Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 131
________________ धर्मात्मक है, क्योंकि अर्पित-अर्पणा अर्थात् अपेक्षा विशेष से और अनर्पित अनर्पणा अर्थात् अपेक्षांतर से विरोधी स्वरूप सिद्ध होता है। - परस्पर विरुद्ध, किंतु प्रमाण सिद्ध धर्मों का समन्वय एक वस्तु में कैसे हो सकता है तथा विद्यमान अनेक धर्मों में से कभी एक का और कभी दूसरे का प्रतिपादन क्यों होता है, यही इस सूत्र में दर्शाया गया है— जिसे आचार्य अमृतचन्द ने निम्नांकित श्लोक में और अधिक स्पष्ट किया एकेनाकर्षयन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थान नेत्रमिव गोपी ।। (पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, 225) जिस प्रकार दधि मंथन करने वाली ग्वालिनी मधानी की रस्सी को एक हाथ से आकर्षित करती है, दूसरे से ढीली कर देती है और दोनों की क्रिया से दही से मक्खन बनाने की सिद्धि करती है, उसी प्रकार जिनवाणीरूपी ग्वालिनी सम्यक् दर्शन से तत्त्व स्वरूप को अपनी ओर खींचती है, सम्यक् ज्ञान से पदार्थ के भाव को ग्रहण करती है और दर्शन, ज्ञान की आचरण रूप क्रिया से अर्थात् सम्यक् चारित्र से परमात्मपद सिद्धि करती है। अनेकांत की चर्चा विस्तृत रूप से आचार्य समन्तभद्र तथा सिद्धसेन के ग्रंथों में उपलब्ध होती है। उनके ग्रंथों में अनेकांत शब्द भी उपलब्ध होता है। नयों के प्रसंग में आचार्य सिद्धसेन ने लिखा है— ण य तइओ अत्थि णओ ण य सम्मत्तं ण तेसु पडिपुण्णं । जेण दुवे एगंता विभज्नमाणा अणगंती ।। (सन्मति प्रकरण 1 / 14 ) इस गाथा की व्याख्या में लिखा है, मिथ्यापना और सम्यक्पना — ये दोनों विरुद्ध धर्म एक आश्रय में कैसे संभव हैं? इसका उत्तर देते हुए कहा गया- 'जब ये दोनों नय एक-दूसरे से निरपेक्ष होकर केवल स्व विषय को ही सद्रूप से समझने का आग्रह करते हैं, तब अपने-अपने ग्राह्य एक-एक अंश में संपूर्णता मान लेते हैं और इसीलिए ये मिथ्या रूप है, परंतु जब ये ही दोनों नय परस्पर सापेक्ष रूप से प्रवृत्त होते हैं— अर्थात् दूसरे प्रतिपक्षी नय का निरसन किए बिना उसके विषय में तटस्थ रहकर जब अपने वक्तव्य का प्रतिपादन करते हैं तब दोनों में सम्यकृपना आता है, क्योंकि ये दोनों नय एक-एक अंशग्राही होने पर भी एकदूसरे की अवगणना किए बिना अपने-अपने प्रदेश में प्रवर्तित 130 • अनेकांत विशेष Jain Education International होने से सापेक्ष हैं और इसीलिए दोनों यथार्थ हैं।' आप्तमीमांसा में भी लिखा है— निरपेक्षा नयो मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत । । अर्थात् निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं और सापेक्ष नय सम्यक् होते हैं। अनेकांत की अनेकांतरूपता— स्वामी समन्तभद्र ने अनेकांत को भी अनेकांतरूप कहा है। वे लिखते हैं अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । अनेकांतः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात् ॥ (अर जिन स्तवन, 18 ) अर्थात् अनेकांत भी प्रमाण और नय साधनों को लिए हुए अनेकांतस्वरूप है। वह प्रमाण की अपेक्षा से अनेकांतरूप है और विवक्षित नय की अपेक्षा से एकांतरूप है। यहां प्रश्न है कि जिस प्रकार जीवादि समस्त पदार्थ अनेकांतरूप हैं, क्या उसी प्रकार अनेकांत भी अनेकांतरूप है? इस प्रश्न का तात्पर्य यह है कि अनेकांत को सर्वथा अनेकांतरूप मानने पर अनेकांतवादी को स्व-मत हाि प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि अनेकांतवाद में सर्वथा नियम का त्याग है, अर्थात् किसी भी वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन करते समय सर्वथा शब्द का प्रयोग वर्जित है । उक्त प्रश्न के समाधान में आचार्य अकलंक ने 'तत्त्वार्थवार्तिक' में लिखा है— प्रमाण और नय की विवक्षा से भेद है। एकांत दो प्रकार का है— सम्यक् एकांत और मिथ्या एकांत अनेकांत भी सम्यक अनेकांत और मिथ्या अनेकांत के भेद से दो प्रकार का है। प्रमाण के द्वारा निरूपित वस्तु के एक देश को हेतु विशेष के सामर्थ्य की अपेक्षा से ग्रहण करने वाला सम्यक् एकांत है। एक धर्म क सर्वथा (एकांत रूप से) अवधारण करके अन्य धर्मों का निराकरण करने वाला मिथ्या एकांत है। एक वस्तु में युक्ति और आगम से अविरुद्ध अनेक विरोधी धर्मों को ग्रहण करने वाला सम्यक् अनेकांत है तथा वस्तु को तत् तत् आदि स्वभाव से शून्य कहकर उसमें अनेक धर्मों की मिथ्या कल्पना करने वाला अर्थशून्य वाग्विलास मिथ्या अनेकांत है। सम्यक एकांत नय कहलाता है तथा सम्यक अनेकांत प्रमाण । अखंडित चित्रण रूप ज्ञान को ही आगम में प्रमाण शब्द का वाच्य बनाया गया है, क्योंकि इसमें कोई संशय या स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती For Private & Personal Use Only मार्च - मई, 2002 www.jainelibrary.org

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