मुखं व्याकरणं स्मृतम् । यह सभी विधाओं में श्रेष्ठ तथा सबका उपकारक है। पतंजलि ने इसे 'महादेव' कहा है । व्याकरण में भाषा की शुद्धता का परिज्ञान होता है। व्याकरण के नियमों में विकल्प प्रयोग, बहुल प्रयोग, छांदस प्रयोग आदि भाषिक अनेकांत की सूचना देते हैं आचार्य पतंजलि ने तो यहां तक कहा कि दो विरोधियों के अस्तित्व सामान्य और अपवाद नियम को स्वीकार किए बिना भाषा के आधार स्वरूप व्याकरण की गाड़ी एक पग भी नहीं चल सकती है। I - उत्सर्ग और अपवाद ही सामान्य विशेष हैं। कुछ इस मंत्र में प्रयुक्त जातवेदस शब्द विचारणीय उत्सर्ग सामान्य नियम तथा कुछ अपवाद विशेष नियम का है— जातवेदाः कस्मात् जातानिवेद जातानि वैनं विदुः । प्रवर्तन करना चाहिए यहां पर स्पष्ट रूप से संकेतित है कि स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती कथं नहीं शब्दाः प्रतिपत्तव्याः । अर्थात् शब्दों को कैसे जानें। किंचितसामान्यविशेषवल्लक्षणं प्रवर्त्यम् अर्थात् कुछ सामान्य और विशेष नियम से युक्त शास्त्र का प्रवर्तन करना चाहिए। सामान्य विशेष क्या हैं ? मार्च - मई, 2002 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य के साथ विशेष का अस्तित्व स्वीकार किए बिना भाषा का ज्ञान संभव ही नहीं है। इस तथ्य के प्रतिपादन में वहीं पर आचार्य पतंजलि ने बृहस्पति और इन्द्र के आख्यान से तथ्य को पुष्ट किया है— कर्तृकरणे कृताबहुलम् (2.1.31 ) अर्थात् जो तृतीयांत कर्ता एवं कारण वाचक शब्द हैं, वे समर्थ कृदंत सुबंत के साथ बहुल करके समास को प्राप्त होते हैं, अर्थात् समास होगा और नहीं भी। दोनों विरोधी धर्मों की उपस्थिति निम्नलिखित उदाहरणों में देखी जा सकती है--अहिना हतः अहिहतः । समास होने पर अहिहतः नहीं इंद्रश्चाध्येता दिव्यं वर्षसहस्रंममध्ययनककालो न होने पर यथावत् अहिनाहतः । इसी प्रकार वृकहतः। यह तृतीयांत करण का तृतीयांत कर्ता का उदाहरण बना है उदाहरण बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यंवर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्द पारायणं प्रोवाचनान्तं जगाम् । बृहस्पतिश्च वक्ता । चांत जगाम् किं पुनर द्यत्वे, यो अधिकं जीवति स वर्षशतं जीवति । ( महाभाष्य, प्रथमालिक, पू. 20) वहीं पर आचार्य ने सामान्य विशेष की सत्ता स्वीकृति से प्राप्त लाभ का भी उल्लेख किया हैयेताल्पेन यत्नेन महतोमहतः पद्येरन् (महा. प्र. पृ. 20 ) शब्दौघान्प्रति अर्थात् सामान्य-विशेष से युक्त शास्त्र के द्वारा थोड़े से यत्न से ही महान से महान शब्दराशियों का परिज्ञान हो जाता है। 3 विभाषा — बहुल, विकल्प, आदि व्याकरण साहित्य के विशिष्ट शब्द भाषिक अनेकांत के संसूचक हैं। विभाषा शब्द का प्रयोग पाणिनि ने किया है 'न वेति विभाषा' (1.1.44) अर्थात् निषेध और विकल्प को विभाषा कहते हैं। विभाषा स्थलों में निषेध और विकल्प दोनों की प्रवृत्ति होती है। प्रथमतया निषेध से विषय का समीकरण हो जाने पर पुनः विकल्प की प्रवृत्ति होती है। बहुलम् बहून् अर्थान् लातीति बहुलम् अर्थात् जो बहुत अर्थों को प्राप्त करे वह बहुलम् है। 'बहुलम् प्रयोग' से तात्पर्य ऐसे नियमों से है जिनका प्रयोग कुछ विशेष अवस्थाओं में निर्दिष्ट होता है, उन्हें छोड़कर अन्यत्र भी प्रयुक्त हो जाते हैं 'बहुलम्' के चार प्रकार बताए गए हैं— दात्रेणलूनं दालूनम् । परशुना छिन्न परशुछिन्नः । नखैर्निर्भिन्न नखनिर्भन्नः । इत्यादि उदाहरणों में दो विरोधी घटनाएं एक साथ उपस्थित होकर भाषिक अनेकांत की सूचना देती हैं इसी प्रकार विशेषणं विशेष्येणबहुलम् (स. 56) 56) भी भाषिक अनेकांत का सूचक है। 'अन्यतरस्याम्' शब्द विकल्प का वाचक है। पृथक्, बिना, प्रथग्विनानानाभिस्तृतीयाऽन्यतरस्याम् (2.3.32) यहां पर नाना – इन शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति विकल्प से होती है। पक्ष में पंचमी विभक्ति भी होती है। तृतीया का अर्थ है साधन और पंचमी का अर्थ है अलगाव दो विपरीत धर्मों का प्रयोग पृथक् आदि शब्दों के साथ देखा जा सकता है— पृथक् ग्रामेण पृथक् ग्रामात् । बिना घृतेन, बिना घृतात् । नाना देवदत्तेन, नाना देवदत्तात् । इन उदाहरणों में दो विरोधी भावों की समान अस्तित्वात्मक उपस्थिति देखी जा सकती है। 'बहुलं छन्दसि' – यह सूत्र वैदिक व्याकरण में बहुत प्रसिद्ध है। यह वैदिक भाषा में बहुलता की सूचना देता है 22 सौ धातुओं को पाणिनि ने दस गणों में विभाजित किया है। प्रत्येक गण के अलग-अलग विकिरणों (मध्य प्रत्यय) का निर्देश है। अदप्रभृतिम्यः शपः (पा. 2.4.72) से अदादिगणीय धातुओं से परे प्राप्त 'श' का लुक (लोप) हो जाता है। लेकिन वैदिक प्रयोग विषय में यह नियम बहुल करके होता है। बहुलं छन्दसि (24.73) में यह निर्दिष्ट है कि वैदिक प्रयोग के विषय में प्राप्त शप् का लुक् कहीं होता है, कहीं नहीं भी होता है। विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं जहां नियम प्राप्त है वहां नहीं होता, जहां अप्राप्त है वहां क्वचित् प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः कवचिद् विभाषा क्वचिदन्यदेव | वदन्ति ॥ हो जाता है। जैसे अशयत् — यह 'शीङ् स्वप्ने' धातु का अर्थात् कहीं पर विधि न प्राप्त होते हुए भी कार्य लड् लकार का रूप है। शीड़ धातु अदादिगणीय है। यहां होना, कहीं पर विधि होने पर भी कार्य न होना, कहीं लोप प्राप्त था, लेकिन नहीं हुआ। शी से परे ' शप्' विकल्प से होना तथा कहीं अकारण ही हो जाना यह चार मानकर शी को गुणादेश तथा अयादेश होकर 'अशयत्' स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च मई, 2002 प्रकार का बहुल देखने में आता है। आचार्य पाणिनि ने अनेक बार बहुल प्रयोगों का निर्देश किया है— - अनेकांत विशेष • 117 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप बन गया। बैड़ पालने धातु भ्वादिगणीय है, यहां पर 'कर्तरिशप्' से शप् प्राप्त है, उसका लोप नहीं होना है, फिर भी लोप होकर लोट्लकार में 'त्राघ्यम्' रूप बना। निरुक्त—निरुक्त के रचनाकार महर्षि यास्क हैं जिनका समय ई.पू. 800 वर्ष माना जाता है। इसमें भाषिक अनेकांत के अनेक उदाहरण मिलते हैं। सर्वप्रथम इसके स्वरूप पर दृष्टिपात करते हैं। निरुक्त वैदिक शब्दों का श्रेष्ठ निर्वचन ग्रंथ है इसका मूल रूप निघंटु है। वैदिक शब्दों का संग्राहक ग्रंथ निघंटु है । निरुक्त के प्रारंभिक वाक्य भाषिक अनेकांत की दृष्टि से उदाहरणीय हैं— समाम्नायः समाम्नातः । स व्याख्यातव्यः । तमिमं - समाम्नायं निघण्टव इत्याचक्षते निघण्टव कस्मात् । निगमा इमे भवन्ति । छन्दोभ्यः समाहृत्य समाहृत्य समाम्नाताः । ते निगन्तवः एव सन्तो निगमनान्निघण्टव उच्यन्त इत्यौपमन्यवः । अपि वा हननादेव स्युः । समाहता भवन्ति । यद्धा समाहृता भवन्ति ( निरुक्त प्रथम अध्याय) । अर्थात् समाम्नाय समाम्नात है। उसकी व्याख्या करनी है। वह समाम्नाय (वैदिक शब्दों का संग्रह) ग्रंथ निघंटु ( निघंटवः) कहलाता है। निघंटवः शब्द किस धातु से व्युत्पन्न है? ये वेदों से उद्धृत शब्द हैं (निगमा) अथवा पुनः पुनः वैदिक सूक्तों से एकत्र करने के पश्चात् वे परंपरा से प्राप्त किए गए हैं। आचार्य औपमन्यवः की सम्मति है, चूंकि ये वेदों से उद्धृत शब्द हैं, इनका नियमपूर्वक कथन हुआ है अथवा ये नियमपूर्वक एकत्र किए गए हैं, अतः इन्हें निघण्टवः कहते हैं। यहां पर यह द्रष्टव्य है कि मात्र एक निघंटु या 'निघंटव' शब्द की अनेक व्युत्पत्तियां दी गई हैं जो एक ही शब्द में परस्पर विरुद्ध - अविरुद्ध धर्मों की अवस्थिति की सूचना देती हैं। 2. यह शब्द सम् एवं आ उपसर्गपूर्वक हन् धातु से भी निष्पन्न माना गया है— अपिवा हननादेव स्युः । समाहंतु — निघंटु बना है। यहां पर हन् धातु का प्रयोग भी विरोधी-अविरोधी धर्मों के समवाय का सूचक है । हन् धातु का प्रयोग हिंसा के अर्थ में होता है, जबकि यहां पर पाठ अर्थ में प्रयुक्त है। निघंटु समाहतु समाहता भवन्ति अर्थात् निघंटु के पद वैदिक मंत्रों से चुन-चुनकर नियमपूर्वक पढ़े 118 • अनेकांत विशेष गए हैं। आचार्य पतंजलि ने हन् धातु के हिंसा एवं गति के अतिरिक्त पाठ अर्थ की ओर भी निर्देश किया है प्रसिद्धश्च पाठायें हन्तेः प्रयोगाः । ब्राह्मणे इदमाहतम् सूत्रे इदमाहतम् । 3. सम् एवं आङ्ग उपसर्गपूर्वक 'हञ्' हरणे धातु से भी निघंटु शब्द निष्पन्न हुआ है— यद्वा समाहृता भवन्ति । यहां समाहर्तुं से निघंटु बना है। 1. निघंटु शब्द नि उपसर्गपूर्वक गम् धातु से व्युत्पन्न मीमांसा की है। इन्हीं सिद्धांतों के विवेचन क्रम में आचार्य है— निगंतु—– निघंटु | यास्क की वाणी भाषिक अनेकांत के रूप में विमर्शनीय है—विशयवत्यो हि वृतयो भवन्ति – (निरुक्त द्वितीय अध्याय ।) अर्थात् संश्लिष्ट रचनाएं प्रायः अपवादों से युक्त होती हैं। यह अपवाद स्वीकरण ही भाषिक अनेकांत है। निरुक्त के प्रतिपाद्य में भाषिक अनेकांत-निरुक्त की परिभाषा में इसके पांच प्रतिपाद्यों का निर्देश है—इस विषय में एक कारिका प्रसिद्ध है— वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरी वर्णविकारनाशौ । धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पंचविद्यं निरुक्तम् ।। ( भाषा विज्ञान एवं भाषा शास्त्र, पृ. 488 पर उद्धृत) अर्थात् वर्णागम वर्णविपर्यय, वर्णविकार, वर्णनाश तथा धातुओं का अर्थविस्तार आदि पांच प्रकार के प्रतिपाद्य निरुक्त के हैं। यहां ध्यातव्य है कि निरुक्त के प्रतिपाद्य विषय परस्पर विरुद्ध हैं, लेकिन एक ही निरुक्त में अवस्थित हैं। पूर्व उदाहरण निघंटु के निर्वाचन में इन पांचों रूपों को देखा जा सकता है। निर्वचन के सिद्धांत और भाषिक अनेकांत आचार्य यास्क के द्वारा तीन प्रकार के शब्द भेद स्वीकृत हैं— 'प्रत्यक्षवृत्ति, परोक्षवृत्ति अतिपरोक्षवृत्ति । प्रत्यक्षवृत्ति के शब्द वे हैं जिनका प्रकृति प्रत्यय स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो। जिनके प्रकृति प्रत्यय का पता कुछ कठिनता से — क्रिया की गति या सादृश्य के आधार पर लगे उसे परोक्षवृत्ति कहते हैं। अतिपरोक्षवृत्ति वाले वे शब्द हैं जिनका प्रकृति-प्रत्यय अवबोध संभव नहीं हो सके । यास्क ने इन तीनों प्रकार के शब्दों के निर्वचन सिद्धांत की इस प्रकार भाषिक अनेकांत की उपलब्धता वैदिक भाषा किंवा संस्कृत भाषा में भी देखी जा सकती है। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च मई, 2002 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहानी कुंज के भीतर अकूतागावा MER । वह कुछ बोलने की स्थिति में नहीं था। पत्तों से उसका मुंह टुसा पड़ा था। बुदबुदाते उसके होंठों से लग रहा था, जैसे । वह कह रहा हो, 'मुझे मारो!' जड़-चेतन से तटस्थ होकर मैंने उसके किमोनो में तलवार ओंक दी। मेरी नजर बरावर राज्य पर थी। नहीं तो बेहोशी पुनः मुझ पर हमला बोलती। उसके प्राण निकल रहे थे। सूर्य की आखिरी किरण में उसका पीला चेहरा चमक उठा। सिसकियां दबाकर मैने रस्सी इकही कर ली। इसके बाद में कहां-कहां पहुंची, क्या- ॥ क्या किया यह सुनाने की हिम्मत अब बाकी नहीं बची है। एक बात जरूर है कि मैंने मन से मौत को नहीं बुलाया। मुझमें वह साहस नहीं था। नहीं तो वह तलवार कई बार मैंने गले पर फेरी थी। एक जगह पहाड़ की तलहटी से कदने की कोशिश की थी। आत्महत्या के कई असफल प्रयास किए । आज निर्लज्ज होकर आप लोगों में जिंदा खड़ी हूं। sansamoommonam पुलिस उच्चायुक्त के सामने लकड़हारा 'घोड़ा?' जी हां, सबसे पहले मैंने ही लाश को देखा था। रोज वहां घोड़ा नहीं था। वह इतनी तंग जगह है कि वहां की तरह उस सुबह भी मैं लकड़ी काटने जंगल जा रहा था। एक बार एक ही आदमी जा सकता है, या एक जानवर। रास्ते में एक पहाड़ी गुफा आई। गुफा के पास घनी झाड़ियां । बौद्ध पुरोहित थीं। वहीं मृतक का शरीर पड़ा था। निश्चित रूप से महोदय! यह कल दोपहर की बात आप जगह की पूरी जानकारी चाहते हैं? है। यह बदनसीब प्राणी येमेशिना से सिकियामा जा रहा था। यह जगह ठीक येमेशिना मुख्य मार्ग से 150 कि. तभी यह आदमी भी घोड़े पर सवार होकर जा रहा था। मी. दूर है। वहां बांस और देवदार का झुरमुट हैं। मैंने देखा, इसके साथ कोई महिला थी। बाद में मालूम हुआ कि वह मृतक के सिर पर क्योतो शैली का एक मुसा-तुसा कपड़ा इसकी पत्नी थी। महिला के सिर पर बंधा स्कार्फ बार-बार बंधा था। शरीर नीले किमोनो में लिपटा था। जमीन पर गिरे उड़ रहा था, जिससे उसका मुंह छिप जाता था। बाकी उसके सपाट शरीर को देखकर लगता था कि तलवार के कपड़ों में सिर्फ सूट का नीला कालर चमक रहा था। एक ही वार ने उसकी छाती के दो टुकड़े कर डाले थे। मेरे उसके ललछौंह भूरे घोड़े का नाम आकर्षक था। पहुंचने तक उसके शरीर से खून निकलना बंद हो चुका था 'लम्बाई?' और आहट की परवाह किए बिना कुक्कुरमाछी घाव से चिपक रही थी। उफ! मृतक लगभग पांच फीट-पांच इंच का था। पुरोहित होने के कारण लोगों का अंग विस्तार देखने की 'हथियार?' मेरी आदत नहीं है। यह मेरे धर्म के विपरीत है। एक बात नहीं, वहां कोई हथियार नहीं था। देवदार के नजदीक मुझे ठीक से याद है कि मृतक के पास एक तीर-कमान था। बस एक रस्सी पड़ी थी। हां, एक कंघा भी था। आसपास आह. नियति! किसको पता था—इसकी यह दुर्दशा होगी! बिखरी घास और बांस के पत्ते अभी तक नीचे की तरफ मानव जीवन वास्तव में उषाकालीन हिमकणों या घटा में बंद झुके थे, जिनसे पता चलता था कि मरने से पहले उसकी बिजली जैसा अस्थिर है। ऐसी दयनीय मौत पर शोक प्रकट दुश्मन के साथ खासी झड़प हुई होगी। करने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.119 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की। सिपाही वृद्धा 'जिसको मैंने हथकड़ी पहनाई?' । हां, महोदय, उसका विवाह मेरी लड़की के साथ तन्जोमारू कहलाने वाला यह एक नामी डाकू है। हुआ था। 'क्योतो' नहीं वह वाकासा के 'कोफ्कू' जिले का सेमुराई था। उसका नाम 'कानाजावा नो ताकहिको' था। गिरफ्तारी के वक्त वह घोड़े से गिरा था और वह छब्बीस वर्ष का था। स्वभाव से एकदम नम्र। उसने आवातागुची पुल पर चीखता हुआ जा रहा था। कभी किसी से अनुचित या उत्तेजित करने वाली बात नहीं 'समय?' कल रात का पिछला पहर था। सारी बातें तरतीब से 'मेरी बेटी?' यूं दर्ज की जाएं। 'मासागो' सिर्फ सोलह साल की है। वह साहसी कुछ दिन पहले भी मैंने इसको पकड़ने की कोशिश लडकी कला में दिलचस्पी रखती है, लेकिन वह ताकहिको की थी. लेकिन हाथ से निकल गया। बकरे की मां कब तक के सिवा किसी दूसरे पुरुष को नहीं जानती है। छोटे आकार खैर मनाती! अबकी बार बदमाश पकड़ाई में आ गया। यह का उसका मुंह कुछ-कुछ सांवला है। उसकी बाईं आंख के उस वक्त गहरा नीला किमोनो पहने था। कोने पर तिल है। कल ताकहिको मासागो को साथ लेकर इसके हाथ में चौरस तलवार थी, जिसे आप सामने वाकासा जा रहे थे। मेरी बदनसीबी से उसके हाथ यह देख रहे हैं। इसके पास धनुष-बाण भी था। हादसा पेश आया। समझ नहीं आता कि मेरी बिटिया का 'क्या यह हथियार मृतक से छीने गए थे ?' क्या हुआ। वह कहां गई? मुझे उसका कोई अता-पता नहीं है। एक तो दामाद की मौत ने मेरी कमर तोड़ दी, उस पर जी हां, आप बिल्कुल सही हैं। इसने यह हथियार बेटी भी लापता हो गई। मैं क्या करूं? कहां जाऊं? नहीं, मृतक से छीने थे। इसके हथियारों की फेहरिस्त में लंबी पट्टी बर्दाश्त नहीं हो रहा है मुझसे। मैं हाथ जोड़ रही हूं, भगवान में बंद धनुष, काला तरकस, छोटे-छोटे पंखों वाले हजारों के लिए मेरी बेटी को जल्दी से जल्दी खोजा जाए। यह जो बाण शामिल थे। डाकू तन्जोमारू या क्या है, इसका बुरा हो। इसे देखकर बेशक इसके ललछौंह भूरे मुझे मतली आती रही है। इसने घोड़े का नाम दिलकश था। घोड़े मेरा सब कुछ लूटा है। मुझ पर के गले में लगाम झूल रही थी। उफ! मृतक लगभग पांच फीट-पांच अत्याचार किया। मेरे दामाद ही घोड़े से गिरकर भी इस हरामी की इंच का था। पुरोहित होने के कारण नहीं, बेटी की भी...। हड्डी-पसली का कचूमर नहीं लोगों का अंग विस्तार देखने की (अश्रु प्रवाह से गला रुंध निकला, इसे इसकी खुशनसीबी मेरी आदत नहीं है। यह मेरे धर्म के जाता है) ही कहा जा सकता है। विपरीत है। एक बात मुझे ठीक से याद है कि मृतक के पास एक तीर- तन्जोमारू की स्वीकारोक्ति ___ डाकू सरदार तन्जोमारू ने कमान था। आह, नियति! किसको हां, मैंने उस आदमी को आज हमारे कस्बे की एक औरत पता था इसकी यह दुर्दशा होगी! मारा है, लेकिन उसकी औरत को को जैसे जिंदा ही मार डाला है। मानव जीवन वास्तव में उषाकालीन मारने का इलजाम सरासर गलत लोगों की हत्या करना इसका पेशा हिमकणों या घटा में बंद बिजली है। वह कहां गई, यह मैं क्या है। पिछले शरद में पिंडोरा पहाड़ी जैसा अस्थिर है। ऐसी दयनीय मौत जानू ? ठहरो, एक मिनट ठहरो! पर आई एक महिला कुछ दिनों बाद पर शोक प्रकट करने के लिए मेरे मरी हुई पाई गई थी। उसकी हत्या पास शब्द ही नहीं हैं। ___हां, तुम्हारी जोरका संदेह इसी पर किया जाता है। जबरदस्ती से मैं झूठे इलजाम मान यह ऐसा नामी खूनी है...। आदमी लूंगा—यह तुम्हारी गलतफहमी को मारने पर इसने उसकी बीवी के साथ क्या किया होगा, होगी। इस हादसे के बाद कोई ऐसी स्थिति बाकी नहीं रही इसके बारे में कुछ कहना मुश्किल है, लेकिन यह एक ऐसी है, जिसके लालच में मैं बचने की आशा से झूठ बोलूं। बात है, जिस पर खास तौर से ध्यान दिया जाना जरूरी है। इसलिए मैं साफ-साफ बयां करता हूं कैसे क्या-क्या स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 120 • अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ मैं ताड़ गया कि कांटा ठीक फंसा है। यह प्रलोभन भी कल दोपहर के बाद की बात है। मैं येमेशिना के रास्ते कोई कम न था। चुपड़ी-चुपड़ी बातों से मैंने पहले ही उनको पर जा रहा था। वहीं पर वह आदमी भी पत्नी के साथ जा अपने विश्वास में ले रखा था। झाड़ी के नजदीक पहुंचने पर रहा था। यानी हम सब एक ही राह पर थे। ठीक उसी वक्त मैं दुबारा बोला, 'खजाना झाड़ी के अन्दर उधर गड़ा पड़ा हवा का एक झोंका आया, जिससे औरत के सिर से कपड़ा है। मेरे साथ चलिए।' हट गया। मैं उसकी सिर्फ एक झलक पा सका। उसका आदमी मेरे साथ हो लिया। चेहरा दुबारा नहीं दिखा। उस नजर में ही वह मुझे बोधिसत्व 'आप जाइए। मैं यहीं रुकती हूं।' कहकर औरत वहीं जैसी पवित्र और पारदर्शी लगी। उसी वक्त मैंने उसका रुक गई। उसका कहना वाजिब था। झाड़ियां देखकर वह अपहरण कर लिया। अपने विचार को कार्य रूप देने के लिए रुकी थी। मैं अपने सोचे हुए ढंग से कामयाब हो रहा था। मुझे उसके आदमी को मारने की जरूरत पड़ गई। मुझे इस हम दोनों आगे चले। बांस की झाड़ी से पचास गज आगे बात का खेद नहीं है, क्योंकि मैं मौत को जिंदगी के ऐसे एक कुंज आया। यह देवदार का कुंज है। यही मेरे मतलब खतरनाक नतीजों में नहीं गिनता हूं, जैसे आप सब। मेरे की जगह थी। मैं उसको कुंज की तरफ बहकाकर लाया। हिसाब से जिस वक्त औरत का अपहरण होता है, उसी तलवारें देखने की उत्सुकता में उसको भी जल्दी मची थी। वक्त उसके पति की भी मौत होती है। उस आदमी को मैंने झाडी खत्म होने के साथ-साथ बांस भी कम होते गए। तभी इस तलवार से मारा, जो मेरे गले में लटक रही है, लेकिन, मैंने उसको पीछे से पकड़ लिया। वह हट्टा-कट्टा आदमी लेकिन...सिर्फ क्या मैं ही लोगों को मारता फिरता हूं। तुम तलवार-युद्ध का खासा अनुभवी लग रहा था, लेकिन नहीं ? तुम तलवार नहीं चलाते हो? तुम भी चलाते हो। अचानक पकड़ने से अवाक् रह गया। वह बेबस हुआ। मैंने फर्क इतना है कि तुम लोगों के हितैषी बनकर अपनी सत्ता के बड़ी आसानी से उसको देवदार के साथ बांध दिया। बल पर उनको चूसते हो। यह बात और है कि गला काटकर 'रस्सी ?' उनका खून नहीं बहाते हो। उनकी अंतरात्मा को भेदते हो। पेशे से चोर हूं। रस्सी हरदम साथ रहती है। कई बार तुलना करने पर बताना मुश्किल होगा कि महापातकी तुम हो । दीवार फांदनी पड़ती है। ऐसे में मैं रस्सी से काम लेता हूं। कि मैं ? (व्यंग्यपूर्वक मुस्कराता है।) अस्तु, उसको बांधने के बाद मैं ढेर सारे बांस के पत्ते लाया पहले मैंने सोचा था कि इस आदमी को मारे बिना और उसके मंह में ठंस दिए, ताकि उसकी बोलचाल खत्म औरत को उड़ा ले जाऊं। इसकी मैंने हो जाए। मेरा काम पूरा हो गया। अब कोशिश भी की थी। आप खुद समझ मैं उसकी औरत को बुलाने चला। सकते हैं कि येमेशिना के तंग रास्ते पर हां, तुम्हारी जोर-जबरदस्ती अपनी कामयाबी की चर्चा करना मुझे यह काम करना कितना कठिन है। से मैं झूठे इलजाम मान गैरजरूरी लग रहा है। इसलिए मुझे एक तरकीब सोचनी लूंगा-यह तुम्हारी मैंने उसकी औरत को बुलाया। पड़ी। मैंने इन लोगों को पहाड़ी की गलतफहमी होगी। इस तरफ खींचने की कोशिश की। यह हादसे के बाद कोई ऐसी टोपी हाथ में पकड़े वह झाड़ियों की स्थिति बाकी नहीं रही है, तरफ आई। कुंज से पास पहुंचते ही चाल काम की रही। इनके कदम से जिसके लालच में मैं बचने उसने अपने आदमी को बंधा हुआ कदम मिलाकर मैं सहयात्री बन गया। की आशा से झूठ बोलूं। पाया, तो एकदम तैश में आ गई। उसने बात-चीत करता रहा। ये दोनों मस्ती इसलिए मैं साफ-साफ बयां तलवार निकाली और खूख्वार होकर में जा रहे थे। बात-बात में मैं बोला, करता हूं कैसे क्या-क्या मेरी तरफ दौड़ी। ऐसी आक्रामक औरत 'एक बार मैंने पहाड़ का ऊपरी टीला हुआ से जिंदगी में पहली बार मेरा साबका खोदा था। मुझे बहुत सारी शीशे की पड़ा था। मैंने खुद को बचाया। अगर मैं तलवारें मिलीं। मैंने ये झाड़ियों में जोर नहीं लगाता, तो वह बहुत जल्दी छिपाकर रख दीं। कोई लेने वाला मिलता, तो मैं एकदम मुझे जमीन पर गिरा देती, या बुरी तरह घायल कर छोड़ती। सस्ते दाम में बेच देता।' वह मुझे चीरने के लिए बार-बार लपक रही थी। देर तक स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष. 121 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा उससे संघर्ष चला। मैं तन्जोमारू ठहरा । तलवार का सहारा लिए बिना मैंने उस पर काबू पा लिया, औरत जात चाहे कितनी भी साहसी क्यों न हो, बिना हथियार के अपने को नहीं बचा पाती है उसको वश में करके मैंने जी भर उसका आनंद लिया। उसके आदमी को मारे बिना हां... इसके बिना मेरा पहले से उसको मारने का कोई इरादा न था । यह मैं आपसे कह चुका हूं। वह बराबर रो रही थी उसको छोड़कर मैं भागने लगा कि वह बौखलाई-सी मेरे पास चिपकती हुई बोली, 'तुम दोनों में से एक मर जाओ।' उसकी टूटी आवाज में याचना थी वह अपने पति या मुझे दो में से एक को ही जिंदा देखना चाहती थी ऐसी अपमानित स्थिति में वह एक ही आदमी के साथ रहने को तैयार थी, दूसरे की मौत देखना चाहती थी। वह दो में से एक की पत्नी बनकर रहने की इच्छुक थी। अफसोस मेरे दिमाग से उस वक्त उसके आदमी को मारने का खयाल हवा हो चुका था। (आवेश-भरी उदासी) तुम लोगों की नजरों में मैं एक गिरा हुआ आदमी हो सकता हूं। फिर भी मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि पहली बार देखते ही मैंने उसको अपनी पत्नी बनाने का निश्चय किया था। मेरी इच्छा ऐसी प्रबल हुई थी, जैसे मेरी जिंदगी की एकमात्र साथ यही बाकी रही हो। आप इसे वासना नहीं कह सकते। ऐसा होता, तो मैं अपना काम पूरा कर चुका था। आसानी से भाग निकलता, लेकिन बंधे आदमी को मारकर कायर बनूं, यह मेरी आत्मा को कबूल न था । मैंने उसकी रस्सी खोली, जो बाद में आपको मिली थी। मैंने उसको ललकारा। आवेश में तमतमाया वह रस्सी के खुलते ही मुझ पर छा गया। एक शब्द बोले बिना वह लगातार तलवार चलाता रहा। उसने तेईस वार किए। तेईस वार ! हां, याद आते ही कंपकंपी छूटती है। इतनी देर तक मेरे सामने तलवार चलाने वाला आज तक इस जमीन पर कोई जन्मा है ? (प्रसन्नता हो मुस्कराता है) आखिर एक वार से मैंने उसको गिरा दिया। उसके गिरते ही मैंने तलवार उठाई और औरत की तरफ भागा। अरे! कहां गई? वह कहां गायब हो गई? मैंने सब जगह देखा, चारों ओर से आने वाली आवाजें गौर से सुनीं। वहां उसके आदमी की चीखों के सिवा कोई आवाज न थी। कहीं हम दोनों के युद्ध के दौरान ही वह मदद के लिए तो नहीं दौड़ी ? यह विचार आते ही मैं घबराया। मैंने खुद को वहां 122 • अनेकांत विशेष , असुरक्षित पाया। जल्दी से उसके पति का तीर-कमान उठाकर मैं उसी रास्ते से भाग निकला, जहां से आया था। भागते वक्त मैंने उसके घोड़े को सड़क पर खड़ा पाया। वह मजे में चर रहा था। इसके बाद मैं कहां गया, यह सब कहने की कोई सार्थकता नहीं है। एक बात जरूर है कि शहर में लौटते वक्त मेरे हाथ में तलवार नहीं थी। वह पहले ही कहीं फेंक दी थी। मेरे अपराध का यह हवाला है। मुझ जैसों से लिए प्राणदंड ही ठीक रहता है, (ढीठ होकर) लेकिन मेरी प्रार्थना है कि उससे बढ़कर यदि कोई दंड हो, तो वह मुझे दिया जाए। शिमिजू मंदिर में आई एक महिला इस आदमी ने मुझे समर्पण करने को विवश किया, फिर मेरे पति की तरफ देखने लगा। इसकी नजर में घोर अट्टहास था। आप खुद अनुमान लगा सकते हैं कि उसे देखकर मेरे पति किस कदर भयभीत हुए होंगे! दर्द के मारे वह छटपटा रहे थे। रस्सी उनके शरीर के भीतर ही भीतर धंसती जा रही थी। मैं पति के पास जाना चाहती थी और यह डाकू मुझे बार-बार जमीन पर गिरा रहा था। उस वक्त मैंने पति की आंखों में देखा। उनमें एक अजीब चमक थी, जिसने मेरे रोंगटे खड़े कर दिए। मुंह से निःशब्द होते हुए भी वह आंखों से सब-कुछ कह रहे थे। वह चमक क्रोध या दुख की नहीं, शिथिल घृणा भरी चमक थी। उस नजर की मार डाकू की मार से बड़ी लगी मैं बेहोश हो गई। आंख खुलने पर मैंने देखा - डाकू भाग चुका था । मेरा पति अभी भी देवदार से बंधा पड़ा था। उसकी आंखों का कुत्सित भाव पूर्ववत् था। उनमें लज्जा भी थी। उसकी पूरी मनःस्थिति का वर्णन करना मुश्किल है। लड़खड़ाती हुई मैं उसके पास जाकर बोली, 'ताकिजिरो, हालात ऐसे हो चुके हैं कि अब मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकूंगी ! मेरे लिए मौत ही एक रास्ता है, लेकिन तुम्हें जिंदा देखना भी मुझे मंजूर नहीं है, क्योंकि तुम्हारे सामने डाकू ने मेरी इज्जत लूटी, मुझे अपमानित किया। इसलिए मैं तुम्हें जिंदा नहीं छोडूंगी।' मैं चुप हुई। वह घृणा भरी नजरों से मुझे घूरे जा रहा था। मैं आहत हुई। मैंने उसकी तलवार खोजी, जो शायद डाकू लेकर भागा था। मैंने अपनी छोटी-सी तलवार निकाली और उसकी नाक की सीध में लगाकर बोली, 'लाओ, यह जीवन दे दो!" वह कुछ बोलने की स्थिति में नहीं था। पत्तों से उसका मुंह ठुसा पड़ा था। बुदबुदाते उसके होंठों से लग रहा स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च - मई, 2002 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था, जैसे वह कह रहा हो, 'मुझे मारो!' जड़-चेतन से तटस्थ तुमसे विवाह नहीं करूंगी। पहले इसको मार डालो...।' होकर मैंने उसके किमोनो में तलवार भोंक दी। मेरी नजर उसने कई बार ये शब्द दोहराए। जैसे मुझे मरवाने की जिद बराबर शून्य पर थी। नहीं तो बेहोशी पुनः मुझ पर हमला उसके दिमाग पर हावी हुई हो। याद करके टूटता हूं। बोलती। उसके प्राण निकल रहे थे। सूर्य की आखिरी किरण भगवान के लिए आप ही कहिए, आज तक कोई पत्नी अपने में उसका पीला चेहरा चमक उठा। सिसकियां दबाकर मैंने पति के लिए ऐसे शब्द बोली होगी? क्या कभी किसी औरत रस्सी इकट्ठी कर ली। इसके बाद मैं कहां-कहां पहुंची, क्या- ने...! ऐसा इस दुनिया में कभी हुआ होगा...! (घृणा से क्या किया--यह सुनाने की हिम्मत अब बाकी नहीं बची है। चीखता है) उसके शब्द सुनकर डाकू का चेहरा फक पड़ एक बात जरूर है कि मैंने मन से मौत को नहीं बुलाया। गया। वह उसके साथ चिपकती जा रही थी और मुझे मारने मुझमें वह साहस नहीं था। नहीं तो वह तलवार कई बार मैंने के लिए बराबर उकसा रही थी। गले पर फेरी थी। एक जगह पहाड़ की तलहटी से कूदने की उसका उत्तर दिए बिना डाकू ने दुबारा उसको जमीन कोशिश की थी। आत्महत्या के कई असफल प्रयास किए। पर गिराया। घृणा से चिल्लाकर 'छीः छीः' कहा। कुछ देर आज निर्लज्ज होकर आप लोगों में जिंदा खड़ी हूं। तक चुप्पी छाई रही। इसके बाद डाकू उठकर मेरे पास (अकेलेपन की फीकी मुस्कराहट) आकर बोला, 'तुम इसके साथ कैसा व्यवहार करोगे? जिंदगी में मैं हर प्रकार से बेकार हूं। मेरी प्रार्थना है बोलो? तुम तो सिर्फ सिर हिला रहे हो। क्या इसको मार कि मेरे साथ दया का व्यवहार किया जाए। मुझे छोड़ा जाए। डालोगे?' मैंने जान-बूझकर उसको नहीं मारा। मैं विवश थी। डाकू ने बेचारा डाकू! उसके ये वचन ही उसका अपराध मुझे आक्रामक बनाया था। मैं क्या कर सकती थी.... आधा कर गए। मैं हिचकिचा रहा था। तभी वह झाड़ी से (सिसकियां) निकल भागी। उसको पकड़ने के लिए डाकू पीछे दौड़ा, पर किसी माध्यम द्वारा मृतक के मुख से वह पकड़ न पाया। वापस आकर उसने मेरे हथियार उठा डाकू ने मेरी पत्नी को डराया, धमकाया और फिर लिए। तलवार से मेरी रस्सी काटी। मैं आजाद हो गया। चिकनी-चपडी बातें करने लगा। देवदार के साथ बंधा मैं जाते हुए वह फुसफुसा रहा था, 'मेरे भाग्य में उसे अगले क्या करता? मुंह में पत्ते ठंसे थे। बोल तक न पाया। इसके जन्म में पाना लिखा होगा।' सब शांत हुआ। नहीं, कहीं से बावजूद संकेतों से मैंने उसको डाक के बहकावे में न आने रोने की आवाज आई। कान लगाकर मैंने सुना, वह खुद मेरी का आदेश दिया, लेकिन वह निर्लज्ज टांगें पसारे डाक की आवाज थी। (लंबी खामोशी) थके शरीर को मैंने दीवार के बातों में रस ले रही थी। वह कभी एक विषय पर बात साथ खड़ा किया। मेरे सामने वह तलवार दिपदिपा रही थी. करता. कभी दूसरे पर। यह देखकर मझे आग लग गई। जिसे वह छोड़कर गई थी। मैंने धीरे से तलवार उठाई और वह मेरी पत्नी से बोला, 'तुम्हारी पवित्रता पर धब्बा अपनी छाती में भोंकी। मुंह से खून छलक आया। पीड़ा नहीं लग चुका है। पति के साथ तम पहले जैसी खश नहीं हुई। छाती ठडी पड़ने लगी। रहोगी। बेहतर है कि तम मेरी पत्नी बन जाओ। देखो. प्रेम चारों तरफ शांति छा गई। आह! कितनी सम्मोहक के अतिरेक ने मुझे आक्रामक बनाया है।' डाकू के शब्द शांति थी। पहाड़ के ऊपर वेदियां खाली पड़ी थीं। वहां एक सुनकर उस पर मूच्र्छा-सी छा गई। वह अद्भुत रूप से भी पक्षी न था। प्रकाश कम हो रहा था। बांस और देवदार सुंदर लगने लगी। मैंने जीवन-भर उसका ऐसा सुंदर रूप अंधेरे में विलीन हो चुके थे। मैं परम मौन को समर्पित हो कभी नहीं देखा था। बंधा हुआ मैं सुन्न पड़ता गया। डाकू रहा था। कुछ देर बाद मुझे यूं लगा, जैसे कोई रेंगते हुए की बातों के उत्तर में वह क्या बोली, ठीक से याद नहीं। मेरे पास सरक आया। मैंने पूरी कोशिश की, उसे देख लूं, हलका-सा याद है वह कुछ यूं बोली थी, 'मुझे साथ ले लेकिन ऐसे भयानक अंधकार में कुछ दिखाई न पड़ा। जाओ।' इसके अपराधों का अंत अभी नहीं हुआ है। ऐसा किसी ने मेरी छाती में से तलवार निकाली। उन अदृश्य होता, तो मैं इस अंधेरे में चिथड़ा-चिथड़ा न होता। हाथों को मैं न देख पाया। एक बार फिर मुझे खून की इसके बाद वह डाकू के साथ गलबहियां करती हुई उलटी हुई, फिर सदा के लिए मैं अंधकार के साथ एक हो मेरी तरफ इशारा करके बोली, 'मारो इसको। नहीं तो मैं गया। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 | अनेकांत विशेष.123 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਫਨੀਰ ਤ साधना का सत्य यह जो दिया लिए तुम चले खोजने सत्य, बताओ क्या प्रबंध कर चले कि जिस बाती का तुम्हें भरोसा वही जलेगी सदा अकंपित, उज्ज्व ल एकरूप, निधूम । क्या हमीं रहे? जागरण-क्षण रूप रूप रूप हम पिघले विवश बहे। तब उसने जो सब रिक्तों में भरा हुआ है अपने भेद कहे। सत्य अनावृत के वे जिसने वार सहे क्या हमीं रहे? बरसों की मेरी नींद रही। बह गया समय की धारा में जो, कौन मूर्ख उसको वापस मांगे? मैं आज जागकर खोज रहा हूं वह क्षण जिससे मैं जागा हूं। जीवन-छाया प्राप्ति स्वयं पथ भटका हुआ खोया हुआ शिशु जुगनुओं को पकड़ने को दौड़ता है किलकता है : 'पा गया! मैं पा गया!' पुल पर झुका खड़ा मैं देख रहा हूं अपनी परछाहीं सोते के निर्मल जल परतल पर, भीतर नीचे पथरीले-रेतीले थल पर : अरे, उसे ये भेद-भेद जाती हैं कितनी उज्ज्वल रंगारंग मछलियां! एक हवा-सी बार-बार द्वारहीन द्वार जैसे अनाथ शिशु की अर्थी को ले जाते हैं लोग : उठाए गोद, मगर तीखी पीड़ा के बोध बिना, वैसे ही एक हवा-सी बार-बार ढोती स्मृतियों का भार थकी-सी मुझमें होकर बह जाती है। द्वार के आगे और द्वार: यह नहीं कि कुछ अवश्य है उनके पारकिंतु हर बार मिलेगा आलोक झरेगी रस-धार। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 124. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालन TED Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..पर उनकी चेतना और उनका व्यक्तित्व इतिहास पर समाप्त नहीं, देश-काल पर खत्म नहीं। वे एक जन्मजात योगी हैं। देशकालभेदी यौगिक चेतना लेकर ही वे जन्मे हैं। लोक के लिए उनकी संवेदना और सहानुभूति महज मानसिक और प्रासंगिक नहीं, वह प्रज्ञानात्मक और आध्यात्मिक है। प्रासंगिक समस्याओं का समाधान भी वे वस्तुओं के मूल में जाकर, अपने प्रज्ञान के केंद्र में खोजते हैं। अपने युग की धार्मिक, मानसिक, दार्शनिक, अर्थ-राज-समाजनैतिक वस्तु-स्थिति का वे एक मौलिक विश्लेषण करते हैं, जो कि समस्या को अनायास ही आध्यात्मिक, सार्वभौमिक और सार्वकालिक स्तर पर संक्रांत कर देता है।...और अचानक ही मैं देखता हूं, कि मेरे महावीर की वाणी में, हमारे आज के जगत की तमाम समस्याएं ज्यों की त्यों प्रतिबिंबित हो उठती हैं। स्पष्ट लग उठता है कि ठीक इस पल के हमारे भारत और विश्व को लक्ष्य करके बोल रहे हैं भगवान महावीर। और जिस अतिक्रांति की बात करते हैं, ठीक वही हमारे वर्तमान युग की तमाम दुश्चक्र-ग्रस्त समस्याओं को सुलझाने का एकमात्र कारगर उपाय प्रतीत होता है। लेकिन इस अतिक्रांति की मूलगामी रोशनी को पाने के लिए और उसे अपने युग के जगत में घटित करने के लिए मेरे महावीर इतिहास के बाहर खड़े हो जाते हैं। मौजूदा अनाचारी व्यवस्था के दुष्चक्र को तोड़कर, उसे एक अभीष्ट संवादी दिशा में मोड़ देने के लिए उन्हें यह अनिवार्य लगता है, कि वे इस व्यवस्था से निर्वासित होकर ही इसकी नाशग्रस्त जड़ों में विस्फोट की सुरंगें लगा सकते हैं। वीरेन्द्रकुमार जैन Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांठ : उद्भव एवं विकास डॉ. अधीककुमार जैन । RRHOIRANGNANTRA अनेकांत को सर्वथा अनेकांठल्य मानने पर अनेकांववादी को स्व-मत हानि का प्रसंग प्राप्त होता है क्योकि अनेकठिवाद में सर्वथा नियम का त्याम हा अर्थात किसी भी वस्तु-तत्व का प्रतिपादन करते समय सर्वथा शब्द का प्रयोग वर्जित है। गत्येक दर्शन या धर्म के प्रवर्तक की एक विशेष अज्ञानवादियों के 67 तथा विनयवादियों के 32 प्रकार दृष्टि होती है जो उनके दर्शन का आधार होती बतलाए गए हैं। है, जैसे भगवान बुद्ध की अपने धर्म प्रवर्तन में मध्यम ज्ञानी मनुष्य सत्य के प्रति समर्पित होता है। वह ऐसा प्रतिपदा दृष्टि है या शंकराचार्य की अद्वैत दृष्टि है। जैन कोई वचन नहीं बोलता जिसमें सत्य की प्रतिमा खंडित हो। दर्शन के प्रवर्तक महापुरुषों की भी उसके मूल में एक विशेष सत्य हैद्रव्य और पर्याय। भगवान महावीर ने अपने दृष्टि रही है, जिसे हम 'अनेकांतवाद' कहते हैं। जैन दर्शन समय में आत्मा, लोक, कर्म, शरीर आदि के संबंध में होने का समस्त आचार-विचार इसी पर अवलंबित है। इसी से वाले प्रश्नों का समाधान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव दृष्टि जैन दर्शन अनेकांतवादी दर्शन कहलाता है। वस्तु सत् ही है से करके विभिन्न मतवादों में समन्वय स्थापित करने का या असत् ही है, नित्य ही है अथवा अनित्य ही है—इस प्रयास किया जो उनकी अनेकांत दृष्टि का परिचायक है। प्रकार की मान्यता को एकांत कहते हैं और उसका वस्तु के बारे में अनाग्रह के दृष्टिकोण का विकास ही निराकरण करके वस्तु को अपेक्षा भेद से सत्-असत्, नित्य अनेकांत व्यवस्था का मूल आधार है। अपने ही पक्ष को अनित्य आदि मानना अनेकांतवाद है। सत्य मानने और दूसरे की दृष्टि का तिरस्कार करने से __आगम युग में अनेकांत प्राचीन तत्त्व-व्यवस्था में विसंवादों की समाप्ति संभव नहीं है। सूत्रकृतांग में लिखा भगवान महावीर ने क्या नया अर्पण किया-इसे जानने के हैलिए आगमों के अतिरिक्त हमारे पास कोई साधन नहीं है। सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं। भगवान महावीर के काल में 363 मतवाद थे यह जे उ तत्थ विउस्संति संसारं ते विउस्सिया।। समवायगत सूत्रकृतांग के विवरण तथा सूत्रकृतांग नियुक्ति । अर्थात् अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मतों से ज्ञात होता है। यथा की निंदा करते हुए जो गर्व से उछलते हैं वे संसार (जन्मअसियसयं किरियाणं अक्किरियाणं च होइ चुलसीति। मरण) की परंपरा को बढ़ाते हैं। अन्नाणिय सत्तट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसा।। उपर्युक्त श्लोक के पाद-टिप्पण में आचार्यश्री तेसि मताणुमतेणं पन्नवणा वण्णिया इहऽज्झयणे। महाप्रज्ञजी ने लिखा है-अपने सिद्धांत की प्रशंसा और सब्भावणिच्छयत्थं समोसरणमाहु तेणं ति।। दसरे सिद्धांत की गर्दा करना वर्तमान की ही मनोवत्ति नहीं (सूत्रकृताङ्ग नियुक्ति गाथा, 112-113) है, यह पुरानी मनोवृत्ति है। 'यही सत्य है, दूसरा सिद्धांत सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध के समवसरण अध्ययन सत्य नहीं है' इसी आग्रह ने संघर्ष को जन्म दिया है। में चार प्रमुख वादों का वर्णन प्राप्त होता है-1. क्रियावाद, इदमेवैकं सत्यं, मम सत्यं' इस आग्रह से जो असत्य जन्म 2. अक्रियावाद, 3. अज्ञानवाद, 4. विनयवाद। इनमें लेता है, उससे बचने के लिए अनेकांत को समझना क्रियावादियों के 180, अक्रियावादियों के 84, आवश्यक है। अनेकांत दृष्टि वाला दूसरे सिद्धांत के विरोध पिया हा स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 | अनेकांत विशेष. 127 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में या प्रतिपक्ष में खड़ा नहीं होता, किंतु सत्य को सापेक्ष दृष्टि से स्वीकार करता है। नियतिवादी नियति के सिद्धांत को ही परम सत्य मानकर दूसरे सिद्धांतों का खंडन करते थे, तब भगवान महावीर ने कहा- 'नियतिवाद ही तत्त्व हैइस प्रकार का गर्व दुख से पार पहुंचाने वाला नहीं है, दुख के जाल में फंसाने वाला है।' इस श्लोक को अनेकांतदृष्टि की पृष्ठभूमि के रूप में देखा जा सकता है। सर्वज्ञाय निरस्तबाधकधिये स्याद्वादिने ते नम स्तात्प्रत्यक्षमलक्षयन् स्वमतमभ्यस्याप्यनेकान्तभाक् । तत्त्वं शक्यपरीक्षणं सकलविन्नैकान्तवादी ततः, प्रेक्षावानकलङ्क याति शरणं त्वामेव वीरं जिनम् ।। होता है, अतः एकांतवादी बौद्ध आदि अपने मत का अभ्यास प्रमाण और नय से जीवादि तत्त्वों का सम्यक् ज्ञान करके, प्रत्यक्ष से ग्राह्य और परीक्षा करने के लिए शक्य भी पं. सुखलाल संघवी ने सन्मति तर्क की प्रस्तावना में अनेकांत के ऐतिहासिक विकास के संबंध में लिखा है— 'भगवान महावीर से पहले भारतीय वांग्मय में अनेकांत दृष्टि नहीं थी, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, प्राचीन अनेकांतात्मक तत्त्व की ओर लक्ष्य नहीं करते। अतः वे सर्वज्ञ नहीं हो सकते। इसलिए विचारशील निर्दोष परीक्षक जन आप वीर जिनेंद्र की ही शरण में जाते हैं। अतः जैन आगमों के पूर्ववर्ती और सम-समयवर्ती दूसरे दार्शनिक सर्वज्ञता, दोष और आवरण से रहित ज्ञानवान तथा स्याद्वादी आपके लिए हमारा नमस्कार है। साहित्य के साथ तुलना करने पर यह तो स्पष्ट ही लगता है कि अनेकांत दृष्टि का स्पष्ट एवं व्यवस्थित निरूपण तो भगवान महावीर के उपदेशरूप माने जाने वाले जैन आगमों में ही है। उपलब्ध जैन अंग ग्रंथों में अनेकांत दृष्टि की तथा उसमें से फलित होने वाले दूसरे वादों की चर्चा तो है, परंतु वह बहुत संक्षिप्त, बहुत ही थोड़े ब्यौरे वाली तथा कम उदाहरणों वाली है । आगम के निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णि जैसे प्राकृत साहित्य में यह चर्चा बहुत लंबी तो अवश्य दिखाई पड़ती है, परंतु उसमें तर्क शैली एवं दार्शनिक वाद-प्रतिवाद बहुत ही कम हैं। जैन वांग्मय में संस्कृत भाषा का और उसके द्वारा तर्क शैली तथा दार्शनिक खंडनमंडन का प्रवेश होते ही अनेकांत की चर्चा विस्तृत बनती है, उसमें नई-नई सचाइयों का समावेश होता है। ईसा के बाद होने वाले जैन दार्शनिकों ने जैन तत्त्वविचार को अनेकांतवाद के नाम से प्रतिपादित कर भगवान महावीर को उस वाद का उपदेशक बताया है। 'लघीयस्त्रय' में आचार्य अकलंक ने लिखा है— 128 • अनेकांत विशेष आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने लिखा हैअनेकांत ने तत्त्व की व्याख्या की । तत्त्व के दो पहलू हैं। एक है द्रव्य और दूसरा है पर्याय । द्रव्य मूल में होता है और पर्याय अपर होता है। परिवर्तन के बिना कोई अपरिवर्तनीय नहीं होता और अपरिवर्तन के बिना कोई परिवर्तन नहीं होता परिवर्तन और अपरिवर्तन — दोनों साथ-साथ चलते हैं। एक मूल में रहता है और एक फूल में रहता है। फूल हमें दिख जाता है। मूल गहरे में होता है, सामने नहीं दिखता। कभी-कभी कुछेक लोग मूल को उखाड़ने का प्रयत्न करते हैं वे परिवर्तन को स्वीकार करते हैं। मूल को अस्वीकार करते हैं। कभी-कभी कुछेक लोग मूल पर ही अपना सारा ध्यान केंद्रित कर देते हैं और सामने दीखने वाले फूल को अस्वीकार कर देते हैं। वह एकांगी दृष्टिकोण है। अनेकांत ने दोनों को स्वीकृति दी। मूल का भी मूल्य है और फूल का भी मूल्य है। प्राचीन दार्शनिक मतों, वादों और दृष्टिकोणों के अध्ययन के लिए सूत्रकृतांग का अत्यंत महत्त्व है। इस आगम में भिक्षु कैसी भाषा का प्रयोग करे ? इस प्रश्न के प्रसंग में बताया गया है स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती इसको स्पष्ट करते हुए पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने लिखा है— विचार करने पर वस्तु तत्त्व अनेकांतात्मक ही सिद्ध होता है, फिर भी जो एकांतवादी हैं—वे अपने मत के अभ्यास से इतने बंध गए हैं कि प्रत्यक्ष से प्रतीत और जिसकी परीक्षा भी की जा सकती है, ऐसे तत्त्व को भी दुर्लक्ष्य करते हैं। तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को न जानने वाले एकांतवादी कैसे सर्वज्ञ हो सकते हैं ? इसी से विचारक जन स्याद्वादी महावीर भगवान की शरण में जाते हैं, क्योंकि वे सर्वज्ञ हैं, उनके ज्ञान की सब अंतरंग और बाह्य बाधाएं दूर हो गई हैं। संकेज्ज याऽसंकितभाव भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा । मार्च - मई, 2002 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासादुगं धम्मसमुट्ठितेहिं लोक, आत्मा आदि को अव्याकृत कहकर छोड़ दिया। वियागरेज्जा समयाऽऽसुपण्णे।। (1/14-22) भगवान महावीर ने उनका निरूपण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की दृष्टि से किया। गुण व पर्यायों को धारण करने वाली भिक्षु किसी पदार्थ के प्रति अशंकित हो, फिर भी वस्तु स्वयं एक द्रव्य है। उस द्रव्य का आकार या संस्थान सत्य के प्रति विनम्र होकर प्रतिपादन करे। प्रतिपादन में उसका क्षेत्र है, क्योंकि आकार क्षेत्रात्मक परिमाण वाला विभज्यवाद (भजनीयवाद या स्याद्वाद) का प्रयोग करे। होता है। परिणमनशील पर्याय उस द्रव्य का काल है, आशुप्रज्ञ मुनि धर्म के लिए समुत्थित पुरुषों के साथ विहार क्योंकि पर्यायों की स्थिति काल परिमाण वाली होती है। करता हुआ दो भाषाओं (सत्य भाषा और व्यवहार भाषा) । उसके गुण द्रव्य के स्वभाव कहलाते हैं क्योंकि वे भावात्मक का समतापूर्वक प्रयोग करे। इस श्लोक में प्रयुक्त शंकित होते हैं। प्रत्येक वस्तु स्वचतुष्टय की अपेक्षा से सत् है का तात्पर्य संदिग्ध नहीं किंतु अनाग्रह है। और परचतुष्टय की अपेक्षा से असत् है, जैसा कि स्वामी विभज्यवाद के चूर्णिकार ने दो अर्थ किए हैं- समन्तभद्र ने लिखा हैभजनीयवाद या अनेकांतवाद। तत्त्वार्थ के प्रति अशंकित न सदेव सर्वं को नेच्छेत्स्वरूपादि चतुष्टयात्। होने पर भजनीयवाद का सहारा लेकर मुनि कहे-मैं इस असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते।। विषय में ऐसा मानता हूं। इस विषय की विशेष जानकारी के (आप्तमीमांसा, 15) लिए अन्य विद्वानों को भी पूछना चाहिए। दर्शन-युग में अनेकांतविभज्यवाद का दूसरा अनेकांत के फलित हैं-नयवाद और आचार्य कुन्दकुन्द ने वस्तुअर्थ है-अनेकांतवाद। जहां सप्तभंगीवाद। इन्हीं दो सिद्धांतों में स्वरूप के निरूपण में निश्चय परवर्ती आचार्यों ने सूक्ष्म रूप से गहन नय और व्यवहार नय की दृष्टि जैसा उपयुक्त हो वहां अपेक्षा चर्चा कर अनेक प्रश्नों का सयोक्तिक का सहारा लेकर वैसा प्रतिपादन का प्रयोग किया। आगम में जहां समाधान किया। तात्त्विक और आचारकरे। अमुक वस्तु नित्य है या द्रव्य और पर्याय का भेद और मीमांसा में अनेकांत के विविध प्रयोग अभेद माना गया है वहां आचार्य अनित्य? ऐसा प्रश्न करने पर जैन दार्शनिक साहित्य में उपलब्ध हैं। अमुक अपेक्षा से यह नित्य है, स्पष्ट करते हैं कि द्रव्य और आचार्य महाप्रज्ञ ने 'जैन दर्शन और अमुक अपेक्षा से यह अनित्य अनेकांत' में लिखा है कि-अनेकांत का पर्याय का भेद व्यवहार के है-इस प्रकार उसको सिद्ध अर्थ है-अभिन्नता को स्वीकार करना आश्रय से है, जबकि निश्चय से करे। और भिन्नता में सह-अस्तित्व की दोनों का अभेद है। प्रवचनसार संभावना को खोजना। प्रत्येक द्रव्य का और पंचास्तिकाय ग्रंथों में द्रव्य, वृत्तिकार ने विभज्यवाद स्वतंत्र अस्तित्व है। अनेकांत सह गुण, पर्याय तथा सप्तभंगीवाद के तीन अर्थ किए हैं अस्तित्ववादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत कर का निरूपण किया गया है। 1. पृथक्-पृथक् अर्थों का निर्णय पक्ष के साथ प्रतिपक्ष की स्थिति को । करने वाला, 2. स्याद्वाद और तत्त्वार्थ सूत्र में वस्तु के अनिवार्य मानता है। हमें 'परस्परोपग्रहो 3. अर्थों का सम्यक् विभाजन जीवानाम्' सूत्र को दृष्टिगत रखते हुए अधिगम में प्रमाण और नय को करने वाला वाद। जैसे द्रव्य की वैयक्तिक, सामाजिक, धार्मिक एवं साधन कहा गया है। यद्यपि यहां अपेक्षा से नित्यवाद, पर्याय की राजनीतिक समस्याओं के निराकरण में अनेकांत शब्द नहीं है, परंतु अपेक्षा से अनित्यवाद। सभी अनेकांत दृष्टि का प्रयोग करना चाहिए। वस्तु-लक्षण में 'उत्पादव्ययपदार्थों का अस्तित्व अपनेवर्तमान संदर्भो के परिप्रेक्ष्य में जैन ध्रौव्ययुक्तं सत्' तथा अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और दार्शनिक ग्रंथों का अनुशीलन 'अर्पितानर्पित सिद्धेः' सूत्रों में भाव की अपेक्षा से है। परद्रव्य, अपेक्षित है। अनेकांत की दृष्टि स्पष्ट रूप से क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा परिलक्षित है। 'अर्पितानर्पित से नहीं है। सिद्धेः' सूत्र को स्पष्ट करते हुए भगवान बुद्ध ने जिन तात्त्विक प्रश्नों...-जैसे- पं. सुखलाल संघवी ने लिखा है प्रत्येक वस्तु अनेक स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष • 129 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मात्मक है, क्योंकि अर्पित-अर्पणा अर्थात् अपेक्षा विशेष से और अनर्पित अनर्पणा अर्थात् अपेक्षांतर से विरोधी स्वरूप सिद्ध होता है। - परस्पर विरुद्ध, किंतु प्रमाण सिद्ध धर्मों का समन्वय एक वस्तु में कैसे हो सकता है तथा विद्यमान अनेक धर्मों में से कभी एक का और कभी दूसरे का प्रतिपादन क्यों होता है, यही इस सूत्र में दर्शाया गया है— जिसे आचार्य अमृतचन्द ने निम्नांकित श्लोक में और अधिक स्पष्ट किया एकेनाकर्षयन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थान नेत्रमिव गोपी ।। (पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, 225) जिस प्रकार दधि मंथन करने वाली ग्वालिनी मधानी की रस्सी को एक हाथ से आकर्षित करती है, दूसरे से ढीली कर देती है और दोनों की क्रिया से दही से मक्खन बनाने की सिद्धि करती है, उसी प्रकार जिनवाणीरूपी ग्वालिनी सम्यक् दर्शन से तत्त्व स्वरूप को अपनी ओर खींचती है, सम्यक् ज्ञान से पदार्थ के भाव को ग्रहण करती है और दर्शन, ज्ञान की आचरण रूप क्रिया से अर्थात् सम्यक् चारित्र से परमात्मपद सिद्धि करती है। अनेकांत की चर्चा विस्तृत रूप से आचार्य समन्तभद्र तथा सिद्धसेन के ग्रंथों में उपलब्ध होती है। उनके ग्रंथों में अनेकांत शब्द भी उपलब्ध होता है। नयों के प्रसंग में आचार्य सिद्धसेन ने लिखा है— ण य तइओ अत्थि णओ ण य सम्मत्तं ण तेसु पडिपुण्णं । जेण दुवे एगंता विभज्नमाणा अणगंती ।। (सन्मति प्रकरण 1 / 14 ) इस गाथा की व्याख्या में लिखा है, मिथ्यापना और सम्यक्पना — ये दोनों विरुद्ध धर्म एक आश्रय में कैसे संभव हैं? इसका उत्तर देते हुए कहा गया- 'जब ये दोनों नय एक-दूसरे से निरपेक्ष होकर केवल स्व विषय को ही सद्रूप से समझने का आग्रह करते हैं, तब अपने-अपने ग्राह्य एक-एक अंश में संपूर्णता मान लेते हैं और इसीलिए ये मिथ्या रूप है, परंतु जब ये ही दोनों नय परस्पर सापेक्ष रूप से प्रवृत्त होते हैं— अर्थात् दूसरे प्रतिपक्षी नय का निरसन किए बिना उसके विषय में तटस्थ रहकर जब अपने वक्तव्य का प्रतिपादन करते हैं तब दोनों में सम्यकृपना आता है, क्योंकि ये दोनों नय एक-एक अंशग्राही होने पर भी एकदूसरे की अवगणना किए बिना अपने-अपने प्रदेश में प्रवर्तित 130 • अनेकांत विशेष होने से सापेक्ष हैं और इसीलिए दोनों यथार्थ हैं।' आप्तमीमांसा में भी लिखा है— निरपेक्षा नयो मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत । । अर्थात् निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं और सापेक्ष नय सम्यक् होते हैं। अनेकांत की अनेकांतरूपता— स्वामी समन्तभद्र ने अनेकांत को भी अनेकांतरूप कहा है। वे लिखते हैं अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । अनेकांतः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात् ॥ (अर जिन स्तवन, 18 ) अर्थात् अनेकांत भी प्रमाण और नय साधनों को लिए हुए अनेकांतस्वरूप है। वह प्रमाण की अपेक्षा से अनेकांतरूप है और विवक्षित नय की अपेक्षा से एकांतरूप है। यहां प्रश्न है कि जिस प्रकार जीवादि समस्त पदार्थ अनेकांतरूप हैं, क्या उसी प्रकार अनेकांत भी अनेकांतरूप है? इस प्रश्न का तात्पर्य यह है कि अनेकांत को सर्वथा अनेकांतरूप मानने पर अनेकांतवादी को स्व-मत हाि प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि अनेकांतवाद में सर्वथा नियम का त्याग है, अर्थात् किसी भी वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन करते समय सर्वथा शब्द का प्रयोग वर्जित है । उक्त प्रश्न के समाधान में आचार्य अकलंक ने 'तत्त्वार्थवार्तिक' में लिखा है— प्रमाण और नय की विवक्षा से भेद है। एकांत दो प्रकार का है— सम्यक् एकांत और मिथ्या एकांत अनेकांत भी सम्यक अनेकांत और मिथ्या अनेकांत के भेद से दो प्रकार का है। प्रमाण के द्वारा निरूपित वस्तु के एक देश को हेतु विशेष के सामर्थ्य की अपेक्षा से ग्रहण करने वाला सम्यक् एकांत है। एक धर्म क सर्वथा (एकांत रूप से) अवधारण करके अन्य धर्मों का निराकरण करने वाला मिथ्या एकांत है। एक वस्तु में युक्ति और आगम से अविरुद्ध अनेक विरोधी धर्मों को ग्रहण करने वाला सम्यक् अनेकांत है तथा वस्तु को तत् तत् आदि स्वभाव से शून्य कहकर उसमें अनेक धर्मों की मिथ्या कल्पना करने वाला अर्थशून्य वाग्विलास मिथ्या अनेकांत है। सम्यक एकांत नय कहलाता है तथा सम्यक अनेकांत प्रमाण । अखंडित चित्रण रूप ज्ञान को ही आगम में प्रमाण शब्द का वाच्य बनाया गया है, क्योंकि इसमें कोई संशय या स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च - मई, 2002 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपरीतपना या क्या-कुछ है या नहीं इस प्रकार के हैं—भिन्न नहीं हैं तो द्रव्य लक्षण में उन दोनों का निवेश अनध्यवसायपने का अभाव रहता है, इसीलिए इसी किसलिए किया गया है? इस प्रश्न का सूक्ष्मप्रज्ञता से भरा अखंडित चित्रण रूप प्रमाण ज्ञान को ही सम्यक् ज्ञान कहा हआ उत्तर देते हुए आचार्य विद्यानन्द 'तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक' जाता है। अखंडित चित्रण बन जाने के पश्चात् धारा रूप में कहते हैंचित्रण वाले ज्ञान में पड़े हुए पृथक-पृथक भाव जो धारा गुणवद् द्रव्यमित्युक्तं सहानेकान्तसिद्धये। प्रवाही वचनों से पर से ग्रहण करने में आए हैं, नय ज्ञान तथा पर्यायवद् द्रव्यं क्रमानेकान्तसिद्धये।। कहलाता है। प्रमाण ज्ञान अनेकांत वस्तु के अनुरूप अखंड चित्रण होने के कारण अनेकांत है और नय ज्ञान उस अर्थात् सहानेकांत की सिद्धि के लिए तो गुणयुक्त को अनेकांत वस्तु के पृथक-पृथक अंशों के खंडित चित्रण होने द्रव्य कहा गया है और क्रमानेकांत के ज्ञान के लिए के कारण एकांगी या एकांत है। पर्याययुक्त को द्रव्य बतलाया गया है और इसलिए गुण सहानेकांत और क्रमानेकांत-अनेकांत के संदर्भ में एक तथा पर्याय दोनों का द्रव्य लक्षण में निवेश युक्त है। महत्त्वपूर्ण चर्चा का प्रारंभ आचार्य सिद्धसेन ने 'सन्मति आचार्य अकलंक ने 'अष्टशती' में अनेकांत को तर्क' में किया। जैन दर्शन में गुण और पर्याय युक्त को द्रव्य - परिभाषित करते हुए लिखा है—'सदसन्नित्यानित्यादिकहा गया है। इस पर शंका की गई कि 'गुण' संज्ञा तो सर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः। जैनेतरों की है, जैनों की नहीं है। जैनों के यहां तो द्रव्य और इस युग में वस्तुगत समस्याओं का निराकरण पर्याय रूप ही तत्त्व वर्णित किया गया है और इसीलिए अनेकांतवाद के द्वारा किया गया। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दो ही नयों का उपदेश दिया आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने लिखा है-अनेकांत ने तत्त्व गया है। यदि गुण भी कोई वस्तु है तो तद्विषयक तीसरा की व्याख्या की। तत्त्व के दो पहल हैं। एक है द्रव्य और गुणार्थिक मूल नय भी होना चाहिए, परंतु जैन दर्शन में दूसरा है पर्याय। द्रव्य मूल में होता है और पर्याय अपर उसका उपदेश नहीं है। होता है। परिवर्तन के बिना कोई अपरिवर्तनीय नहीं होता इस शंका का उत्तर सिद्धसेन, अकलंक और और अपरिवर्तन के बिना कोई परिवर्तन नहीं होता। विद्यानन्द-इन तीनों तार्किकों ने दिया है। सिद्धसेन कहते परिवर्तन और अपरिवर्तन-दोनों साथ-साथ चलते हैं। हैं कि गुण पर्याय से भिन्न नहीं है। पर्याय में ही 'गुण' शब्द एक मूल में रहता है और एक फूल में रहता है। फूल हमें का प्रयोग जैनागम में किया गया है और इसलिए गुण और दिख जाता है। मूल गहरे में होता है, सामने नहीं दिखता। पर्याय एकार्थक होने से पर्यायार्थिक और द्रव्यार्थिक-इन दो कभी-कभी कुछेक लोग मूल को उखाड़ने का प्रयत्न करते ही नयों का उपदेश है. गणार्थिक नय का नहीं-अतः उक्त हैं। वे परिवर्तन को स्वीकार करते हैं। मूल को अस्वीकार शंका युक्त नहीं है। करते हैं। कभी-कभी कुछेक लोग मूल पर ही अपना सारा आचार्य अकलंक का कहना है—'द्रव्य का स्वरूप ध्यान केंद्रित कर देते हैं और सामने दीखने वाले फूल को अस्वीकार कर देते हैं। यह एकांगी दृष्टिकोण है। अनेकांत सामान्य और विशेष है और सामान्य उत्सर्ग, अन्वय, गुण-ये सब पर्यायवाची हैं तथा विशेष, भेद, पर्याय-ये ने दोनों को स्वीकृति दी। मूल का भी मूल्य है और फूल एकार्थक शब्द हैं। इनमें सामान्य को विषय करने वाला नय का भी मूल्य है। द्रव्यार्थिक नय है और विशेष को विषय करने वाला अनेकांतात्मक वस्तु में ही अर्थक्रियाकारित्वपर्यायार्थिक नय है। सामान्य और विशेष इन दोनों का अपृथक सिद्धरूप समुदाय द्रव्य है। इसलिए गुण विषयक जं वत्थु अणेयंतं तं चिय कज्जं करेइ णियमेण । भिन्न तीसरा नय नहीं है, क्योंकि नय अंशग्राही है और बहुधम्मजुदं अत्थं कज्जकरं दीसए लोए।। 225 ।। प्रमाण समुदायग्राही अथवा गुण और पर्याय अलग-अलग जो वस्तु अनेकांतस्वरूप है वही नियम से कार्यकारी नहीं है। गुणों का नाम ही पर्याय है, अतः उक्त दोष नहीं है। होती है, क्योंकि बहुत धर्मों से युक्त अर्थ ही लोक में सिद्धसेन और अकलंक के इस समाधान के बाद फिर कार्यकारी देखा जाता है। किंतु एकांतरूप द्रव्य लेश मात्र भी प्रश्न उपस्थित हुआ कि यदि गुण और पर्याय दोनों एक कार्य करने में समर्थ नहीं होता और जब वह कार्य नहीं कर ::::::::::::::::::HHHHHHHHHH स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 | अनेकांत विशेष. 131 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता तो उसे द्रव्य कैसे कहा जा सकता है, अर्थात् नहीं ही हो सकेगा, क्योंकि दोनों कार्य एक ही स्वभाव से जन्मे हैं कहा जा सकता । और वह स्वभाव नित्य वस्तु में सदा विद्यमान है। उस स्वभाव के सदा विद्यमान रहते हुए भी कार्य एक साथ न होकर आगे-पीछे कैसे हो सकते हैं? शायद कहा जाए कि यद्यपि दोनों कार्य एक स्वभावजन्य हैं, किंतु दोनों के सहकारी कारण भिन्न-भिन्न है. अतः दोनों कार्य क्रम से होते हैं, किंतु ऐसी स्थिति में तो वह कार्य सहकारी कारणजन्य ही कहा जाएगा। जैन दर्शन में वस्तु का स्वरूप कथंचित् नित्यानित्यात्मक है। आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः । क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता ।। (लघीयस्त्रय प्रमाण प्रवेश, 8 ) अर्थात् नित्यपक्ष में और क्षणिक पक्ष में क्रम और अक्रम से अर्थक्रिया नहीं बनती और उस अर्थक्रिया को परमार्थभूत अर्थों का लक्षण माना गया है। बौद्ध आचार्य धर्मकीर्ति ने 'प्रमाणवार्तिक' में लिखा है कि जो अर्थक्रिया करने में समर्थ है वही वस्तु परमार्थ सत है, यथा अर्थक्रियासमर्थं यत् तदत्र परमार्थसत् । अन्यत् संवृति सत् प्रोक्तं ते स्वसामान्यलक्षणे ।। बौद्ध दर्शन विशेषवादी है। सामान्य के विषय में बौद्धों की एक विशिष्ट कल्पना है वे मनुष्य गोत्व आदि को कोई वास्तविक पदार्थ नहीं मानते। जितने मनुष्य हैं वे सब अमनुष्य (गौ आदि) से व्यावृत्त हैं तथा सब एक सा कार्य करते हैं। अतः उनमें एक मनुष्यत्व सामान्य की कल्पना कर ली गई है। सामान्य अर्थक्रिया करने में समर्थ नहीं है। इसी तरह गोत्व सामान्य से दुग्ध दोहन, भार वहन आदि अर्थक्रिया संभव नहीं है, इसलिए सामान्य को काल्पनिक माना गया है। आचार्य अकलंकदेव लिखते हैं कि अर्थक्रिया या तो क्रम से होती है या अक्रम से (अर्थात् युगपत्) होती है, किंतु वस्तु को सर्वथा नित्य या सर्वधा क्षणिक मानने पर न तो क्रम से ही अर्थक्रिया होना संभव है और न अक्रम से ही अर्थक्रिया होना संभव है। इसका खुलासा इस प्रकार है— अर्थक्रिया का मतलब है कुछ काम करना। पहले एक कार्य किया, फिर दूसरा कार्य किया—इसे क्रम कहते हैं। इस प्रकार का क्रम नित्य वस्तु में नहीं बनता, क्योंकि नित्य वस्तु जिस स्वभाव से पहले कार्य को करती है, उसी स्वभाव से यदि दूसरे कार्य को करती है तो दोनों कार्य एक काल में ही हो जाएंगे। इसी तरह नित्य वस्तु जिस स्वभाव से पीछे होने वाले दूसरे कार्य को करती है, यदि उसी स्वभाव से पहले होने वाले प्रथम कार्य को भी करती है तो पहले होने वाला कार्य भी पीछे होने वाले कार्य के काल में 132 • अनेकांत विशेष संभवतः तर्क दिया जाए कि नित्य वस्तु भी तो उपस्थित रहती है, तभी तो कार्य होता है, किंतु अकिंचित्कर नित्य के उपस्थित रहने से भी क्या लाभ है? जिसके रहते हुए भी कार्य नहीं होता और सहकारी कारण के आ जाने पर कार्य होता है। अतः नित्य वस्तु क्रम से कार्य नहीं कर सकती और युगपद् भी कार्य नहीं कर सकती, क्योंकि ऐसी स्थिति में एक ही क्षण में सब कार्यों की उत्पत्ति का प्रसंग उपस्थित हो जाने से आगे के क्षणों में उसे कुछ करने के लिए शेष नहीं रहेगा और ऐसा होने पर वह अर्थक्रिया से शून्य हो जाएगा और अर्थक्रिया से शून्य होने पर नित्य वस्तु का अभाव ही हो जाएगा, वस्तु का अभाव ही हो जाएगा, क्योंकि जो 'अर्थक्रियाकारी होता है—यही वास्तव में सत् है' ऐसा सिद्धांत है अतः नित्य वस्तु न तो क्रम से कार्य करने में समर्थ है और न अक्रम से कार्य करने में समर्थ है, अतः वह अवस्तु ही है, क्योंकि जो क्रम और अक्रम से अर्थक्रिया नहीं करता, वह वस्तु नहीं है—जैसे आकाश के फूल । अब प्रश्न उठता है कि नित्य पदार्थ में कार्य करने का स्वभाव सर्वदा रहता है, अथवा कभी-कभी? यदि सर्वदा रहता है तो सर्वदा ही सब कार्यों की उत्पत्ति हुआ करेगी, क्योंकि नित्य पदार्थ में कार्यों को उत्पन्न करने का स्वभाव सदा विद्यमान रहता है। यदि कभी-कभी रहता है तो इसका यह मतलब हुआ कि नित्य पदार्थ पहले तो कार्य को उत्पन्न करने में असमर्थ रहता है और पीछे वह उसे करने में समर्थ हो जाता है। तब पुनः प्रश्न होता है कि जब वह नित्य पदार्थ कार्य को उत्पन्न करता है तो उस समय अपने असमर्थपने को छोड़ देता है या नहीं? यदि नहीं छोड़ता, तब तो वह उस कार्य को कभी भी उत्पन्न नहीं कर सकता, क्योंकि जो वस्तु जिस कार्य को उत्पन्न करने में असमर्थ अपने पूर्व स्वभाव को नहीं छोड़ती, वह वस्तु उस कार्य को कभी भी उत्पन्न नहीं कर सकती। जैसे जी से शालि धान्य के अंकुर कभी भी उत्पन्न नहीं होते। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च - मई, 2002 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि नित्य वस्तु अपने पूर्व असमर्थ स्वभाव को अर्थक्रिया नहीं बनती तो न बने, उससे क्या हानि है? किंतु कार्यकाल में छोड़ देती है तो उसे सर्वथा नित्य नहीं कहा जा ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सभी आस्तिक दर्शनों ने सकता, क्योंकि जो वस्तु अपने पूर्व स्वभाव को छोड़ देती है अर्थक्रिया को ही वस्तु का लक्षण माना है। अतः अर्थक्रिया वह नित्य एकरूप नहीं रहती। तब तो उसे परिणामी मानना से सत्त्व व्याप्य है। नित्य और क्षणिक पक्ष में व्यापक होगा, क्योंकि परिणामी हुए बिना पूर्व स्वभाव का परित्याग अर्थक्रिया के अभाव में व्याप्य सत्त्व का भी अभाव सिद्ध करके समर्थ स्वभाव का ग्रहण नहीं बन सकता। पूर्व स्वभाव होता है और चूंकि सत्त्व प्रत्यक्षसिद्ध है, अतः वह अपनी का त्याग और उत्तर स्वभाव का ग्रहण तो तभी बन सकता व्यापक अर्थक्रिया को बतलाता है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है जब वस्तु अपने एकरूप को छोड़कर परिणमनशील हो परिणति रूप अर्थक्रिया स्वव्यापक क्रम-योगपद्य को और ऐसा होने पर सर्वथा नित्यता का घात होता है। अतः बतलाती है और क्रम-योगपद्य स्वव्यापक अनेकांत को नित्य वस्तु में क्रम और युगपद् अर्थक्रियाकारित्व नहीं सिद्ध करते हैं और एकांत का निषेध करते हैं। अतः बनता। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप परिणाम वाले पदार्थ में ही इसी तरह सर्वथा क्षणिक वस्तु में भी क्रम और अक्रम अर्थक्रिया संभव होने से द्रव्य-पर्यायात्मक अर्थ ही प्रमाण से अर्थक्रिया नहीं बनती। क्षणिक पदार्थ भी क्रम से का विषय होता है। अर्थक्रिया करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि उसमें न देशक्रम एकांतस्वरूप द्रव्य कार्यकारी कैसे नहीं होता? इस ही संभव है और न कालक्रम ही संभव है। बौद्धों का कथन संबंध में स्वामी कमार लिखते हैंहै कि परिणामेण विहीणं णिच्चं दव्वं विणस्सदे णेय। यो यत्रैव स तत्रैव यो यदैव तदैव सः। णो उप्पज्जदि य सदा एवं कज्जं कहं कुणइ।। न देशकालयोाप्तिर्भावानामिह विद्यते।। पज्जयमित्तं तच्चं खणे खणे वि अण्णाणं। अर्थात् जो जहां है—वह वहीं है, जो जिस काल में अण्णइदव्वविहीणं ण य कज्जं किं पि साहेदि।। है वह उसी काल में है। क्षणिकवाद में पदार्थों में न (कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 227-228) देशव्याप्ति संभव है, न कालव्याप्ति संभव है। भाव यह है अपने परिणमन से हीन नित्य द्रव्य सर्वदा न तो कि जो एक क्षणवर्ती होता है उसे क्षणिक कहते हैं। एक विनाश को ही प्राप्त होता है और न उत्पन्न ही होता है, क्षणवर्ती पदार्थ न तो एक देश से दूसरे देश में जा सकता है इसलिए वह कार्य को कैसे कर सकता है, इसलिए अन्वयी और न एक काल से दूसरे काल में जा सकता है और उसके द्रव्य से रहित वह किसी भी कार्य को नहीं साध सकता। बिना क्रम से कार्य करना संभव नहीं है। यदि संभव हो तो अनेकांत के फलित हैं—नयवाद और सप्तभंगीवाद। वह क्षणिक नहीं हो सकता। शायद कहा जाए कि संतान की इन्हीं दो सिद्धांतों में परवर्ती आचार्यों ने सूक्ष्म रूप से गहन अपेक्षा क्रम बन सकता है, किंतु संतान तो अवस्तु है, चर्चा कर अनेक प्रश्नों का सयोक्तिक समाधान किया। वास्तविक नहीं है। यहां प्रश्न है कि संतान ही कार्यकारी है तात्त्विक और आचार-मीमांसा में अनेकांत के विविध प्रयोग या स्वलक्षणरूप क्षणिक अर्थ कार्यकारी है, या दोनों जैन दार्शनिक साहित्य में उपलब्ध हैं। आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने कार्यकारी हैं? यदि संतान कार्यकारी है तो वही वस्तु "जैन दर्शन और अनेकांत' में लिखा है कि-अनेकांत का कहलाएगी, तब क्षणिक वस्तु की कल्पना बेकार है? यदि अर्थ है-अभिन्नता को स्वीकार करना और भिन्नता में स्वलक्षण कार्यकारी है तो संतान अवस्तु ठहरती है, ऐसी सह-अस्तित्व की संभावना को खोजना। प्रत्येक द्रव्य का स्थिति में उसकी अपेक्षा से क्षणिक को कार्यकारी सिद्ध स्वतंत्र अस्तित्व है। अनेकांत सह-अस्तित्ववादी दृष्टिकोण करना भी अवास्तविक ही ठहरेगा। यदि दोनों ही कार्यकारी को प्रस्तुत कर पक्ष के साथ प्रतिपक्ष की स्थिति को हैं तब तो वस्तु कथंचित् नित्यानित्यात्मक ही सिद्ध होती है। अनिवार्य मानता है। हमें 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' सूत्र को अतः क्षणिक अर्थ क्रम से काम नहीं कर सकता। एक साथ दृष्टिगत रखते हुए वैयक्तिक, सामाजिक, धार्मिक एवं भी कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा होने पर कारण के राजनीतिक समस्याओं के निराकरण में अनेकांत दृष्टि का काल में ही कार्य की उत्पत्ति हो जाएगी। प्रयोग करना चाहिए। वर्तमान संदर्भो के परिप्रेक्ष्य में जैन शायद कहा जाए कि यदि क्षणिक और नित्य पक्ष में दार्शनिक ग्रंथों का अनशीलन अपेक्षित है। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष. 133 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांत की वैज्ञानिकता निहालचंद जैन BHISE SHREER अनेकांत का अर्थ है-जीवन के सभी पहलुओं की एक साथ स्वीकृति। अनुभव के अनंत कोण हैं। प्रत्येक कोण पर खड़ा हुआ आदमी सही है। लेकिन भूल वहीं हो जाती है, जब वह अपने कोण को। ही सर्वग्राही बनाना चाहता है। ___ाहावीर जैसा नैसर्गिक और वीतरागी पुरुष -भगवान महावीर ने 'स्याद्वाद और अनेकांत' के खोज पाना मुश्किल है। उनकी दिव्य-देशना आलोक में सह-अस्तित्व को रोशनी दी, प्राण दिए। सहमानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना और प्रतिष्ठा के लिए हुई। अस्तित्व की अनुकंपा से अनेकांत का सिद्धांत आचरण में, -समता, सहिष्णुता, सह-अस्तित्व. संयम और जीवन में रूपायित होता है। स्वतंत्रता के पंचशील सूत्रों ने उन्हें सार्वदशिक और –अनेकांत के आंगन में 'परस्परोपग्रहो जीवानाम' सार्वकालिक बना दिया। का आचार्य उमास्वाति का अमर-सूत्र, पुष्प बनकर फला–महावीर की खोज इंद्रियजनित नहीं. अतींदिय- फूला। प्रत्येक प्राणी सापेक्षता और सह-अस्तित्व से जड़ा मूलक थी। इंद्रियों का संबंध पदार्थों से है। पदार्थ विज्ञान है। एक का उपहार दूसरे को उपकृत कर रहा है। इसके की खोज का मूल है, जबकि अतींद्रिय की खोज-वीतराग बिना न जीवन संभव है और न ही जीवन का विकास। विज्ञान पर टिकी है। -प्रकृति में कुछ भी अकारण नहीं है, भले ही हमारा -वीतराग विज्ञान के हिमालय से समता और । अज्ञान उसमें कारण न ढूंढ़ पाए। मनुष्य मनुष्य से ही नहीं अज्ञान उसम क सहिष्णुता-मूलक सह-अस्तित्व की पावन गंगा अवतरित पता वृक्षों, पेड़-पौधों से भी जुड़ा है। वृक्ष हमारी निश्वासित वायु होती है। उस गंगा को बुलाने के लिए आत्म-पुरुषार्थ का से भोजन बना रहा और बदले में हमें प्राण-वायु दे रहा है। भगीरथ चाहिए। आज विवाद वस्तुओं के कारण नहीं है। विवाद -जीवन-मृत्यु में, जय-पराजय में, सुख-दुख में, है-विचारों के कारण। देखने वाले की दृष्टि के कारण प्रशंसा और निंदा में समताशील बने रहना वीतरागी का विवाद है। हम इसी आग्रह में हैं कि हमें जो दिख रहा है वह करिश्मा हो सकता है। संसारी सुवर्ण और मृत्तिका को संपूर्ण है, वही सत्य है। हमें जो दिख रहा है वह सत्य का समभाव से नहीं देख पाता। एक भाग हो सकता है, संपूर्ण सत्य नहीं। समुद्र में तैरता हिमखंड (आइसवर्ग) समुद्र सतह पर जितना दिखाई दे रहा -सह-अस्तित्व के कार्य में अनाग्रह के बीज छिपे है क्या उतना ही है? नहीं दश्य का लगना उसके भीतर होते हैं। मौजूद है, पानी के अंदर। दृश्य के आधार पर यदि कोई -वस्तुतः संघर्ष का जनक हमारी आग्रहवृत्ति है। जहाज उससे टक्कर लेने लगे तो उसे भारी नुकसान उठाना आग्रहवृत्ति सत्-असत् और हेय-उपादेय को नहीं, स्वार्थ को पड़ सकता है। देखती है। आग्रहवृत्ति जहां है, वहां अविवेक है और अविवेक अनेकांत वस्तु के बहुआयामी गुण-धर्मों में एक संघर्ष और युद्ध रचता है। 'महाभारत' अविवेक का संग्राम समन्वय और सह-अस्तित्व की रचनात्मक भूमिका प्रदान था, जो आग्रह की भूमि पर लड़ा गया था। करता है। कोई वस्तु निरपेक्ष नहीं है। वह अनेक विरोधी स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 134. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मों का समूह है। वस्तु जो भी है, वह संबंधों की एक है। जब वह पृथ्वी पर उतरकर यह अध्ययन करता है, तो वह अमराई है। भाषा केवल उस वस्तु के एक आयाम, गुण या स्वयं आवेश के साथ पृथ्वी पर घूम रहा है, अतः उस आवेश संदर्भ को ही एक समय में व्यक्त कर सकती है। भाषा की के आस-पास कोई चुंबकीय क्षेत्र नहीं पाता। अतः विज्ञान के यह लाचारी है कि वह एक साथ विरुद्ध संदर्भो को सभी निष्कर्ष, सापेक्ष होकर ही समीचीन हो पाते हैं। अभिव्यक्त नहीं कर सकती। ____ 'रिलेटिविटी' किसी वस्तु में स्थित परस्पर विरोधी अध्यात्मवादी डी.टी. सुजकी का कहना है कि भाषा स्थितियों को जानने के लिए बहुत जरूरी है। जैसे—क्रोध हमारी स्वानुभूति को संप्रेषित करने में असमर्थ है। स्वानुभव बुरा है। लेकिन कब? जब यह अपनी बुराई पर न करके भाषा की पकड़ से परे है। विज्ञान में भी ऐसा होता है। जब- बाहरी वस्तुओं या व्यक्तियों पर करते हैं। क्रोध यदि हम जब शब्द असमर्थ हुआ है, उसने गणितीय प्रतीकों की अपने अज्ञान के विनाश के लिए करें तो वह क्रोध सहायता ली है। कल्याणकारी भी बन सकता है। पेड़ की जड़ विरोधी दिशा स्याद्वाद अनेकांतात्मक वस्तु के स्वरूप को बताने में, में जाकर ही उसे आकाश में ऊपर उठाने में मदद करती है। " दो विरोधी तलों के कारण ही समतल का अस्तित्व है। हाथ भाषा की एक व्यवस्था है। वस्तु को, उसकी अस्मिता को की चार अंगुलियां एवं अंगूठे की विरोधी दिशाएं-दशाएं, जानने के लिए चार संदर्भो का ध्यान रखना होगा द्रव्य, हाथ में शक्ति लाती हैं। क्षेत्र, काल और भाव (देश)। अनेकांत का अर्थ है-जीवन के सभी पहलुओं की भगवान महावीर का 'अनेकांत-दर्शन' एकांगिक एक साथ स्वीकृति। अनुभव के अनंत कोण हैं। प्रत्येक कोण दृष्टियों का निराकरण करने, विविध और परस्पर विरोधी पर खड़ा हुआ आदमी सही है। लेकिन भूल वहीं हो जाती है, प्रतीत होने वाली मान्यताओं का समन्वय करने, सत्य का जब वह अपने कोण को ही सर्वग्राही बनाना चाहता है। शोध करने और चिंतन के विविध पक्षों को मणिमाला के समान एक सूत्र में निबद्ध करने के लिए है। वस्तुतः हमारा अहंकार हमें तोड़ता है। अहंकार समस्याएं पैदा करता है। अनेकांत सह-अस्तित्व की भौतिकवेत्ता अल्बर्ट आइन्स्टीन (1905-1919) के वकालत कर समस्याओं का निरसन करके विश्वशांति 'स्पेशल थ्योरी आफ रिलेटिविटी' तथा जैन दर्शन के स्थापना में मुख्य भूमिका निभाता है। सापेक्षता-सिद्धांत के अनेकांतवाद में बहुत समानता है। पहले पदार्थ (matter) और ऊर्जा (energy) दो विभिन्न आइन्स्टीन की घोषणा है-'One thing may be द्रव्य (antities) माने जाते रहे। साथ ही यह धारणा थी कि true but may not be real true. We can know only न तो पदार्थ को ऊर्जा में बदला जा सकता है और न ही the relative truth. The absolute truth is known ऊर्जा को पदार्थ में। लेकिन स्पेशल थ्योरी आफ रिलेटिविटी only by the universal observer'-हम केवल सापेक्ष के द्रव्यमान--ऊर्जा सूत्र E=mc2 के अनुसार यह परस्पर सत्य को ही जान सकते हैं। निरपेक्ष सत्य को सर्वज्ञ ही जान रूपांतरण संभव हो गया। विज्ञान कहता है कि एक सकता है। किलोग्राम उपयुक्त पदार्थ से 9x1016 जूल ऊर्जा प्राप्त की आइन्स्टीन सत्य को दो संदर्भो में लेता है—एक जा सकती है। जैन दर्शन पहले से ही पदार्थ और सापेक्ष सत्य और दूसरा नित्य सत्य। अनेकांतवाद 'सापेक्ष ऊर्जा—दोनों को पुद्गल की पर्याय मानता है। सत्य' पर आधारित है। महावीर-एक संभावनाओं के पुंज-पुरुष रेखांकित आइन्स्टीन इसे एक सटीक उदाहरण द्वारा प्रस्तुत किए जा सकते हैं। महावीर का दर्शन संभावनाओं का करते हैं। अचल विद्युत (Static charge) के आसपास कोई प्रतिफल है। संभावनाओं को ही सारे शास्त्र और ज्ञान चुंबकीय क्षेत्र नहीं होता जबकि चल विद्युत के आस-पास संबोधित हैं। जो निरपेक्ष और अंतिम है—वह महावीर हो चुंबकीय क्षेत्र होता है। गया है। किसी सुदूर ग्रह पर एक वैज्ञानिक बैठा है और पृथ्वी वीतराग-मूर्तियां क्या हैं? पर रखे आवेश पर प्रयोग कर रहा है। पृथ्वी गतिमान है, अतः वहां भौतिक रूप गौण बन गया। इन मूर्तियों में वह देखता है कि आवेश के आस-पास विद्युत-चुंबकीय क्षेत्र अनेकांत की धारणा का कला में वितरण हो गया। रूपाकार स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 जैन भारती अनेकांत विशेष. 135 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होकर भी रूप विसर्जित हो गया। 'ॐकार' आदि प्रतीक अनेकांती को न अहंकार पैदा हो पाता है, न रागादि विचार चिह्न, जीवन संभावनाओं के ही रूप हैं। भाव । आइन्स्टीन के सापेक्षवाद ने निरपेक्ष को मान्यता नहीं दी। उन्होंने वस्तु की संहति (mass), लंबाई, चौड़ाई रूप क्षेत्र को, उसके अबंधित समय को तथा अवगाह रूप जुड़े अंतरिक्ष (स्पेस) को निरपेक्ष नहीं है—ऐसा सिद्ध किया । उन्होंने कहा कि वेग के कारण तथा संदर्भ भेद के कारण अंतर आ जाता है। जैसे प्रकाश-वेग से गतिशील वस्तु की लंबाई, विरामावस्था की वस्तु की लंबाई से कम हो जाती है, जबकि घटनाएं एक साथ घटित हों। लेकिन एक उसे प्रकाश-वेग से गतिमान राकेट में बैठकर देखे और दूसरा स्थिर अवस्था में रहकर देखे, तो दोनों अवलोकनकर्ताओं को वे अलग-अलग समय की दो घटनाएं प्रतीत होगी। - अंतर्गक्षत्रीय यात्राओं में, गति की अवस्थाओं में, वेश के संकुचन एवं काल के प्रसारण के विचित्र परिणाम होते हैं। यदि हम पृथ्वी से एक प्रकाशवर्ष की दूरी पर स्थित एक नक्षत्र की यात्रा पर प्रकाश वेग से जाएं, तो जाने और लौटने में कम से कम 18 वर्ष लगेंगे। लेकिन यह हमारा केवल भ्रम है। यदि हम प्रकाश-वेग से चलें तो हमारी घड़ियां, हृदय पिंड, श्वासोच्छ्वास, रक्त परिवहन, पाचन क्रिया आदि सभी सत्तर हजार गुणन से मंद हो जाएंगे और हमारा एक मिनट पृथ्वीवासियों के सत्तर हजार मिनट के बराबर होगा। 18 वर्ष की पार्थिव अवधि हमारे लिए कुछ घंटों के बराबर होगी। यदि सुबह का नाश्ता लेकर हम वहां पहुंचे तब तक दोपहर की भूख लगेगी और वापस पृथ्वी लौटने तक रात का समय हो जाएगा। लेकिन यहां विचित्र घटना घटेगी। पृथ्वी के 18 वर्ष व्यतीत हो चुके होंगे। वह पुत्र, जो 17 वर्ष छोटा था अपने पिता से, एक वर्ष बड़ा हो जाएगा। विज्ञान के इन तथ्यों से निरपेक्षवाद का खंडन होता है सर्वधा निरपेक्ष कुछ नहीं चल सकता। - समन्तभद्र स्वामी ने युक्त्यनुशासन में कहा है एकांत धर्माभिनिवेशमूला, रागादयोग कृतिना जनानाम्। एकांत हानाच्च यमदेव, स्वाभाविकत्वाच्च सम मनस्ते || 5 || अर्थात् एकांत आग्रह से एकांती, अहंकारी हो जाता है। अहंकार से राग-द्वेष और पूर्वाग्रह हो जाते हैं, जिससे वस्तु स्वरूप का यथार्थ दर्शन नहीं हो पाता । 136 • अनेकांत विशेष - अनेकांत के पथ पर चलकर अहिंसा की साधना सहिष्णु बनती है। इस प्रकार अनेकांत सह अस्तित्व का पक्षधर होता हुआ सहिष्णु होने की बात करता है। वह ऐसा कुछ नहीं करना चाहता कि आपकी हस्ती मिटे और स्वयं भी मिट जाए। । महावीर जानते थे कि मनुष्य का अहंकार अहिंसा का रास्ता रोक लेगा, इसलिए उन्होंने अनेकांतरूपी राडार मनुष्य के हाथ थमाया। अनेकांत के बिना अहिंसा वस्तुतः पंगु है । यदि राष्ट्रीय एकता और भावात्मक एकता को मजबूत बनाना है, विश्व समस्याओं का एक सम्मत समाधान खोजना है, जिससे संघर्ष, रक्तपात रुक सके तो शलाका पुरुष महावीर के अनेकांत को अंगीकार करना होगा। एक वैचारिक क्रांति के द्वार पर बैठे सजग प्रहरी की भांति है यह अनेकांत। इसमें समाजवादी समाज-संरचना और धर्म निरपेक्षता की भावना विद्यमान है अनेकांत के खोलकर, मानवता को गौरवान्वित कर सकता है। गवाक्षों से प्रत्येक व्यक्ति व प्रत्येक संप्रदाय, सत्य के द्वार सत्य दर्शन का त्रिभंगी एवं सप्तभंगी सिद्धांत सत्य दर्शन एवं वस्तु स्वरूप की संपूर्ण व्याख्या तीन 'स्यात्' से की जा सकती है जीवन-व्यवहार जितना अधिक व्यापक दृष्टिकोण हो सकती। वाला होगा वह अनेकांत दृष्टि वाला ही होगा। (1) स्यात् है' (2) स्यात् 'नहीं है' (3) स्यात् नाम से जाना गया। समाहित है। वे चाहते हैं कि दूसरों के लिए भी हाशिया छोड़ा जाए। शब्द को पकड़कर बैठने से प्रयोजन की सिद्धि नहीं स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 'नहीं भी और है भी यह त्रिभंगी के महावीर की दृष्टि में 'ही' नहीं 'भी' जैसे हिंसा का अर्थ है— किसी के प्राणों का वियोग करना। परंतु देश रक्षा के लिए, शत्रु आतताई का वध खोलता है। करना हिंसा नहीं है । अनेकांत सभी संभावनाओं के द्वार उक्त त्रिभंगी को महावीर ने सप्तभंगी बनाया। उन्होंने कहा- अब तीन से काम नहीं चलेगा। सत्य कहना बड़ा जटिल है जैसे कोई कहता है 'यह घड़ा है' मार्च - मई, 2002 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा कहता है—'यह मिट्टी है। तीसरी संभावना कि यह निमित्त को गौण और महत्त्वहीन बना दिया। दूसरा निमित्त घड़ा नहीं मिट्टी है। भगवान महावीर ने चौथा भंग की 'डफली' बजा रहा है। (दृष्टिकोण) जोड़ा-'स्यात् अनिर्वचनीय' अर्थात् कुछ भगवान महावीर ने केवल किताबी ज्ञान से 'तत्त्वऐसा भी है जो कहा नहीं जा सकता। घड़ा अणु भी है, ज्ञान' प्राप्त नहीं किया। उन्होंने अपने चिंतन, मनन और परमाणु भी है, इलेक्ट्रॉन भी है, प्रोटोन-विद्युत भी है। सब- साधना से सत्य को उपलब्ध किया। डॉ. जयकुमार 'जलज' कुछ हो सकता है। इन सबको इकट्ठा करना बड़ा मुश्किल ने एक आलेख में इस पर बहुत सपाट लिखा है-'हर वस्तु है। घड़े में अस्तित्व का होना-वह अनिर्वचनीय है। खद अपना उपादान है। सबको अपने पांवों से चलना है। पांचवां स्यात् है और अनिर्वचनीय है। छठा स्यात् नहीं है कोई दूसरा हमारे लिए उपादान नहीं बन सकता।' उन्होंने और अनिर्वचनीय है। भगवान महावीर के चिंतन को बहुत सारगर्भित ढंग से ईश्वर के संबंध में विभिन्न दर्शन भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत किया। दूसरों के लिए हम उपादान नहीं बन सकते. रखते हैं। लेकिन निमित्त बन सकते हैं। 'जीओ और जीने दो' बहुत जहां उपनिषद् ब्रह्म की व्याख्या को असमर्थ कहता सरल शब्दों में महावीर का दर्शन प्रकट है। है वहीं बाईबिल कहता है कि ईश्वर की व्याख्या नहीं हो जीएंगे हम अपने उपादान से परंतु दूसरों को जीने का सकती। भगवान महावीर कहते हैं—ईश्वर या ब्रह्म की मौका देगें अपने निमित्त से। कोई किसी पर एहसान, कृपा, बात तो बड़ी है, एक घड़े की व्याख्या नहीं हो सकती। दया नहीं कर रहा है। परंतु हमारी ऐकांतिक दृष्टि पक्ष व्यामोह में 'अटकी है। हम 'ही' पर ठहरकर कूटस्थ बन 'स्यात्' शब्द संशय का सूचक नहीं है। स्यात् यह इंगित गए हैं। करता है कि किसी के बारे में कोई आग्रह नहीं, कोई एक दावा नहीं। 'एक' भी कूटस्थ नहीं है। वह कई एकांशों का बना है। सूर्य का सफेद प्रकाश देखने में एक है, परंतु वह भी सात अब तक विज्ञान में यह समझा जाता रहा कि अणु रंगों की प्रकाश तरंगों का सम्मिलन है। एक बिंदु है, जिसकी लंबाई-चौड़ाई नहीं होती। लेकिन प्रयोगों द्वारा जो निष्कर्ष निकले उनसे पता चला कि यह इसी प्रकार 'नय' विवक्षापूर्वक हमें अध्यात्म में प्रवेश अणु कभी बिंदु की तरह व्यवहार करता है तो कभी तरंग की करके इसे जीवन से जोड़ना है। क्योंकि जीवन अध्यात्म के लिए नहीं, बल्कि अध्यात्म जीवन के लिए है। जैसे चेतनतरह। आत्मा—कर्मों का कर्ता भी है और अकर्ता भी। वह भोक्ता ___ अणु की व्याख्या के लिए आइन्स्टीन को एक नया भी है और अभोक्ता भी। वह कर्तृत्व-बुद्धि वाला भी है और शब्द खोजना पड़ा-'क्वांटा'। क्वांटा का मतलब है कि अकर्तृत्व भी। वह साकार भी है और निराकार भी। वह कब परमाणु कण भी है और तरंग भी। उन्होंने कहा—दोनों कैसा है, इसे सापेक्ष और अनेकांत का आश्रय लेकर ही संभावनाएं एक साथ भी हैं। इस विचार क्रांति के बाद समझना होगा। गन्ने में रस होता है, परंतु छिलके के संयोग निरपेक्ष सत्य की सभी मान्यताएं डगमगा गईं। विज्ञान अब से वह देखने में नहीं आता। इसी प्रकार आत्मा कर्म की सापेक्ष के भवन पर खड़ा हो गया। इस वैज्ञानिक संदर्भ में संयोगावस्था में राग-द्वेष और अज्ञान के विकारी भाव से महावीर स्वामी की स्यात् भाषा परम सार्थक हो गई है। सहित है, परंतु उपादान से अखंड, अविकारी ध्रुव है। भेद विज्ञान सापेक्षता का सबल पकड़कर 'कम्प्यूटर' युग लक्ष्य से वह रागमय है और अखंड गण लक्ष्य से. राग से में प्रवेश कर मंगल ग्रह तक अपने पांव बढ़ा आया है। अलिप्त है। ऐसी दष्टि अनेकांत की देन है। अध्यात्म अनेकांत की संपदा से इतना समृद्ध होने पर भी, अनेकांत और स्याद्वाद से हमारी अभिव्यक्ति निमित्त-उपादान और नयवाद के विवाद में इतना क्यों फलती-फूलती है। प्रस्तुत आलेख में इसकी वैज्ञानिकता पर उलझा है। धर्म अपने वैचारिक द्वंद्वों में क्यों झूल रहा है? __एक अकिंचन प्रयास किया गया। इसकी सातत्यता के लिए एक ने वस्तु की उपादान क्षमता को इतना महत्त्व दे प्रज्ञावान पाठकों, विद्वानों और वैज्ञानिकों के विचारों के लिए डाला कि उसने 'निमित्त' को अकिंचित्कर कह डाला। बहुत हाशिया है। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष - 137 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्याओं का समाधान : अनेकांठ । हेमलता बौलिया PRABHA । वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक अराजकता, उलझाव और टूटन के युग में यदि इस सिद्धांत का व्यापक समझ के साथ उपयोग हो तो पारस्परिक अविश्वास, वैमनस्य और आपाधापी के झंझावात की गति में अवोध आ सकता है। विद्वेष, अनाचार और कदाचार की आंधी रुक सकती है। परिवार में सास यदि यह समझ ले कि दूसरे के घर से आई बहू जो-कुछ कह रही है-वह उस घर के दृष्टिकोण, वहाँ के पारिवारिक वातावरण-जहां से वह आई है-उस दृष्टिकोण से सही हो सकता है। इसी प्रकार बह यह समझ ले कि सास जो-कुछ कह रही है, वह उसके अपने पति-परिवार के खट्टे-मीठे अनुभवों के आधार पर कह रही है। दोनों देष छोड़कर वस्तुनिष्ठ विचार करें, एक-दूसरे के विचार को सम्मान दें, तो प्रतिदिन के कलह टाले जा सकते हैं। कलह के अभाव में परस्पर प्रेम और विश्वास बना रहेगा तो परिवार एक रहेगा। AuN पाज का सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य किसी के अन्य सदस्यों के प्रति विश्वास में कमी और टकराहट से छिपा नहीं है। वर्तमान में समाज और उत्पन्न करता है। यथा-सास बहू के प्रति और बहू सास राजनीति की जो स्थिति है, उसे न तो स्वस्थ ही कहा जा के प्रति सशंक हो उठती है। शंका की स्थिति उन्हें कुछ सकता है और न शांत । समाज की लघुतम इकाई परिवार छिपाने को बाध्य करती है, एक-दूसरे के बढ़ते आरोपहै। परिवारों के समूह मोहल्ले के रूप में तथा एक-से धर्म- प्रत्यारोप परिवार में विघटन-अलगाव पैदा करते हैं। फलतः आचार, विश्वास तथा कर्म में आस्था रखने वाले परिवारों दोनों ही पक्ष अपने-आप को असहाय अनुभव करते हैं। उस के समूह जाति या समुदाय कहलाते हैं। यही समुदाय असहायता की अनुभूति में उन्हें मात्र अर्थ ही अपना परस्पर आवागमन, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, सामाजिक- अवलंबन प्रतीत होता है। सास चाहती है, अर्थ पर उसका आर्थिक विनियोजन के माध्यम से समाज का स्वरूप ग्रहण आधिपत्य रहे, उसकी योजनानुसार कार्य हो, बहू भी अपने करते हैं। परस्पर सामंजस्य और शांतिमय जीवन के लिए ये पक्ष में यही चाहती है। यही द्वंद्व अलगाव और रिश्तों की समुदाय कुछ नियम या आचार-संहिता भी बनाते हैं। इसी टूटन को जन्म देता है। फलस्वरूप एकल परिवार आचार-संहिता के माध्यम से वे अपने जीवन के लक्ष्य को अधिकाधिक अर्थार्जन को अपना लक्ष्य बना लेता है। उसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। इस धुन में उचित-अनुचित का विवेक भी नहीं रहता और परिवार या परिवारों के वातावरण का सामहिक रूप शुरू हो जाती है भ्रष्टाचार, बेईमानी, ऐश्वर्य प्रदर्शन की ही सामाजिक वातावरण है, किंत विडंबना यह है कि आज ललक, पारिवारिक हिंसा, दहेज प्रताड़ना, उत्पीड़न, नैतिक प्रत्येक परिवार में भौतिक सुख-समृद्धि के होते हुए भी मूल्यों का ह्रास, वृद्धों की उपेक्षा, नारी के जीवन की द्विधा, तनाव दिखाई देता है। व्यक्ति जो-कछ सोचता या चाहता बढ़ता बोझ, धार्मिक उन्माद आदि। यही क्रम परिवार के है, वैसा लाभ या अपेक्षा की पर्ति परिवार के अन्य सदस्यों समूहस्वरूप समुदाय और सामाजिक गतिविधियों में से न होने के कारण उसकी सोच की प्रक्रिया सकारात्मक दृष्टिगत होता है। नहीं होने से नसों में खिंचाव होता है, जो सोचने-समझने राजनीति का परिदृश्य भी कुछ ऐसा ही है। राजनीति की शक्ति को ही अवरुद्ध कर देता है। परिणामस्वरूप का अर्थ है-'राज्ञा नीति' अर्थात् शासक या शासन परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति मन में क्रोध उत्पन्न होता संचालन की नीति। वर्तमान में राजनीति में आए 'राजन' है और यही क्रोध जब झुंझलाहट में बदलता है तो परिवार शब्द का लोकतंत्रात्मक शासन पद्धति में अर्थ होगा 'सत्ता ARE स्वर्ण जयंती वर्षH ___ जैन भारती 138 • अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या सत्तारूढ़ दल की नीति'। अपने सिद्धांतों को केंद्र में हो सकती हैं। यही दृष्टिकोण स्याद्वाद, सप्तभंगी नय या रखकर वह शासन संचालन हेतु दिशा-निर्देश देता है, अनेकांत कहलाता है। हो सकता है जो बात हम कह रहे हैं, कर्मचारी-तंत्र को आदेश देता है। राजनीति का आदर्श वह दूसरे के समझ में न आए अथवा जो बात दूसरा कह रहा व्यवस्थाओं का नियमन, राष्ट्र की सुरक्षा और प्रजा की है वह हमारी समझ में न आए। सामान्यतया आदमी अपनी समृद्धि होना चाहिए। सभी दल अपना आदर्श भी यही बात को सत्य और दूसरे की बात को असत्य सिद्ध करने का बताते हैं, किंतु यथार्थ कुछ और ही दृश्य दिखाता है। सत्ता यत्नपूर्वक प्रयत्न करता है। अतः तत्त्वचिंतक आचार्य ने पाना यहां चरम लक्ष्य बन जाता है। सिद्धांत दिखाने के सलाह दीदांत रह जाते हैं। हर दल अपनी सत्ता हेतु सभी तरह के तत्रापि न द्वेष कार्यो विषयवस्तु यत्नतो मृग्यः। हथकंडे अपनाते हैं। फलतः कल तक जो समूह एक दल के तस्यापि च सद्वचनं सर्वं यत्प्रवचनादन्यत्।। समर्थन में होता है वह दूसरे पल में पक्षद्रोह कर दूसरे दल अर्थात् हमारे वचन से अन्यथा बात कहने वाले को समर्थन दे देता है। इस अंधी दौड़ में शासन में व्यक्ति से भी द्वेष नहीं करना चाहिए, वस्तु पर विशेष ध्यान अस्थिरता, परस्पर अविश्वास, अर्थ को अनावश्यक महत्त्व, देकर विचार करना चाहिए। हो सकता है उसका वचन भी घोटाले, भ्रष्टाचार, राजनीति का अपराधीकरण, भाई सद्वचन हो। भतीजावाद, राष्ट्र-विमुखता, सांस्कृतिक-द्रोह और राष्ट्रद्रोह की दहलीज पारकर शत्रुओं और विदेशी कंपनियों के भगवान महावीर द्वारा प्रवर्तित अनेकांत एकदम नवीन हस्तग तक बनने की श्रृंखला शुरू हो जाती है। हो—ऐसी बात भी नहीं है। इसके बीज हमें वैदिक साहित्य भगवान महावीर के आविर्भाव के समय भी कुछ में भी मिलते हैं, जहां उषा को 'पुरातनी युवतिः' स्थितियां ऐसी ही रही होंगी, तभी उन्होंने अनेकांत को (415116) कहा गया है। ब्रह्म को अनेक देवों के रूप में व्याख्यायित किया। 'अनेक अन्तः धर्मा यस्य स व्याख्यायित एक ही तत्त्व मानते हुए कहा गया—एकं सद् अनेकान्तः' अर्थात् वस्तु में विद्यमान अनंत धर्मों का युगपत् विप्राः बहुधा वदन्ति। इन्द्र यमं मातरिश्वानमाहुः ।' स्वीकार अनेकांत है। वस्तु एक है, उस पर भिन्न-भिन्न किंतु महावीर ने साढ़े बारह वर्षों की कठोर साधना दृष्टिकोण से विचार करने पर उसकी पृथक-पृथक और तपस्या के बाद प्राप्त सत्य के दर्शन को सर्वतः देखकर विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं। अतः अनेकांत का अर्थ यह अनुभूति की और यही अनुभूति उन्होंने अपने शिष्यों को है—विभिन्न कोणों या पहलुओं से वस्तु की अखंड सत्ता दी कि दूसरों की बात को भी सुनो। सुनो ही नहीं ध्यानपूर्वक का आकलन। सुनो, हो सकता है उसमें भी कोई तथ्य हो। शांति, धैर्य स्याद्वादमंजरी' में हेमचंद्राचार्य ने अनेकांत का लक्षण और विश्वास से उसकी बात सुनकर अपनी बात कहो। दिया है-'अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वमतोऽन्यथा जीवन संचालन की यह पद्धति एक दृढ़ स्तंभ के रूप में सत्त्वमसूपपादम्' अर्थात् प्रत्येक पदार्थ में अनंत धर्म हैं, स्वीकार कर दर्शन में सम्मिलित की गई। इस प्रकार कहा पदार्थों में अनंत धर्म माने बिना वस्तु की सिद्धि नहीं होती। जा सकता है कि अनेकांत का सिद्धांत मौलिक नहीं है। भगवतीसूत्र में कहा गया है कि अस्तित्व और मालिक है-एक वस्तु मे अनेक विराधा धमा का स्वीकार नास्तित्व परस्पर विरोधी नहीं हैं. अपित दोनों सहभावी हैं। और प्रतिपादन। इसीलिए यह आज भगवान महावीर और दोनों साथ में रहकर ही वस्तु को वास्तविकता प्रदान करते जन वाले जैन धर्म-दर्शन का पर्याय बन गया है। हैं। इस प्रकार अनंत कोणों का होना विरोध नहीं है। उनका वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक अराजकता, हमारी बुद्धि की पकड़ में न आना विरोध प्रतीत होता है। उलझाव और टूटन के युग में यदि इस सिद्धांत का व्यापक यथा-किसी वस्तु के विषय में एक दृष्टि से कही गई बात समझ के साथ उपयोग हो तो पारस्परिक अविश्वास, सच है तो उसी वस्तु के विषय में दूसरे दृष्टिकोण से देखी वैमनस्य और आपाधापी के झंझावात की गति में अवरोध गई बात भी उतनी ही सत्य हो सकती है। एक दृष्टिकोण से आ सकता है। विद्वेष, अनाचार और कदाचार की आंधी जो बात सत्य है, दूसरे दृष्टिकोण से वह बात असत्य भी हो रुक सकती है। परिवार में सास यदि यह समझ ले कि दूसरे सकती है। इस तरह एक ही वस्तु के विषय में सात नयों से के घर से आई बहू जो-कुछ कह रही है वह उस घर के कही गई सात बातें एक साथ सत्य, असत्य और सत्यासत्य दृष्टिकोण, वहां के पारिवारिक वातावरण जहां से वह स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष. 139 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आई है उस दृष्टिकोण से सही हो सकता है। इसी प्रकार न निकालें तो शायद सरकार के पास भी आर्थिक तंगी न बहू यह समझ ले कि सास जो-कुछ कह रही है, वह उसके हो। फिर परस्पर कर्म-विराम और तोड़-फोड़ की नौबत न अपने पति-परिवार के खट्टे-मीठे अनुभवों के आधार पर कह आए। यह तभी हो सकता है जब राजनेता और जनसामान्य रही है। दोनों द्वेष छोड़कर वस्तुनिष्ठ विचार करें, एक-दूसरे के जीवन का अंग महावीर की अनेकांत दृष्टि बने। के विचार को सम्मान दें, तो प्रतिदिन के कलह टाले जा निष्कर्ष के रूप में सिद्धसेन दिवाकर के शब्दों में कहा सकते हैं। कलह के अभाव में परस्पर प्रेम और विश्वास बना जा सकता है कि-'सिंधु में जैसे सरिताएं मिलती हैं वैसे ही रहेगा तो परिवार एक रहेगा। अलग होने की स्थिति में किए अनेकांत दृष्टि में सारी दृष्टियां आकर मिल जाती हैं।'5 जाने वाले अनेक प्रबंध व संसाधनों के जुगाड़ के स्थान पर अतः आज आवश्यकता इस बात को हृदयंगम करने की है एक से ही काम चलेगा, अर्थ-व्यय कम होगा और साधनों कि 'सत्य शब्दातीत होता है, वह अनुभूति का ही विषय है, का अनावश्यक आकर्षण कम होगा, अर्थ-मोह की कमी से वाच्यता में उसका एक अंश ही ग्राह्य होता है। बहुधा अनेक दुष्चक्र रुक जाएंगे। कार्य के ठीक उत्तरदायित्वपूर्ण व्यक्ति एक अंश को ही पूर्ण मानकर आग्रहशील हो जाता विभाजन से द्विधा-बोझ कम होगा और परस्पर प्रसन्नता व है। इसीलिए महावीर ने श्रोता और वक्ता-दोनों को, शांति रहेगी। यही शांति और समृद्धि परिवार से समुदाय में वाच्य अंश को अन्य अंशों से निरपेक्ष न करने का चिंतन और समुदाय से समाज तक जाएगी। दिया। इसका फलितार्थ है-'जो मेरा है केवल वही सत्य राजनीतिक पटल पर भी मतवादों एवं स्व-सिद्धांत नहीं, अपितु दूसरे के पास जो है वह भी सत्य हो सकता है। प्रसार के आग्रह के कारण फैलते झगडे कम होंगे। एक- पूर्ण सत्य अनुभूति का विषय है।'' दूसरे के द्वारा कही हुई बात का बुरा मानने के स्थान पर आचार्यश्री तुलसी के शब्दों में—'हमारी सबसे बड़ी दूसरे को सम्मान देते हुए, उसका आदर करते हुए अपनी गलती यही रही है कि तत्त्व की व्याख्या में तो हमने बात कही जाएगी और दूसरे को भी यदि यह विश्वास होगा 'अनेकांत' को जोड़ा, पर जीवन की व्याख्या में उसे जोड़ना कि मेरी उचित बात हमेशा मानी जाएगी तो सत्ता-मोह कम भूल गए, जबकि महावीर ने जीवन के हर कोण के साथ होगा, सत्ता-मोह का अभाव पारस्परिक 'आयाराम- अनेकांत को जोड़ने का प्रयत्न किया। गयाराम' की नीति को हतोत्साहित करेगा, शासन में अब हमें भी महावीर की भांति जीवन के हर पहलू को स्थिरता आएगी। राष्ट्र तथा संस्कृति रक्षण ही सर्वोपरि अनेकांत के साथ जोड़ने का सतत प्रयत्न करना चाहिए। आदर्श होंगे। फिर हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों यदि इस दिशा में हम गतिशील होंगे तो समस्याओं के कठपुतली नहीं बनना पड़ेगा। समाधान स्वतः ही हो जाएंगे। इससे अच्छा उपाय और उद्योग एवं कर्मचारी तंत्र में फैलती परस्पर अविश्वास क्या हो सकता है? की खाई, यूनियनों के परस्पर झगड़े एवं कर्मचारी-वर्ग पर संदर्भ प्रभुत्व जमाने की राजनीति के संबंध में भी यही बात कही 1. कारिका-22 जा सकती है। सरकार अनेक बार यह समझती है कि 2. द्रष्टव्य 1/133-88 कर्मचारियों की यह आवश्यकता उचित है, उसे देना भी 3. (क) अपर्ययं वस्तु समस्यमानमद्रव्यमेतच्च विविच्यमानम्। चाहती है, फिर भी वह चाहती है कि इस सुविधा को दिलाने आदेशभेदोदितसप्त भङ्गमदीदृशस्त्वबुधरूपवेद्यम्।। का श्रेय अमुक संगठन को देना है तो वह स्वयं संकेत –स्याद्वादमंजरी, श्लोक-23 करती है, हड़तालें होती हैं, देय सुविधा दी जाती है और (ख) विस्तार के लिए द्रष्टव्य-वही अदेय सुविधाओं के न मिलने का दोष दूसरे संगठनों पर 4. मूल उद्धरण षोडषक, 16/19 डालती है। उसका राजनीतिक लाभ चुनाव में लिया जाता कर्मयोगी केसरीमल सुराणा अभिनंदन ग्रंथ, चतुर्थ खंड, है। यदि सरकार सत्ता-मोह से हटकर देय सुविधाएं बिना पृ. 262 परेशान किए दे दें तो अव्यवस्था दूर हो सकती है। साथ ही 5. द्रष्टव्य—मुनि नथमल कृत श्रमण महावीर, पृ. 178 कर्मचारी-वर्ग भी यह समझे कि सरकार जिस कार्य के लिए 6. मुनि महेन्द्रकुमार 'प्रथम'–महामानव महावीर, लेख पैसा देती है, हमें वह कार्य निष्ठा से करना है और राजस्व महावीर जयंती स्मारिका, रूड़की, 1994 की बहती सरिता में से अपने घर की ओर कुल्याएं (नाले) 7. समणी कुसुमप्रज्ञा कृत-गुरुदेव तुलसी, पृ. 176 ** H ARMA स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 140. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांठदाद : ऊँठर परंपरा में प्रकाश सोनी (वर्मा) Sorg अनेकांत को प्रधानतया जेन दर्शन का पर्याय माना जाता है। अनेकांतवाद का विकास और तार्किक आधायें। पर उसकी पुष्टि जैन दार्शनिकों ने ही की है। जेनेतर दर्शनों में अनेकांठ को अपेक्षित मान्यता प्रदान नहीं की मई है, परंतु अनेक स्थलों पर वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों की स्वीकृति एवं उनका समन्वय उनमें भी दृष्टिगोचर होता है, जो अनेकांतवाद की स्वीकृति माना जा सकता है। भगवान महावीर और बुद्ध के समय में ही नहीं, उससे पूर्व भी वस्तु स्वरूप का अनेक दृष्टियों से प्रतिपादन करने की परंपरा थी। MMS जो वस्तु तत्स्वरूप है, वह वस्तु असत् स्वरूप जिनका उत्तर हो सकता है, कहा है जैसे आर्यसत्य है ही। है। जो सत है, वह असत भी है। जो एक बुद्ध ने प्रश्नव्याकरण चार प्रकार का बताया है। (दीघनिः है, वह अनेक भी है। जो नित्य है, वह अनित्य भी है। 33 संगीति परियाय) एकांश व्याकरण, प्रतिपृच्छा अनेकांत परस्पर अनेक विरोधी धर्मों का समन्वय करता है। व्याकरणीय प्रश्न, विभज्य व्याकरणीय प्रश्न में एक ही वस्तु अनेकांत-दृष्टि वस्तु के किसी एक ही धर्म को लेकर विचार का विभाग करके उसका अनेक दृष्टियों से वर्णन किया नहीं करती, वह वस्तु के अनंत धर्मों का सत्कार करती है। जाता है। वस्तु के किसी एक ही अंश को ग्रहण करके चलने वाली भारतीय षड्दर्शनों में भी अनेकांतवाद का दर्शन दृष्टि एकांगी होती है। फलतः वह वस्तु के यथार्थ स्वरूप समुचित रूप में देखने को मिलता है। को नहीं जान पाती। सांख्य दर्शन में अनेकांतवाद अनेकांत को प्रधानतया जैन दर्शन का पर्याय माना सांख्य भी जैन दर्शन के जीव एवं अजीव की तरह जाता है। अनेकांतवाद का विकास और तार्किक आधारों पर पुरुष एवं प्रकृति—ऐसे दो मूल तत्त्व मानता है। उसमें पुरुष उसकी पुष्टि जैन दार्शनिकों ने ही की है। जैनेतर दर्शनों में को कूटस्थ नित्य और प्रकृति को परिणामी नित्य माना गया अनेकांत को अपेक्षित मान्यता प्रदान नहीं की गई है, परंतु है। इस तरह उसके द्वैतवाद में एक तत्त्व परिवर्तनशील और अनेक स्थलों पर वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों की स्वीकृति दसरा अपरिवर्तनशील है। इस प्रकार सत्ता के दो पक्ष एवं उनका समन्वय उनमें भी दृष्टिगोचर होता है, जो परस्पर विरोधी गुणधर्मों से युक्त हैं। फिर भी उनमें एक अनेकांतवाद की स्वीकृति माना जा सकता है। भगवान सह-संबंध है। पूनः यह कूटस्थ नित्यता भी उस मुक्त पुरुष महावीर और बुद्ध के समय में ही नहीं, उससे पूर्व भी वस्तु के संबंध में है, जो प्रकृति से अपनी पथकता अनुभत कर स्वरूप को अनेक दृष्टियों से प्रतिपादित करने की परंपरा चका है। सामान्य संसारी परुष/जीव में तो प्रकति के थी। ऋग्वेद का 'एकंसद्विप्राबहुधावदन्ति' (ऋग्वेद 1/ संयोग से अपेक्षा भेद से नित्यत्व और परिणामीत्व दोनों ही 164/46) वाक्य इसी अभिप्राय को सूचित करता है। मान्य किए जा सकते हैं। पुनः प्रकृति तो जैन दर्शन के सत् यथा 'देवानां पूर्वे युगे असतः सद्जायत' (ऋग्वेद 10/72/ के समान परिणामी-नित्य मानी गई है, यानी उसमें 7) से यही फलित होता है कि वैदिक ऋषि अनाग्रही परिवर्तनशील एवं अपरिवर्तनशील दोनों विरोधी गुणधर्म अनेकांत-दृष्टि के ही संपोषक रहे हैं। बुद्ध विभज्यवादी थे। अपेक्षा भेद से रहे हुए हैं। पुनः त्रिगुण-सत्त्व, रजस् और वे प्रश्नों का उत्तर एकांश में 'हां' या 'ना' में न देकर तमस् आपस में विरोधी हैं, फिर भी प्रकृति में वे तीनों एक अनैकांशिक भी देते हैं (दीघनिः पोट्टपादसुत्त) जो साथ रहे हुए हैं। सांख्य दर्शन का सत्त्वगुण स्थिति का, व्याकरणीय है, उन्हें ऐकांशिक यानी सुनिश्चित रूप से रजोगुण उत्पाद का, तमोगुण विनाश का प्रतीक है। द्रव्य की स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 | जैन भारती अनेकांत विशेष. 141 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्यता और पर्याय की अनित्यता जैन दर्शन के समान ये समस्त संदर्भ अनेकांत के संपोषक हैं—यह तो सांख्य दर्शन को भी मान्य है। स्वतःसिद्ध है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वेदांत दर्शन में वेदांत में अनेकांतवाद भी अनेकांतवादी दृष्टि अनुस्यूत है। भारतीय दर्शनों में वेदांत दर्शन वस्तुतः एक दर्शन योग दर्शन में अनेकांतवाद नहीं, अपितु दर्शन-समूह वाचक है। आचार्य शंकर योग दर्शन भी जैन दर्शन के तुल्य ही सत्ता को सृष्टिकर्ता ईश्वर के प्रसंग में स्वयं ही प्रवृत्ति-अप्रवृत्ति रूप सामान्य विशेषात्मक मानता है। योगसूत्र में कहा गया हैदो परस्पर विरोधी गुणों को स्वीकारते हैं। वे लिखते हैं- 'सामान्य विशेषात्मनोऽर्थस्य' (समाधिपाद का सूत्र ईश्वरस्य तु सर्वज्ञत्वात्, सर्व शक्तिमत्वात्। )। मात्र इतना ही नहीं, योग दर्शन में द्रव्य की नित्यता को महामायत्वाच्च प्रवृत्यप्रवृती न विरुध्यते।। उसी रूप में स्वीकृत किया गया है, जिस रूप में अनेकांत (ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य 2/2/4) दर्शन में। परिणाम का लक्षण भी योगभाष्य (3/13) में पुनः माया को न ब्रह्म से पृथक कहा जा सकता है अनेकांतरूप से ही किया है। यथा-'अवस्थितस्य द्रव्यस्य और न अपथक. क्योंकि पथक मानने पर अदैत खंडित होता पूर्वधमानवृत्ती धमन्तिरात्पत्तिः परिणामः।' अथात स्थिरदव्य है और अपृथक मानने पर ब्रह्म माया के कारण विकारी सिद्ध क पूवधम का निवृत्ति हान पर नूतन धर्म की उत्पत्ति होना होता है। माया को न असत् कह सकते हैं और न सत् । यदि प माया असत् है तो सृष्टि कैसी होगी और अगर माया संत, जैन दर्शन में द्रव्य और पर्याय या गुण, दूसरे शब्दों में तो फिर मुक्ति कैसे होगी? वस्तुतः माया न असत् है और धर्म और धर्मों में एकांत अभेद को स्वीकृत नहीं करके उनमें न सत्, न ब्रह्म से अभिन्न है और न भिन्न। यहां भेदाभेद स्वीकृत करता है और यही उसके अनेकांतवाद का अनेकांतवाद जिस बात को विधिमुख से कह रहा है- आधार है। यही दृष्टिकोण हमें योगसूत्र भाष्य में भी प्राप्त आचार्य शंकर उसे ही निषेधमुख से कह रहे हैं। होता हैआचार्य शंकर के अतिरिक्त वेदांत दर्शन के प्रसिद्ध न धर्मीत्र्यध्वा धर्मास्तु व्यधूवान ते लक्षिता'ब्रह्मसूत्र' ग्रंथ के 'तत्तुसमन्वयात्' (1/1/4) सूत्र का अलक्षिताश्च तान्तामवस्थां प्राप्नुवन्तोऽन्यत्वेन भाष्य करते हुए प्रख्यात विद्वान भास्कराचार्य ने लिखा प्रतिनिर्दिश्यन्ते अवस्थान्तरतोः न द्रव्यान्तरतः। यथैक रेखा शत्स्थाने शतंदशस्थाने दशैकं चैकस्थाने। यथाचैकत्वेपि कार्यरूपेण नानात्वमभेदः कारणात्मना। स्त्री माताचोच्येत दुहिता च स्वसा चेति (योगसूत्र हेमात्मना यथाऽभेद कुण्डलाद्यात्मनाभिदा।। (पृ. 16-17) विभूतिपाद, भाष्य 13)। उपर्युक्त तथ्य को इस तरह भी अर्थात् ब्रह्म कार्यरूप से भिन्न-भिन्न इस कारण प्रकट किया गया है-'यथा सुवर्ण भाजनस्य भित्वाऽन्यथा अनेकरूप हैं और कारणरूप से एक एवं अभिन्नरूप है। जैसे क्रियमाणस्य भावान्यथात्वं भवति न सुवर्णान्यथात्वम्।' कि कुंडल, कंटक आदि सोने की अपेक्षा से एक अभिन्नरूप इन दोनों संदर्भो से सुस्पष्ट है कि जिस तरह एक नर है, किंतु कंटक कुंडलादि रूप से अनेक और भिन्नरूप हैं। (पुरुष) अपेक्षा भेद से पिता, पुत्र, श्वसुर आदि कहलाता है, प्रवर विज्ञान भिक्षु ने ब्रह्मसूत्र पर विज्ञानामृत भाष्य उ उसी प्रकार एक ही द्रव्य अवस्थांतर को प्राप्त होकर भी वही लिखा है, उसमें वे अपने भेदाभेदवाद का न मात्र पोषण करते रहता र रहता है। जो जैन दर्शन में अनेकांतवाद का आधार है। इस हैं, अपितु अपने मत की पुष्टि में कूर्मपुराण, स्कंदपुराण, नारद प्रकार या प्रकार योग दर्शन की पृष्ठभूमि में कहीं-न-कहीं अनेकांत पुराण आदि से संदर्भ भी प्रस्तुत करते हैं। यथा दृष्टिकोण अनुस्यूत है। त एते भगवद्रूपं विश्वं सदासदात्कम्। न्याय दर्शन में अनेकांत (विज्ञानामृत भाष्य, पृ. 111) न्याय दर्शन में उल्लिखित है कि सत्ता सत्-असत् चैतन्यापेक्षया प्रोक्तं व्यमादि सकल जगत्।। रूप है। जो कि कार्य-कारण की व्याख्या के संदर्भ में असत्यं सत्यरूपं तु कुम्भकुंडाद्यपेक्षया।। प्रकारांतर में स्वीकार है। पूर्वपक्ष के रूप में यह कहा गया है (वही, पृ. 63) कि उत्पत्ति के पूर्व कार्य न तो असत् कहा जाता है, न सत् I स्वर्ण जयंती वर्षH जैन भारती | LE मार्च-मई, 2002 142 • अनेकांत विशेष Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा जा सकता है और न उभय रूप ही कहा जा सकता है, 2. हेमर्थिनस्तु माध्यस्थं तस्माद्वस्तु भयात्मकम्। क्योंकि दोनों में वैधर्म्य है। यथा नोत्पाद स्थिति भंगानामभावे स्यान्मतित्रयम्।। नासन्न सन्नसदसत् सदसतोवैधात। 3.न नाशेन बिना शोको नोत्पादेन बिना सुखम्। स्थित्या बिना न माध्यास्थ्यं तेन सामान्य नित्यता।। न्यायसूत्र 4/1/48 (मीमांसा श्लोकवार्तिक, 21-23) भाष्यकार वात्स्यायन लिखते हैं यच्च केषांचिदभेदं कुतश्चिद् भेदं करोति तत्सामान्य विशेषो जातिरिति। उत्पत्ति, विनाश और स्थिति के रूप में मीमांसा दर्शन में जो वर्णन है वही जैन दर्शन में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप यहां पर सामान्य विशेषात्मक मानकर अनेकांतवाद त्रिपदी की स्थापना है। भट्ट कुमारिल के द्वारा पदार्थ को की पुष्टि की गई है। क्योंकि अनेकांतवाद व्यष्टि में समष्टि उत्पत्ति, विनाश और स्थितियुक्त मानना, अवयवी और और समष्टि में व्यष्टि का अंतर्भाव मानता है। व्यक्ति के अवयव में भेदाभेद मानना, सामान्य और विशेष को सापेक्ष बिना जाति की और जाति के बिना व्यक्ति की कोई मानना आदि तथ्य इसी बात को परिपुष्ट करते हैं कि प्रभुसत्ता नहीं है। उनमें कथंचित् भेद और अभेद है। विशेष दार्शनिक चिंतन की पृष्ठभूमि में कहीं-न-कहीं अनेकांत के में सामान्य और सामान्य में विशेष अपेक्षा भेद से निहित तत्त्व उपस्थित रहे हैं। रहते हैं। यही तो अनेकांतवाद है। गीता में अनेकांतवाद वैशेषिक दर्शन में अनेकांत गीता के ब्रह्म विषयक निर्वचन को पढ़ते ही वैशेषिक दर्शन में सामान्य और विशेष नामक दो अनेकांतवाद की स्मृति हो जाती है। ब्रह्म न सत् है और न स्वतंत्र पदार्थ माने गए हैं। पृथिवीत्व आदि सामान्य विशेष असत् 'अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते' (गीता 1/ स्वीकार करते हैं। एक ही पृथिवी स्व-व्यक्तियों में अनुगत 1/12) वह सर्वंद्रिय व्यापारों से व्यावृत है और सर्वेद्रिय होने से सामान्यात्मक होकर भी जलादि से व्यावृत्ति कराने गुणों से वर्जित है। वह ब्रह्म भी है और निकटस्थ भी है। के कारण विशेष कहा जाता है। उनके यहां 'सामान्य ही 'सर्वेद्रिय गुणाभासं विवर्जितम्' (गीता 13/14-15) विशेष है' इस प्रकार पृथिवीत्व आदि को सामान्यविशेष इस प्रकार गीता में भी अनेकांत का पक्ष उजागर होता है। माना गया है। अतः उनके यहां भी एक आत्मा के पाश्चात्य दर्शन में अनेकांतवाद उभयात्मकथन-विशेष प्राप्त नहीं होते। जर्मन तत्त्ववेत्ता हेगल की मान्यता है कि विरुद्ध वस्तु सत्-असत् रूप है, इस तथ्य को भी कणाद धर्मात्मकता ही संसार का मूल है। हमें किसी वस्तु का वर्णन महर्षि ने अन्योन्यभाव के संदर्भ में स्वीकृत किया। वे लिखते करते हए उसकी वास्तविकता का तो वर्णन करना ही चाहिए, हैं सच्चासत्। यच्चान्यदसदतस्तदसत। व्याख्या में परंतु उसके साथ उन विरुद्ध धर्मों का समन्वय किस प्रकार उपस्कारकर्ता ने जैन दर्शन के समतुल्य ही कहा है- हो सकता है, यह भी बताना चाहिए। (Ibid, P. 467) यत्र सदैव घटादि असदितित्यवद्धियते तत्र ब्रैडले का विश्वास है कि प्रत्येक वस्तु दूसरी वस्तु की तादात्म्याभावः प्रतीयेत। अर्थात् वस्तु स्व-स्वरूप की तुलना में आवश्यक भी है और तुच्छ भी है। हर विचार में अपेक्षा से अस्ति रूप है और पर-स्वरूप की अपेक्षा से सत्य है, चाहे वह कितना ही झूठ हो, हर सत्ता में अस्ति रूप है और पर- स्वरूप की अपेक्षा नास्ति रूप है। वास्तविकता है, चाहे वह कितनी ही तुच्छ हो।। वस्तु में स्व की सत्ता की स्वीकृति और पर की सत्ता का (Appearance and Reality, P. 482) अभाव मानना यही तो अनेकांत है जो कि वैशेषिकों को इसी प्रकार और भी अनेक दार्शनिक हुए हैं, जिन्होंने भी स्वीकृत है, मान्य है। पदार्थ में विरुद्ध धर्मात्मकता को स्वीकार किया है, एक वस्तु मीमांसा दर्शन में अनेकांतवाद के विभिन्न रूपों को सापेक्ष माना है और किसी सत्त्व को निरपेक्ष नहीं माना। जाहिर है, भारतीय और पश्चिमी दर्शनों भट्ट कुमारिल लिखते हैं में अनेकांतवाद का मूल रूप स्वीकृत होने पर भी अनेकांत 1. वर्तमानक भंगे च रूचक क्रियते यद्। को स्वतंत्र दार्शनिक सिद्धांत का उच्चासन देने का गौरव तदापर्वार्थिन शोकः प्रीतिश्चाभ्युत्तरार्थिनः।। केवल जैन दर्शन को ही है। म मार्च-मई, 2002 स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती अनेकांत विशेष • 143 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांठ : न एकांत हेमन्तकुमार डूंगरवाल ARTHAN अनेकांतवाद पदार्थ के उन अनंत धर्मों की ओर ध्यान केंद्रित करता हुआ कहता है, वस्तु अनंत गुणात्मक है, उसमें एक नहीं अनंत गुण । उन अनंत गुणों को जानने के लिए। अपेक्षा दृष्टि की आवश्यकता है और यह अपेक्षा दृष्टि ही अनेकांतवाद है। भारतीय दर्शन के इतिहास में जैन दर्शन एक उन्होंने अपने ग्रंथ 'सन्मतितर्क' में अनेकांतवाद की प्रौढ़ अनोखी देन है। भारतीय दर्शन परंपरा के भाषा में और तर्कपुष्ट पद्धति से व्याख्या की है। पन्नों को पलटकर उनमें उल्लिखित दर्शनशास्त्र की दीर्घ आचार्य समंतभद्र ने भी आप्त-मीमांसा ग्रंथ में जो परंपरा को यदि हम देखें और समझने का प्रयत्न करें तो अनेकांत की विशद व गहन व्याख्या की है वह अपने ढंग की किसी तरह का संदेह नहीं रहता कि भारतीय दार्शनिक अनठी है। आचार्य हरिभद्र ने अपने 'अनेकांतवाद-प्रवेश' परपरा को अनेकातवाद के रूप मे जैन दर्शन ने एक विशिष्ट और 'अनेकांतवाद-पताका' जैसे विशिष्ट ग्रंथों में अनेकांत सिद्धांत प्रदान किया है। का तर्कपूर्ण प्रतिपादन किया है। आचार्य अकलंक ने अहिंसा और अनेकांत जैन दर्शन के प्राणभूत हैं। 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रंथ में अनेकांत का उज्ज्वल रूप हमारे शरीर में जो स्थान मन और मस्तिष्क का है, वही उपस्थित किया है। उपाध्याय यशोविजयजी ने स्थान जैन दर्शन में अहिंसा और अनेकांत का है। अहिंसा अनेकांतवाद-व्यवस्था', 'अनेकांतवाद-प्रवेश' आदि ग्रंथों में आचारप्रधान है और अनेकांत विचारप्रधान है। अहिंसा नव्य न्याय की शैली में अनेकांत की महत्त्वपूर्ण व्याख्या की व्यावहारिक है—उसमें प्राणीमात्र के प्रति दया. करुणा व है जो अपने-आप में अद्भुत है। मैत्री की निर्मल भावना निवास करती है, तो अनेकांत पाश्चात्य विचारकों में थॉमस, आइन्स्टीन आदि इस बौद्धिक अहिंसा है, उसमें विचारों की विषमता, सिद्धांत के प्रबल समर्थक रहे हैं। आइन्स्टीन ने सापेक्षवाद मनोमालिन्य, दार्शनिक विचारभेद और उससे उत्पन्न होने के सिद्धांत को इसी भूमिका पर प्रतिष्ठित किया। थॉमस ने वाला संघर्ष नष्ट होता है और सह-अस्तित्व, सद्व्यवहार इस सिद्धांत के विषय में कहा है-'स्याद्वाद का सिद्धांत के विमल विचारों के पुष्प महकने लगते हैं। बड़ा गंभीर है, यह वस्तु की भिन्न-भिन्न स्थितियों पर अच्छा भगवान महावीर की मूल वाणी में जो अनेकांतवाद प्रकाश डालता है।' जैन दर्शन के अनेकांतवाद की भारतीय बीज रूप में सुरक्षित था उसे बाद के आचार्यो ने पल्लवित- मनीषियों ने भी भूरि-भूरि प्रशसा की है। पुष्पित ही नहीं किया, अपितु इस पर होने वाले आक्षेपों महान दार्शनिक सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मतितर्क में और प्रहारों का भी तर्कसंगत उत्तर दिया। इसके अनेकांतवाद को विश्व का गुरु कहा है। उनका मंतव्य है व्याख्याकारों में उमास्वाति, सिद्धसेन, समंतभद्र, किमल्लिषेणसूरि, अकलंक, हरिभद्र, उपाध्याय यशोविजय, जेण विणा लोगस्य वि, ववहारो सव्वहा न निव्वइड। आचार्यश्री महाप्रज्ञ आदि के नाम प्रमुख हैं। तस्स भुवणेक्क-गुरुणो णमो अणेगंत-वायस्य।।' उमास्वाति के तत्त्वार्थाधिगमसूत्र और तत्त्वार्थ भाष्य अर्थात् 'इस अनेकांतवाद के बिना लोक का व्यवहार में अनेकांतवाद पर विवेचन देखने को मिलता है।' चल नहीं सकता। मैं उस अनेकांत को नमस्कार करता हूं जो अनेकांतवाद के व्याख्याकारों में सिद्धसेन का नाम प्रमुख है। जन-जन के जीवन को आलोकित करने वाला गुरु है।' स्वर्ण जयंती वर्ष 144 . अनेकांत विशेष | जैन भारती मार्च-मई, 2002 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांतवाद केवल तर्क का सिद्धांत नहीं, किंतु उसमें एक नहीं अनंत गुण हैं। उन अनंत गुणों को जानने के अनुभवमूलक सिद्धांत है। लिए अपेक्षा दृष्टि की आवश्यकता है और यह अपेक्षा दृष्टि ही अनेकांतवाद है। आचार्य हरिभद्र ने भी विचार व्यक्त करते हुए कहा आग्रह बत निनीषति युक्तिं तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तियंत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ।। 'कदाग्रही व्यक्ति की जिस विषय में मति होती है, उसी विषय में वह अपनी युक्ति लगाता है, परंतु एक निष्पक्ष व्यक्ति उस बात को स्वीकार करता है जो युक्तिसिद्ध होती है।" ऋग्वेद में भी 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" अर्थात् एक ही सत् तत्त्व का विद्वान विभिन्न प्रकार से वर्णन करते हैं, के रूप में अनेकांतवाद अथवा स्याद्वाद का बीजवाक्य उपलब्ध होता है। जैन दर्शन का स्पष्ट मंतव्य है कि 'प्रत्येक पदार्थ में अनंत धर्म हैं'।' वह अनंत गुणों और विशेषताओं को धारण करने वाला है। वस्तु के अनंत धर्मात्मक होने का अर्थ है, सत्य आकाश की तरह अनंत है और उस अनंत सत्य को निहारने के लिए दृष्टि भी अनंत चाहिए विराट दृष्टि के द्वारा ही उस अनंत सत्य का साक्षात्कार किया जा सकता है। एकांगी व सीमित दृष्टि से सत्य के पूर्ण रूप को, कभी भी देखा व परखा नहीं जा सकता। एक ही दृष्टि से पदार्थ के पर्यालोचन की पद्धति एकांगी व अप्रमाणित है। अनेकांत का तात्पर्य है 'न एकांत अनेकांत' अर्थात् जो एकांत नहीं है वह अनेकांत है और बाद का अर्थ है सिद्धांत या मंतव्य । दोनों का अर्थ हुआ जो एकांत नहीं है वह मंतव्य अनेकांतवाद पदार्थ के उन अनंत धर्मों की ओर ध्यान केंद्रित करता हुआ कहता है-वस्तु अनंत गुणात्मक है, मार्च - मई, 2002 मुनि नथमल (वर्तमान आचार्यश्री महाप्रज्ञ) के शब्दों में—' वस्तु के अनंत पर्याय हैं, अनंत कोण हैं। वस्तु के धरातल पर अनंत कोणों का होना ही परम सत्य है। अनंत कोणों का होना विरोध नहीं है। उनका हमारी बुद्धि की पकड़ में न आना विरोध प्रतीत होता है। तरंगित समुद्र का दर्शन, निस्तरंग समुद्र के दर्शन से भिन्न होता है, निस्तरंग होना और तरंगित होना पर्याय हैं। इन दोनों पर्यायों के नीचे जो अस्तित्व है, वह पहले और पीछे दोनों क्षणों में होता है।' उनका समग्र दर्शन अनंत दृष्टिकोण से ही हो सकता है। उनका प्रतिपादन भी अनंत वचनभंगियों से ही हो सकता है । वस्तु के समग्र धर्मों को जाना जा सकता है पर कहा नहीं जा सकता। एक क्षण में एक शब्द द्वारा एक ही धर्म कहा जा सकता है। एक धर्म का प्रतिपादन समग्र का प्रतिपादन नहीं हो सकता है और समग्र को एक साथ कह सके, वैसा कोई शब्द नहीं है। इस समस्या को निरस्त करने के लिए भगवान ने सापेक्ष दृष्टिकोण के प्रतीक शब्द 'स्यात्' का चुनाव किया। # स्याद्वाद का आशय है 'एक खंड के माध्यम से अखंड वस्तु का निर्वाचन अनेकांतवाद अथवा स्याद्वाद वस्तुतः सुरमित फूलों का बगीचा है जिसमें नाना रंग और नाना प्रकार की सौरभ में महकते हुए अनेक प्रकार के फूल खिले रहते हैं। प्रत्येक फूल अपनी मोहक सौरभ महकाता है, किंतु दूसरे की सौरभ व सुंदरता पर किसी प्रकार का आघात नहीं करता। इसी प्रकार अनेकांतवाद के उद्यान में विविधता में एकता और एकता में विविधता, नित्यत्व में अनित्यत्व व अनित्यत्व में नित्यत्व आदि प्रकार के विचार- पुष्पों के दर्शन किए जा सकते हैं। इस विराट सिद्धांत के द्वारा विश्व के समस्त दर्शनों व धर्मों का समन्वय सहजता से किया जा सकता है, लेकिन खेद का विषय यह है कि हमने इसे सिद्धांत रूप में तो स्वीकारा, परंतु जीवन से जोड़ नहीं पाए । अतः अनेकांत दृष्टि को जिस भाषा के माध्यम से व्यक्त किया जाता है—वह स्याद्वाद है। अनेकांत दृष्टि है और स्याद्वाद उस दृष्टि की अभिव्यक्ति की वचन शैली है । अनेकांतवाद और स्याद्वाद में मुख्य अंतर यह है कि अनेकांत विचार प्रधान है और भाषा-प्रधान है । देवेन्द्रमुनि शास्त्री ने कहा कि 'अनेकांतवाद तर्क का सिद्धांत नहीं, अपितु अनुभवमूलक सिद्धांत है' । " स्याद्वाद स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती - अनेकांत विशेष • 145 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन का वज्रघोष है कि वस्तु में अनेक धर्म हैं। की जानकारी प्राप्त कर सके-अतः सत्य के लिए कथित इन धर्मों में से किसी एक धर्म का निषेध नहीं किया जा अन्य मार्ग भी उतने ही श्रेष्ठ हैं, जितना हमारा मार्ग। इस सकता। जो एक धर्म का निषेध कर दूसरे धर्म का समर्थन सत्य को स्वीकार कर लेने पर हमारे ज्ञान की अभिवृद्धि करते हैं वे एकांतवाद से ग्रसित हो जाते हैं। व्यक्ति जब तक होती रहेगी और चिंतन के द्वार अवरुद्ध नहीं होंगे। एकांतवाद के आग्रह का परित्याग नहीं करता तब तक तत्त्व उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं का सही स्वरूप समझ नहीं सकता। किसी वस्तु के एक धर्म कि अनेकांतवाद अथवा स्याद्वाद वस्तुतः सुरभित फूलों का को सर्वथा सत्य मानना और दूसरे धर्म को सर्वथा असत्य बगीचा है जिसमें नाना रंग और नाना प्रकार की सौरभ में कहना, वस्तु की पूर्णता को खंडित करना है। परस्पर महकते हुए अनेक प्रकार के फूल खिले रहते हैं। प्रत्येक फूल विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म अवश्य ही एक-दूसरे के अपनी मोहक सौरभ महकाता है, किंतु दूसरे की सौरभ व विरोधी हैं, किंतु संपूर्ण रूप से विरोधी नहीं हैं। सुंदरता पर किसी प्रकार का आघात नहीं करता। इसी मल्लिषेणसूरि ने स्याद्वाद मंजरी। में अनेकांतवाद के प्रकार अनेकांतवाद के उद्यान में विविधता में एकता और चार भेद बताए हैं एकता में विविधता, नित्यत्व में अनित्यत्व व अनित्यत्व में स्यान्नाशि नित्यं सदृशं विरूपं वाच्यं न वाच्यं सदसत्तदेव। नित्यत्व आदि प्रकार के विचार-पुष्पों के दर्शन किए जा विपश्चितां नाथ निपीततत्त्वसुधोद्गतोद्गार परम्परेयम्।। सकते हैं। इस विराट सिद्धांत के द्वारा विश्व के समस्त अर्थात प्रत्येक वस्त को (1) कथंचित अनित्य, दर्शनों व धर्मों का समन्वय सहजता से किया जा सकता है. कथंचित् नित्य (2) कथंचित सामान्य, कथंचित् विशेष लेकिन खेद का विषय यह है कि हमने इसे सिद्धांत रूप में (3) कथंचित् वाच्य, कथंचित् अवाच्य (4) कथंचित् सत् तो स्वीकारा, परंतु जीवन से जोड़ नहीं पाए। और कथंचित् असत् प्रतिपादित किया है। आचार्य तुलसी ने सच ही कहा कि 'हमारी सबसे अनेकांत में सम्यक्त्व का प्रकाश जगमगा रहा है। बड़ी गलती यही रही है कि तत्त्व की व्याख्या में हमने अनेकांतवाद की यह विशेषता है कि वह वस्तु के अन्य अनेकांत को जोड़ा, पर जीवन की व्याख्या में उसे जोड़ना विद्यमान धर्मों की उपेक्षा करके किसी एक ही धर्म को भूल गए, जबकि महावीर ने जीवन के हर कोण के साथ ग्रहण नहीं करता। वह जिस वस्तु का निरूपण करता है अनेकांत को जोड़ने का प्रयत्न किया है।14 उसके विविध धर्मों का परिज्ञान कराता है। इस अपेक्षा से . ऐसा है और अन्य अपेक्षा से ऐसा भी है, वह 'ही' के 1. स्याद्वादमंजरी, पृ. 19 स्थान पर 'भी' का प्रयोग करता है। 'ही' और 'भी' में 2. सन्मति-तर्क, 3/68 बहुत अंतर है 'ही' में एकांतवाद का आग्रह है तो 'भी' में 3. मु.द्ध.अ.ग्र., पृ. 141 अनेकांतवाद है।12 4. ऋग्वेद, 164, 46 भगवान महावीर का यह अनेकांतवाद मुख्य रूप से 5. अनंत धर्मात्मकमेव तत्त्वम्। स्याद्वाद मंजरी, श्लोक 22 हमें तीन बातों की प्रेरणा देता है 6. अहिंसा की बोलती मीनारें, पृ. 111 1. कोई भी मत या सिद्धांत पूर्णतः सत्य या असत्य 7. श्रमण महावीर, पृ. 174 नहीं है, अर्थात् सिद्धांतों के प्रति दुराग्रह नहीं होना चाहिए। 8. वही, पृ. 177 9. वही, पृ. 178 2. विरोधियों द्वारा गृहीत और मान्य सत्य भी सत्य 10. जैन धर्म और दर्शन, पृ. 60 है इसलिए उस सत्य का अपने जीवन में उपयोग न करते 11. (क) द्रष्टव्य, पृ. 231 हुए भी उसके प्रति सम्मान का भाव रखना चाहिए। इस (ख) स्यादस्ति च नास्तीति च, नित्यमनित्यं त्वनेकमेकं च प्रकार से विरोधियों के सत्य में भी हमारे लिए सृजनशील तदतच्चेनिचतुष्टय युग्मैरिव गुम्फितं वस्तु।। संभावनाएं निहित मिलेगी, अन्यथा, विरोधियों के सत्य के द्रष्टव्य-श्री पु.मु.अ.ग्र., चतुर्थ भाग, पृ. 354 प्रति हमारा उपेक्षाभाव विध्वंसक भावों को जन्म देगा। 12. अहिंसा की बोलती मीनारें, गणेश मुनि, पृ. 109 3. मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण है और ऐसा कोई एक मार्ग 13. भगवान महावीर आधुनिक संदर्भ में, पृ. 129 नहीं है, जिस पर चलकर एक ही व्यक्ति सत्य के सभी पक्षों 14. साधना के शलाका पुरुष : गुरुदेव तुलसी, पृ. 1766 स्वर्ण जयंती वर्ष 146 • अनेकांत विशेष जैन भारती मार्च-मई, 2002 में Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोध कथन अपराध और दंड तथा पांच प्रेरक प्रसंग मनि दुलहाज SSES एक व्यक्ति छोटा या बड़ा अपराध करता है, किंतु वह उतना वाक्पट है कि अपने अपराध को छिपाकर, दूसरे के सिर मद देता है। दसरा व्यक्ति अपने बचाव में सक्षम नहीं है। फिर भी वह अपने-आप को निर्दोष घोषित करने के लिए अनेक प्रयत्न करता है परंतु वह सफल नहीं होता। इसका कारण केवल यही नहीं कि अपराध करने वाला वाक्पट है, परंतु उसके साथ एक शक्ति काम करती है, जो अपनी नहीं है, अपने आश्रय की है, जिससे कि वह उस अपराध से घट जाता है, और दूसरा व्यक्ति अपराध नहीं करने पर भी दंडित होता है, क्योंकि उसका सहयोगी इतना प्रबल और ॥ शक्तिशाली नहीं है, तो इसका यह अर्थ हुआ कि अपराध को पोषण सहयोग से मिलता है। यदि सहयोम न हो तो अपराध अपनी भौत भर जाता है। वह पनप ही नहीं सकता। Samananews - गोथिला के नरेश नमि अभिनिष्क्रमण कर रहे परखा जाता है। वहां वह सत्य अंतिम सत्य नहीं रहता, थे। नगरी की सारी जनता शोकाकुल थी। आपेक्षिक बन जाता है। वहां उसकी कोई निश्चित नमि प्रव्रज्या-ग्रहण के लिए उपस्थित हुए। इन्द्र ब्राह्मण इयत्ता नहीं होती, अतः निष्कर्ष या परिणाम भी भिन्नका रूप बनाकर नमि के वैराग्य की परीक्षा करने हेतु भिन्न होते हैं। उपस्थित हुआ। जो व्यक्ति धर्म-संघ में है और यदि वह अपने इन्द्र ने कहा--"महाराज! आप प्रव्रजित हो रहे संघ की मर्यादाओं की अवहेलना या अस्वीकार करता हैं। इससे पूर्व क्या यह आपका कर्तव्य नहीं हो जाता है तो वह अपराधी समझा जाता है। राजनीति के क्षेत्र कि आप अपनी नगरी में सुरक्षा के समस्त साधनों को में. अपने-अपने गट के नियमों का अनादर या जुटाकर फिर अभिनिष्क्रमण करते?' . अस्वीकार अपराध माना जाता है और सामाजिक क्षेत्र राजर्षि नमि ने कहा-'ब्राह्मण! संसार का में समाज की पारस्परिक नीतियों की अवहेलना अपराध स्वरूप विचित्र-सा है। यहां बहुत बार मनुष्य 'मिथ्या- समझा जाता है। क्षेत्रों की भिन्नताओं के कारण दंड' का प्रयोग करते हैं। जो अपराधी होते हैं, वे छूट अपराधों के स्वरूप में भी भिन्नता आ जाती है। इसी जाते हैं और निरपराध व्यक्ति दंडित होते हैं। ऐसी प्रकार काल और व्यक्ति के आधार पर भी अपराध की स्थिति में सुरक्षा कैसी?' परिभाषा भिन्न-भिन्न होती है। यह आगमकालीन एक प्रसंग है। इसमें राजर्षि एक व्यक्ति छोटा या बड़ा अपराध करता है, नमि ने एक शाश्वत सत्य को अनावृत किया है। किंतु वह उतना वाक्पटु है कि अपने अपराध को अच्छाई और बुराई, अपराध और छिपाकर, दूसरे के सिर मढ़ देता है। दूसरा व्यक्ति पराध-ये सब आपेक्षिक तथ्य हैं। जहां अपेक्षा है, अपने बचाव में सक्षम नहीं है। फिर भी वह अपनेवहां व्यक्ति, क्षेत्र, काल और अपना मनोभाव उससे आप को निर्दोष घोषित करने के लिए अनेक प्रयत्न जुड़ जाते हैं। इस चतुर्विध संयोजन से एक सत्य को करता है परंतु वह सफल नहीं होता। इसका कारण स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 | जैन भारती अनेकांत विशेष . 147 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल यही नहीं कि अपराध करने वाला वाक्पटु है, परंतु इसको रोकना अत्यंत कठिन है। वह व्यक्ति यह परंतु उसके साथ एक शक्ति काम करती है, जो अपनी सोचता है कि जब मैं अत्यंत निर्दोष हूं, तब दंडित नहीं है, अपने आश्रय की है, जिससे कि वह उस क्यों होऊं? क्या यह मेरे स्वतंत्र चैतन्य का अनादर अपराध से छूट जाता है, और दूसरा व्यक्ति अपराध नहीं है? क्या मैं इस दंड को स्वीकार कर अपनी नहीं करने पर भी दंडित होता है, क्योंकि उसका क्लीवता नहीं दिखा रहा हूं? क्या मैं प्रतिकार करने में सहयोगी इतना प्रबल और शक्तिशाली नहीं है, तो असमर्थ हूं? क्या नेता ने मुझे अपराधी समझकर दंड इसका यह अर्थ हुआ कि अपराध को पोषण सहयोग से दिया है या मुझको अनपराधी समझते हुए भी किसी मिलता है। यदि सहयोग न हो तो अपराध अपनी मौत दूसरे व्यक्ति के अपराध को मुझ पर मढ़कर, उसको मर जाता है। वह पनप ही नहीं सकता। बचाने के लिए, मुझे दंडित किया है? क्या मेरे प्रति एक प्रश्न होता है कि अपराध-रहित व्यक्ति कोई ऐसा वातावरण बनाकर मुझे अपमानित करने का क दंडित क्यों होता है ? इसके अनेक कारण हैं। उनमें एक तो यह उपक्रम नहीं है? ऐसे ही अनेक प्रश्न उसके मन को कचोटते हैं और उसमें अव्यक्त विद्रोह की है-अपने-आप को खोकर भी दूसरे को प्रसन्न रखने - आग भभक उठती है, किंतु असहाय होने के कारण की मनोवृत्ति और दूसरा है बुराई के प्रतिकार हेतु साहस वह उस आग में तिल-तिल कर जलता है और तब का अभाव। ये दोनों कारण उसके सहजात नहीं हैं, तक जलता रहता है, जब तक कि उसे समाधान नहीं परिस्थिति से उत्पन्न होते हैं। वह सोचता है व्यवहार मिल जाता। का पालन जीवन का अनिवार्य अंग है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का जीवन व्यावहारिक भूमिकाओं पर चलता नन्द-उपनन्द है। व्यवहार की अपेक्षा कर वह मानसिक शांति बनाए भगवान बंभणगाम नगर में आए। गोशाला साथ नहीं रख सकता और जहां अशांति होती है, वहां उसके में था। वहां नन्द तथा उपनन्द दो भाई रहते थे। उस पदच्युत होने की आशंका बनी ही रहती है। वह ग्राम के दो पाडे (भाग) थे। एक भाग नन्द के अधीन करता है। उसमे अनेक व्यवहार था, दूसरा उपनन्द के। भगवान महावीर नन्द पाडे में उसकी विचारधारा से टकराते हैं, परंतु वह उनसे नन्त के परतु वह उनस नन्द के घर गए। नन्द ने भगवान को आहार आदि से अविचलित होते हुए, व्यवहार से समझौता करता प्रतिलाभित किया। गोशाला उपनन्द के पाडे मे उपनन्द है-यह उसकी सैद्धांतिक पराजय है, किंतु व्यावहारिक के घर गया और भिक्षा की याचना की। भिक्षा तैयार विजय है। इस विजय के आलोक में वह इतस्ततः मित्र नहीं थी। तब उपनन्द ने बासी चावल देने चाहे। बनाते हुए एक सुदर व्यावहारिक जीवन की पृष्ठभूमि गोशाला ने उन्हें लेने से इनकार कर दिया। उपनन्द को तैयार करता है और उसी पर बढ़ता चला जाता है। यह यह उचित नहीं लगा। उसने अपनी दासी से पद्धति एक में नहीं, सबमें मात्रा-भेद से पाई जाती है। कहा—'जा. त इन चावलों को उसी भिक्षक के ऊपर जब इसमें मात्रा का अतिरेक होता है, तब हम उसे डाल दे।' दासी ने वैसा ही किया। इस व्यवहार से चापलस कह देते हैं और जब उचित मात्रा का निर्वाह गोशाला कपित हो गया। आंखें लाल करता हआ वह नहीं होता, तब हम उसे उइंड कह देते हैं। मात्रा का बोला-'यदि मेरे धर्माचार्य का कोई तेज या तपस्या संतुलन व्यावहारिक जीवन का मर्यादा-सूत्र है, और का बल है तो इसका घर जलकर भस्म हो जाए।' पास इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। में ही एक वाणव्यंतर देव का आयतन था। देवता ने यह परंतु जब व्यक्ति दंडित होता है, तब उनके जाना। उसने सोचा, भगवान का तेज अन्यथा न हो। विचार विद्रोह करते हैं और वह अपराध या अपराधी उपनन्द का घर जल गया। घर वालों ने गोशाला को को अनावृत करने के लिए उतावला हो उठता है। इस बहुत बुरा-भला कहा, वह भयभीत होता हुआ भगवान आवेश का कभी-कभी अत्यंत दुखद अवसान होता है, के पास शीघ्र ही आ गया। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 148 . अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियति निषेध नहीं करते।' भगवान ने कहा—'तू संयम क्यों भगवान गोशाला के साथ 'सवर्ण खलय' ग्राम नहीं रखता? उपयुक्त स्थान को छोड़कर बाहर क्यों की ओर जा रहे थे। रास्ते में कई खाले 'खीर' बनाने बैठा रहता है?' का उपक्रम कर रहे थे। उनके पास गायों का दूध तथा चक्रवर्ती महावीर नए तंदुल थे। गोशाला ने यह देखा। उसने भगवान से सुरभिपुर के पास वाली गंगा नदी को पार कर कहा-'भगवन् ! आज यहीं भोजन करें। भगवान ने कहा—'यह खीर नहीं बनेगी। बर्तन फूट जाएगा और भगवान 'थूणाग' सन्निवेश की ओर आगे बढ़े। नदी के खीर जमीन पर गिर जाएगी।' गोशाला को भगवान के तट की चिकनी मिट्टी में भगवान के पैरों की रेखाएं वचन पर विश्वास नहीं हुआ। वह ग्वालों के पास गया उत्कीर्ण हुईं। पूष नामक सामुद्रिक शास्त्री ने रेखाओं और उनसे कहा-'तीन काल के ज्ञाता ने कहा है कि को देखकर सोचा-'यह चक्रवर्ती होगा। एकाकी है। खीर का यह पात्र फूट जाएगा। अतः तुम इसकी सुरक्षा मैं इसकी इस कुमार अवस्था में उपासना करूं| आगे के लिए प्रयत्न करो।' वालों ने पात्र को बांस के पत्रों चलकर यह सेवा मेरे लिए लाभप्रद होगी।' वह भगवान से बांधकर अग्नि पर चढ़ा दिया और उसमें बहुत-सारे के पास गया। भगवान प्रतिमा में स्थित थे। भगवान को चावल डाले। कुछ समय बाद अति चावलों से वह पात्र देखकर उसने सोचा-'मेरा ज्ञान निरर्थक है। क्या इन फूट गया। खीर नीचे गिर गई। वालों ने कुछ-कुछ रेखाओं से युक्त व्यक्ति अकिंचन श्रमण हो सकता है? आस्वाद लिया। गोशाला को कळ नहीं मिला। नियति चलो, ऐसी विद्या से मुझे क्या?' इतने में ही देवराज पर उसका विश्वास दृढ़ हो गया। इन्द्र वहां आए। भगवान की स्तवना कर पूष से कहा-'तुम लक्षण विद्या नहीं जानते। यह महात्मा गोशाला अपरिमित लक्षण वाला है। इसके आभ्यंतर लक्षण ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान महावीर भिन्न हैं। शास्त्रवाणी कभी झूठी नहीं होती। तुम्हारा चंपा नगरी में पधारे। तीसरा वर्षावास यहीं व्यतीत यह अनमान कि यह चक्रवर्ती होगा. सही है। यह करने का निश्चय कर लिया। भगवान सदा तपस्या को पण्यात्मा धर्म-तीर्थ का चक्रवर्ती है। देवेंद्र और नरेंद्रों से प्रधानता देते। इस वर्षावास में दो-दो मास की तपस्या पूजित है।' सामद्रिक शास्त्री पुष को संतोष हुआ। करने का निश्चय किया। तपस्या में ध्यान और ध्यान अपने ज्ञान की अविकलता पर उसे हर्ष हआ और वह में उत्कटुक आसन से भगवान स्थित थे। प्रथम दो मास भगवान के अतिशयों की मन-ही-मन प्रशंसा करता बीते। पारणा हुआ। दूसरे दो मास की तपस्या पूर्ण हुई। हआ आगे बढ़ चला। पारणा चंपा की बाहिरिका में किया। वहां से भगवान 'कालाय' सन्निवेश में पधारे। एक शून्य गृह में ठहरे। नौका में महावीर गोशाला साथ था। भगवान एकांत में जा ध्यान में लीन भगवान 'सुरभिपुर' ग्राम में पधारे। वहां गंगा हो गए। गोशाला द्वार पथ पर बैठ गया। उसी नगर का नगर का नदा का पार करन के लिए नदी को पार करने के लिए एक नौका में बैठे। अन्यान्य सिंह नामक श्रेष्ठी पत्र अपनी गोष्ठया दासी के साथ लोग भी उसमें बैठे। 'सिद्धयात्र' नामक नाविक नौका रमण करने वहां आया। सर्वप्रथम उसने शन्य ग्रह को खे रहा था। उस नौका में 'खेमलक' नामक व्यक्ति ध्यान से देखा कि कोई भीतर तो नहीं है। भगवान तथा शकुनशास्त्र का पारंगत विद्वान भी था। नौका चली। गोशाला उसे नहीं दिखे! गोशाला ने उन्हें क्रीड़ा करते खेमलक ने कहा—'शकुन के अनुसार नाव में देख लिया। जब वह रमण कर जाने लगा तब गोशाला बैठे हुए हम सब व्यक्तियों की मृत्यु होगी। किंतु हमारे ने कहा-'छीः-छीः!' सिंह को क्रोध आया। उसने मध्य में बैठे हुए इस महान ऋषि के प्रभाव से हम गोशाला को खूब पीटा। वह भगवान के पास गया और जीवित रह सकेंगे।' नौका कुछ आगे बढ़ी। इधर देव कहा-'भगवन! लोग मुझे पीटते हैं, आप उसका नागकुमार के राजा सुन्द्रष्टा ने भगवान को नौका में बैठे स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 | अनेकांत विशेष.149 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए देखा। पूर्वजन्म का वैर उभर आया। उसने भगवान नौका को उलटना चाहा, परंतु उसका प्रयत्न सफल से बदला लेना चाहा। (पूर्वजन्म में यह नागकुमार एक नहीं हुआ। कंबल संबल नामक नागकुमार देव वहां सिंह था और भगवान ने अपने पूर्वजन्म में जब वासुदेव आए। सुन्द्रष्टा को उपसर्ग करने से रोका। सविधि नदी थे, तब उस सिंह को मारा था।) आवेग बढ़ा। को पार कर भगवान नौका से उतरे। ईर्यापथ का नागकुमार देव ने नदी में संवर्तक वायु की विकुर्वणा कर प्रतिक्रमण कर आगे चले। फार्म-4 (नियम 8 देखिए) 1. प्रकाशन स्थान : गंगाशहर, बीकानेर 2. प्रकाशन अवधि : मासिक 3. मुद्रक का नाम क्या भारतीय नागरिक है : दीपचन्द सांखला : हां : सांखला प्रिण्टर्स, सुगन निवास चन्दनसागर, बीकानेर पता 4. प्रकाशक का नाम क्या भारतीय नागरिक है पता : भंवरलाल सिंघी : हां : जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा शाखा कार्यालय तेरापंथी भवन, गंगाशहर 334401 (बीकानेर) राजस्थान 5. संपादक का नाम .. क्या भारतीय नागरिक है पता : शुभू पटवा : हां : भीनासर, बीकानेर 6. उन व्यक्तियों के नाम व पते जो : जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा समाचार पत्रों के स्वामी हों तथा 3, पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट, कोलकाता-1 जो समस्त पत्रों के एक प्रतिशत से अधिक के साझेदार या हिस्सेदार हों। मैं भंवरलाल सिंघी एतदद्वारा घोषित करता हूं कि मेरी अधिकतम जानकारी एवं विश्वास के अनुसार ऊपर दिए गए विवरण सत्य हैं। भंवरलाल सिंघी प्रकाशक के हस्ताक्षर म्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 150. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भारती, मार्च-मई (संयुक्तांक), 2002 - भारत सरकार पं. सं. : 2643/57- डाक पं. सं. : आर जे/डब्ल्यू आर /11/48/2000 जो धर्म हमारे दैनंदिन व्यवहार को प्रभावित नहीं कर सकता, उसका जीवन के लिए कोई लाभ नहीं। -आचार्य तुलसी श्रद्धा अंधविश्वास नहीं है, पवित्र चेतना का विकास है, शक्ति का अजस्र और अक्षय स्रोत है। -आचार्य महाप्रज्ञ भावशुद्धि उत्कृष्ट धर्म है, उसके द्वारा आचरण शुद्ध होता है, शुद्ध आचार चित्त के भावों का शोधन करता है। -युवाचार्य महाश्रमण मर्यादा समवसरण 138वांमर्यादामही HI19 फरवरी 2002 पदयानरराज ख्यासमिति करतीहा महासभा के निवर्तमान अध्यक्ष श्री भंवरलाल डागा से श्रद्धानिष्ठ श्रावक स्व. घीसूलालजी का अलंकरण स्वीकारते हुए उनके सुपुत्र श्री पुखराजजी परमार जीवन की सफलता का सबसे बड़ा सूत्र है-आस्था। यदि आस्था और श्रद्धा केंद्रित है, गहरी है तो सफलता मिल सकती है। यदि आस्था विकेंद्रित है, बिखरी हुई है तो सफलता नहीं मिल सकती। -आचार्य महाप्रज्ञ शुभकामनाओं के साथ प्रकाश ज्वैलार्स 32, नारायणप्पा निकेतन गली, पुराना वाशरमैन पेट, चैन्नई-21 फोन : (0) 5954765, (R) 5957612 भँवरलाल सिंघी, जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, 3, पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट, कोलकाता-1 के लिए जैन भारती कार्यालय, गंगाशहर, बीकानेर (राज.) से प्रकाशित एवं सांखला प्रिण्टर्स, बीकानेर द्वारा मुद्रित।