Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 17
________________ दा साम्यवादी समाज-रचना की प्रकल्पना करते रहे, अब तक सामंजस्य की प्रणाली का दार्शनिक आधार है अनेकांत । दोनों के सपने साकार नहीं हुए। न अहिंसक समाज की उसके अनुसार कोई भी वस्तु सर्वथा सदृश नहीं है और कोई रचना हुई, न साम्यवादी समाज अपने यौवन में आ सका। भी वस्तु सर्वथा विसदृश नहीं है। एक सामान्य गुण सबको इसका हेतु यह भाव की तरतमता है अथवा एकांतवादी सदृश बनाता है और विशेष गुण उन्हें विसदृश बना रहा है। दृष्टिकोण है। यदि हम उक्त प्रकल्पनाओं को एकांतवादी न समानता का ऐकांतिक आग्रह उपयोगिता को समाप्त कर बनाएं तो नए समाज की रचना हो सकती है। देता है। उस स्थिति में व्यक्तिगत विशेषताओं का उपयोग मनुष्य में स्वभावतः वैयक्तिक स्वार्थ और सुविधा के नहीं हो पाता। असमानता का ऐकांतिक आग्रह वस्तु की प्रति आकर्षण है। उसे केवल सामुदायिकता के बंधन में मौलिकता को विनष्ट कर देता है, इसलिए अनेकांत की यह बांधने का प्रयत्न सफल नहीं हो सकता। अनेकांत दृष्टि के घोषणा रही - अनुसार वैयक्तिकता और सामुदायिकता दोनों में संतुलन वस्तु कथंचित सदश है—किसी अपेक्षा से सब स्थापित कर साम्यवाद की धारा को गतिशील बनाया जा वस्तएं समान हैं। सकता है। वस्तु कथंचित विसदृश है-किसी अपेक्षा से सब व्यक्ति-व्यक्ति में भावात्मक तरतमता है। कुछ वस्तुएं असमान हैं। व्यक्तियों का आवेश उपशांत होता है, कुछ व्यक्तियों का सदृशता के आधार पर एकता को पुष्ट कर सकते हैं। आवेश बहुत तीव्र होता है, इसलिए केवल हृदय-परिवर्तन के । विसदृशता के आधार पर व्यक्ति की विशेषताओं का आधार पर अहिंसक समाज की रचना नहीं की जा सकती। उपयोग कर सकते हैं। इसलिए समानता और केवल हृदय-परिवर्तन एकांतवादी दृष्टिकोण है। केवल असमानता-दोनों की सीमा का बोध करना जरूरी है। दंडशक्ति भी एकांतवादी दृष्टिकोण है। हृदय-परिवर्तन और यांत्रिक समानता का आग्रह राष्ट्र दंडशक्ति–दोनों के संतुलित को योग्य प्रतिभाओं से वंचित कर योग के आधार पर अहिंसक समाज की रचना की जा सकती आर्थिक दौड़ ने उपभोग की जो देता है। असमानता का एकांगी है। यह अनेकांतवादी दृष्टिकोण आकांक्षा पैदा की है, उससे गरीबी आग्रह राष्ट्र की अखंडता को घटने के बजाय बढ़ रही है। आर्थिक खंडित कर देता है। इसलिए संपदा कुछेक राष्ट्रों और कुछेक असमानता और समानता में अनेकांत और लोकतंत्र व्यक्तियों तक सिमट रही है। यह सामंजस्य स्थापित करने का दर्शन तारतम्य मनुष्य की प्रकृति सब विकास के प्रति होने वाले विकसित होना चाहिए। एकता का है। रुचि की भिन्नता है। सबके एकांगी दृष्टिकोण का परिणाम है। सूत्र एक भूखंड है। किसी एक विचार भी समान नहीं हैं। आचार यदि अर्थनीति के केंद्र में मनुष्य हो भूखंड में रहने वाले नागरिक क्षेत्र भी सबका एक जैसा नहीं है। और उसका उपयोग आर्थिक की दृष्टि से समान हैं, इसलिए अनेक भाषाएं, अनेक संप्रदाय, साम्राज्य के लिए न किया जाए तो रोटी, कपड़ा, मकान आदि-आदि इस बहुविध अनेकता को एकता के एक संतुलित अर्थनीति की कल्पना मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है। मनुष्य निरपेक्ष सूत्र में पिरोए रखने का लोकतंत्र के लिए उनमें भेद-रेखा नहीं अर्थनीति की मकड़ी अपने ही जाल में का एक सिद्धांत है-मौलिक फंसी हुई है। एकांगी या निरपेक्ष खींची जा सकती। सबको विकास अधिकारों की समानता। दृष्टिकोण द्वारा कभी उसे बाहर नहीं करने का समान अवसर है। इसी असमानता के आधार पर निकाला जा सकता। आधार पर लोकतंत्र में हर व्यक्ति पृथक्करण की नीति का नहीं, किंतु को सर्वोच्च सत्ता पर आसीन होने असमानता में समानता के सूत्र को काराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि खोजने का प्रयत्न है लोकतंत्र। बनने का अधिकार है। व्यक्तिगत विशेषता है, इस अनेकता और एकता में सामंजस्य किए बिना अधिकार का सीमांकन कर दिया। विकास की उच्च लोकतंत्र की प्रतिमा प्रतिष्ठित नहीं हो सकती। इस भूमिकाओं पर वे ही व्यक्ति जा सकते हैं, जिनमें बौद्धिक, HHHHHHHHHHHHHHHH H 16. अनेकांत विशेष EL स्वर्ण जयंती वर्ष । जैन भारती मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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