Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ वस्तु को निर्धर्मक होने के कारण अवाच्य कहेंगे। यह उदाहरणतः जैन तर्कभाषा, प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, 'स्यात् अवक्तव्यम्' नाम का चौथा भंग है। इससे भी स्याद्वादमंजरी और षट्दर्शन समुच्चय इत्यादि अवक्तव्यता अधिक जटिल वह स्थिति है जबकि हम वस्तु को प्रथम की यह व्याख्या करते हैं कि 'अस्ति और नास्ति' के युगपत् भंग के रूप में मानते हों, किंतु फिर भी उसे कह नहीं अर्थात् एक साथ लागू होने से अवक्तव्यता उत्पन्न सकते, क्योंकि वस्तु 'P'. धर्मक होने पर भी वक्तव्यता की होती है। सीमा में नहीं आती, यह पांचवां भंग है-'स्यात् घटः जैन सिद्धांत के अनुसार एक शब्द एक ही धर्म को अस्ति च अवक्तव्यम् च'। जटिलता की दृष्टि से इसके बता सकता है। अतः अस्ति और नास्ति की जटिलता को अनंतर छठा भंग आता है-'स्यात् घटः नास्ति च शब्द के द्वारा नहीं बताया जा सकता। इसलिए चतुर्थ भंग में अवक्तव्यम् च । और अंत में सबसे अधिक जटिल सातवां जब हम अस्ति और नास्ति को एक साथ बताते हैं तो भाषा भंग आता है जो तीसरे भंग के समान अपने से पूर्ववर्ती दो असफल हो जाती है और अवक्तव्यता फलित होती है। वक्तव्यों का जोड़ है। अर्थात्—'स्यात् घटः अस्ति च सामान्यतः यही स्वीकार किया जाता है और जैन दर्शन की नास्ति च अवक्तव्यम् च'। इस प्रकार हमें सात भंगों में आलोचना करने वाले वेदांती और अन्य दार्शनिक भी इसी पूर्ण समरूपता दिखाई देगी। प्रथम तीन भंगों के अंतिम व्याख्या को स्वीकार करते हैं। वेदांत सूत्र 2 12 13 3 (न तीन भंग मानो दर्पण में पड़ने वाले प्रतिबिंब हैं और चौथा एकस्मिन् नसंभवात) पर भावदीपिका टीका में इसी मत का भंग अवक्तव्यता की इन दोनों त्रैतों के बीच विभाजक रेखा समर्थन है। अवक्तव्यता की इस व्याख्या में तार्किक दोष है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि स्यात् अवक्तव्य है। जिन्हें केवल स्याद्वाद पर एक निबंध लिखकर बतलाने नाम के चौथे भंग को सप्तभंगी के ठीक मध्य में क्यों रखा का मेरा विचार है। बी.के. मतिलाल ने (Central Phiगया और इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सात ही losophy of Jainism, P. 49 में) कहा है कि शून्यवादी भंग अन्योन्य-व्यावर्तक होकर समस्त विकल्पों को अपने तृतीय विकल्पाभाव के नियम (Law of Excluded में कैसे समाहित कर लेते हैं। यह योजना निम्न तालिका Middle) (तृ. वि. नि.) को स्वीकार नहीं करते और द्वारा आसानी से समझी जा सकती है-- अवक्तव्यता की व्याख्या इसी प्रकार करते हैं, जबकि जैन वस्तु का स्वरूप अनेकांतवाद के अनुसार चौथे भंग को बनाते समय अविरोध के नियम (Law of non-contradiction) (अ.वि.नि.) वस्तु धर्मयुक्त है वस्तु वस्तु धर्मयुक्त है को स्वीकार नहीं करते। इसका यह अर्थ हुआ कि मतिलाल तथा वक्तव्य है निर्धर्मक है किंतु वक्तव्य नहीं है भी अवक्तव्यता की वही जैन व्याख्या स्वीकार करते हैं जो सामान्यतः प्रचलित है। इस प्रकार हमारे मत के विरोध में यद्यपि बहुमत है तथापि यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि घटोऽस्ति घटोनास्ति घटोऽस्ति (घटोऽवक्तव्यः सप्तभंगी तरंगिणी जैसे ग्रंथ 'स्याद् अवक्तव्यं' को 'अस्ति नास्ति च न अस्ति न नास्ति उभय विलक्षण' बतलाकर हमारे द्वारा की गई च नास्ति) व्याख्या का सामान्यतः समर्थन करते हैं। प्रचलित मत में जो तार्किक दोष हैं, उनके रहते और इस समर्थन के बल पर यह कहा जा सकता है कि हमारे द्वारा की गई व्याख्या एक घटोऽस्ति घटोनास्ति घटोऽस्ति नास्ति च । गंभीर विकल्प प्रस्तुत करती है। हमारे द्वारा की गई व्याख्या चाहे कितनी भी एक अन्य बिंदु भी ऐसा है जिसे समझने पर हमारी तर्कसंगत क्यों न हो, किंतु तब तक उसे प्रामाणिक नहीं व्याख्या और भी पुष्ट होती है। हमारी व्याख्या में यह भाव माना जा सकता जब तक वह शास्त्रों के उद्धरणों से समर्थित अंतर्निहित है कि जैनों के अनुसार एक ही समय में दो न हो। यह विचित्र बात है कि स्वयं जैन दार्शनिक परस्पर विरोधी धर्म वस्तु में रह सकते हैं। शंकराचार्य ने अवक्तव्यता की व्याख्या नहीं कर पाए और इसीलिए उनके इस मत को उपहासास्पद बताया है और जैन दार्शनिकों की द्वारा दी गई व्याख्या से हमारी व्याख्या मेल नहीं खाती। बुद्धिमत्ता पर प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है। हम अपना स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 । अनेकांत विशेष.33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152